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ज्ञानपीठ मूत्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक-12
सिरिवाल चरिउ
सम्पादन-अनुवाद डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
प्रथम संस्करण
संशोधित मूल्य : Rs. 40/
Bain Education
emational
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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक १२
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कवि नरसेनदेव विरचित
सिरिवालचरिउ
[हिन्दी प्रस्तावना, अपभ्रंश मूल, हिन्दी अनुवाद, पाठान्तर
तथा शब्दावली सहित]
सम्पादन-अनुवाद डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, एम. ए., पी-एच. डी.
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कानपीठ, सशोधिन मूल्य Rs. 40/
MELATLUNDI
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JNANP
SATIYA
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
वीर नि.संवत् २५००: विक्रम संवत् २०३१ : सन् १९७४
प्रथम संस्करण : मूल्य बारह रुपये
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स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवीकी पवित्र स्मृतिमें तत्सुपुत्र साहू शान्तिप्रसादजी द्वारा
संस्थापित
भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमालाके अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्यका अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन भण्डारोंकी सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, विशिष्ट विद्वानोंके अध्ययनग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ मी
इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला सम्पादक आ. ने. उपाध्ये, एम. ए., डी. लिट.
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ प्रधान कार्यालय : बी/४५-४७, कनॉट प्लेस, नयी दिल्ली-११०००१
प्रकाशन कार्यालय : दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-२२१००५ मुद्रक : सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-२२१००५
स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ९, वीर नि० २४७०, विक्रम सं० २०००, १८ फरवरी १९४४
सर्वाधिकार सुरक्षित
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भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
स्व० मूर्तिदेवी, मातेश्वरी सेठ शान्तिप्रसाद जैन
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JNĀNAPĪTHA MŪRTIDEVI GRANTHAMĀLĀ : Apabhramsa Grantha No. 12
SIRIVĀLACARIU
NARASENA DEVA
by
· Dr. Devendra Kumar Jain, M. A., Ph. D.
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BHARATIYA JNANAPĪTHA PUBLICATION
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VĪRA SAMVAT 2500 : V. Samvat 2031 : A. D. 1974
First Edition : Price Rs. 12/
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BHARATIYA JŇĀNAPĪTHA MŪRTIDEVĪ
JAIN GRANTHAMĀLĀ
FOUNDED BY SĀHU SHĀNTIPRASĀD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE BENEVOLENT MOTHER
SHRĪ MŪRTIDEVI
IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAIN AGAMIC, PHILOSOPHICAL,
PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRTA, SANSKRTA, APABHRAŃSA, HINDI,
KANNADA, TAMIL, ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES
AND CATALOGUES OF JAIN BHANDARAS, INSCRIPTIONS,
STUDIES OF COMPETENT SCHOLARS & POPULAR JAIN LITERATURE ARE ALSO BEING PUBLISHED.
General Editors A. N. Upadhye, M. A., D.Litt. Pt, Kailash Chandra Shastri
Published by
Bharatiya Jnanapitha Head office : B/45-47, Connaught Place, New Delhi-110001
Publication office : Durgakund Road, Varanasi-221005.
Founded on Phalguna Krishna 9, Vira Sam. 2470, Vikrama Sam. 2000,18th Feb.,1944
All Rights Reserved.
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जिनके लिए जीवन ही कर्म था, और कर्म ही जीवन। जो पक्षाघात से सात माह पीड़ित रहकर, रामनवमी की शाम ( ३ अप्रैल १९७१ ), राम की प्यारी होकर, अपना नाम भी सार्थक कर गयीं। उन्हीं तपस्विनी, ममतामयी, माँ की, पावन स्मृति में। .
-देवेन्द्रकुमार
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प्रधान सम्पादकीय
जिनरत्नकोश (भा. रि. ई. पना १९४४) में श्रीपालचरित्र नामसे तीससे अधिक रचनाओंका निर्देश है। इनमें बहुसंख्या श्वेताम्बर ग्रन्थकारों के द्वारा रचित चरित्रोंकी है। इसके अनुसार प्रथम श्रीपालचरित १३४१ प्राकृत पद्योंमें नागपुरीय तपागच्छके हेमति लकके शिष्य रत्नशेखरने संवत् १४२८में रचा था जो दलपतभाई लालभाई पुस्तकोद्धार फण्डकी ओर से १९२३ ई. में प्रकाशित हुआ था। शेष सब चरित्र इसके पश्चात प्रायः १५वीं-१६वीं शताब्दीमें रचे गये हैं।
दिगम्बर परम्परामें संस्कृतमें कई श्रीपालचरित हैं-यथा सकलकीति रचित, ब्रह्म नेमिदत्त रचित, विद्यानन्दि भ. रचित, शुभचन्द्र रचित आदि । प्राकृतमें कोई रचना नहीं मिली। अपभ्रंशमें दो रचनाएँ उपलब्ध हैं-एक नरसेन रचित और दूसरी रइधू रचित । इनमें से प्रथम रचना प्रथम बार हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हो रही है।
इतनी रचनाओंसे अनुमान किया जा सकता है कि श्रीपालका चरित कितना लोकप्रिय रहा है । किस तरह एक राजा अपनी जिदके कारण अपनी पुत्रीका विवाह एक कुष्टीके साथ कर देता है। किस तरह राजपुत्री मयणासुन्दरी अपने पिताकी आज्ञाका पालन करते हुए कुष्टी पतिको स्वीकार करती है और मुनिराजके उपदेशसे सिद्धचक्रविधानके द्वारा अपने पतिको उसके सात सौ सुभट सेवकोंके साथ नीरोग करती है और उसके बाद श्रीपालपर जो सुख-दुःखकी घटाएँ आती-जाती हैं वे सब अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद हैं।
श्रीपालचरितकी इस आकर्षकता और लोकप्रियताका एक प्रमुख कारण है सिद्धचक्रविधानके द्वारा श्रीपालका आरोग्यलाभ । गृहस्थाश्रममें सुख-दुःख लगा ही रहता है । धार्मिक जनसमाज दुःखकी निवृत्तिके लिए धर्माचरणका भी आश्रय लेता है। सिद्धचक्रविधानके इस महत् फलने धार्मिक जनताको इस ओर आकृष्ट किया और इस तरह मैनासुन्दरीके साथ श्रीपालका चरित लोकप्रिय हो उठा । ब्र. नेमिदत्तने तो श्रीपालचरितको 'सिद्धचक्रार्चनोत्तम' कहा है। श्रतसागर सरिने भी अन्त में लिखा है-सिद्धचक्रवतसे अभ्युदय प्राप्त हुआ।
जिनरत्नकोशमें 'सिद्धचक्रमाहात्म्य' नामसे भी कुछ ग्रन्थोंका निर्देश है और वे प्रायः श्रीपालचरित ही हैं । रत्नशेखरके श्रीपालचरितका भी उपनाम सिद्धचक्रमाहात्म्य है। इससे हमारे उक्त कथनकी पुष्टि होती है ।
ब्रह्मदेवने (११-१२वीं शताब्दी) द्रव्यसंग्रहकी टीकामें पंचपरमेष्ठीका विस्तृत स्वरूप 'सिद्धचक्रादिदेवार्चनविधिरूपमन्त्रवादसम्बन्धि पञ्चनमस्कार ग्रन्थ' में देखनेका निर्देश किया है । यह ग्रन्थ तो अनुपलब्ध है किन्तु इससे यह स्पष्ट होता है कि सिद्धचक्रविधानकी परम्परा प्राचीन है। संस्कृत सिद्धपजाकी स्थापनामें आद्यश्लोक इस प्रकार है।
ऊधिोरयुतं सविन्दु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं वर्गापूरितदिग्गताम्बुजदलं तत्सन्धितत्त्वान्वितम् । अन्तःपत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रीङ्कारसंवेष्टितं
देवं ध्यायति यः स मक्तिसुभगो वैरीभकण्ठीरवः ।। यह सिद्धचक्रयन्त्रका ही चित्रण है। नरसेनने अपने श्रीपालचरितमें जो इसका चित्रण किया है उसमें चक्रेश्वरी ज्वालामालिनी दस दिग्पाल आदिको भी स्थान दिया गया है। तथा जब धवलसेठ श्रीपालको समुद्र में गिराकर उसकी पत्नी रत्नमंजूषाका शील हरना चाहता है और रत्नमंजूषा सहायताके लिए पुकारती
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सिरिवालचरिउ
है तो मणिभद्र समुद्रको हिलाकर जहाज उलट देता है, चक्रेश्वरी देवी अपना चक्र चलाती है, ज्वालामालिनी
ग लगाती है, क्षेत्रपाल कुत्तेकी सवारीपर आता है। इस प्रकार ग्रन्थकारने सब देवी-देवताओंके करतब दखलाये हैं। अतः सिद्धचक्रयन्त्रमें भी इन्हें स्थान दिया गया है जो उस समयमें देवी-देवताओंके बढ़ते हए तापका सूचक है।
सिद्धचक्रयन्त्र भी लघु और बृहत् दो हैं । बृहत्में पंचपरमेष्ठीका उल्लेख रहता है जैसा द्रव्यसंग्रहकी कासे भी व्यक्त होता है।
आश्चर्य इतना ही है कि श्रीपालकी रोचक कथा कथाकोशोंमें या पुराणोंमें वर्णित आख्यानोंमें देखने में हीं आती। इसका उद्गम स्थानका भी पता ज्ञात नहीं हो सका।
प्रो. श्री देवेन्द्रकुमारने हिन्दी अनुवादके साथ इसका सम्पादन किया है । उन्होंने अपनी प्रस्तावनामें सका तुलनात्मक परिचयादि दिया है।
हम भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जैन और अध्यक्षा श्रीमती रमा जैनके भारी हैं जिनकी उदारता तथा साहित्यानुरागवश प्राचीन साहित्य सुसम्पादित होकर प्रकाशमें आ रहा है स्त्री वा. लक्ष्मीचन्दजी भी धन्यवादके पात्र हैं जो इस कार्यको प्रगति देने में संलग्न रहते हैं।
-आ. ने. उपाध्ये -कैलाशचन्द्र शास्त्री
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विषय-सूची
१. दो शब्द
२. प्रस्तावना - कवि नरसेन, प्रति परिचय, श्रीपाल कथा की परम्परा, श्रीपाल रास और श्रीपाल चरित्रकी कथाको तुलना, पं. परिमल्लका 'श्रीपाल चरित्र' और उसकी 'श्रीपाल रास' से तुलना, मूल प्रेरणा स्रोत, नन्दीश्वर द्वीप पूजा, सिद्धचक्रयन्त्र और
नवपद मण्डल |
३. कथावस्तु - पहली संधि, दूसरी संधि, भावात्मक स्थल – कोढ़ीराजका वर्णन, श्रीपालका विदेश गमन, रत्नमंजूषाका विलाप । वर्णनात्मक स्थल - अवन्ति, उज्जयिनी, हंसद्वीप, सहस्रकूट जिनमन्दिर, श्रीपालका विवाह वर्णन, वीरदवनसे युद्धका चित्रण ।
४. चरित्र चित्रण - मैनासुन्दरी, श्रीपाल, धवलसेठ, रत्नमंजूषा, प्रजापाल, कुन्दप्रभा ।
५. रस और अलंकार
६. जिन भक्ति - विभिन्न स्तुतियाँ, जिनगन्धोदकका वर्णन, जिनभगवान् के नामकी महत्ता, सिद्धचक्रविधान प्रसंग |
७. भाग्यवाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि
८. सामाजिक चित्रण - विवाह के विविध प्रकार, दहेज प्रथा, स्त्रीशिक्षा, घरज्वाई प्रथा, भूत-प्रेत, जादू-टोना; ठग और चोर, दान देनेकी प्रथा, प्याऊ निर्माण, पान-सुपारीकी प्रथा, दण्ड, षड्यन्त्र | आर्थिक वर्णन, व्यापार, युद्ध में प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्र ।
९. भौगोलिक वर्णन - फसल व वनस्पति, खदानें, नगर व ग्राम जातियाँ, बीमारियाँ, जानवर व पक्षी, प्रकृति चित्रण ।
१०. भाषा - विभक्ति विनिमय, विभक्ति चिह्न, क्रिया रचना, बोलियोंके प्रयोग, संवाद, मुहावरे और लोकोक्तियाँ, छन्द ।
११. मूलपाठ—
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पहली सन्धि - ( १ ) मंगलाचरण | समवसरण । (३) अवन्ति विषय । ( ४ ) पुत्रियाँ और उनकी शिक्षा व्यवस्था । ( सुन्दरीका अध्ययन क्रम, पढ़कर पिताके पूछना, मैनासुन्दरीका मौन । मैना सुन्दरीका जिन मन्दिर जाना । ( भेंट, उसका वर्णन । ( ११ ) कोढ़ियों का वर्णन । ( १२ ) राजाका श्रीपालसे मैनासुन्दरीके
