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व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था भरणुवमो से सुसज्जित माधुनिक जैट रॉकेट मन्तरिक्ष की यात्रा को प्रस्तुत है दूसरी मोर भाचार्यश्री तुलसी का यह प्रणवत-मान्दोलन व्यक्ति-व्यक्ति के। माध्यम से हिसा, विषमता, शोपण, सम्रह प्रोर अनाचार के विरुद्ध हिंसा सदाचार, सहिष्णुता, अपरिग्रह और सदाचार की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नरतह। मानव और पशु तथा अन्य जीव जोधारगुनो मे जो एकमन्तर है, वह है उसकी शान शक्ति का। निसर्ग ने प्रन्यो की अपेक्षा मानव को ज्ञान-शक्ति का जो विपुल भण्डार सौंपा है, अपने इसी सामर्थ्य के कारण मानव सनातन काल से ही सष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी वना हुमा है। आज के विश्व मे जबकि एक मोर हिंसा और बर्बरता का दावानल दहक रहा है तो दूसरी ओर प्रतिसा और दशान्ति वो एक शीतल सरिता जन-मानस को उद्वेलित कर रही है। अब मात्र के मानव को यह तय करना है कि उसे हिंमा और दर्बरता के दावानल में भुलसना है अथवा अहिंसा और शाति की शीतल सरिता में स्नान करना है। तराजू के इन दो पलड़ो पर भसन्तुलित स्थिति में अाज विश्व रखा हुदा है और उसको बागडोर, इस तराजू की चोटी, उसी ज्ञान-शक्ति सम्पन्न मानव के हाथ मे है जो अपनी शान-सत्ता के कारण सष्टि का सिरमौर है। सर्वमान्य प्राचार-संहिता
प्राचार्यश्री तुलसी से मेरा थोड़ा ही सम्पर्क हुमा है, परन्तु वे जो कुछ करते रहे हैं और अणुव्रत का जो साहित्य प्रकाशित होता रहा है, उसे मैं ध्यान से देखता रहा हूँ। जैन साघुपो को त्याग-वृत्ति पर मेरी सदा से ही बडी श्रद्धा रही है। इस प्राचीन संस्कृति वाले देश में त्याग ही सर्वाधिक पूज्य रहा है और जन साधुमो का त्याग के क्षेत्र मे बडा ऊंचा स्थान है। फिर प्राचार्यश्री तुलसी और उनके साथी किसी धर्म के मकुचित दायरे में कैद भी नहीं हैं । मैं प्राचार्यश्री तुरसी के विवार, प्रतिभा और कार्य-प्रवीणता की सराहना क्येि विना नही रह सकता। उनका यह मणुव्रत-आन्दोलन किसी पक्ष विदोप का मान्दोलन न होकर समची मानव-जाति के अमिक विकास और उसके सदाचारी जीवन का, इन बनो के रूप में एक ऐसा अनुष्ठान है जिसे स्वीकार करने मात्र से भय, विषाद हिंसा, ईर्ष्या, विषमता जानी रहती है और सुख-शान्ति की स्थापना हो जाती है । मेरा विश्वास है, हिमा भले ही बर्बरता की चरम सीमा पर पच जाए,