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प्राचार्यो तुलसी का एक सूत्र तुलसी पर मेरो घदा बढ़ती गई। वास्तव में विचारों के मतभेद से ही तो समाजों और वर्षों में इतना पार्थवय हुमा है । एक ही जाति के दो सदस्य जिस दिन से भिन्न मत अपना लेते हैं, तो मानो उसी दिन से उनका सब कुछ भिन्न होता चला जाता है। भिन्न माचार, भिन्न विचार, मिन्न भ्यवहार, भिन्न संस्कार, सब कुछ भिन्न । यहाँ तक कि सब तरह से अलग दिखना ही परम काम्य बन जाता है । मतभेद हुमा कि मनोभेद उसके पहले हो गया । मनोभेद से पक्ष उत्पन्न होता है और पक्ष पर बल देने के साथ-साथ उत्तरोत्तर माह की कट्टरता बढती लाती है। अन्त मे भाग्रह की अधिकता से एक दिन वह स्थिति आ जाती है, जब भिन्न मतावलम्बी की हर चीज से नफरत और उसके प्रति हमलावराना हख ही प्रपने मत के अस्तित्व की रक्षा का एकमात्र उपाय मालूम देता है।
मुझे जहाँ तक याद माता है, किसी भी विचारक ने इसके पूर्व यह बात इस तरह और इतने प्रभाव से नही कही । मत से स्वतन्त्रता की रक्षा को वासनीयता का हवा मे शोर है । जनतन्त्र के स्वस्थ विकास के लिए भी मतभेद भावश्यक बताया जाता है और व्यक्ति के व्यक्तित्व के निखार के लिए भी मतभेद रखना जरूरी समझा जाता है। बल्कि मतभेद का प्रयोजन न हो, तो भी मतभेद रखना फैशन की कोटि में पाने के कारण जरूरी माना जाता है। परिणाम यह है कि चाहे लोगों के दिल फट कर राई-काई क्यों न हो जायें, लेकिन प्रसूल के नाम पर मतभेद रखने से आप किसी को नहीं रोक सकते ।
यदि मुझे किसी एक चीज का नाम लेने को कहा जाए, जिसने मानवजाति का सबसे ज्यादा खून बहामा है और मानवता को सबसे ज्यादा माटों में घसीटने पर मजबूर किया है तो वह यही मतभेद है। इसी के कारण अलग धर्म, सम्प्रदाय, पथ, समाज प्रादि बने हैं, जिन्होने अपनो नट्टरता के प्रावेश में मतभेद को मामूल और समूल नष्ट कर डालना चाहा है। मतभेदों का निप. टारा जव मौखिक नहीं हो पाया तो तलवार की दलोल से उन्हें सुलझाने को कोशिशें की गई हैं। एक ने अपने मन की सच्चाई साबित करने के लिए कुर्बान होकर अपने मत को प्रमर मान लिया है, तो दूसरे ने अपने मन को श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अपने हाय सून से रंग कर अपने मत की जोत मान ली है। दुनिया का अधिकाश इतिहास इन्हीं मतभेदो पोर इनके सुलझाने के लिए