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तरुण तपस्वी प्राचार्यश्री तुलसी
मानव को देव नहीं, मानव बनाने का इनका गम्भीर प्रयत्न, बिना किसी फल प्रौर कोति की माकांक्षा के निरन्तर चलता है। इनको अपने जीवन पथवा सेवा के लिए कोई मार्थिक साधन नहीं जुटाने पड़ते। बिना किसी प्रतिद्वन्द्विता की भावना से प्रभावित हुए अपने कार्यों को रचनात्मक रूप देते रहते हैं। पद और प्रशसा की भावना से उपराम होकर ये मानव की असहिष्णु हृदय भूमि को नैतिक हल से जोतते हैं । प्रेम और धर्म के बीजो को बोते हैं। शास्त्रों के निचुड़े हुए मकं से उन्हे सींचते हैं । क्षेत्र को तरह उसकी रखवाली करते हैं, यही उनके प्रस्तित्व भोर सफलता की कुंजी है। यही इस य का गुहातम इतिवृत्त है कि इतने थोडे काल में विज्ञान और विनाश की इस कसमसाती बेला में भी समाज मे इन्होने अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है।
नगरो मोर ग्रामो में घूम कर, छाया, पानी, शीत, प्रातप मादि यातनाएँ सहन कर लोक कल्याण करते हैं। जीवन की सफलता के भचूक मन्त्र इस पणुवत को इस महिमा के देवदूत ने एक सरल जामा पहना कर लोगों के सामने रखा। सुगन्धित द्रव्यों के धूम्रसमूह सा यह अनन्त प्रासमान में उठा मोर इहलोक भौर परलोक के द्वार पर प्रकाश डाला।
जर प्राचार्यश्री पद्मासन की तरह एक सुगम भासन में बैठते हैं तो उनके पारदर्शी ज्योति-विस्फारित नेत्रो से विशद प्रानन्द और नीरव शान्ति का स्रोत बहता है। उनकी वाणी में मिठास, मार्मिकता मोर सहन शान का एक प्रवाह-सा रहता है, जिसे सर्व साधारण भी सहज ही ग्रहण कर सकता है। जीवन को सुन्दर बनाने के लिए इनके पास पर्याप्त सामग्री है। __ मैं इतना कुछ जानते हुए भी इस धर्म के गद तत्वों को पार तक हृदयंगम नहीं कर सकी है, क्योंकि इन्होने मपने पापको इतना विद्याल बना लिया है कि लको जान सेना ही इनके प्रादों को सटीक समझ लेना है, क्योकि ये हो इनकी सत्यता के सागार प्रतीक हैं । वैसे तो सारे ही धर्म-पथ बड़े कटिन और काइ-खाबड़ है, परन्तु दम पथ के पधिक तो खाट की तीसो घार पर ही चलते है। पुरु के प्रति शिम्यों का पूर्ण मारम-समपंग पोर उनके व्यक्तित्व: इस तस्प तपस्वी के मादेशों में इस तरह समर जाते हैं, जैसे बृहत् साम का स्तुति-पाठ इन्द्र में समा जाता है।
एमाग की वेदी पर कमी का होम करने के बाद भी ये बडे कर्मठ है।