) सरस्वती वन्दना, विपुलाचल पर महावीरका उज्जयिनी नगरी का वर्णन, (५) पयपालकी दो ) सुरसुन्दरीका शृंगारसिंहसे विवाह ( ७ ) मैनापास जाना । ( ८ ) पिता का विवाह के बारेमें मैनासुन्दरीका उत्तर और पिताकी नाराजगी, १० ) राजाका वरकी तलाशमें जाना, कोढ़ीराजसे
( १३ ) प्रणतांग मन्त्रीका
विवाहका संकल्प, उसकी स्वीकृति, अन्तःपुरका विरोध । विरोध, पयपालका हठवाद, श्रीपालसे कन्याका विवाह । (१५) पयपालका पश्चात्ताप, और उज्जयिनीके बाहर दम्पतिका सुखसे रहना, श्रीपालकी माँ कुन्दप्रभाका आना । ( १६ श्रीपाल के सम्बन्ध में मैनासुन्दरीका भ्रम दूर होना तथा सेवा और सिद्धचक्रविधानसे सबका कोढ़ दूर करना ।
( १४ ) विवाहका वर्णन । निवास दिया जाना, नव
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सिरिवालचरिउ (१७) मुनि द्वारा सिद्धचक्र विधानका उपदेश । (१८) कोढ़ियोंका गन्धोदकसे रोग दूर होना । (१९) राजा पयपालकी प्रसन्नता, उसका समाधिगुप्त मुनिके पास जाना । (२०) श्रीपालका विदेश यात्राका प्रस्ताव । (२१) मैनासुन्दरी द्वारा विरोध व साथ जानेका निश्चय । ( २२) मैनासुन्दरी व कुन्दप्रभाका विदाई सन्देश । (२३) मैनासुन्दरीका विदाई दृश्य । (२४) माँका उपदेश। (२५) श्रीपालका प्रस्थान, वत्सनगरमें धवलसेठसे परिचय। (२६) धवलसेठके जहाजों का फँसना और श्रीपाल द्वारा निकालना। धवलसेठका उसे पुत्र मानना । (२७ ) जहाजोंका कूच, लाखचोरका आक्रमण, धवलसेठका लड़ना। (२८ ) धवलसेठका बन्दी होना । ( २९ ) कुमार द्वारा उसे छुड़ाना, लाखचोर द्वारा उपहार। (३०) उपहारोंका वर्णन, जहाजोंका प्रस्थान । ( ३१ ) हंसद्वीप पहुँचना, हंसद्वीपका वर्णन । ( ३२) राजा कनककेतुके परिवारका वर्णन, सहस्रकूट जिनमन्दिरका चित्रण । (३३ ) नगरका वर्णन । ( ३४ ) श्रीपालका सहस्रकूटमें जाना और वज्र किवाड़का खोलना। (३५) जिनभक्ति। ( ३६ ) कनककेतुका सपत्नी मन्दिर जाना और रत्नमंजषासे श्रीपालका विवाह, विवाहका वर्णन । ( ३७ ) रत्नमंजूषाके साथ श्रीपालका विडग्रह पहुँचना, धवलसेठका मनमें कुढ़ना, श्रीपाल द्वारा नववधको अपना परिचय । ( ३८ ) प्रस्थान, धवलसेठका रत्नमंजूषापर आसक्त होना, उसका वर्णन । (३९) मन्त्री द्वारा सेठकी सहायता । (४०) घूस देकर श्रीपालका समुद्रमें गिराया जाना । (४१) श्रीपाल द्वारा जिननामका उच्चारण, जिननामकी महिमा । (४२) धवलसेठका कपटाचार, रत्नमंजूषाका विलाप । ( ४३ ) रत्नमंजूषा का विलाप । ( ४४ ) सखीजनोंका समझाना, धवलसेठकी दूतीका आना, सेठकी कुचेष्टा और जलदेवीगणका आना। (४५ ) देवों द्वारा धवलसेठकी दुर्दशा । ( ४६ ) जिननामके प्रभावसे श्रीपालका समुद्र पार करना और दलवट्टण नगर पहुँचना, राजा धनपालकी लड़की गुणमालासे उसका विवाह । (४७) विवाहका वर्णन । दूसरी सन्धि ( १) श्रीपालका घरजंवाई होकर रहना, धवलसेठका राजदरबारमें पहुँचना, राजा द्वारा सम्मान, श्रीपालको देखकर सेठका माथा ठनकना । (२) साथियोंसे कूटमन्त्रणा और डोमोंकी सहायतासे षड्यन्त्र रचना। ( ३ ) डोमोंका प्रदर्शन करना और श्रीपालको अपना सम्बन्धी बताना, धनपालका श्रीपालपर क्रुद्ध होना। (४) तलवरका श्रीपालको बाँधना और दूतीका गुणमालाको खबर देना, गुणमालाका श्रीपालके पास आना । (५) गुणमालाका रत्नमंजूषाके पास जाना, रत्नमंजूषा द्वारा सही बात बताना, धनपालका श्रीपालसे क्षमा माँगना । (६) श्रीपालका अपना परिचय देना, गुणमाला और उनका मिलन । (७) रत्नमंजुषासे भेंट, धवलको बचाना और उससे हिस्सा लेना। (८) एक वणिग्वरका आना और उसका कुण्डलपुर जाना। (९) वहाँ चित्रलेखा आदि सुन्दरियोंसे विवाह । (१०) एक दूतका आगमन और श्रीपालका कंचनपुर जाना और वहाँ विलासमतीसे विवाह, वहाँसे दलवणके लिए कूच । (११) श्रीपालका आना, कोंकण जाना, समस्यापूर्ति द्वारा सौभाग्यगौरी आदिसे विवाह। (१२) मल्लिवाड, तेलंग आदि देशोंसे होकर दलवण वापस आना और रातमें उज्जैन जानेके लिए सोचना । ( १३ ) उज्जैनके लिए प्रस्थान । (१४) मैनासुन्दरी और कुन्दप्रभाकी बातचीत, श्रीपालका आकर पिलना । (१५) छावनीमें जाकर मैनासुन्दरीका अन्तःपुरसे मिलना, पिताके सम्बन्ध उसका प्रस्ताव । (१६) श्रीपालका दूत भेजना। (१७) पयपालका शर्त मानना, सम्मानपूर्वक श्रीपालसे उसका मिलना, अनेक चीजें भेंटमें देना, श्रीपालका सम्मानपूर्वक नगरमें प्रवेश । ( १८ ) श्रीपालको चम्पापुरीका स्मरण होना और चतुरंग सेना सहित
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विषय-सूची चम्पाके लिए कूच करना। (१५) दूतको वीरदवणके पास भेजना, वीरदवणकी आत्मप्रशंसा । (२०) दूत द्वारा श्रीपालकी प्रशंसा करना । (२१) बीरदवणका युद्धके लिए कूच करना। (२२) श्रीपालका भी कूच करना, दोनोंके मन्त्रियोंकी द्वन्द्वयुद्ध करनेकी मन्त्रणा करना । (२३ ) श्रीपाल व वीरदवणका द्वन्द्वयुद्ध करना। (२४) मल्लयुद्ध में वीरदवणका हारना और क्षमा माँगना । (२५) वीरदवणका तपश्चरणके लिए जाना, श्रीपालके दरबारमें नवपालका आना। (२६ ) दूत द्वारा संजय मुनिके आगमनकी खबर देना, श्रीपालका वहाँ वन्दनाके लिए जाना । (२७ ) श्रीपालका विश्वधर्मकी व्याख्या करने हेतु मुनिसे प्रार्थना करना, मुनि द्वारा वर्णन करना, श्रीपाल द्वारा मुनिसे कोढ़ी होने, समुद्र में फेंकने और मदनासुन्दरीको पानेका कारण पूछना। ( २८ ) मुनि द्वारा पूर्व जन्मके कर्मोका गिनाना। ( २९ ) श्रीपाल द्वारा पूर्वजन्ममें मुनियोंकी निन्दा करनेसे कोढ़ी होना, डोम कहलाना। (३०) पूर्वजन्ममें श्रीपालकी पत्नी द्वारा श्रीपालकी निन्दा, श्रीपाल द्वारा जिनधर्म ग्रहण करना, मुनिके पास जाना, मुनि द्वारा सिद्धचक्र विधानका महत्त्व बताना । ( ३१ ) सिद्धचक्र विधि करनेकी विधि श्रीपाल द्वारा पूछना और मुनि द्वारा बताना । (३२) सिद्धचक्र विधानसे मनचाहा फल मिलता है, सिद्धचक्र विधिसे ज्ञान और निर्वाण प्राप्ति होनेका मुनिवर द्वारा बताना । ( ३३ ) मुनि द्वारा उद्यापनकी विधि बताना । ( ३४ ) श्रीपाल द्वारा व्रत करना व नगरमें उसका प्रचार करना, उसके साथ अन्तःपुर, मौभाग्यगौरी, व अन्य कुमारों द्वारा व्रत करना। (३५) श्रीपालका चम्पानगरीमें शासन करना, उसके ठाट-बाटका वर्णन । ( ३६) पृथ्वीपालको राज्य देना और स्वयं महाव्रत ग्रहण करना, उसके साथ रानियोंका भी तप करना, श्रीपालका मोक्ष प्राप्त करना, सिद्धचक्र
विधानकी प्रशंसा, प्रशस्ति । १२. संस्कृत-प्राकृत अवतरण१३. समस्यापूर्ति१४. शब्द कोष-संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, सामान्यभूत क्रिया, पूर्वकालिक क्रिया, अव्यय ।
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दो शब्द
कथ्यकी सम्प्रेषणीयताकी दृष्टि से 'सिरिवाल चरिउ' बेजोड़ काव्य है। श्रीपाल जैसे पुराण काव्यके 'नायक' को दो सन्धियोंके लघ काव्यमें इस प्रकार चित्रित कर देना कि पौराणिक गरिमा और मानवी संवेदना एक साथ बनी रहे, यह कवि नरसेन के ही बूतेका काम था।
लम्बे अरसेसे सोच रहा था कि किसी 'अपभ्रंश-चरित-काव्य' का सम्पादन करूँ । मुख्य कठिनाई थी, किसी उपयुक्त और महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपिकी प्राप्तिकी। इसे हल करनेका श्रेय है, डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल जयपुरको। उन्होंने एक नहीं-तीन-तीन प्रतियाँ 'महावीर भवन' जयपुरसे भिजवाने की व्यवस्था की।
जिस समय मैं सम्पादन कर रहा था, अचानक एक साथ कई आपत्तियाँ आयीं और सारा काम अस्तव्यस्त हो गया। परिस्थितियोंसे जानेके बाद जो समय बचता. मैं उसमें सम्पादन करता रहता, यह सोचकर कि यदि श्रीपाल लकड़ीके टुकड़ेके सहारे समद्र तिर सकते हैं तो क्या मैं इस काममें लगे रहकर बाधाओंसे उत्पन्न मानसिक तनावको कम नहीं कर सकता? आपत्तियाँ गिनानेसे लाभ नहीं क्योंकि पाठकोंको श्रीपालके जीवनमें ही संसारका इतना उतार-चढ़ाव मिल जायेगा कि कहीं उनका मन संवेदनासे सक्रिय हो उठेगा और कहीं वे भाग्यकी विडम्बनाको कोसेंगे, कहीं करुणासे उनकी आँखें नम हो उठेगी और कहीं धवलसेठके काले कारनामे उनके हृदयको सफेद बनायेंगे। श्रीपाल और धवलसेठ जीवनके दो पक्ष हैं-एक सत् प्रवृत्तिका प्रतीक है और दूसरा असत् का।
_ 'सिरिवाल चरिउ'की पाण्डुलिपियाँ सोलहवीं सदीके दूसरे और तीसरे चरणके बीचकी उपलब्ध हैं । यह वह समय है, जब आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओंका न केवल विकास हो चुका था, बल्कि उसमें साहित्यकी रचना भी होने लगी थी। इन नयी-नयी भाषाओंमें जैन साहित्य भी मिलता है। परन्तु इस समय, अपभ्रंशचरित काव्यकी धारा भी चली आ रही थी। अतः परवर्ती भाषाओंके विकासके विचारसे इस प्रकारकी साहित्य कृतियोंका क्या महत्त्व और सीमाएँ होनी चाहिए? यह एक विचारणीय प्रश्न है । कतिपय जैन लेखक १८वीं सदी तक अपभ्रंशकी 'चरित शैली'को एक काव्यरूढिके रूपमें अपनाये रहे। युग और नयी भाषाओंके प्रभावसे आलोच्य काव्यकी भाषामें मिलावट न होना आश्चर्यकी बात होती । इसमें दो मत नहीं कि इसकी भाषा, तथाकथित परिनिष्ठित अपभ्रंश नहीं है। परन्तु उसमें उतनी अव्यवस्था और अप्रामाणिकता भी नहीं है जो हमें पृथ्वीराज रासोकी भाषामें दिखाई देती है। पण्डित नरसेन द्वारा लिखित पाण्डुलिपि न मिलनेसे भी मूल पाठोंका निश्चय और अर्थ करने में बहुत कठिनाई हुई है। प्रतिलिपिकारोंने ह्रस्व-दीर्घ, शब्दस्वरूप, अनुस्वार, अनुनासिकध्वनि य व श्रुतिके प्रयोगमें मनमानी की है। सम्पादनके लिए मुझे पहले दो प्रतियाँ मिलीं। उनके आधारपर मैंने पूरी रचनाका सम्पादित पाठ तैयार कर लिया। बादमें ज्ञानपीठके विद्वान् सम्पादकोंने सुझाव दिया कि एक और प्रतिका उपयोग करना जरूरी है। फलस्वरूप तीसरी प्रति उपलब्ध कर दुबारा 'सम्पादित पाठ' प्रस्तुत किया। फिर भी उसमें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा निर्धारित आदर्शपाठकी दृष्टिसे कुछ कमियाँ रह गयीं। फलतः तीसरी बार पुनः पूरी प्रतिको सँवारना पड़ा । यह सब हो चुकनेके बाद, जो प्रश्न मुझे खटकता रहा वह यह कि 'सोलहवीं सदी के अपभ्रंशचरितकाव्यकी भाषा और पाठोंमें जो मिलावट या नयापन है, उसके बारेमें क्या किया जाये। संक्रमणयुगके ऐसे ग्रन्थोंके सम्पादनके लिए वही नियम और प्रतिमान उपयोगी नहीं हो सकते जो १०वीं सदीके अपभ्रंशचरित काव्योंके सम्पादनके लिए मान्य किये जा चुके हैं और जिनके आधारपर विविध अपभ्रंशचरितकाव्य सम्पादित हए हैं, सम्भवतः यह समस्या ज्ञानपीठके सम्पादकोंके मनमें भी थी और श्रद्धेय डॉ. हीरालाल जीने न केवल पूरे मूलपाठका संशोधन किया बल्कि कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिये : इनमेंसे कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं।
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सिरिवालचरिउ
१. यह कि आलोच्य ग्रन्थ, उस प्रतिमित और नियमित मध्यकालीन आर्यभाषामें रचित नहीं है कि जिसमें स्वयम्भू और पुष्पदन्तने अपने काव्यकी रचना की है, यह नव्य भारतीय आर्यभाषाके शब्दों-रूपों और अभिव्यक्तियोंसे मिश्रित है, इसका अपना महत्त्व है, क्योंकि यह संक्रमणकालका
प्रतिनिधित्व करता है। २. परन्तु दोनों माध्यमोंकी विशेषताओंको सुरक्षित रखनेके लिए जरूरी है कि लिखावट की चूकों
और भूलोंसे उन्हें अलग रखा जाये। ३. मैंने टेक्स्टका संशोधन कर दिया है और कहीं-कहीं अधिक संगत पाठ भी सुझाया है। ४. इस बातका निर्णय करना जरूरी है कि क्या कतिपय 'मध्यग व्यंजनों को उसी रूपमें रखनेकी
अनुमति दी जाये कि जिस रूपमें वे प्रयुक्त है। परन्तु काव्य भारतीय आर्यभाषाकी प्रवृत्ति उन्हें
