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प्राचाबंधी तुलसी
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नहीं है, वह तो जनता का काम है ।
प्राचीन भारत में परिस्थितियाँ भिन्न थीं । जनता में धर्म-बुद्धि अधिक पी, परलोक से डर था, धर्माचार्य के नेतृत्व में श्रद्धा थी । प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के प्रनेक धर्माचार्य होते थे और जनता पर बड़ा प्रभाव था। शासन और धर्माचार्यों का परस्पर सहयोग था । दोनों मिलकर जनता को चरित्र भ्रंश से बचाने थे । वह परिस्थिति अब नहीं है । प्रश्न यह है-पत्र क्या हो ?
धर्माचार्यों के लिए स्वरिणम अवसर
परिस्थिति तो अवश्य बहुत बदल गई है; परन्तु स्मरण रहे कि हम लोग अपने-अपने धर्म को सनातन मानते हैं । हम लोग मानते हैं कि परिस्थिति के भिन्न होते हुए भी मानव-जीवन मे कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो सनातन हैं, जिनको स्वीकार किये बिना मनुष्य जीवन सफल नही हो सकता है, मनुष्य सुख प्राप्त नही कर सकता है । भारत में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों का जन्म हुआ । हर एक धर्म और सम्प्रदाय अपने तत्वों को सनातन मानता है और उनको हर एक परिस्थिति में उपयुक्त मानता है इन तत्वो का रहस्य हमारे धर्माचार्य हो जानते हैं, वे ही साधारण जनता में उनका प्रचार कर सकते हैं। भारत में जो-जो धर्म और सम्प्रदाय उत्पन्न हुए, वे सब भारत में आज भी किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है । उनको परम्पराए भी अधिकाश सुरक्षित हैं । इन धर्मों के रहस्य जानने याने धर्माचार्य धीर माधु-सन्यासी हमारे ही बीच हैं और जगह-जगह काम भी कर रहे हैं। हाँ, अब शासन से उनका सम्बन्ध नहीं है उना प्राचीनकाल में था । तथापि इन धर्मो का रहस्य जानने वाले जनता ही के बीच रहते हैं और जनता के नगत है। क्या हमको यह भाशा करने वा अधिकार नहीं है कि इस पर समय में जब के कारण जनता ग्रत्रिक पीडित है हमारे धर्माचार्य और साधु-सन्यासी सपने को गंगठित करके देश के चरित्र-निर्माण का नाम अपने हाथ में ले ले । जनता मे इस प्रकार की मासा होना स्वाभाविक है और वर्गाचार्या वो वह दिलाने के लिए एक स्वर्णिम सवसर प्राप्त है कि हमारे प्राचीन धर्मों और सम्प्रदायों में भाग भी जान है ।