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प्रथम दर्शन और उसके बाद
श्री सत्यदेव विद्यालंकार ये प्रथम दर्शन में कभी भूम नहीं सकता। गरस्थान के कछ स्थानों का दौरा करने के बाद मैं जयपुर पगा। उन दिनों जयपुर के न गमाज में कुछ गामाजिक संघर्ष चम रहा था। जयपुर रचने पर उसके सारे ने कुछ जार. कारी प्राप्त करने की इच्छा स्वाभाविक धी। जैन समाज के साथ मेरा बहरा पुराना सम्बन्ध था । अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभा के प्रपानमत्री लाला प्रसादीलालजी पाटनी, कई वर्ष हुए, 'जन-दण्डनम्' नामक पुस्तक लेकर मेरे पास प्राये । पुस्तक में जैन समाज पर कुछ गहित प्राक्षेप क्येि गए थे। उनके कारण वे उसको सरकार द्वारा जब्त करवाना चाहते थे। मेरे प्रयल में उनका वह कार्य हो गया। इस साधारण-सी घटना के कारण मेरा अखिल भारतीय दिगम्बर महासभा के माध्यम से जन समाज के साथ सम्बन्ध स्थापित हरा और पाटनीजी के अनुग्रह से वह निरन्तर बढ़ता ही चला गया। इसी कारण उस सघर्ष के बारे में मेरे हृदय में जिज्ञासा पंदा हुई।
मैंने एक मित्र से उसका कारण पूछा ; वे कुछ उदासीन भाव से वोस कि प्रापको इसमें क्या दिलचस्पी है । मैंने बिनोद में उत्तर दिया कि पत्रकार के लिए हर विषय मे रचि रखनी यावश्यक है। इस पर भी उन्होंने मुझे टालना हो चाहा । कुछ आग्रह करने पर उन्होने कहा कि जैन समाज के विभिन्न तम्त्रदायो मे बहुत पुराना सघर्ष चला माता है । दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों मे तो फौजदारी तथा मुकदमेबाजी तक का लम्बा सिलासला कई वर्षों तक जारी रहा । इसी प्रकार इन सम्प्रदायों का स्थानकवासियो तथा तेरापथियों के साथ पोर उनका आपस में भी मेल नहीं बैटता । यहाँ तेरापंथ-सम्प्रदाय के प्राचार्यश्री तुलसी का चातुमास चल रहा है और उनके प्रवचनों के प्रभाव के कारण दूसरे सम्प्रदायों के लोग उनके प्रति ईप्या करने लगे हैं। उनका प्रापस वा पुराना वर नये सिरे से जाग उठा है।