________________
मेरा सम्पर्क
का० यशपाल
लाहौर-पड्यन्त्र के शहीद सुखदेव और मैं लाहौर के नेशनल कालेज में सहपाठी थे। एक दिन लाहौर जिला-कचहरी के समीप हमे दो श्वेतामर बन साधु सामने से पाते दिखाई दिये । हम दोनो ने मन्त्रणा की कि इन साधुओं के अहिंसा-व्रत की परीक्षा की जाए। हम उन्हें देखकर बहुत जोर से हंस पड़े। सुखदेव ने उनकी मोर सकेत करके कह दिया, "देखो तो इनका पासा !" उत्तर में हमे जो श्रोध-भरी गालियां सुनने को मिली, उससे उस प्रकार साधुनों के प्रति हमारी प्रथक्षा, गहरी विरक्ति मे बदल गई।
मेरी प्रवृत्ति किसी भी सम्प्रदाय के अध्यात्म की पोर नहीं है। कारण यह है कि मैं इहलोक को पाथिव परिस्थितियो मोर समाज को जीवन-व्यवस्था स स्वतन्त्र मनुष्य को, इस जगत के प्रभावो से स्वतन्त्र चेतना में विश्वास नहीं कर सकता। मध्यात्म का मापार तप्यो से परखा जा सकने वाला मान नहा है। उमका भाधार केवल शाद-प्रमाण ही है। इसलिए मैं समाज का कल्याण माध्यात्मिक विश्वास में नहीं मान सकता । अध्यात्म में रति, मुझे मनुष्य का समाज से उन्मुश करने वाली और तथ्यों से भटकाने वाली स्वार्थ परक मारमराह ही जान पड़ती है। इसलिए प्रणवत-प्रान्दोलन के लक्ष्यो मे, सामाधिक बार राजनीतिक उन्नति की अपेक्षा माध्यात्मिक उन्नति को महत्व देने की घोषणा ये, मुझे कुछ भी उत्साह नहीं हुमा था।
जनदर्शन का मुझे सभ्य परिचय नहीं है। काकवचन्याय' से ऐसा समझता हूँ किचन-दसन ब्रह्माण्ड और ससार का निमारण मोर नियमन करत वाली किमी दरको दावित में विश्वास नहीं करता। वह परमार मारमा मे बियाम करना है, मनिएन मुनियों और मावायो द्वारा माया. मिक उन्नति का मस्त देने मादोलन की बात मुझे बिल्कुल असगन मोर ६५ गाव पड़ो। ऐने मान्दोलन को पन मन्तब-चिन्तन की पारमाति