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प्राचार्यधी तुल साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करेगा।
प्रात्म-साक्षात्कार जीवन का मूल लक्ष्य है; जैसा कि श्री शंकराचार्य कहा है और जैसा कि हम भगवान श्री रमण महर्षि के जीवन में देखने है भगवान् श्री रमण ने अपने जीवन में और उसके द्वारा यह बताया है कि मात्र का वास्तविक प्रानन्द देहात्म-भाव का परित्याग करने से ही मिल सकता है यह विचार छूटना चाहिए कि मैं यह देह है । 'मैं देह नहीं हूँ इस का होता है-मैं न स्थल है, न सूक्ष्म है और न प्राकस्मिक हैं। 'म मात्मा हम मर्थ होता है मैं साक्षात् चतन्य हूँ, तुर्गय हूँ, जिसे जागति, स्वप्न मोर मयुष, अनुभव स्पर्श नहीं करते । यह 'साक्षी चतन्य' अथवा 'जीव साक्षी' सदा : साक्षी' के साथ सयुक्त है जो पर, शिव और गुरु है । प्रतः यदि मनुप्प मरन शुद्ध स्वरूप को पहचान ले तो फिर उसके लिए कोई अन्य नहीं रह जाती जिसे वह घोसा दे सके प्रयथा हानि पहुँचा सके। उस दशा में सब ए जाते हैं । इसी दशा का भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार वर्णन किया गुड़ाकेश, में मात्मा हूँ जो हर प्राणी के हृदय में निवास करता है। प्राणियों का मादि, मध्य भोर पन्त हूँ।' प्राचार-सेवन के महारत तास पवरण, मनन, निदिध्यासन के द्वारा प्रहकार-न्य अवस्था प्रमा ३. ब्रह्मास्मि की दगा प्राप्त होती है। महावत के पालन के लिए मानाया परा प्रतिपादित माग्रत प्रथम चरण होगे। ____माचार्यश्री तुलसी ने नैतिक जागति की भूमिका में ठीक हो जा. "मनुष्य कुरा काम करता है । फलस्वरूप उनके मन को मात हात प्राति का निवारण करने के लिए वह धर्म को करण लेता है । ६०. मा गिगिता है। फलस्वरूप उसे कुछ सुष मिलता है, दुरामा शान्ति मिलती है। किन्तु पुन: उसकी प्रगति गलत मागं पकावी है प्रा. पति जान होती है मौर पर धर्मकीरण जाता है।" प्रगल पोर पानिक सम्मान
निलिए है। पर मनुष्य एकदम निगारण है. वाम मोर दुख में आर 33 गस्ता है और गम एवं दुख को समय सगुनकर मरता है। यही कारण है fffer महसनाम में Hिet मुबम् धादिनाम विनाय है। निवांग हमारे मन रोगों का मोरया बदहजारोबही मना है-सोन पाना है।