________________
तो क्यों?
श्री अक्षयकुमार जैन सम्पादक, नवभारत टाइम्स, रिल्लो
बड़े-बड़े प्राकपंक नेत्र, उन्नत ललाट, श्वेत चादर से लिपटे एक स्वस्थ मोर पवित्र मनि के रूप में जिस साधु के दर्शन दिल्ली में ही दस-बारह वर्ष पहले मुझे हुए, उन्हें भूलना सहज नहीं है। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा तेज मोर प्राचीन साधुता है। भारत में साधु-संन्यासी सदा से समादत रहे हैं। बिना इस भेदभाव के कि कौन साधु किस धर्म अथवा सम्प्रदाय का है। हमारे देश में त्यागियों के प्रति एक विशेष थला रही है। ऐसे बहुत कम भारतीय होगे जो इस भाव से बचे हुए हों।
अडानन्द बाजार में प्राचार्यश्री तुलसी के प्रथम दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हमा। उस समय मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि उप्र मे बहत अधिक बड़े न होकर भी प्राचार्य पद प्राप्त करने वाले तुलसीगणो जहाँ जा रहे हैं, वहाँ पर एक विशेप जागृति उत्पन्न होती है तो क्यो ?
भक्तों की बढ़ी भारी भीड़ दो। फिर भी मुझे प्राचार्यश्री के पास जाकर कुछ मिनट बाउचीत करने का सुअवसर मिला। जो गना था कि मावार्य तुलसी मन्य साधुनों से कुछ भिन्न हैं. यह बात सच दिखाई दी। तेरापप सम्प्रदाय के छोटे-बड़े सभी लोग उनके भक्त है. उनसे बंधे है, किन्तु मेरी धारणा है कि प्राचार्य तुलसी सम्प्रदाय से ऊपर हैं । सम्चे साधु कोताह वे सिंगो पमं विप से नहीं है। उनका प्रणुवन-पान्योलन पायद इसीलिए तेरापय अपवा जन समाज में शामित न रहार भारतीय समाज पढेच रहा है। __गत कुछ वर्षों में प्राचारधी सुमसी के विचार और उनका प्राचार्वाद प्राप्त समानो यान का मामोमन धीरे-धीरे राष्ट्रपति भवन से लेकर छोटे-छोटे गायों वा यस्ता पा रहा है।