Book Title: Aacharya Shree Tulsi
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 122
________________ प्राचार्यश्री तुलस मारूढ़ हो गई है और सर्वत्र भोग और भ्रष्टाचार का ही वातावरण दृष्टिगोचर होता है । यह स्पिति किसी भी समाज के लिए बड़ी दयनीय है। इस दुरवस्था से मुक्ति के लिये ही प्राचार्यश्री में जनता में अणुवत चक्र प्रवर्तन का निश्चय किया । यह अणुवत ही वस्तुतः तेरापथ का व्यावहारिक रूप है । इस 'प्रणयत शब्द में अणु का अर्थ है-सबसे छोटा और व्रत का अर्थ है-वचन-दा सपाल्प । जब व्यक्ति इस व्रत को ग्रहण करेगा तो उससे यही अभिप्रेत होगा कि उसने अन्तिम मजिल पर पहुँचने के लिए पहली सीढी पर पैर रख दिया है। इस अणुव्रत के विभिन्न रूप हो सकते हैं और ये सब रूप पूर्णता के हो प्रारम्भक बिन्दु हैं । प्राचार्यश्री तुलसी ने इसी अणुव्रत को देश के मुदूर भागों तक पहुंचाने के लिए अपने शिष्यो को माज से बारह वर्ष पूर्व प्रादेश दिया था। तब से लेकर मब तक ये शिष्य शिमला से मद्रास तथा बगाल से कन्छ तक संकड़ों गांवों और दाहरों मे पंदल पहुँचकर मणुव्रत की दुन्दु भी बजा चुके हैं। इस अवधि मे प्राचार्यश्री ने भी अणुव्रत के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जो प्रत्यन्त प्रायासकर एवं दीर्घ यात्राएं की हैं, वे उनके सूर्य की तरह विराम प्रम की शानदार एवं अविस्मरणीय प्रतीक है । राजस्थान के धापर गांव से उन्होने अपनी अणुव्रत-यात्रा का प्रारम्भ किया। उसके बाद वे जयपुर माये पौर वहाँ से राजधानी दिल्ली। दिल्ली से उन्होने पदल-ही पैदरा पजाब में भिवानी. होमी, सगरूर, लुधियाना, रोपड़ पौर पम्बाला की यात्रा की। इसके बाद राजस्थान होते हुए दे चम्बई, पना मोर हैदराबाद के समीप तक गए। वहां से लौटकर उन्होने मध्यभारत के विभिन्न स्थानों तथा राजस्थान की पन । यात्रा की। इसी प्रकार उन्होने उत्तरप्रदेश, बिहार मौर गास के लम्बै यात्रा पच सय किये। भारत के प्राध्यात्मिक स्रोत भावार्ययो तुलसी को ये यात्राएं चरित्र-निर्माण के क्षेत्र में अपना मभूतपूर्व स्यान रखती हैं। उनकी सुलना अनतिकता के रिम निरन्तर जारी धर्मयों से की जा सकती है। अपने शिष्यों समेत स्वयं यह महान एवं पविराम थम करके प्राचार्यश्री तुमसी ने समस्त देश में शान्ति एवं कल्याण का एक ऐगा पवन प्रवाहित किया है, जिसमी पोतरता जनमानस को कर रही है मौर

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