सुरक्षित रखनेकी है ? 'ब' और 'व' का निर्णय संस्कृत परम्पराके अनुसार किया जाये। ५. अपभ्रंशचरितकाव्यके सम्पादनके लिए जो आदर्श स्थापित हैं उन्हें सुरक्षित रखा जाये । मैं इन्हें
इसलिए महत्त्व देता हूँ क्योंकि भाषाविज्ञानके दृष्टिसे वे मूल्यवान् हैं और सम्पादित ग्रन्थको
विद्वानोंके बीच सम्माननीय बनाते हैं।
जैन साहबके उक्त निर्देशोंसे मेरा मानसिक बोझ कुछ कम हआ। उनके अधिकतर संशोधन विभक्तियों से सम्बन्धित है। आलोच्य कविने प्रायः निविभक्तिक पदोंका प्रयोग किया है, यह बाल तीन पाण्डुलिपियोंमें समान रूपसे दिखाई देती है, डॉ. जैनने ऐसे पदोंमें विभक्ति जोड़ दी है (बशर्ते ऐसा करते समय छन्दोभंग न हो) मैंने इसे मान्यता दी है 'सिरिपाल'की जगह 'सिरिवाल' रखनेमें मैंने उनके निर्देशका पालन किया है, परन्तु बहुतसे ऐसे स्थल है कि जहाँ नयी भाषाओंके ठेठ प्रयोग और विभक्ति चिह्न हैं, उन्हें डॉ. जैनने ज्योंका त्यों रहने दिया है। मैंने भी ऐसे प्रयोगोंसे छेड़छाड़ नहीं की। जहाँ तक मध्यम व्यंजनोंका प्रश्न है, हम इस भाषा वैज्ञानिक तथ्यको नहीं भूल सकते हैं कि स्वयम्भू और पुष्पदन्तमें भी इनके प्रयोगके अपवाद नहीं हैं, अन्तर केवल इतना है कि प्राचीन अपभ्रंश कवि अपनी अभिव्यक्ति सशक्त बनानेके लिए संस्कृतकी ओर बढ़ते जबकि १६वीं सदीके अपभ्रंश कवि आधुनिक आर्यभाषाओंकी ओर। जब कवि अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करता है तो उसमें ऐसा मिश्रण (Confusion ) होगा। फिर भी डॉ. जैनके सुझावोंका, पाठोंके प्रस्तुतीकरणमें एकरूपता और प्रामाणिकताकी दृष्टिसे बहुत बड़ा महत्त्व है, इस महत्त्वको क्षति न पहुँचाते हुए, अधिक सन्दिग्ध और अस्पष्ट पाठोंको पुनर्रचना करने में भी, मुझे इससे बड़ी सहायता मिली है। इस प्रयोगमें जो कुछ सीखनेको मिला है, वह भविष्यमें काम आयेगा। डॉ. जैन साहबके अतिरिक्त डॉ. ए. एन उपाध्येने भी जो सुझाव दिये हैं उनको पूरा कर दिया गया है। इसके बाद भी जो स्थल समझे नहीं जा सके, उन्हें मूलरूपमें रख दिया गया है प्रश्नवाचक चिह्नके साथ, जिससे भविष्यमें उनपर विचार की सम्भावना बनी रहे। 'सिरिवाल चरिउ'की एक विशेषता यह है कि उसकी रचना हिन्दी प्रदेशमें हुई है और उसकी पाण्डुलिपियाँ भी इसी प्रदेशमें लिखी गयी हैं। इससे यह अनमान कि 'अपभ्रंशचरितकाव्य' हिन्दी प्रदेशके किनारोंपर लिखा गया, निरस्त हो जाता है।
भारतीय ज्ञानपीठके उक्त मान्य विद्वान् सम्पादकों (डॉ. हीरालाल जैन और डॉ. ए. एन. उपाध्ये) के प्रति पूर्ण कृतज्ञता व्यक्त करनेके बाद, डॉ. कस्तुरचन्द्र कासलीवाल जयपरके प्रति अपना आभार व्यक्त करना मेरा पुनीत कर्तव्य है, उन्होंने 'सिरिवाल चरिउ'की ३ पाण्डुलिपियाँ भेजनेकी उदारता दिखायी । आचार्य पण्डित बाबूलालजी शास्त्री इन्दौर, डॉ. राजाराम जैन, मगधविश्वविद्यालय, श्री मदनलाल जैन एम. ए. इन्दौरका भी मैं आभारी हूँ कि इन्होंने सन्दर्भ ग्रन्थोंको उपलब्ध कराने में सहायता की। 'प्रेस कापी' तैयार करनेका श्रेय मेरे छात्र श्री दीनानाथ शर्मा एम. ए. इन्दौरको है वह मेरे साधुवादके पात्र हैं। ३ अप्रैल '७१ ११४ उषा नगर
-देवेन्द्रकुमार जैन इन्दौर-२
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प्रस्तावना
कवि नरसेन
पण्डित नरसेनके समय और जीवनके बारेमें कोई जानकारी नहीं मिलती, सिवाय इसके कि पाण्डुलिपिकारोंने लिखा है--"इह सिद्धकहाए महाराय सिरिवालमदनासुन्दरिदेविचरिए पण्डित नरसेन देव-विरइए; इहलोय-परलोय सुहफल कराए।" अथवा कवि कहता है
"सिद्ध-चक्क-विहि रइय मई णरसेणु णइ विय सत्तिए।"
कवि 'दिगम्बर मत' का उल्लेख बार-बार करता है। वह अपनी काव्यकथाके स्रोतके विषयमें चुप है, लेकिन उसने 'सिद्धचक्र मन्त्र' की रचनामें जो दोनों परम्पराओंका समन्वय किया है, उससे लगता है कि वह विचारोंमें उदार था। सिद्धचक्र विधानकी पूजा और पूजा विधिमें कुछ बातें बीसपन्थी मतसे मिलतीजुलती हैं । अतः यह असम्भव नहीं कि वे बीसपन्थके माननेवाले रहे हों। उपलब्ध सामग्रीके आधारपर नरसेनके सम्बन्धमें इससे अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं। 'सिरिवाल चरिउ' की पहली प्रति वि. सं. १५७९ ( ईसवी १५२२) की है। इससे अनुमान है कि पण्डित नरसेन अधिकसे अधिक १६वीं सदीके प्रारम्भ में अपने काव्यकी रचना कर चुके थे, और उनका समय १५वीं और १६वीं सदियोंके मध्य माना जा सकता है । अभी तक नरसेनकी यही एक रचना मिली है।
प्रति-परिचय
[ 'क' प्रति ]-'सिरिवाल चरिउ' की कवि नरसेन द्वारा लिखित पाण्डुलिपि नहीं मिल सकी । प्रतिलिपिकारोंमेंसे भी किसीने यह उल्लेख नहीं किया कि उनकी आधारभूत पाण्डुलिपि क्या थी? तीनों प्रतियाँ मुझे डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल महावीर भवन, जयपुरसे प्राप्त हुई है । इनमें पहली 'क' प्रति है। इसका आकार (लम्बाई ११.३" और चौड़ाई ४.७" ) है । प्रतिकी लिखावट साफ सुथरी है । 'घत्ता' और 'कड़वककी संख्या लाल स्याही में है, जबकि शेष काव्य गहरी काली स्याहीमें। पन्नोंके बीच में चौकोर जगह खाली है। पन्नेके नीचे या ऊपर सिरेपर, संख्या बताकर कठिन शब्दोंके अर्थ या पर्यायवाची शब्द दिये हए हैं । 'वर्तनी' के सम्बन्धमें कोई निश्चित नियम नहीं है। एक प्रकारसे उसमें अराजकता है। ग्रन्थके अन्तमें प्रतिलिपिकारने इस प्रकार लिखा है
"इति पण्डित श्रीनरसेन-कृत 'श्रीपाल' नाम शास्त्रं समाप्त । अथ संवत्सरे स्मिन् श्री विक्रमादित्य राज्ये संवत् १५९४ वर्ष भादौ वदि रविवासरे, मृगक्षिरनक्षत्रे, साके १४४९ गत पद्याद्वयो मध्य मन्मथ नाम संवत्सरे प्रवर्तते । सुलितान मीर बन्वर राज्य प्रवर्त्तमाने । श्री कालपी राज्य आलम साहि प्रवर्तनमाने, दौलतपुर शुभस्थाने श्रीमूलसंघे बलाकार गणे सरस्वती गच्छे, कुंदकुंदचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दि देव, तत्पदे श्री जिनचन्द्रदेव तदाम्नाये वलं वकंचुकान्वय जद से समद्भव, जिन चरणकमल चंचरीकान्, दानपूजासमुद्यतान् परोपकार विरतान, प्रशस्त चित्तान साधु श्री थेद्य तद्भार्या धर्मपत्नी सुशीला साध्वी-अमा । तस्योदर समुत्पन्न जिन चरणाराधन तत्परान् सम्यक्त्व-प्रतिपालकान् सर्वज्ञोक्त-धर्म रंजित चेतसान्, कुटुम्बभारधर धुरान्, साधु श्री नीकम तद्भार्जा सीलतोय-तरंगिनी हीरा, तयो पुत्र सर्वगुणालंकृत, देवशास्त्र गुरू विनयवंत, सर्वजीव दया प्रतिपालकान, उद्धरणधीरान, दान श्रेयांस औतारान् आभार-मेरान्, परमश्रावक महासाधु श्री महेश सुतेनेदं श्रीपालु नाम शास्त्रं कर्मक्षय-निमित्तं लिखाथितम् ।। शुभं भूयात् । मागल्यं ददातु। लिषितं पंडित वीरसिंधु ।
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सिरिवालचरिउ
(१) तैलं रक्षं जलं रक्ष रक्षं शिथिलबन्धनम् ।
मुक्तहस्तेन दातव्यं एवं वदति पुस्तकम् ॥ ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं नित्यं निाधि भेषजाभवेत् ।।
“शुभं भूयात्"। पाण्डुलिपिकार पण्डित वीरसिन्धु का कहना है कि उन्होंने वि. सं. १५९४ ( ईसवी १५३७ ) भादों वदी रविवारको यह समाप्त की। उस समय सुलतान मीर बाबरका राज्य था और कालपीमें आलमशाही की हुकूमत थी। उसके अन्तर्गत दौलतपुरमें इसे समाप्त किया। श्री मूलसंघ बलात्कार गण सरस्वतीगच्छ । कुन्दकुन्दाम्नाय । उसके अन्तर्गत भट्टारक श्री पद्मनन्दी देव जिनचन्द्र देव । उसके आम्नायमें लम्बकंचुक वंशके महेशने कर्मक्षयके लिए यह शास्त्र लिखाया और पण्डित वीरसिन्धुने इसे लिखा।
['ख' प्रति ]-दूसरी 'ख' प्रति का आकार है-लम्बाई ११ इंच और चौड़ाई ४ इंच, गहरी काली स्याही। लिखावट 'क' प्रति-जैसी सुन्दर नहीं है, एक-सी भी नहीं है। 'वर्तनी में अपेक्षाकृत अधिक अनियमितताएँ हैं । पाण्डुलिपिकारकी प्रशस्ति इस प्रकार है
__संवत् १५७९ वर्षे मागसिर मासे द्वैजदिवसे, बुधवारे रोहिणी नक्षत्रे, सिद्धनामजोगे, टौंकपुरनाम नगरे, पार्श्वनाथ चैत्यालये श्रीमूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये, तस्य पट्ट श्री पद्मनन्दिदेव तस्य पट्टे श्री शुभचन्द्रदेव, तस्य पढ़े भट्रारक श्री जिनचन्द्र देवाः तस्य पढ़े भ. प्रभाचन्द्र देवाः । तदाम्नाये खण्डेलवालन्वये । टौंग्या गोत्रे ।। सन्धरम सी । तस्य भार्या पातु । तयो पुत्र चत्वारि । प्रथम पुत्र संती कै ।। तस्य भार्या गल्ली। तत्पुत्र हामा। दुतीय पुत्र जाल्हा। तृतीय पुत्र नेता ।
श्रीवन्त साह हामा। तस्य भार्या सोना। तत्पुत्र तेजसी । साह जाल्हा । तस्य भार्या पद्मा। तत्पुत्र सहसमल्ल साह नेता । तस्य भार्या ऊदी। तत्पुत्र चुचमल्ल । द्वितीय पुत्र पद्मसी। तृतीय पुत्र रणमल : सं. लाषा। तस्य भार्या रोहिणी। तत्पुत्र गुणराज । दुतीय कारु । ततीय साह रामदास । तस्य भार्या रयणादे, तत्पुत्र साह कुन्त । तस्य भार्या धरम । तत्पुत्र गोइन्दे । साह वस्तु । तस्य भार्या नीक । साह नीक । साह डुंगर । तस्य भार्या षेतु । तत्पुत्र चाणा। तस्य भार्या चादण दे। एतेसां मध्ये इदं शास्त्रं लिषायतं । श्रीपाल चरित्रं । वाई पदमसिरि जोग्य दातव्यं । ज्ञानवान ज्ञान दानेन निर्भयो । भयदानतः अन्नदानात् सुषी नित्यं नियाधि भेषजा भवेत् । शुभं भवतु ।
_ 'ख' प्रति इस प्रकार टौंक ( राजस्थान ) में लिखी गयी वि. सं. १५७९ ( ईसवी १५२२) मगसिर द्वितीया को पार्श्वनाथ चैत्यालय में साह डूंगर, उसकी पत्नी खेतू, उसका पुत्र चाणा, उसकी पत्नी चादन दे, इनके बीच यह शास्त्र लिखा गया । लिखनेवाले ने अपना नाम नहीं दिया। इस प्रति की विशेषता यह है कि इसके कई पाठोंसे आधारभूत पाठोंको समझनेमें बहुत बड़ी सहायता मिली।
['ग' प्रति]-"ओं' वीतरागाय” से प्रारम्भ होती है। दोनों सन्धियोंकी कड़वक संख्या अलग-अलग है। पहलीमें ४६ कड़वक हैं जबकि दूसरीमें ३६ । पहली सन्धिकी समाप्तिपर निम्नलिखित उल्लेख है :
“इय सिद्धि-चक्क-कहाए महाराय सिरिपाल मयणासुन्दरि देविचरिए, पंडितसिरिणरसेण विरइए इह लोय परलोय सुहफल-कराए रोर-घोर कोढ़वाहि भवानुभव-णासणाए मयणासुन्दरि-रयण
मजूसा गुणमाला-विवाह-लाभो णाम पढमो संधि परिछेओ समत्तो।" अन्तिम प्रशस्ति है
“अथ प्रसस्ति लिख्यते । यथा ग्रन्थ संख्या ९२५ अथ संवत्सरे नृपति विक्रमादित्य राज्ये । संवत् १५९० वर्षे, माघ वदि आठ बुधे, श्रीमूल संघे बलात्कार गणे, सरस्वती गच्छे, कुंदा कुंदा चार्चानुये, भट्टारक श्रीपद्मनंदीदेव तत्पट्टे, भट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेव तत्पट्टे, भट्टारक श्रीजिनचन्द्रदेव तत्पट्टे ।" भा. पृ. ४८
अन्तिम प्रशस्ति अधूरो होनेके कारण प्रशस्तिकारके विषयमें कुछ भी जानकारी नहीं मिलती । कुल
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प्रस्तावना
पन्ने ४८ हैं। घत्ता, कड़वक संख्या और समाप्ति बतानेके लिए लाल स्याहीका प्रयोग है। लिखावट स्वच्छ और स्पष्ट । सम्पादकके लिए उपलब्ध प्रतियों में यह सबसे बादकी प्रति है। श्रीपालचरित कथाकी परम्परा
'श्रीपाल' की कथा 'सिद्धचक्र विधान' या 'नवपद मण्डल'की पूजाविधिकी फलश्रुतिसे सम्बद्ध है। 'श्रीपाल'पर आधारित पहली रचना प्राकृतमें 'श्रीपाल चरित्र'है । डॉ. हीरालाल जैनने लिखा है-“रत्नशेखर सूरि कृत 'श्रीपाल चरित्र' में १३४२ गाथाएँ हैं, जिसका प्रथम संकलन वज्रसेनके पट्टशिष्य प्रभु हेमतिलक सूरिने किया और उनके शिष्य हेमचन्द्र साधने वि. सं. १४२८ ( ई. १३१७ ) में इसे लिपिबद्ध किया। यह कथा 'सिद्धचक्र विधान' का माहात्म्य प्रकट करनेके लिए लिखी गयी है । उज्जैनकी राजकूमारीने अपने पिताकी दी हुई समस्याकी पूर्तिमें अपना यह भाव प्रकट किया कि प्रत्येकको अपने पुण्य-पापके अनुसार सुख-दुख प्राप्त होता है। पिताने इसे अपने प्रति कृतघ्नताका भाव समझा और क्रुद्ध होकर मयनासुन्दरीका विवाह श्रीपाल नामके कुष्ट रोगीसे कर दिया। मयनासुन्दरीने अपनी पतिभक्ति और सिद्धपूजाके प्रभावसे उसे अच्छा कर लिया। श्रीपालने नाना देशोंका भ्रमण किया तथा खूब धन और यश कमाया।' ग्रन्थके बीच-बीचमें अनेक अपभ्रंश पद्य भी आये हैं और नाना छन्दोंमें स्तुतियाँ निबद्ध हैं। रचना आदिसे अन्त तक रोचक है।
