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भाचार्यश्री तुलसी का एक सूत्र लिए भी तो बनवाई होतो, जहाँ कभी-कभी उन्हें भी उतार कर रखा जा सकता।" मावायंधी के कहने का मतलब था कि साधु के लिए परिग्रह का प्रपंच नहीं करना चाहिए, अन्यथा यह उसमें लिप्त होकर उद्देश्य ही भूल
जाएगा।
मैं जिस पण्डाल में बैठा था, उसे श्रद्धालु श्रायकों ने रचि से सजाया था। धायक-समाज के वैभव का प्रदर्शन उसमे अभिप्रेत न रहने पर भी होता अवश्य था। निरन्तर परिसह की उपासना करने वालो का अपने अपरिग्ही साधुनों का प्रदर्शन करना और दाद देना मुझे खामा पाखण्ड लगने लगा। प्राचार्यश्री जितना-जितना अपरिग्रह की मर्यादा का व्याख्यान करते गए, उतना-उतना मुके वह सम्पन्न लोगो की दुरभिसन्धि मालूम होने लगा। हमारा परिग्रह मत देखो, हमारे साधु मों को देखो ! अहो ! प्रभावस्तापसाम ! भगले दिन के लिए भोजन तक सत्य नहीं करते । वस्त्र जो कुछ नितान्त मावश्यक है, वह ही अपने शरीर पर धारण करके चलते हैं। ये उपवाम, यह ब्रह्मचर्य, से सदश्य जीवों को हिंसा से बचाने के लिए बौधे गए मंझोके, यह तपस्या और यह भगवम का जवाब धररावत ! मुझे लगा कि अपने सम्प्रदाय के सेठों को लिप्सा पौर परिग्रह पर पर्दा डालने के लिए साधुपो की यह सारी चेष्टा है. जिसका पुरस्कार अनुयायियों के द्वारा जय-जयकार के रूप में दिया जा रहा है। जब भोर नहीं रहा गया तो मैंने वहीं बैठे-बैठे एक पत्र लिख कर प्राचायश्री को भिजवा दिया, जिसमे ऐसा ही कुछ बुखार उतारा गया था। अभया और हठ का भाव
भाचार्यधी से जब मैं अगले दिन प्रत्यक्ष मिला, तब तक अथवा और हठ का भाव मेरे मन पर से उतरा नहीं था। प्राचार्य श्री अणुव्रत-पान्दोलन के प्रवक कहे जाते हैं, इस पर अनेक इतर जन-सम्प्रदायों को ऐतराज रहा है। "अणुव्रत तो बहुत पहले से चले माते हैं। साधुमों के लिए अहिंसा, ब्रह्मवर्य, अपरिह मादि पच व्रतों का निविशेषतया पालन महानत कहलाता है और इन्हीं व्रतो का अणु (छोटा) किवा गृहस्यधर्मीय सुविधा-सस्करण प्रणव्रत है। फिर पाचार्ययो प्रणुव्रतों के प्रस्तक के ?" इस प्रकार की प्रापत्ति प्रजमर उठाई जाती रही है। प्राचार्यश्री के परिकर वालों को स्याल हुमा कि 'मणुक्त