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चरैवेति परवेति को साकार प्रतिमा
६७ पारगत हो गए कि उन्होने अन्य न साधुषों का प्रध्यापन प्रारम्भ कर दिया । उनकी यह शान-यात्रा वन अपने लिए नहीं, अपितु दूमरो के लिए भी थी। निरन्तर श्रम के परिणामस्वरूप वे स्वयं तो मस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित होहो गए, मपित उन्होंने एक ऐमी शिष्य-परम्परा की स्थापना भी की, जिन्होंने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसाधारग उन्नति को है। उनमें से मनेक प्रसिद्ध दार्शनिक, स्यातनामा लेखक, श्रेष्ठ कवि तथा सस्कृत पोर प्राकृत के प्रकाण्ड उभट विद्वान् है।
प्राचार्यश्री की स्मृति शक्ति तो प्रद्भुत एवं सहजयादी है ही, परन्तु उनकी जिल्हा पर साक्षात् सरस्वती के रूप मे जो बीस हजार श्लोक विद्यमान है, वे उठते-बैठने निरन्तर उनके धम-साध्य पारायण का ही परिणाम है । उनमें वो कवित्व मोर कुशल वक्तृत्व प्रकट हुपा है, उसके पीछे श्रम की कितनी शक्ति छिपी है, इसका अनुमान सहन हो नहीं लगाया जा सकता । ब्रह्मा महतं से लेकर रात्रि के दस बजे तक का उनका समस्त समय मानार्जन और ज्ञान-दान मे ही बोदता है। भगवान् महावोर के 'एक क्षण को भी मथं न गंवापो' के माद को बाहोने साक्षात् अपने जीवन में उतारा है। स्वयं की चिन्ता न कर सदा दूसरों की चिन्ता की है। वे प्राय महा रते हैं कि 'दूमरों को समय देना अपने को समय देने के समान है। मैं अपने को दूमरों से भिन्न नहीं मानता।' घिस पुपरी समय और पम के प्रति यह भावना हो पर जो स्वय ज्ञान का गोमुख होकर जान से वाहवो महा रहा हो; उससे अधिक 'परवति' को सायंक करने वाला कौन है ? उपदेप्टा इन्द्र को कभी स्वप्न भी नहीं हपागा कि किसी काल में एक ऐमा महापुष इस पृथ्वी पर जन्म लेगा जो उसका मूर्तिमन्त उपवेग होगा। सर्वतः प्रपणो सम्प्रदाय
मापारंपी गुलसी के तेरापया पाचायव महा करने से पूर्व, अधिकार साध्वियो बहा पषिक शिक्षित नहीं पी। यह भाचार्य धो गुनसो हो पे, निम्होने उसके मदर जान रोप जगाया । यि समय होने साथियों का रिसारम्भ किया पाठोबत तरह जिमाएं ी; परन भाज उनको गम्मा दोमो से अधिक पौर विभिन्न विषयों का अध्ययन कर रही है। खना