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व्यक्ति नही, स्वयं एक संस्था पावित और सामथ्यं से भरा यह अपूण मानव, प्राग अपन पुरुषाय नम प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्षी बना सड़ा है। ___जगतो मैं सनातन काल से प्रधान रूप में सदा ही दो बातों का द्वन्द्व चलता रहा है। सूर्य जब अपनी किरण ममेटता है तो अवनि पर सघन अन्धकार छा पाता है। अर्थात् प्रकाश का स्थान अन्धकार और फिर अन्धकार का स्थान प्रकार ले लेता है । यह क्रम अनन्त काल से अनवरत चलता रहता है। इसी प्रकार मानव के मादा भी पह देत का इन्द्र गतिशील होना है। इसे हम मच्छे मोर बुरे, गुण और दोष, ज्ञान प्रौर भज्ञान तथा प्रकाश और अन्धकार प्रादि प्रगणित नामो से पुकारते हैं । इन्हीं गुण-दोषों के अनन्त-प्रगणित भेद और उपभेद होते हैं, जिनके माध्यम से मानव, जीवन में उन्ननि घोर अवनति के मार्ग में प्रयास में मनायाम हो अग्रसर होता है। यहाँ हम मानव जीवन के इसी अच्छे और बुरे, उचित और अनुचित पक्ष पर विचार करेंगे। जीवन की सिद्धि मोर पुनर्जन्म की शुद्धि ___ भारत धर्म-प्रधान देश है, पर व्यावहारिक सचाई मे बहुत पीछे होना जा रहा है। भारतीय सोग धर्म और दर्शन को तो बढी चर्चा करते हैं, यहाँ तक उनके दैनिक जीवन के कृत्य, वाणिज्य-रायसाय, यात्राएं, वाहिक सम्बन्ध प्रादि जैसे पा भी दान-पुष्य, पूजा-पाठ मादि धार्मिक वृत्तियो से ही प्रारम्भ होते है: हिन्तुमायों के भारम्भ पोर पन्त को छोड जीवन की जो एक लम्बी मंरिस है, उसमें व्यक्ति धर्म के इम पावहारिफ पस से सदा ही उदासीन रहता है। स धर्म-प्रधान देश में मानव मे पावहारिक सचाई में प्रामाणिकता के स्थान पर पारम्बर और माधिभौतिक शक्तियों का प्राधिपत्य होता जा रहा है। जीवन मे जर स्यावहारिक सनाई नहीं, प्रमाणिस्ता नहीं, तो धर्माचरण
से सम्भव है ! इसके विपरीत भौतिरतावादी माने जाने वाले देशों को जब भारतीय पारा करते है तो वहां के निवासियों को व्यवहारगत सचाई मोर प्रामाणिपता की प्रशंसा करते हैं। दूसरी पोर जो विदेशी भारत की यात्रा करते है। उन्हें यहा की ये दानिकता के सास में प्रामालिपटारामा खसता है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाया है कि हमारा यह धर्माचरा जीवनपिके लिए मही; पुनगन्य मोदि के लिए है। किन्तु यहाँ भी हम भल रहे