इसके बाद अपभ्रंशमें दो 'सिरिवाल चरिउ' उपलब्ध है। एक कवि रइधू कृत, जिसका सम्पादन डॉ. राजाराम जन, आरा कर चुके हैं और जो शीघ्र प्रकाश्य है। दूसरा पं. नरसेनका। रइधका समय वि. सं. १४५०-१५३६ ( ई. १३९३-१४७९ ) है । निश्चित ही नरसेन उसके बादके हैं ।
'श्रीपाल रास' गुजराती भाषामें है । प्रारम्भमें लिखा है '-"श्रीपालराजानः रासः । इसकी चौथी आवृत्ति अक्तूबर १९१० में हुई थी। प्रकाशक हैं भीमसिंह माणक - -
-- माण्डवी शाकगली मध्ये। इसमें कुल चार खण्ड और ४१ ढालें हैं। पहलेमें ११, दूसरेमें ८, तीसरेमें ८ और चौथेमें १४। इसके मल रचयिता हैं महोपाध्याय श्री कीर्तिविजय गणिके शिष्य श्री विनय विजय गणि उपाध्याय । उसीके आधारपर यह 'श्रीपाल रास' रचा गया। यह वस्तुतः श्री विनय विजय कविके 'प्राकृतप्रबन्ध'का गुजराती अनुवाद है। प्रारम्भमें लिखा है--"श्री नवपद महिमा वर्णने श्रीपाल राजानो रासः ॥"
स्व० नाथूराम जी प्रेमीने दो श्रीपाल चरित्रोंका उल्लेख किया है । भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य ब. नेमिदत्तने वि. सं. १५८५ में श्रीपाल चरित्रकी रचना की थी। दूसरे, भट्टारक वादिचन्द्रने वि. सं. १६५१ 'श्रीपाल आख्यान' लिखा था। भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है।
पण्डित परिमल्लने हिन्दीमें 'श्रीपाल चरित्र' लिखा था, जिसे बाबू ज्ञानचन्द्र जी लाहोरवालोंने १९०४ ई. में प्रकाशित किया। बादमें 'दिगम्बर जैन भवन' सूरतने ई. १९६८ में पुनः प्रकाशित किया । अन्तिम प्रशस्तिमें कवि कहता है
"गोप गिरगढ़ उत्तम थान । शूरवीर जहाँ राजा 'मान' ।। ता आगे चन्दन चौधरी। कीरति सब जगमें विस्तरी ।। जाति वैश्य गुनह गंभीर । अति प्रताप कुल रंजन धीर ।। ता सुत रामदास परवान । ता सुत अस्ति महा सुर ज्ञान ।।
१. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, पृ. १४२ २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४९० ।
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ग्रन्थ ई० १५९४ में लिखा गया
सिरिवालचरिउ
तास कुल मण्डन परिमल्ल | आगरा में
बस
अरिसल्ल |
ता सम बुद्धिहीन नहि आन । तिन सुनियो श्रीपाल पुरान ॥ ताकी ई मति कछु भई ।
यह श्रीपाल कथा वरनई ॥
नव-रस-मिश्रित गुणह निधान ।
ताकौ चौपाई किया बखान ।। " ( २२९९ - २३०२ ) इस समय अकबरका शासनकाल था
"बाबर बादशाह हो
गयो । ता सुत हुमायूँ भयो ।
प्रमान ।
ता सुत अकबर साह सो तप तप दूसरो मान ॥ ताकै राज न होय अनीत । वसुधा सकल करी बस जीत || केतर देस तास की आण । जो और न ताहि समान ॥ ताकै राज कथा यह करी । कवि परमल्ल प्रकट विस्तरी ॥ "
दिगम्बर समाजमें इस समय जिस श्रीपाल चरित्रका वाचन होता है वह कवि परमल्ल कृत श्रीपाल चरित्रपर ही आधारित है। इनमें एक अनुवाद पं. दीपचन्द्र वर्णीका है और दूसरा सिंघई परमानन्दका । प्रकाशक क्रमशः 'दिगम्बर जैन पुस्तकालय' गाँधी चौक, सूरत; और 'जैन पुस्तकालय भवन' १६ १, हरिसन रोड, कलकत्ता-७ ।
कवि परमल्ल अपनी रचनाके मूल स्रोतके विषयमें इतना ही कहते हैं कि मैंने 'श्रीपाल पुरान' सुना था उसकी छायापर मैंने श्रीपाल कथाका वर्णन किया है। अनुमान यही है कि किसी संस्कृत श्रीपाल चरितके आधारपर ही कवि परमल्लने अपने काव्यकी रचना की होगी । यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि वि. सं. १६५१ में पं. परमल्ल और भट्टारक वादिचन्द्र दोनों अपनी रचनाएँ एक साथ समाप्त करते हैं। हो सकता है। दोनोंने ब्रह्मचारी नेमिदत्त द्वारा रचित काव्यसे सहायता ली हो ।
मूल 'श्रीपाल चरित्र' से तुलनाके बिना इस सम्बन्ध में निश्चय पूर्वक कुछ कहना कठिन है । 'श्रीपाल आख्यान' बम्बई में ‘पन्नालाल सरस्वती भवन में ( सन्दर्भ २१८२ / १४८ ) सुरक्षित है ।
हिन्दी भाषा कथा – चौपाई बन्ध हेमराज इटावा ( वि. सं. १७३८ ) ।
हिन्दी भाषा - वचनिका, पं. नाथूलाल दोशी खण्डेलवाल |
'अढाईव्रत' — खरौआ जातिके भट्टारकके शिष्य विश्वभूषण द्वारा रचित है |
अष्टका सर्वतोभद्र - ' कनककीर्ति भट्टारक' ।
श्वेताम्बर परम्परामें श्रीपाल चरितपर आधारित निम्नलिखित रचनाओंका उल्लेख डॉ. राजाराम जैनने किया है—
१. श्रीपाल चरित ( प्राकृत ) रत्नशेखर सूरि ( वि. सं. १४२८ )
२. श्रीपाल चरित्र - सत्यराज गवि ( पूर्णिमा गच्छीय गुणसागर सूरि के शिष्य ) सं. १५१४ ।
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४१० ।
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प्रस्तावना
३. श्रीपाल नाटकगत रसवती-( वर्णन वि. सं. १५३१ )
(इससे लगता है कि कोई श्रीपाल नाटक भी था ) ४. श्रीपाल कथा--लब्धसागर सूरि ( वृद्ध तपागच्छीय ) वि. सं. १५५७ ५. श्रीपाल चरित्र-ज्ञानविमल सूरि ( तपागच्छीय ) वि. सं. १७३८ ६. श्रीपाल चरित्र व्याख्या-क्षमा कल्याण ( खरतर गच्छीय-वि. सं. १८६९) ७. श्रीपाल चरित्र-जयकीर्ति । गुजरातीमें निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं-- सिद्धचक्र रासा अथवा श्रीपाल रास
ज्ञानसागर ( वि. सं. १५३१) श्रीपाल रास--विनयविचय यथो विजय (वि. सं. १७३८) श्रीपाल-रास--ज्ञानसागर ( वि. सं. १७२६)
जिनहर्ष--श्रीपालरास--जिनहर्ष ( वि. सं. १७४० ) २. श्रीपाल रास और श्रीपाल चरित्रकी कथाकी तुलना
नरसेनके 'सिरिवाल चरिउ' की कथाके तुलनात्मक अध्ययनके लिए जरूरी है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराकी दोनों प्रतिनिधि कथाओंका सार समझ लिया जाये। ये प्रतिनिधि कथाएँ-'श्रीपाल रास' और 'श्रीपाल चरित्र' के आधारपर यहाँ संक्षेपमें दी जा रही हैं।
'श्रीपाल रास' ( श्री विनयविजय ) के पहले खण्डमें राजा श्रेणिक पछता है कि पवित्र पण्य धारण करनेवाला श्रीपाल कौन था? उत्तरमें गौतम गणधर कहते हैं-मालवाके उज्जैनके राजा प्रजापालकी दो रानियाँ हैं, सौभाग्यसुन्दरी और रूपसुन्दरी । एक मिथ्यात्वको मानती है, दूसरी जैन है। उनकी दो कन्याएँ हैं-सुरसुन्दरी और मयनासुन्दरी । एक ब्राह्मण गुरुसे पढ़ती है दूसरी जैन गुरु से । एक दिन राजसभामें राजा पूछता है तुम्हारी सुख-सुविधाका श्रेय किसको है ? सुरसुन्दरीका उत्तर है-पिताको । मदनासुन्दरीका उत्तर है-कर्मफल को। राजा सुरसुन्दरीका विवाह, उसकी इच्छाके अनुसार शंखपुरीके राजा अरिदमनसे कर देता है । क्रुद्ध होकर, मयनासुन्दरीके लिए वर खोजने निकल पड़ता है। रास्तेमें कोढ़ियोंका समूह मिलता है, राजा उन्हें दान देना चाहता है। कोढ़ी अपने कोढ़ी राजा श्रीपालके लिए कन्या माँगते हैं । राजा उनकी माँग मानकर स्वजन और पुरजनों के विरोधके बावजूद मयनासुन्दरी, कोढ़ीराजको ब्याह देता है । मयनासुन्दरीको गुरु आगमोक्त नवपदविधि बताते हैं। वह सेवा और नवपदविधिके अनुष्ठानसे सात सौ कोढ़ियों सहित श्रीपालको भलाचंगा कर लेती है। इसी बीच श्रीपालकी माँ उज्जैन आती है। वह अपनी समधिन रूपसुन्दरीको बताती है कि किस प्रकार पतिके मरने के बाद, देवरने षड्यन्त्र किया और उसे अपने पाँच वर्षके बेटेको लेकर कोढ़ियोंमें शरण लेनी पड़ी। यह कोढ़ उन्हींके संसर्गसे उसे हुआ। श्रीपाल घरजवाईके रूपमें रहता है। दूसरे खण्डमें, घरजवाईके कलंकको धोनेके लिए विदेश जाता है। वत्सनगरमें वह एक धातुवादीकी सहायता कर, उससे दो विद्याएँ और सोना लेकर भड़ौच पहँचता है। यहाँ धवलसेठसे उसकी भेंट होती है । सेठके खाड़ी में फंसे ५०० जहाज चलाकर, वह १०० स्वर्ण दीनार किरायेपर उसके जहाजपर बैठकर चल देता है। वह धवलसेठकी नौकरी नहीं करता। चुंगी नहीं चुकानेपर, बब्बरकोटमें सेठ पकड़ लिया जाता है, परन्तु श्रीपाल अपनी वीरतासे उसे छुड़ा लेता है। सेठसे वह आधे जहाज तो लेता ही है, परन्तु बब्बरकोटका राजा भी उसे खूब धन और अपनी कन्या मदनसेना ब्याह देता है। एक दूतके कहनेपर वह रत्नसंचयनगर जाकर, विद्याधर कनककेतुकी कन्या मदनमंजूषासे विवाह करता है। तीसरे खण्डमें फिर वह सेठके साथ प्रवासपर जाता है। मदनमंजुषाको देखकर. सेठको नियत खराब हो जाती है। वह धोखेसे श्रीपालको मचानपर बुलाता है, जहाँसे श्रीपाल समुद्रमें गिरा दिया जाता है। वह तैरकर 'कोंकण द्वीप' पहँचता है। इधर जलदेवता मदनमंजूषाके शीलकी रक्षा करते हैं और सेठको कड़ी सजा देते हैं। सेठ कोंकण
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सिरिवालचरिउ द्वीप पहुँचकर राजदरबारमें उपहार लेकर जाता है । वह भांडोंकी मददसे श्रीपालको डोम सिद्ध करनेका कुचक्र करता है, परन्तु भण्डाफोड़ हो जानेसे उसे निराशा हाथ लगती है । वह रातमें गोहके सहारे श्रीपालका वध करने दीवालपर चढ़ता है, परन्तु गिरकर मर जाता है। उसका धन मित्रोंमें बाँट दिया जाता है। कोंकण द्वीपमें भी उसका मदनमंजरीसे विवाह पहले ही हो चुकता है। एक सार्थवाह कुण्डलपुरके राजाकी कन्या भुवनमालाका पता देता है। श्रीपाल वीणाप्रतियोगितामें उसे जीत लेता है। उससे विवाह कर वह कंचनपुरकी कन्या त्रैलोक्यसुन्दरीके स्वयंवरमें जाता है, कन्या उसका वरण करती है। वहाँसे वह दलवट्टण नगर जाता है। वह समस्यापूर्ति कर श्रृंगारसुन्दरीसे विवाह करता है। उत्तर-प्रत्युत्तर पुतलीके माध्यमसे होता है। फिर वह कोल्लागपुरमें जाकर जयसुन्दरीसे विवाह करता है। उसे मयनासुन्दरीकी याद आती है। वह अपनी आठों पत्नियोंके साथ मरहट्ठ, सौराष्ट्र, मेवाड़, लाट, भोट आदि देशोंको जीतता हुआ उज्जैन आ जाता है।
चौथे खण्डमें माँ और पत्नीसे भेंट करता है। वह अपने ससुर राजपालको बुलाता है। नाटकके आयोजनमें मयनासुन्दरीकी बड़ी बहन सुरसुन्दरी नर्तकीके रूपमें उपस्थित है। रास्तेमें उसका पति लूट लिया जाता है और वह बेच दी जाती है। विधिका खेल कि उसे नर्तकी बनना पडता है। यह है उक्त प्रश्नका उत्तर कि मनुष्य जो कुछ है वह अपने कर्मके कारण । श्रीपाल, चाचा अजितसेनपर आक्रमण करता है। घमासान लड़ाईके बाद, अंगरक्षक उसे बाँधकर ले आते हैं। श्रीपाल उन्हें मुक्त करता है, वह दीक्षा ले लेता है। श्रीपाल राज-काज सम्हालता है। मुनि अजितसेन अवधिज्ञानी बनकर चम्पापुर आता है। श्रीपाल वन्दनाभक्तिके लिए जाता है। उपदेश ग्रहण करनेके बाद वह, मनिवरसे वर्तमान जीवनकी सफलताओंविफलताओंके बारेमें पूछता है । मनि बतलाते हैं-"हिरण्यपरमें राजा श्रीकान्त-रानी श्रीमती थे। आखेटके व्यसनके कारण राजाने कई काम किये । जैसे
१. राजाका पशुओंको मारना । २. कायोत्सर्गमें खड़े रोगी मुनिको सताना । ३. मुनिको नदीमें ढकेलना। ४. गोचरीके लिए जाते हुए मुनिसे अपशब्द कहना । ५. मनिके समझानेपर सिद्धचक्र-विधान करना।
६. उसके सातसौ आदमियोंका राजा सिंहराजका उपद्रव करना, सिंहराज द्वारा उसकी हत्या कर देना।
इन्हीं कर्मोंके फलस्वरूप श्रीपाल, तुम्हें यह सब सहन करना पड़ा। सिंहराज हो मुनि अजितसेन है और जिन सखियोंने सिद्धचक्रका समर्थन किया था, वे ही तुम्हारी पत्नियाँ बनती हैं। तुम्हें अभी कर्मका फल भोगना है। नौवें जन्ममें तुम मोक्ष-प्राप्त करोगे ।
३.
