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आचार्यश्री तुलसी का एक सूत्र
आचार्य धर्मेन्द्र
पाव
तीन वर्ष पूर्व सन् १९५९ में प्राचार्यश्री तुरसी प्रागग जाते हुए व पमारे। उस समय उनके प्रवचन सुनने का प्रवमर मुझे नो प्राप्त ह" पाचायंधी जिस तेगाय-मम्प्रदाय के प्राचार्य है, उसे उदानव-कात स्वकीय समाज में अनेक विरोधों पौर भदोहा सामना करना पस सम्प्रदाय में जब नई शाषा का प्रमय होता है तो उसके साथ ही वर मारकर का अवसर भी प्राता ही है। पूर्व समाज नये समाज को पूजन साम " पाला और प्रधामिक बताता है और नया समाज पहले समाज को या सड़ी-गली पौर नये जमाने के लिए अनुपयुक्त बताता है। बाद म. दूसरे को अनिवार्य मान कर साथ रहना रीस जाते हैं और विरोध उतना मुखर नही रह जाता, लेकिन मौन देप की गांठ पडी ही रह जाता है माचार्यश्री के जयपुर-मागमन के अवसर पर कही-कहीं उस पुरानी गार, पूजी खुल खुल पड़ती। विरोधी जितना निन्दा-प्रचार करते, उस पर प्रशंसक उनकी जय-जयकार करते । सम्पन्न लोगों को दुरभिसन्धि
इस सब निन्दा-स्तुति में क्तिना पूर्वाग्रह और कितना वस्तु विरोध है। " उत्सुकता से मैं भी एक दिन प्राचार्यश्रो वा प्रवचन सुनने के लिए पण्डाल - गया। पण्डाल मेरे निवासस्थान के पिछवाही बनाया गया था। भाषा का व्याख्यान त्याग की महत्ता और साधुनों के माचार पर हा ९ था: ".. किसी धनिक ने साधु-सेवा के लिए एक चातुर्मास विहार बार जिसे सापों को दिखा दिखा कर वह बता रहा था कि यहां महाराज रहेगे, यहाँ पुस्तके, यहाँ भोजन के पात्र और यहाँ यह, यहाँ यह । साप. देखभाल कर कहा कि एक पाच खानो की अलमारी हमारे पर महायता र