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व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था
उससे मायिक दुव्यवस्था भी स्वतः सुत्ररती है और उसके फलस्वरूप सामाजिक दुर्व्यवस्था भी मिट जाती है ।
व्यक्ति के चरित्र और नैतिकता का उसकी अर्थव्यवस्था से गहरा सम्बन्ध 1 बुभुक्षितः किं न करोति पापम की उचित के अनुसार भूखा प्रादमी क्या पाप नहीं कर सकता ! इसके विपरीत किसी विचारक के इस कथन को भी कि संसार में हरएक मनुष्य की श्रावश्यकता भरने की पर्याप्त से अधिक पदार्थ हैं, पर एक भी व्यक्ति की प्राचा भरने को वह पर्याप्त है, ' हम दृष्टि से प्रोमल नही कर सकते । एक निर्धन निराशा से पीड़ित है तो दूसरा धनिक भाशा से । यही हमारी मयं व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना है । भगवान् महावीर ने भाषी घनन्वता बताते हुए बहा है। यदि सोने और चांदी के मला तुल्यमस्य पर्वत भी मनुष्य को उपलब्ध हो जायें तो भी उसकी तृष्णा नहीं मरती, क्योकि धन मसस्य है औौर तृष्णा माना की तरह प्रभ
गरीय कौन ?
विचारणीय यह है कि वास्तव में गरीब कौन है ? क्या गरीब ये है, जिनके पास पोटासा पत है ? नहीं। गरीब तो यथार्थ में वे हैं जो भौतिक दृष्टि से समुद्ध होते हुए भी तुष्णा से पीड़ित हैं। एक व्यक्ति के पास दस हजार रुपये हैं। वह चाहता है, बीस हजार हो जाएं तो माराम से जिन्दगी वट जाए। टूमरे के पास एक लाख रुपया है, वह भी चाहता है कि एक करोड़ हो जाए शान्ति से जीवन बीते। तीसरे के पास एक करोड़ रुपया है, वह भी चाहता है, दस करोड़ हो जाएं तो देश का बडा उद्योगपति बन जाऊं । भब देखना यह है कि गरीब कौन है? पहले व्यक्ति की दस हजार को गरीबी है, दूसरे की निन्यानवे लाख की मोर सोसरे दोनो रोड को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो वास्तव में तोगरा व्यक्ति हो अधिक गरीब है, क्योकि पहले की वृत्तियाँ जहाँ दम हजार के लिए, दूसरे को नियान सास के लिए तडपती है, वहाँ तोसरे की तो करोड़ के
1. There is enough for everyone's need but not everyone's greed.
५. मुवन्ज स्वरस उपध्या भयं सिया
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सासमा प्रणतया ।