पण्डित परिमल्लका 'श्रीपाल चरित्र' ६ सन्धियोंका काव्य है। कथा चम्पापुरसे प्रारम्भ होती है। राजा अरिदमन, छोटा भाई वीरदमन, रानी कुन्दप्रभा, पुत्र श्रीपाल । अरिदमनकी मृत्युके बाद श्रीपाल राजा बनता है। परन्तु कोढ़ हो जानेसे प्रजाके हितमें चाचाको राजपाट देकर उद्यानमें चला जाता है। दूसरी सन्धिमें उज्जैनका राजा पहपाल, उसकी दो कन्याएँ हैं, सुरसुन्दरी और मयनासुन्दरी। दोनों दो अलग-अलग गुरुओंसे पढ़ती हैं। सुरसुन्दरीका विवाह कौशाम्बीके राजा हरिवाहनसे होता है। तीसरी सन्धिमें मयनासुन्दरीके कर्मसिद्धान्तवाले उत्तरको सुनकर राजा चिढ़कर कोढ़ी श्रीपालसे उसका विवाह कर देता है, बादमें पछताता है। सिद्धचक्र-विधान और सेवा करके मयनासुन्दरी सात सौ राजाओं सहित श्रीपालको ठीक कर लेती है। चौथी सन्धिमें उसकी माँ आती है। घरजॅवाईके कलंकको धोनेके लिए श्रीपाल प्रवासपर जाता है। वत्सनगरमें दो विद्याएँ प्राप्त करता है। पाँचवीं सन्धिमें भड़ौंचमें धवलसेठसे पहचान । खाड़ी में
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प्रस्तावना
।
फँसे जहाज निकालता है, दसवें हिस्सेकी शर्तपर साथ जाता है । रास्तेमें लाखचोरका आक्रमण | सेठ बन्दी बना लिया जाता है । धवलको श्रीपाल बचाता है। दस्यु उसे सात जहाज रत्न देते हैं । छठी सन्धिमें वह रत्नमंजूषासे विवाह करता है । फिर प्रवास करता है । धवलसेठ रत्नमंजूषापर मुग्ध हो जाता है । वह श्रीपालको धोखे से समुद्र में गिरा देता है । जलदेवता, रत्नमंजूषाके शीलकी रक्षा करते हैं और सेठकी बुरी दशा करते हैं । श्रीपाल तैरकर कुंकुम द्वीप पहुँचता है । गुणमाला से विवाह करता । धवलसेठ भी वहीं पहुँचता है और दरबारंमें श्रीपालसे टकराता है । वह कुचक्र कर, श्रीपालको डोम सिद्ध करवाना चाहता है, परन्तु बाद में सही बात ज्ञात होनेपर, राजा प्राणदण्ड देता है । श्रीपाल उसे बचाता है, उसका धन ले लेता है । इसके बाद श्रीपाल चित्ररेखा, गुणमाला आदि कुल मिलाकर ८००० कन्याओंसे विवाह करता है । अवधि पूरी होनेपर वह उज्जैन आकर माँ और पत्नीसे भेंट करता है । अंगरक्षकोंके साथ चम्पापुर पर आक्रमण | चाचा वीरदमन दीक्षा ग्रहण कर लेता है । श्रीपाल राज्य करने लगता है । एक दिन मुनि आते हैं, वह वन्दना भक्ति करनेके लिए जाता है । उपदेश ग्रहण करनेके बाद, राजा अपने पूर्वभव पूछता है। मुनि पूर्व - जीवनके श्रीकान्त और श्रीमतीको पूरी कहानी सुनाता है । अन्तमें श्रीपाल तप कर मोक्ष प्राप्त करता है ।
४.
'श्रीपाल चरित्र' ( पं. परिमल्ल ) ६ खण्डोंकी कथाका, 'श्रीपाल रास' के ४ खण्डों में निम्नलिखित रूपसे सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। 'श्रीपाल रास' की कथा उज्जैनसे प्रारम्भ होती है । अतः 'श्रीपाल चरित्र' की पहली सन्धिकी कथा स्वतः छूट जाती है । पं. परिमल्लकी तीसरी और चौथी सन्धियों में सुरसुन्दरी-मयनासुन्दरीके विवाहसे लेकर माँ कुन्दप्रभाके उज्जैन आने तककी घटनाएँ आती हैं । यह कथा 'श्रीपाल रास' में एक खण्डमें है । अतः 'श्रीपाल रास' में जो विदेशयात्रा दूसरे खण्डमें है वह 'श्रीपाल चरित्र' में चौथी सन्धि में ।
जहाँ तक पण्डित नरसेन के 'सिरिवाल चरिउ' की कथा का प्रश्न है, दो परिच्छेदों में समूची कथा वर्णित है । कथा संक्षिप्त एवं स्पष्ट है । उसका मुख्य उद्देश्य मानवी परिस्थितियों और संवेदनाओंके उतारचढ़ाव के बीच कर्मफलके सिद्धान्तको प्रतिपादित करना है । 'श्रीपाल रास' की तुलना में उनकी कथा पं. परिमल्लकी कथासे मिलती है । फिर भी दोनोंमें कई महत्त्वपूर्ण विभिन्नताएँ हैं । केवल इसीलिए नहीं कि कथा दो सन्धियोंमें सिमटी हुई है, वरन् उसके कई कारण हैं । पहले 'श्रीपाल रास' और 'श्रीपाल चरित्र' ( परिमल्ल ) की कथाओंकी विभिन्नताओंको हम लें 1
श्रीपाल रास
( १ ) उज्जैनका राजा प्रजापाल है । उसकी दो पत्नियाँ हैं - सौभाग्य- सुन्दरी, रूपसुन्दरी । एक शैव और 'दूसर जैन । एकसे सुरसुन्दरी जन्म लेती है और दूसरी मयनासुन्दरी ।
( २ ) एक शैवगुरुके पास पढ़ती है, दूसरी जैन
पा
( ३ ) सुरसुन्दरी बापका श्रेय मानती है ।
( ४ ) सुरसुन्दरीका विवाह शंखपुरीके राजा अरिदमनसे होता है |
[ २ ]
श्रीपाल चरित्र (पं. परिमल्ल )
( १ ) राजा पहुपाल है । उसकी एक पत्नी है— रूपसुन्दरी, जो जैन है ।
रूपसुन्दरी से ही दोनों कन्याएँ जन्म लेती हैं ।
( २ ) इसमें भी यही है ।
( ३ ) मयनासुन्दरी 'कर्म' का ।
( ४ ) सुरसुन्दरीका विवाह कौशाम्बीके राजा हरिवाहनसे होता है ।
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सिरिवालचरिउ
श्रीपाल रास
श्रीपाल चरित्र (पं. परिमल्ल) (५) पाँच वर्षकी आयु में श्रीपालका पिता मर (५) पिता अरिदमनकी मृत्युके बाद, श्रीपाल जाता है। उसे बाल राजा घोषित किया जाता है, गद्दीपर बैठता है, परन्तु कोढ़ हो जानेसे अपने ७०० परन्तु चाचा अजितसेन माँ-बेटेको मरवानेका कुचक्र अंगरक्षकोंके साथ स्वतः राज छोड़ देता है। रचता है। दोनों भागकर कोढ़ियोंकी शरण में जाते हैं। वहीं श्रीपालको कोढ़ होता है।
( ६ ) श्रीपालकी माँका नाम कमलप्रभा है ।। (६) श्रीपालकी माँका नाम कुन्दप्रभा है।
(७) वत्सनगरमें धातूवादीसे श्रीपालकी भेंट ७) विद्या सिद्ध करते हुए विद्याधरसे भेंट होती है।
होती है। (८) धवलसेठ चंगी न चुकानेपर बब्बरकोट (८) रास्ते में लाखचोर ( जलदस्य ) सेठपर बन्दरगाहपर पकड़ा जाता है । श्रीपाल उसे छुड़ाता है, हमला कर उसे पकड़ लेते हैं। श्रीपाल उन्हें हराता फलस्वरूप आधे जहाज सेठसे ले लेता है। बब्बरकोटका है। जलदस्यु उसे रत्नोंसे भरे ७ जहाज देते हैं। राजा महाकाल उसे अपनी कन्या मदनसेना ब्याह देता है। यहींसे जाकर मदनमंजूषा ( रत्नसंचयपुर ) से विवाह करता है।
(९) धवलसेठके जहाजपर वह १०० दीनार (९) दसवाँ हिस्सा देनेकी शर्तपर श्रीपाल प्रतिमाह किराया देकर बैठता है।
धवलसेठके साथ जाता है। जहाज हंस द्वीप पहुँचते
हैं । वहाँ वह रत्नमंजूषासे विवाह करता है । (१०) धवलसेठ मचान बनाकर श्रीपालको (१०) मरजियाको एक लाख रुपयेकी घूस बुलाकर धोखेसे गिरा देता है।
देकर रस्सी कटवा देता है और श्रीपाल मस्तूलसे गिर
पड़ता है। (११) तैरकर कुमार कोंकण द्वीप पहुँचता है। (११) तैरकर कुंकुम द्वीप पहुँचता है और वहाँ मदनमंजरीसे विवाह कर घरजवाई बनकर रहता गुणमालासे विवाह करता है ।
(१२ ) भण्डाफोड़ होनेपर धवलसेठ श्रीपालको (१२ ) गोहवाली घटना नहीं है । श्रीपाल मारनेकी नीयतसे गोहके सहारे दीवालपर चढ़ता है सेठको शूलीपर चढ़नेसे बचता है और आधा धन ले और कूदकर मर जाता है।
लेता है। (१३ ) वह कुण्डनपुरकी गुणमाला, कंचनपुरकी (१३) चित्ररेखा आदि ८००० कन्याओंसे त्रैलोक्यसुन्दरी, कोल्लागपुरकी जयसुन्दरी, महासेन विवाह करता है । राजाकी तिलकसुन्दरीसे विवाह करता है। कुल आठ कन्याओंसे विवाह करता है।
( १४ ) श्रीपालके चाचा अजितसेन ही युद्धमें (१४ ) जैन मुनि चम्पापुर आते हैं और पूर्वजन्म हारकर दीक्षा ग्रहण करते हैं। अवधिज्ञान होनेपर सुनाते हैं । चम्पापुरी आते हैं और पूर्वभवकी कथा सुनाते हैं। - (१५) श्रीपाल नौवें जन्ममें मोक्ष प्राप्त करेगा। (१५) उसी जन्ममें मोक्ष प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार दोनों परम्पराओं ( दिगम्बर-श्वेताम्बर ) की कथाओंके तुलनात्मक अध्ययनसे निम्नलिखित समान निष्कर्ष निकलते हैं
( १ ) श्रीपाल चम्पापुरका राजपुत्र है ।
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प्रस्तावना
११
( २ ) इस जीवन में जो उसे कोढ़ी होना पड़ता है, डोम कहलाना पड़ता है और समुद्रमें गिरना पड़ता है, वह पूर्वजन्मके कर्मके कारण ।
( ३ ) मदनासुन्दरी की सिद्धान्तवादितासे उसका पिता अप्रसन्न होकर कोढ़ीसे विवाह कर देता है । ( ४ ) सिद्धचक्र विधान और सेवासे मदनासुन्दरी सबको चंगा कर लेती है ।
(५) 'घरजँवाई' के कलंकसे बचनेके लिए श्रीपाल साहसी यात्राएँ करता है और अपनी उद्योगशीलता और उदार साहसका परिचय देता है ।
( ६ ) धवलसेठ खलनायक है ।
( ८ ) कतिपय घटनाओं और चरित्रों में थोड़ी-बहुत भिन्नता होते हुए भी केन्द्रीयकथा और उसके लक्ष्य में मूलभूत समानता है। क्योंकि यह दोनों परम्पराएँ मानती हैं कि श्रीपाल और मदनासुन्दरी जीवन में जो कुछ सिद्धियाँ पाते हैं, वह पूर्वजन्मके फल और सिद्धचक्रविधानकी महिमाके कारण ।
५. मूल प्रेरणास्रोत
मुख्य प्रश्न है कि कथाकी मूलप्रेरणा क्या है ? 'सिद्धचक्र विधान' या 'नवपदमण्डल' की पूजाको महिमा बताना, उसकी मूल समस्या नहीं है; वह तो समस्याका धार्मिक अथवा दार्शनिक समाधान है । उसकी मूल प्रेरणा इस समस्याका हल खोजना है कि मनुष्य अपना जीवन किसी दूसरेके भरोसे जीता है, या अपनी कर्मचेतनापर ? भाग्य मनुष्यकी एक पूर्व निर्धारित ठीक है कि जिसपर उसे चलना है, या वह उसके ही पूर्वसंचित कर्मोंका फल है ? दूसरे शब्दों में मनुष्य किसी तर्कहीन दैवी विधानके अन्तर्गत अपना जीवन जीता है या वह अपनी ही पूर्वनिर्धारित उस कर्मचेतना के बलपर जीवन जीता है कि जिसका विधायक वह स्वयं है ? सुरसुन्दरी और मयनासुन्दरी इन्हीं दो विचारचेतनाओंके प्रतीक पात्र हैं । चूँकि जनदर्शन कर्मवादका पुरस्कर्ता दर्शन है, अतः वह दूसरी विचारचेतनापर विशेष जोर देता है । यही कारण है कि जब मयनासुन्दरी ऋद्धि-सिद्धियोंके चरम बिन्दुपर होती है, तब रास्तेमें लूटी गयी बेचारी सुरसुन्दरी, उसके सम्मुख नर्तकीके रूपमें पेश की जाती है । मैं समझता हूँ कि व्यापक मानवी सन्दर्भ में समस्याका यह हल धार्मिक, एकांगी और न्यायचेतनासे शून्य प्रतीत होगा; फिर भी यह तो स्वीकारना ही पड़ता है कि आलोच्य कृतिमें आकस्मिकताओंके तारतम्य में मानवजीवनके उतार-चढ़ावोंका सुन्दर और सजीव चित्रण है । कुल मिलाकर यह कथा जीवनमें उद्यमशीलता, आचरणको पवित्रता और धार्मिक जीवनकी प्रेरणा देती है; क्योंकि उद्यम के बिना जीवन दरिद्र है, आचरणकी पवित्रताके बिना अन्तरिक सुख-शान्ति असम्भव है और धार्मिक चेतना के बिना मनुष्य संवेदना और आशाकी उस आन्तरिक शक्तिको खो देगा, जो बाह्य निराशा और संकटमें जीवनको आन्तरिक विवेक और शक्ति देती है
1
नरसेन कविने अपने 'सिरिवाल चरिउ' में कुछ परिवर्तन किये हैं । उदाहरण के लिए कथाको संक्षिप्त बनाने के लिए वह चम्पापुरसे लेकर उज्जैन नगरी में आने तककी घटनाओंका उल्लेख नहीं करता । उज्जैनसे अपनी कथा प्रारम्भ कर, वह मूल समस्यापर आ जाता है । पहुपाल क्रोधके आवेशमें स्वयं मयनासुन्दरी कोढ़ीराजको दे देता है । सुरसुन्दरीका विवाह कौशाम्बीके शृंगारसिंहसे करवाता है, हरिवाहन से नहीं । अपनी सास कुन्दप्रभासे जब मयनासुन्दरीको यह मालूम हो जाता है कि श्रीपाल राजकुमार है, तभी वह उसका कोढ़ दूर करनेके लिए सिद्धचक्र विधान करती है । अर्थात् कर्मचेतनाके बावजूद उसमें कुलीनताका बोध बराबर है ।
६. नन्दीश्वर द्वीप पूजा
'सिरिवाल चरिउ' में जिस 'सिद्धचक्र यन्त्र' का वर्णन है, उसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके प्रचलित यन्त्रोंसे भिन्नता है । इसके 'सिद्धचक्र विधान' को 'नन्दीश्वर पर्व' या 'अष्टाह्निका पूजाविधि' भी कहते हैं। परम्पराके अनुसार यह पर्व प्रति वर्ष, कार्तिक, फागुन, आसाढ़के अन्तिम आठ दिनोंमें पड़ता है ।
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१२
सिरिवालचरिउ
विशुद्ध रूपसे यह धार्मिक पर्व है। इन दिनों देवता लोग नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर ५२ अकृत्रिम चैत्यालयोंमें देवपूजा कर पुण्यार्जन करते हैं । अढाई द्वीप यानी मनुष्य क्षेत्रके लोग, चूंकि वहाँ नहीं जा सकते, इसलिए अपने गाँव या मन्दिरमें परोक्ष रूपसे उसकी प्रतीक पूजा करते हैं। मनुष्य क्षेत्रसे नन्दीश्वर द्वीप तक कुल आठ द्वीप हैं-१. जम्बूद्वीप, २. धातकी खण्ड, ३. पुष्करवर, ४. वारुणीवर, ५. क्षीरवर, ६. घृतवर, ७. इक्षुवर और ८. नन्दीश्वर द्वीप। इसे अढ़ाई द्वीपपूजा कहते हैं । एक पूजा तो संस्कृत-प्राकृत मिश्रित है। इसके अतिरिक्त भाषापूजा लिखनेवाले हैं--पण्डित द्यानतराम अग्रवाल आगरा, पं. टेकचन्द भद्रपुर, पं. डा इत्यादि । वस्तुस्थिति यह है कि अढाई द्वीपपजा प्राचीन है, परन्तु श्रीपालके माध्यमसे वह १३-१४वीं सदी में अधिक लोकप्रिय हुई। कहते हैं पोदनपुरका एक विद्याधर राजा, किसी मुनिसे नन्दीश्वर द्वीपकी महिमा सुनकर विमानसे वहाँसे जाता है। उसका विमान मानुषोत्तर पर्वतसे टकराकर चूर-चूर हो जाता है । मरकर वह देव होता है, नन्दीश्वर द्वीपमें पूजा करता है और उसके फलसे अगले जन्ममें मोक्ष प्राप्त करता है । उसकी पत्नी सोमारानी भी यह पूजा करती है । तीसरा सन्दर्भ है राजा हरिषेणका । अयोध्यामें सूर्यवंशी राजा हरिषेण था। वह अपनी पत्नी गन्धर्वसेनाके साथ दो चारणमनियोंके दर्शन करता है और उनसे अपने पर्वजन्म पूछता है । मुनि बताते हैं कि पूर्वभवमें कुबेर वैश्यकी सुन्दरी नामक पत्नीके तीन पुत्र थे-श्रीवर्मा, जयकीर्ति
और जयचन्द। तीनोंने उस भवमें नन्दीश्वर व्रतका पालन किया । उसके फलसे श्रीवर्मा इस भवमें हरिषेण बना और शेष दो भाई-पूर्वभव बतानेवाले स्वयं चारणमुनि । हरिषेण तप कर मोक्ष प्राप्त करता है । एक हरिषेण नामका १०वाँ चक्रवर्ती राजा भी हुआ है। उसका समय है बीसवें तीर्थंकर, मुनिसुव्रतका शासनकाल । उपलब्ध तथ्योंके आधारपर यह कहना कठिन है कि दोनों हरिषेण एक हैं या अलग-अलग । एक सम्भावना यह की जा सकती है कि नन्दीश्वरद्वीप पूजा प्राचीन थी, बादमें 'सिद्धचक्र' या 'नवपद विधिपूजा' से वह सम्बद्ध कर दी गयी। बादमें श्रीपालके आख्यानने उसे पुराणका रूप दिया। दोनों परम्पराएँ, कथाका प्रारम्भ गौतम गणधरसे करती हैं, परन्तु तथ्योंकी उक्त भिन्नतासे सिद्ध है कि कथाकार, समय और क्षेत्रीय आवश्यकताओंके अनुसार उसमें परिवर्तन करते रहे। ७. सिद्धचक्र यन्त्र और नवपदमण्डल
सिद्धचक्र या नवपद विधिकी यन्त्ररचनाके मलमें पंच परमेष्ठी या णमोकार मन्त्र है, परन्तु दिगम्बर परम्पराके यन्त्र में केवल णमोकार अरहंताणं है, जबकि श्वेताम्बर परम्परामें पाँच परमेष्ठियोंका उल्लेख है, जैसा कि संलग्न चित्रोंसे स्पष्ट है । यह अब भी ऐतिहासिक खोजका विषय है कि सिद्धचक्र यन्त्र कब और कैसे अस्तित्वमें आया ? उसका कहीं तान्त्रिक साधनासे तो सम्बन्ध नहीं है ?
