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तरुण तपस्वी आचार्यश्री तुलसी
श्रीमती दिनेशनन्दिनी डालमिया, एम०
जिनको हम इतनी निकटता से जानते हैं, उनके बारे में कुछ कहना उ ही कठिन है, जितना प्रसुप्त प्रज्ञा के द्वारा शक्ति को सीमाबद्ध करना । धाचाश्री तुलसी को बचपन मे जानती हैं। कई बार सोचा भी था कि सुविधा से उनके बारे में अपनी धनुभूतियाँ लिखूं, पर ऐसा कर नहीं पाई उनके व्यक्तित्व को जितनी निकटता से देखा, उतना हो निखरा हुदा या उच्च जमाने में वे इतने विख्यात न थे, किन्तु विलक्षण अवश्य थे। उनकी तपश्चर्या, मन औौर दारीर को अद्भुत शक्ति और माध्यात्मिकता के तत्त्वांकर गुरु की दिव्य दृष्टि से छिप न सके और वे इस जैन संघ के उत्तराधिकारी चुन लिये गए । इन्होंने प्राचीन मर्यादामों की रक्षा करते हुए, सम्पूर्ण व्यवस्था को मौलिक्ता का एक नया रूप दिया । सारे सघ को बल बुद्धि और शक्ति क इक्ट्ठा कर तपश्वर्या और प्रात्म-शुद्धि का सुगम मार्ग बतलाते सकी पंडा हुए, के बन्धनों को काटते हुए, शान्ति स्थापना के सकल्प से भागे बढ़े। जन-समूह ने इनका स्वागत किया और तब इनका सेवा क्षेत्र द्रोपदी के चोर की तप विस्तृत हो गया । प्राचार्यश्री तुलसी ने धार्मिक इतिहास की परम्पराम्रों पर हूँ बल नहीं दिया, बल्कि व्यक्ति और समय की मावश्यक्ताओं को समझ उसने मनुरूप ही प्रपने उपदेशो को मोडा : संघ के स्वतन्त्र व्यक्तित्व मोर वैशिष्ट् का निर्वाह करते हुए साम्प्रदायिक भेदों को हटाने का भगीरथ प्रयत्न किया । सत्य, अहिंसा, स्तेय, ब्रह्मचयं और परिग्रह को जीवन-व्यवहार की मूल भित्ति मानने वाले इस संघ के सूत्रधार के उपदेशो से जनता प्राश्वस्त हुई। राज के की इस far परिस्थिति में, जब सेवा का स्थान स्वार्थ ने वश्वास का सन्देह ने, स्नेह घोर श्रद्धा का स्थान घुणा ने ले लिया है, राज उन्होंने भगवान् महावीर की महिला नीति का हर व्यक्ति मे समन्वय करते हुए ये दृष्टिकोण से एक नई पृष्ठभूमि तैयार को ।