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२९ पुनः कर्मकाण्ड में लिप्त हए । मठों और मन्दिरो के निर्माण, व्रतों और । को ही मब कुछ माना गया, जिससे भाचरण में शिथिलता । समाज ढीला पड़ने लगा और मापसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे । राजनीतिक
साम्राज्यो का बनना-बिगहना सनिक बल पर ही माधारित था पोर । को हानि पहुँची । हर्ष के काल मे यह भावना उत्तरोत्तर मौर
तथा देश पर बाह्य पाक्रमण हए । देश के भीतर युद्धों की । चल पड़ी और विदेशी धर्म का भी प्रादुर्भाव हमा। जनसमह पबड़ा . सच्चे मार्ग को पाने के लिए छटपटा उठा । इस काल में अनेक धर्म
मौर नेता देश में अवतरित हुए, जिनका उपदेश फिर यही था कि प्राचरण ठीक करो, भक्ति-मार्ग का अवलम्बन करो पोर पारस्परिक - सामजस्य और सहिष्णुता को बढाम्रो जिससे मत-मतान्तरों के झगड़ों • उठकर सत्य-मार्ग का पाश्रय लिया जाए । प्रत्याचार से इसी मार्ग
मिल सकती थी। रा', रामानुज, रामानन्द, कबीर, नानक, तुलसी, दादू मादि अनेक कई सौ वर्षों में होते रहे और समाज को सीधे मार्ग पर चलाने का करते रहे जिससे उस समय के शासन और राजनीति की कठोरतामों के
हिन्दू-समाज पोर व्यक्ति शान्ति मोर मात्म-विश्वास कायम रख सका । देश पर पुनः एक संकट मठारहवी शती में पाया और इस बार विदेशी
और विदेशी संस्कृति ने एक जोरदार प्राक्रमण किया, जिससे भारतीय
पौर देश के धर्म का पूर्ण प्रस्तित्व ही नष्ट प्रायः हो गया था। पश्चिम ईसाई-सम्प्रदाय ने हिन्दुओं को अपने
.:. लकिया पौर कार्य में मिशनरी.लोगो को..
प्राप्त थी। .: शती के प्रारम्भ में देश
धार्मिक माचरण . शास्त्रयुक्त ,
यहां के वासी पश्चात्य
विशेषत: नई प्रग्रेजी । परम्परामों, बुरी पा नास्तिकता को
बचाने का
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