'सिरिवाल चरिउ' में मयनासुन्दरीके पूछनेपर पापका हरण करनेवाले समाधिगुप्त मुनि कहते हैं
'सिद्धचक्र' सद्भावसे लेना चाहिए, अष्टाह्निका करनी चाहिए। आठ दिन सिद्ध चक्रका विधान करना चाहिए और आठदलके सिद्धचक्र दलके सिद्धचक्र यन्त्रकी आराधना करनी चाहिए। अ सि आ उ सा परममन्त्रको उसमें लिखें। कूटसहित तीन वलय (वृत्त) हों। उसमें ओंकारको कौन छोड़ता है। चार कोनोंमें आठ त्रिशूल लिखे जायें। बीचमें पाँच परमेष्ठी लिखे जायें। उसमें चार मंगलोत्तम लिखे जायें। विचारकर जिनधर्म के अनुसार पूजा की जाये। फिर प्रत्येक दलमें समस्त आठ ( वर्ग क च ट प आदि ) लिखे जायें। दलके भीतर, सुन्दर दर्शन-लाभ-चरित्र और तप लिखा जाये ।
फिर चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, परमेश्वरी अम्बा, पद्मिनी, दस दिशापाल भालसहित यक्षेश्वर गोमुख । फिर मण्डलके बाहर मणिभद्र । फिर दसमुख नामक व्यन्तरेन्द्र । प्रतिदिन चारों ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिए । इन्द्रियप्रसारको रोको और आठों दिन एक चित्त रहो।"
'नवपद मण्डल' और 'सिद्ध चक्र यन्त्र'से जब हम नरसेनके 'सिद्ध चक्र यन्त्र'की तुलना करते हैं तो उसमें चक्रेश्वरीदेवी, ज्वालामालिनी आदि शासन देवी आदि यक्ष और व्यन्तरका भी उल्लेख है । यह उल्लेख साभिप्राय है। क्योंकि ये धवलसेठसे रत्नमंजूषाकी शीलकी रक्षा करते हैं। जब रत्नमंजूषा सहायताके लिए पुकारती
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प्रस्तावना
है तो ( नरसेनके 'सिरिवाल चरिउ'में ) माणिभद्र समुद्र हिलाता है । जहाज पकड़कर सेठका मुख नीचा करता है। सिंहके रथपर बैठकर अम्बादेवी आती है। क्षेत्रपाल कुत्तेपर बैठकर आता है। ज्वालामालिनी आग लगाती है। दसमुँह व्यन्तर भी आता है।
'श्रीपाल रास'में सबसे पहले क्षेत्रपाल रौद्ररूप धारण करता है। फिर ५२ वीरोंसे घिरा माणिभद्र, पूर्णभद्र, कपिल और पिंगल चार देव आते हैं। चक्रेश्वरी सिंहरथपर बैठकर आती है, वह पकड़नेका आदेश देती है । वे उसके मुँहमें गन्दी चीजें भरते हैं । शरीरके टुकड़े करके चारों दिशाओंमें छिटका देते हैं । सेठ थर-थर काँप उठता है। (पृष्ठ ७५, छठा संस्करण )
पं. परिमल्ल यह काम जलदेवतासे करवाते हैं। इस प्रकार 'श्रीपाल रास' और नरसेनके 'सिरिवाल चरिउ' में रत्नमंजूषा ( मदनमंजूषा )के शीलकी रक्षा करनेवाले देवताओंके नामों और कार्यविधिमें बहुत कम अन्तर है। परन्तु इन देवी-देवताओंका उल्लेख न तो दिगम्बरोंके सिद्धचक्र यन्त्रमें है और न श्वेताम्बरों के नवपद मण्डल या मकारके आठ पंखुड़ियोंवाले कमलमें। श्वेताम्बरोंके नवपदमण्डल और आठ पंखुड़ियोंके कमलमें यही अन्तर है कि एकमें णमोकार मन्त्र ( पाँच परमेष्ठी ) उनमें वर्ण एवं दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपका उल्लेख है। जबकि नवकार-कमलमें पाँच परमेष्ठियोंके साथ, प्रत्येक वैकल्पिक दलमें ।
'एसो पंच णमोयारो सब्वपावत्रणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होइ मंगलं' ये दोनों बातें श्वेताम्बर परम्पराके 'नवपदमण्डल' और आठ पंखुड़ियोंके कमलके अनुरूप हैं । परन्तु नरसेनने दिगम्बर परम्पराके 'अ क च ट त प श य' वर्गोंका भी उल्लेख किया है। इसी प्रकार असि आ उ सा चार उत्तम मंगलोंका भी विधान किया है।
यह बातें दिगम्बर परम्पराके विनायक यन्त्रमें है। 'ओं की भी यही स्थिति है। लगता है पं. नरसेनने 'नवपदमण्डल', 'सिद्धचक्रयन्त्र' और 'विनायक तन्त्र'की बातें एकमें मिला दी है। परन्तु चक्रेश्वरी आदि देवियोंका उल्लेख उक्त तीनों ग्रन्थोंमें नहीं है। सम्भवतः शासनदेवताओंके माध्यमसे जिनभक्तिका प्रभाव स्थापित करनेके लिए ही कविने ऐसा किया।
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कथावस्तु
पहली सन्धि
सन्धिका प्रारम्भ मंगलाचरणसे किया गया है। मंगलाचरणके बाद विपुलाचलपर महावीरके समवसरणका उल्लेख आता है। राजा श्रेणिक परिवार सहित समवसरणमें जाकर पद-वन्दना करके 'सिद्धचक्र विधान'का फल पूछता है। उत्तरमें गौतम गणधर कहते हैं
अत्यन्त प्रसिद्ध और सुन्दर नगरी उज्जैनीमें पयपाल ( प्रजापाल ) नामका राजा रहता है । उसकी दो कन्याएँ हैं-बड़ी सुरसुन्दरी और छोटी मैनासुन्दरी । बड़ी कन्या ब्राह्मण गुरुसे और छोटी जैन मुनिसे पढ़ती है। सुरसुन्दरीका विवाह उसकी इच्छानुसार कौशाम्बी पुरके राजा सिंगारसिंहसे कर दिया जाता है।
मैनासुन्दरी अनेक विद्याओं और कलाओमें दक्षता प्राप्त कर लेती है तथा अनेक भाषाएँ भी सीख लेती है । जब वह सयानी होती है तब उससे भी पयपाल अपनी इच्छानुसार वर चुननेके लिए कहता है । परन्तु मैनासुन्दरी कहती है--"कुलीन कन्याका वर तो उसके मां-बाप निश्चित करते हैं। माथेपर लिखे कर्मको कोई मेट नहीं सकता।" यह उत्तर सुनकर राजा क्रोधित हो जाता है। वह मैनासुन्दरीका विवाह एक कोढ़ीसे कर देता है । कोढ़ीसे मैनासुन्दरीका विवाह होनेसे सभी अप्रसन्न हैं। उसको देखकर सारा कुटुम्ब और नगर दुःखी होता है, परन्तु मैनासून्दीको सन्तोष है। वह उसे कामदेवसे भी अधिक सुन्दर समझती है। रोती हुई माँ और बहनको समझाती है--"विधाताका लिखा कौन टाल सकता है ?" कोढ़ी अंगदेशका राजा श्रीपाल है, जो पूर्वजन्मकी मुनिनिन्दाके फलस्वरूप कोढ़ी है और आत्मनिर्वासनका जीवन व्यतीत कर रहा है। उसके साथ सात सौ सामन्त भी कोढ़की यातना सह रहे हैं। उन सबको उज्जैन नगरीके बाहर स्थान दिया जाता है। कुछ दिन पश्चात् श्रीपालकी माँ कुन्दप्रभा आती है। उससे मैनासुन्दरीको मालूम होता है कि श्रीपाल राजा है और कोटिभट वीर है। मैनासुन्दरी जिनशासनके प्रमुख मुनिसे 'सिद्धचक्र विधि' पूरी करती है। 'सिद्धचक्र विधि' से राजा और उसके साथियोंका कोढ़ दूर हो जाता है। राजा पयपालको यह जानकर खुशी होती है। वह श्रीपालको अपने यहाँ घरजवाई बनाकर रख लेता है। परन्तु श्रीपालको इस प्रकार रहना पसन्द नहीं है। जगहँसाईके कारण श्रीपाल बारह वर्ष के लिए विदेश चला जाता है। मैनासुन्दरी जाते समय कहती है-“यदि तुम बारह वर्षमें नहीं आये तो मैं महान् तप करूँगी।" मैनासुन्दरी और श्रीपालको माँ-कुन्दप्रभा उसे अनेक उपदेशात्मक बातें कहती हैं और विदा देती हैं।
अनेक योद्धाओंको साथ लेकर श्रीपाल देश-देशान्तरकी सैर करता हुआ वत्सनगरमें आता है जहाँ अवगुणोंका घर धवलसेठ रहता है। धवलसेठके पाँच सौ जहाज समुद्रमें रुक जाते हैं। लोग कहने लगे कि बत्तीस लक्षणोंवाला मनुष्य जब इसे चलायेगा तब ये चलेंगे। वणिक-समूह श्रीपालको पकड़कर ले आता है। श्रीपाल उन पाँच सौ जहाजोंको पैरसे चला देता है। धवलसेठ श्रीपालको अपना पुत्र मान लेता है। वह श्रीपालको अपनी आयका दसवाँ हिस्सा देनेका वचन भी देता है।
पाँच सौ जहाज समुद्रमें चलने लगते हैं। रास्तेमें जलदस्यु ( लाखचोर ) आक्रमण करते हैं और धवलसेठको बन्दी बना लेते हैं । श्रीपाल धवलसेठको छुड़ा लेता है । सभी दस्यु श्रीपालको अपना स्वामी मान लेते हैं। जहाज हंसद्वीपमें जा लगते हैं । हंसद्वीपके राजा विद्याधर कनककेतुकी एक कन्या और दो पुत्र हैं । एक दिन राजा गुरु महाराजसे पूछता है--"मेरी कन्या रत्नमंजूषा किसे दी जाये ?" गुरु महाराजने कहा"सहस्रकूट जिनमन्दिरके वज्रके समान किवाड़ोंको जो खोल देगा, उसीके साथ कन्याका विवाह कर देना।" श्रीपाल जिनमन्दिरके किवाडोंको खोल देता है और रत्नमंजषाका विवाह श्रीपालसे हो जाता है ।
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कथावस्तु
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वणिक वर्गके साथ श्रीपाल रत्नमंजुषाको लेकर यात्रापर चल देता है। धवलसेठ रत्नमंजूषा पर मोहित हो जाता है। उसका मन्त्री स्थितिको समझकर धवलसेठको समझाता है-"तुम अनुचित बात मत करो, रत्नमंजूषा तुम्हारी पुत्रवधू है।" धवलसेठ पर इसका कोई असर नहीं होता है । वह मन्त्रीको लालच देता है। धवलसेठ मन्त्रीसे कहता है कि तुम इस बातकी घोषणा करो कि जलमें मछली उछल पड़ी है। श्रीपाल उसे देखनेके लिए निश्चित ऊपर चढ़ेगा। तुम रस्सी काट देना ताकि वह जलमें गिर पड़े । मन्त्री वैसा ही करता है। श्रीपाल मछलीको देखनेके लिए जैसे ही चढ़ता है, रस्सी काटकर उसे पानीमें गिरा दिया जाता है।
धवलसेठ रत्नमंजूषाके साथ दुर्व्यवहार करना चाहता है। रत्नमंजूषा उसे खूब फटकारती है । धवलसेठ तो कामान्ध है। जल-देवता आकर रत्नमंजूषाकी लाज बचाते हैं और धवलसेठकी खूब खबर लेते हैं।
__ श्रीपाल समुद्र में बहने लगता है। सौभाग्यसे उसे एक लकड़ीका टुकड़ा मिल जाता है। उसकी सहायतासे वह दलवट्टणके किनारे पहुँचता है। वहाँके राजा धनपालके तीन पुत्र और एक पुत्री है । राजा अपनी पुत्री गुणमालाका विवाह श्रीपालसे कर देता है। ज्योतिषीके अनुसार गुणमालाका विवाह करना उसीसे तय था जो पानी में तैरकर आवेगा। धवलसेठके षड्यन्त्रसे श्रीपाल पानीमें गिरता है और तैरकर दलवट्टणमें आकर गुणमालासे विवाह करता है । दूसरी सन्धि
संयोगसे धवलसेठ भी अपने काफिलेके साथ दलवटण नगरमें पहुँचता है। राजदरबारमें वह श्रीपाल को देखकर सन्न रह जाता है। पूछताछ करनेपर उसको ज्ञात होता है कि श्रीपाल राजाका दामाद है । वह अपने विडघरमें आकर मन्त्रियोंसे इस समस्यापर विचार-विमर्श करता है। वह डोम-चाण्डाल आदिको बुलाकर एक योजना बनाता है। वह उन सबसे कहता है-'तुम राजदरबारमें जाकर नृत्य करना और वहाँ श्रीपालको अपना सम्बन्धी बताना। मैं निश्चय ही तुम्हें एक लाख रुपया दूंगा।' डोम-मण्डली पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार राजाके दरबारमें नाचती है। उसी अवसरपर नृत्यके बाद कोई श्रीपालको अपना बेटा, कोई भाई, कोई नाती इत्यादि-इत्यादि बतलाकर अपना रिस्ता प्रकट करता है। राजा श्रीपालपर, कुल छिपाकर शादी करनेका अभियोग लगाता है और मृत्युदण्डकी सजा सुनाता है। गुणमालाको जब यह मालूम होता है तो वह सचाई जाननेके लिए श्रीपालसे जाकर पूछती है-'तुम्हारी कौन-सी जाति है ? तुम्हारा कुल बताओ।' श्रीपाल गुणमालासे कहता है कि विडोंके पास एक सुन्दर सुलक्षण नारी है, उसीसे तुम जाकर पूछो। गुणमाला रत्नमंजूषाको साथ लेकर अपने पिताके पास आती है । राजा रत्नमंजूषासे सारी घटनाओंका विवरण व सचाई जानकर, धवलसेठको मृत्युदण्डका आदेश देता है। परन्तु श्रीपाल उसे बचा लेता है और उससे सब धन ले लेता है।
इसके बाद श्रीपालकी विवाह-यात्राएँ हैं । कुण्डलपुरके मकरकेतु नामक राजाकी कन्या चित्रलेखासे श्रीपाल विवाह करता है। विवाहकी शर्त यह रहती है कि जो नगाड़ा बजाकर और सौ कन्याओंके साथ गायेगा, वह उन सबसे विवाह करेगा। इस प्रकार श्रीपाल चित्रलेखाके साथ अन्य और सौ कन्याओंसे विवाह करता है।
श्रीपाल कंचनपुरके राजा वज्रसेनकी कन्या विलासवतीके साथ विवाह करता है और उसके साथ ९०० कन्याओंसे भी विवाह करता है।
इसके पश्चात् श्रीपाल कोंकण द्वीप पहुँचता है। वहाँके राजा यशोराशिविजयकी आठ कन्याएँ हैं। वे श्रीपालसे अपनी-अपनी पहेलियाँ ( समस्याएँ) पूछती हैं और श्रीपाल उन सभीका समाधान कर देता है। इस प्रकार शतके अनुसार वह उन आठ राजकुमारियों के साथ-साथ अन्य सोलह सौ कुमारियोंसे भी विवाह करता है। इसके बाद पंच पाण्ड्य सुत्रदेशमें दो हजार कन्याओंसे वह विवाह करता है। मल्लिवाडमें
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सिरिवालचरिउ
सात सौ और तेलंग देशमें एक हजार कन्याओंसे वह विवाह करता है। इस प्रकार विवाह यात्राओंसे लौटकर वह दलवट्टण नगर आता है।
