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मानावा पोपानारक ना
't पोकर गदर मत में हागए । मीनप्प पारा मानर पाखों में देख पाया है। मप्रगति ने मानग पनि को पासोतिरा भी किया है। दृष्टि की धमना की है।
फिर भी जागाह है, पर मानस पन्तर. मन मनी भी नहीं हिमा और पूजा को बाल विवाह मानर मोह भीदें,नि मापदाक्षिकता और जातीयता नीना पोर माम-ये सा उमे पो पूरी तरह सोहा है। धर्म मत पमा पचन हो, रात्र. नीति धौर माहिस्य में हो तो क्या बनरा विष पम्प माता है भने हो हम मनोक में परमाए पवा पुरु परासन करन ममें। उम सफलता पासा पर्य होगा, या मनुष्य अपनी मामा से हो हाप पी मनुष्यवा सापेक्ष हो मरती है, परन्तु मरे के लिए करने की कामना में, प्रपात 'स्व' को मोग करने की प्रति मे, मापेक्षता है भी, तो कमी-कम । यहा र पो गोल करना स्व को उठाना है।
मापार्यश्री तुलसी गणोर पाम जाने पाक मधमर मिना, चंगे हम मरप को हमने फिर से पहचाना हो। या कहें, उसकी पनि मे फिर से परिचय पाया हो। जब-जब भी उनसे मिलने से मोमाय हपा, तब तब यही अनुभव हुपा कि उनके भीतर एक ऐमी सात्यिक पति है जो मानवना वा फछ करने को पूरी ईमानदारी के साप भातर है। जो अपने पारों भोर फैनी मनास्था, कामरण हीनमा पोर मानवीयता को भस्म कर देना चाहती है। कला में सौन्दर्य के दर्शन
पहली में बहुन सक्षिप्त थी कि के भामह पर किहीं के साथ जाना पड़ा । जाकर देखता हूँ कि तुम-वेत वस्त्रधारी, मंझने पद के एकमेन प्राचार्य साधु मात्रियों से घिरे हमारे प्रणाम को मधुर माद मुस्कान से वीरार करते हुए पासीदि दे रहे हैं। गौर वर्ण, ज्योतिर्मय दीप्त नयन, मुख पर वित्ता का जहा गाम्भीयं नही, बल्कि प्रहणपोलता का तारस्य देखकर पाग्रह की पटता घुन-गुछ गई । यार नहीं पड़ता कि कुछ बहुत बात हुई हों; पर उनके सिप्य. शिष्याओं से कना-साधना के कुछ नमूने अवश्य देखें । सुन्दर हस्तलिपि, पात्रों पर चित्राकन : रामय या सदुपयोग तो पाश्री, साधुग्रो के निरालस्य का प्रमाण भी था । यह भी जाना कि साधु-दल शुष्कता था अनुमोदक नहीं है,