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प्राचार्यश्री तुलसी
हैं । जब यह जीवन ही शुद्ध नहीं हुआ तो अगला जन्म कैसे शुद्ध होगा? यह सुनिश्चित है कि उपासना की अपेक्षा जीवन को सचाई को प्राथमिकता दिये दिना इम जन्म की सिद्धि और पुनर्जन्म की शुद्धि सर्वथा असम्भव है।
प्रश्न उठता है कि जीवन को यह सिद्धि और पुनर्जन्म को शुद्धि कैसे हो सकती है ? स्पष्ट है कि चारित्रिक विकास के बिना जीवन की यह प्रायमिक और महान् उपलब्धि सम्भव नहीं । चरित्र का सम्बन्ध किसी कार्य-व्यापार ठक ही सीमित नहीं, अपितु उसका सम्बन्ध जीवन की उन मूल प्रवृत्तियों से है जो मनुष्य को हिंसक बनाती हैं । गोषण, अन्याय, असमानता, अमहिष्णुता, प्राक्रमण दूसरे के प्रभुत्व का अपहरण या उसमें हस्तक्षेप और असामाजिक प्रवृत्तियाँ । ये सब चरित्र-दोप हैं। प्रायः सभी लोग इनमे प्राधान्त हैं । भेद प्रकार का है। कोई एक प्रकार के दोष से प्राकान्त है, तो दूसरा दूसरे प्रकार के दोप से। कोई कम मात्रा में है, तो कोई अधिक मात्रा में है। इस विभेद-विषमता के विप की व्याप्ति का प्रधान कारण शिक्षा और अर्थव्यवस्था का दोषपूर्ण होना माना जा सकता है । माज की जो शिक्षा व्यवस्था है, उसमे चारित्रिक विकास की कोई निश्चित योजना नहीं है । भारत की प्रथम और द्वितीय पचवर्षीय योजना में भारत के भौतिक विकास के प्रयत्न हो सन्निहित थे। कदाचित भले भजन न होई गोपाला भोर प्रारत काह न करे कुक की उक्ति के अनुसार भूनों की भूस मिटाने के प्राथमिक मानवीय क्तव्य के नाते यह उचिन भी था; किन्तु परित्र-बल के विना भर-पेट भोजन पाने वाला कोई व्यक्ति या राष्ट्र भाज के प्रगतिशील विश्व में प्रतिष्ठित होना तो दूर, कितनी देर सहा रह सकेगा, यह एक यहा प्रश्न है । मतः उदरपूर्ति के यत्न में अपने परम्परागत चरित्र-दल । नहीं गंवा बैठना चाहिए । मह हर्ष का विषय है कि तृतीय पचवर्षीय योजना में इस दिशा में प्रध प्रयन्न मन्तनिहित हैं। हमारी शिक्षा कसो हो, यह भी एक गम्भीर प्रश्न है। बड़े-बडे विशेष इग मम्बन्ध में एकमत नहीं हैं । अनेक तथ्य पौर तर शिक्षा के उम्पन पक्ष के सम्बन्ध में दिये जाने रहे हैं और दिये जा गरते हैं । निश्चित ही भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में पागे बड़े है : विन्तु भान
क विकाग एक प्रमयत विभाग है। कोरा-ज्ञान भयावह है, कोरा ___ ५ है और नियत्रहीन गतिवान्त ततरनाका शुष्टि हा ' पुरी है। दृष्टि गुरु है तो मान पड होगा: दुष्टि लिन्