एक दिन वह सोचता है कि अब यदि वह उज्जैन नहीं लौटता, तो मैनासुन्दरी मोक्ष देनेवाली दीक्षा ले लेगी। उसने राजा धनपालसे आज्ञा ली और उज्जनके लिए वह चल पड़ता है।
___ रास्तेमें सौराष्ट्र में पांच सौ और महाराष्ट्रमें भी पांच सौ कन्याओंसे वह विवाह करता है। गुजरातकी चार सौ कन्याओंसे वह विवाह करता है। मेवाड़की दो सौ कन्याओंसे वह विवाह करता है। अन्तर्वेदकी ९६ कन्याओंसे वह विवाह करता है । इस प्रकार बारह वर्ष पूरे होते ही वह उज्जैन नगरीमें पहुँचता है ।
सारे नगरमें हलचल मच जाती है। लोग समझते हैं कि कोई राजा चढ़ाई करने आया है । श्रीपाल अकेला मैनासुन्दरीसे मिलने जाता है ।
मैनासुन्दरी अपनी सास से कहती है-"यदि आपका बेटा आज भी नहीं आया तो मैं दीक्षा ले लँगी।" जब श्रीपालकी माँ उसे एक दिन रुक जाने के लिए कहती है तो मैनासुन्दरी साससे कहती हैहे माँ ! शत्रुने पिताजीको घेर लिया है । श्रीपाल यदि आयेगा भी तो कैसे आयेगा। उसी समय श्रीपाल आ जाता है। श्रीपाल मैनासुन्दरीको साथ लेकर वहाँ जाता है जहाँ सेनाका पड़ाव है। सभी रानियाँ मैनासुन्दरीके पैरों पड़ती हैं।
मैनासुन्दरी श्रीपालसे कहती है-"मेरे पिताने मेरे आचरणका उपहास किया है और सभामें मुझे दुतकारा है। इसलिए उनसे यह कहा जाये कि वे कम्बल पहनकर गलेमें कुल्हाड़ी डालकर ही हमसे भेंट करने आयें, नहीं तो उनकी कुशल नहीं है।" ऐसा कहकर मैनासुन्दरी एक दूतको यह सन्देश लेकर भेज देती है। दूतका सन्देश सुनकर राजा क्रोधित हो जाता है। परन्तु मन्त्रीके समझानेपर शान्त हो जाता है। दूत आकर सब वृत्तान्त सुना देता है । श्रीपाल मैनासुन्दरी को समझाता है और वह स्वयं ससुरसे मिलने जाता है। ससुरके साथ वह अपने बाल-सखा सात सौ राजाओंसे भी भेंट करता है।
__ वह अनेक राजपुत्रोंसे सेवा कराता है। बहुत-से देश और उपराज्यों को साधता है। उसके अन्त:पुरमें कुल ८,००० हजार रानियाँ हैं।
वह अपनी चतुरंग सेना व अन्तःपुरके साथ चम्पानगरीमें जाता है जहाँ उसका चाचा वीरदमन है । श्रीपाल अपने चाचाके पास दूत भेजता है । दूत जाकर कहता है-"तुम्हारा भतीजा श्रीपाल आया है, वह तुम्हें बुला रहा है। तुम उसका पुरुषार्थ स्वीकार करते हो?" दूतकी बातपर क्रोधित होकर वीरदमन कहता है-"मैं श्रीपालको युद्धमें हराकर बन्दी बनाऊँगा।" वह रणभेरी बजवा देता है और श्रीपाल से युद्धके लिए निकल पड़ता है। दूत आकर सारा वृत्तान्त सुनाता है। श्रीपाल भी युद्ध में आ डटता है। वीरदमन हार जाता है। श्रीपाल उसे क्षमा कर देता है । वीरदमन श्रीपालको राज्य सौंपकर क्षमा याचना करता है।
__श्रीपाल संजय महामुनिसे पूछता है-"किस पुण्यसे मैं अतुलनीय योद्धा और तीनों लोकोंमें विख्यात हुआ ? किस कर्मसे कोढ़ी हुआ, समुद्रमें फेंका गया, डोम कहलाया और मैनासुन्दरी मेरी भक्त हुई ?'
मुनिवर श्रीपालसे उसके पूर्वजन्म की कथा कहते हैं-"तुमने एक अवधिज्ञानी मुनिको कोढ़ी कहा था। नदी किनारे शिलापर बैठे मुनिको तुमने पानीमें ढकेल दिया था। तपस्यामें लीन मुनिको तुमने डोम कहा था। तुमने 'सिद्धचक्रविधि' अंगीकार की थी इसलिए तुम इन संकटोंसे निकल सके।"
श्रीपाल यह सुनकर अपनी आठ हजार रानियों सहित व्रत करता है। उनके साथ अन्य अनेक राजकुमार भी 'सिद्धचक्रवत' ग्रहण करते हैं। इस प्रकार श्रीपाल जीवनमें मनोवांछित फल प्राप्त करके, अन्तमें दीक्षा ले लेता है। उसके साथ उसकी अट्ठारह हजार रानियाँ भी संन्यासी हो जाती हैं।
अन्तमें 'सिद्धचक्रविधि' का महत्त्व बतलाया गया है। यह व्रत दुःखोंको हरता है और सुख देनेवाला और मोक्ष प्रदान करता है।
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कथावस्तु
भावात्मक और वर्णनात्मक स्थल प्रबन्ध काव्यमें इतिवृत्तमें दो प्रकार के स्थल होते हैं
(१) भावात्मक, और
(२) वर्णनात्मक पहलेका सम्बन्ध हृदयकी रागात्मक चेतनासे है। जबकि दूसरेका सम्बन्ध उन बाह्य परिस्थितियोंसे है, जिनमें मनुष्य रहता है। 'सिरिवाल चरिउ' में दोनों प्रकारके प्रसंगोंका कविने सुन्दर निर्वाह किया है।
भावात्मक वर्णन
भावात्मक स्थलोंको कविने कुशलतापूर्वक सँजोया और सँवारा है । मर्मस्थलको छू लेनेवाले संवादों तथा करुणाको उभारनेवाले दृश्योंका, निपुणतापूर्वक कविने वर्णन किया है। ऐसे स्थलोंमें-मैनासुन्दरीके विवाहका प्रसंग, कुन्दप्रभाका पुत्र-विछोहका दृश्य, मैनासुन्दरीका वियोग, रत्नमंजूषाका विलाप, प्रमुख हैं । खच्चरपर सवार कोढ़ी (श्रीपाल )का करुण व सजीव चित्र कविने उपस्थित किया है
गलित शरीर, सिरपर टेसूके पत्तोंका छत्र । मुनिका निन्दक, पूर्वकर्मोंसे लड़ता हुआ। उसी अपराध और पापसे पीड़ित । घण्टियोंकी ध्वनियोंके साथ बहुत-से ढलते हुए चंवर, शृंगीनादका कोलाहल; नाक, हाथों और पैरोंकी अंगुलियाँ एकदम गली हुई। दूसरे कोढ़ी एकदम उससे मिले हुए।"
मैनासुन्दरीका कोढीसे विवाह कर देनेसे कोई भी प्रसन्न नहीं है। रनिवास रोते हए कह रहा है
"यह कन्या-रत्न कोढ़ीके लिए उपयुक्त नहीं है। जो माला त्रिभवनका सम्मोहन कर सकती है, क्या वह कुत्तेको बाँध देनेसे शोभा पा सकती है ?” (१।१२)
करुणाका एक सुन्दर चित्र देखिए-मैनासुन्दरीका कोढ़ीसे विवाह हो रहा है। विवाहके समय मंगल-गीत गाये जाते हैं. परन्त बेमेल विवाहके कारण स्त्रियाँ अमंगल कर रही हैं। सब दः मैनासुन्दरीके मनमें धीरज है। वह समझती है कि उसे कामदेव ही मिल गया है। वह रोती हुई माँ अ बहनको समझाती है-"विधाताका लिखा हुआ कौन टाल सकता है ? (११४)
श्रीपाल बारह वर्षके लिए प्रवासपर जाता है, तब मैनासुन्दरी उसका आँचल पकड़कर रोकती है। श्रीपाल इस प्रकार रोकनेको अपशकुन बतलाता है, तब मैनासुन्दरी कहती है
"ओ प्रवासपर जानेवाले, तुम मुझपर क्रुद्ध क्यों हो? पहले मैं किसे छोड़ें -अपने प्राणोंको या तुम्हारे आँचलको ? (१२३)
माँ कुन्दप्रभा भी श्रीपालको प्रवासपर जानेसे मना करती है। वह कहती है
"हे पुत्र ! तुम्हें देखकर मुझे सहारा था । हे वत्स ! जबतक मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देखती हूँ, तबतक मैं अपने पति अरिदमनके शोकको कुछ भी नहीं समझती। मैंने आशा करके ही अपने हृदयको धारण किया है। हे पुत्र ! तुम मुझे निराश करके मत जाओ।" ( १।२४)
रत्नमंजूषाके विलापका मनोवैज्ञानिक चित्रण कविने किया है
"हे स्वामी ! तुम कहाँ गये ? हे चम्पा-नरेशके पुत्र श्रीपाल ! हे कनककेतु !! हे कनकमाला !!! हे भाई चित्र और विचित्रवीर, मैं यहाँ हूँ और समुद्रके किनारे मर रही हूँ।........हे नाथ ! हे नाथ !!........ धरतीके स्वामी, हे श्रीपाल ! तुम्हारे बिना जीते हुए भी मैं मरी हुई हूँ।" (१।४२)
__ विलाप करते हुए रत्नमंजूषा कहती है-"जो कुछ मैंने बोया है मैं ही उसे काटूंगी, लेकिन पिताने परदेशीसे मेरा विवाह क्यों किया ?" ।
"काहे बप्प दिण्ण परएसहँ ?॥" ( ११४३ )
[३]
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१८
सिरिवालचरिउ
वर्णनात्मक स्थल
वर्णनात्मक स्थलोंका सुन्दर चित्रण है। कहीं-कहीं दृश्य 'व्यक्ति' या 'वस्तु'का 'शब्दचित्र' उसका प्रत्यक्षीकरण कर देता है। ऐसे प्रसंगोंमें हैं अवन्ती, मालव, उज्जैन, रत्नद्वीप, हंसद्वीप, कोंकणद्वीप, सहस्रकूट जिनमन्दिर, राजा कनककेतु, उसका परिवार, कोढ़ी श्रीपाल, धनपालकी आत्मग्लानि तथा युद्धका वर्णन ।
अवन्ती
"इस भरत क्षेत्रमें अवन्ती नामक सुन्दर देश है, जहाँ राजा सत्यधर्मका पालन करता है । जहाँ गाँव नगरोंके समान हैं और नगर भी देवविमानोंको लज्जित करते हैं। जिसमें नगरोंके समूह और पुर, शोभासे सुन्दर हैं और जो द्रोणमुख, कव्वडे और खेड़ों से बसा हुआ है । जिसमें सरि, सर और तालाब कमलिनियोंसे ढके हुए हैं। हंसोंके जोड़े हंसिनियोंके साथ शोभा पाते हैं। जिसमें गायों और भैंसोंके झुण्ड एक कतारमें मिलकर उत्तम धान्य ( कलम शालि ) इच्छा भर खाते हैं। जिसमें नील कमलोंसे सुवासित पानी बहता है, जिसका गम्भीर जल धीवरोंके लिए वर्जित है। जहाँ पथिक छह प्रकारका भोजन करते हैं और कोई दाख
और मिरच ( काली ) चखते हैं। सभी लोग ईखका रस लेकर पीते हैं और प्याऊसे पानी पीते हैं। अवन्ती देशमें मालव जनपद है जो तरह-तरहसे शोभित और कई देशोंसे घिरा हुआ है। जिसकी स्त्रियाँ मसीली और अत्यन्त सुकुमार हैं। उनके हाथ मानो मालती कुसुमोंकी मालाएँ हों। जो भूमण्डलके मण्डलमें अग्रणी हैं, जिसका राजा जयश्रीके मण्डलमें सबसे आगे है । जहाँ गृहमण्डलको कोई ग्रहण नहीं करता, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति निडर है और वह शत्रुमण्डलसे नहीं डरता। जहाँ विद्वान् पुरुष बहुत-सी भाषाएँ पढ़ते हैं और जिसमें श्री-सम्पन्न वैश्य निवास करते हैं। जिस प्रकार गाय अपने चारों थनोंसे सन्तानका पोषण करती है, उसी प्रकार राजा भी धन-कण ( अन्न )से प्रजाका पोषण करते हैं। जिसे अकीर्ति कभी नहीं छ सकती और जिसे छूने के लिए अमरावतो आतो है ।" ( ११३,४ ) उज्जैनी
"उसमें उज्जैनी नामकी नगरी अत्यन्त प्रसिद्ध है, जो, सोना और करोड़ों रत्नोंसे जड़ी हुई है और ऐसी जान पड़ती है मानो अमरावती ही आ पड़ी है। यद्यपि उसे देवता शक्ति-भर थामे हुए थे । वह अनोखी नगरी उपवनोंसे शोभित है। पक्षियोंके बच्चे उसमें चहचहा रहे हैं। लतागृहोंमें किन्नर रमण करते हैं। साल-वृक्षोंपर कोयले कूक रही हैं। कमलोंसे ढंकी हुई जलपरिखाएँ शोभित हैं। तीन परकोटोंसे घिरी हुई वह नगरी यद्यपि पंचरंगी है, फिर उसके भीतर है बाजारका मार्ग, मानो वह रत्नोंसे निर्मित मोक्षका मार्ग हो। हाथी शुद्ध स्फटिक मणियोंसे निर्मित दीवालोंमें अपना प्रतिबिम्ब देखकर उसमें छेद करने लगते हैं। उसमें नौ, सात और पाँच भूमियोंवाले घर हैं, जिनपर बँधे हए बन्दनवार शोभित हैं। जहाँ लोग छत्तीस प्रकारके भोगोंको भोगते हैं । सभी लोगोंकी जिनधर्म में आसक्ति है।” ( १।४,५ ) हंसद्वीप
"हंस द्वीपके विषयमें कविका कहना है कि द्वीपमें विधाताने शुद्ध स्फटिक मणिके समान कोमल, अट्ठारह खानें बनायी हैं । सार, टार, गय, कणय आदि खदानें जिसमें प्रधान खदानें थीं। लाट, पाट, जिवादि, कस्तूरी, कुंकुम, हरिचन्दन और कपूर जिसमें हैं। जिसमें ऊँचे धवलगृह और जिनमन्दिर थे। हंसद्वीपमें प्रचुर धन गरजते हैं। दसलक्षण धर्म भी (ज्ञान विचक्षण ) सभी वणिक् स्वीकार करते हैं। जिसके बाजारोंमें मणि और रत्न भरे हुए थे। समुद्र की तरंगसे चंचल तटोंवाला है। उसमें जैनोंकी वैश्याटवी (बाजार) शोभित थी। स्त्रियाँ जहाँ नियमसे निकलती थीं। परमेश्वरके समान जिसमें मेष गरजते थे। जिसमें परस्त्रीको देखना दण्डित समझा जाता था। लोग परस्त्री देखना सहन नहीं करते थे। जहाँ मधुर ( मीठा)
१. वह नगर, जिसे स्थल और जलमार्ग जोड़ते हैं। २. खराब नगर । ३. छोटा गाँव ।
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कथावस्तु
बोला जाता और खाया जाता, परन्तु लोग मधु (शराब) न तो देते थे और न छते थे। जिसकी सीमाओंपर असंख्य मालाकार थे, परन्तु आत्म-ऋद्धिके लिए विष प्रयोग नहीं था। जिसमें पुष्कर और मगरवाली वहुत बगीचियाँ थीं। वहाँ यह कोई नहीं जानता था कि बगीचियाँ कहाँ हैं। जिसमें नग्न श्रमण श्रावकोंको अनुशासनमें रखते थे। देव, शास्त्र और गुरुकी भक्तिमें वे व्रत धारण करते थे। जिसमें भ्रमर मधुमाह (वसन्त) में मदसे छक जाते थे। लेकिन लोग मधुमाहमें निर्मद और विरक्त थे।" ( १।३० ).
सहस्रकूट जिनमन्दिर
सहस्रकूट जिनमन्दिरके वैभवका वर्णन उदात्त है। उसकी भव्यता और मोहकताके वर्णनमें कविकी भक्तिभावना निहित है-"सुवर्णसे निर्मित वह लालमणि और रत्नोंसे जुड़ा हुआ था और जो स्फटिक मणियों
और मूंगोंसे सजा हुआ था। राजपुत्रोंने उसपर बड़े-बड़े मणि लगा रखे थे। वह सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे चमक रहा था। उसका मध्य भाग अभीष्ट मोतियोंसे चमक रहा था। उसमें श्रावकोंकी सभा गरुड़के आकारकी बनी हुई थी। उसके चारों ओर इन्द्र नीलमणि लगे हुए थे। उसकी श्रेष्ठ पंक्तियाँ गोमेध रत्नोंसे जड़ी हुई थीं। पुष्कर, गवय, गवाक्ष आदि अनेकों स्वच्छ रत्नोंसे उसकी नीचेकी भूमि जड़ी हुई थी, जो ऐसी लगती थी, मानो शुक्रके उदयमें मोती प्रतिबिम्बित हों। उसके सिंहद्वारपर वज्रके दरवाजे लगे हुए थे।" (११३४)
राजा कनककेतु, उसकी स्त्री कनकमाला, उसके पुत्र चित्र और विचित्र तथा उसकी पुत्री रत्नमंजूषाके गणोंका परिचयात्मक वर्णन सन्दर और सजीव है।
“उसमें ( हंसद्वीपमें ) विद्याधर राजा कनककेतु था, जिसके सोलह शिखरोंपर स्वर्णपताकाएँ थीं। उसने अपने शरीरसे कामदेवको जीत लिया था। वह कामदेव, राजनीतिके अंगोंको कुछ भी नहीं समझता था। वह अपनी पत्नीमें अनुरक्त था। जो धनकी खेतीकी रक्षा करने में किसान था। जिसके वचनसे विरुद्ध जो भी राजा होता, वह वैसे बहुत प्रकारके राजाओंको नष्ट कर देता। जो दीन और दयनीय लोगोंके लिए कल्पवृक्ष था और जो पापरूपी कलानिधिके नष्ट करनेके लिए दुष्ट था। जो असहनशील लोगोंके लिए प्रलय दिखा देता था और प्रचण्डबाहु, अतुलको तोल लेता था। जो बहुत-से सुख-धर्मका चिन्तन करता था। दिनरात जो जीवकी मन्त्रणा करने में प्रमुख था और जिसने युद्ध के मैदानमें प्रधानोंको नष्ट कर दिया था।"
जनाके लिए दुलंभ उस प्रिय पतिकी घरवाली रति, रस, रूपमें सुन्दर थी। दृष्टिसे वह देखती और फिर देखती तो ऐसी लगती जैसे डरी हुई हिरनी हो । (११३१)
गजके समान गमन करनेवाली कनकमाला उसकी स्त्री थी। इतनी प्यारी जिस प्रकार मणियोंकी माला हो। कोयलों के समान मधुर बोलनेवाली। वह सती अपने गुरु और प्रियके चरणोंकी वन्दना करती, उसी प्रकार जिस प्रकार भक्तिसे इन्द्राणी इन्द्र के पैर पड़ती है।
__उसके प्रचुर गुणवाले दो पुत्र उत्पन्न हुए, जो परोपकारमें सावनके मेघोंके समान थे। निर्मल और पवित्र चित्तवाले । उन्होंने सारे संसारको ढक लिया था। उनका चित्त मोती और कपासके समान स्वच्छ था। एकका नाम चित्र और दूसरेका नाम विचित्र । उनका चित्त एक पलके लिए साहस नहीं छोड़ता था।
'मोतिउ कपासु णं साइचित्त ।' (११३२)
तीसरी उनकी बेटी थी-रत्नमंजूषा । वह शीलके आभूषणोंसे यक्त और गम्भीर थी। वह स्नेह और रूपकी सुन्दर अर्गला थी। उसके दोनों नेत्र ऐसे थे मानो शुक्र तारे हों। ( ११३२)
इसी प्रकारका एक परिचयात्मक वर्णन प्रस्तुत है-दलवट्टण नगरके राजा धनपाल, उसकी स्त्री, उसके पुत्र और उसकी पुत्रीका
"वहाँ ( दलवट्टण नगर ) राजा धनपाल धरतीका पालन करता था। उसे धनद और यक्ष नमस्कार करते थे। उसकी पट्टरानीका नाम वनमाला था। अपनी कोमल भुजाओंसे वह मालतीकी माला थी। ( ११४६ )
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२०
सिरिवालचरिउ
उसके पहले तीन सुन्दर पुत्र थे-कण्ठ, सुकण्ठ और श्रीकण्ठ । नरपतिके उन पुत्रोंकी उपमा किससे दी जाये?
उसकी एक पुत्री थी, जो स्नेहकी गुणमाला थी। मानो विधाताने स्नेह-गुणमालाका निर्माण किया हो । वह अपने रूप और उन्मुक्त सौन्दर्य से शोभित थीं। वह बहत्तर कलाओंसे सब मनुष्योंको मोहित करती थी।" ( ११४६ )
कविने कोढ़ी श्रीपालके विवाहके समयका सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। श्रीपाल राजा है परन्तु पूर्वजन्मके कर्मोसे वह कोढ़ी है। कवि उस कोढ़ीका वर्णन भी इतने सुन्दर ढंगसे करता है कि श्रीपाल कोढ़ी होते हुए भी किसी राजासे कम नहीं।
"श्रीपालको मकूट बाँध दिया गया मानो एकछत्र राज्य ही बाँध दिया गया हो। हाथमें कंगन. वक्षपर हारावलि ऐसी लगती है मानो पहाड़पर स्थित धरतीपर राज्य करता हो। उसकी अंगुलिमें अंगूठी उसी प्रकार दी गयी, जिस प्रकार समुद्रपर पृथ्वी विलसित है, इस प्रकार 'सिद्धचक्र' के पुण्य-प्रभावसे उसने उत्साहसे उस कन्या-रत्नसे विवाह कर लिया ।
आत्मग्लानि और पश्चात्तापका एक सुन्दर चित्रण
"सिद्ध-चक्र-विधिसे श्रीपालका कोढ़ दूर हो जाता है। प्रजापाल अपनी बेटीसे कहता है-'हे पुत्री ! मेरा मुँह काला हो गया था परन्तु तुमने उसे स्फटिक मणिके समान उज्ज्वल बना दिया। मेरा अपयश समूचे धरती-तलपर फैल गया था, परन्तु तुमने उसे बिलकुल मिटा दिया। मैं बहत बड़ी विषम मतिसे मारा जाता। तुमने फिर एकाएक जीवित कर दिया। हे पुत्री ! मेरा नाम कोई भी नहीं लेता। मैं लोकमें बेचारा वीर रह गया' ।" ( १।१९ ) श्रीपाल और वीरदमनके युद्धका सजीव चित्र है । ( २।२३ )
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चरित्र-चित्रण
'सिरिवाल चरिउ' एक मध्ययुगीन चरित्र काव्य है जिसका नायक और कथानक दोनों ही पौराणिक परम्परासे सम्बद्ध हैं, जहाँ कथा और उसके पात्र परम्परागत होते हैं तथा उनका चरित्र भी बहुत कुछ रूढ़ और परम्परागत होता है | अनुभूति-युगीन यथार्थको उसमें खोजना व्यर्थ है । अतः ऐसे काव्यों में चरित्रचित्रणका अर्थ यह देखना है कि उसमें कितनी नवीनता और परिस्थितिके अनुकूल कितना स्पन्दन हमें मिलता है । इस दृष्टि से, यद्यपि मैनासुन्दरीको प्रमुख चरित्र माना जाना चाहिए था, क्योंकि श्रीपाल पूर्वजन्ममें और इस जन्ममें जो कुछ है, उसके इस होने में मैनासुन्दरीका बहुत कुछ योगदान है । लेकिन मध्ययुगीन काव्यों में नायक अधिकतर पुरुष ही होता है, अतः श्रीपाल ही उसका नायक है ।
मैना सुन्दरी
मैनासुन्दरी उज्जैन के राजा प्रजापालकी छोटी कन्या । उसकी बड़ी बहन, सुरसुन्दरीका कोई चरित्र नहीं है । वह अपने मनपसन्द विवाह के बाद सन्तुष्ट है । मैनासुन्दरीकी समस्या यह है कि वह जैनधर्म में दीक्षित है, जैनमुनियोंसे उसने दीक्षा ग्रहण की है। सभी आगम विद्याओं और कलाओंमें वह निपुण है । गीत और नृत्य में भी उसकी असाधारण गति है । उसने जैनधर्म भी पूरा पढ़ा है । राजा उससे अपनी पसन्दका वर माँगने के लिए कहता है । लेकिन उसका कहना है कि विवाह एक सामाजिक बन्धन है, यह माँ-बापका का हैं कि वे विवाह करें, लेकिन उसके बाद लड़कीका भाग्य । पिता उसके भाग्यवादी दर्शनसे चिढ़ जाता है । और क्रोधमें आकर, कोढ़ी - श्रीपालसे उसका विवाह कर देता है । मैनासुन्दरी उसे सहर्ष स्वीकार कर लेती है । रनिवास और माँके करुण क्रन्दनके बावजूद, मैनासुन्दरी विवाह कर लेती हैं और उसे यह अच्छा नहीं लगता कि उसके पतिको कोई कोढ़ी कहे । वह उसे कामदेव के समान सुन्दर मानती है । कवि यह तो कहता है कि श्रीपालने 'सिद्धचक्र विधि' के प्रभावसे मैनासुन्दरी जैसी पत्नी पा ली, पर मैनासुन्दरीके लिए क्या कहा जाये ? वह इसे विधाताका अमिट लेख मानकर स्वीकार कर लेती है । यही उसका भाग्यवाद है । लेकिन अपने सारे भाग्यवादी दर्शनके बावजूद मैनासुन्दरीके मनमें यह पीड़ा अवश्य है कि वह एक साधारण पुरुषको ब्याह दी गयी, क्योंकि जब उसकी सास कुन्दप्रभा आती है और उससे मालूम होता है कि श्रीपाल राजपुत्र है, तब वह प्रसन्न हो उठती है और उसका सन्देह दूर हो जाता है । तब 'सिद्धचक्र विधि' से अपने प्रियकी कोढ़ दूर करनेका निश्चय करती है और वह इसमें सफल भी होती है । श्रीपाल घरजँवाई बनकर रहता है । उसे यह अच्छा नहीं लगता कि वह घरजवाई बनकर वहाँ रहे । इस बात से वह खिन्न रहता है । मैनासुन्दरी समझती है कि श्रीपाल किसी सुन्दरीपर आसक्त है । वह श्रीपालकी खुशीके लिए मनचाही स्त्रीको अपनानेकी स्वीकृति उसे दे देती है । मैनासुन्दरीको भी यह अच्छा नहीं लगता कि उसका पति घरजवाई बनकर रहे।
पत्नी सब कष्ट सहन कर सकती है, परन्तु पतिका विछोह उसके लिए असहनीय है । श्रीपाल बारह वर्ष के लिए प्रवासपर जाता है । मैनासुन्दरी भी उसके साथ जाना चाहती है । बहुत कहने-सुनने के बाद भी जब नहीं ले जाता तो वह कहती है- “ बारह वर्ष में यदि तुम नहीं आये तो मैं महान् तप करूँगी ।” पतिके बिना वह संन्यास ही लेगी, इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है । विदाईके समय वह श्रीपालको कुछ शिक्षाप्रद और अपने कर्तव्य सम्बन्धी बातोंका स्मरण दिलाती है जिससे उसे प्रवास में कठिनाइयोंका सामना न करना पड़े । वह श्रीपालको याद दिलाती है कि जिनभगवान्, माता कुन्दप्रभा, अंगरक्षकों, स्वाभिमान तथा कर्तव्योंको मत भूलना। पहले वह साथमें जानेके लिए श्रीपाल से अनुनय-विनय करती है परन्तु
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२२ .
सिरिवालचरिउ
कर्तव्यका स्मरण कराते समय अपने विषयमें केवल इतना ही कहती है- 'मुझ दासीको मत भूलना।" वह नहीं चाहती कि पतिके मार्गमें रोड़ा बने। परन्तु उसके प्रति स्नेह जतानेके लिए इतना अवश्य कहती है"बारह वर्ष में तुम लौटकर नहीं आते तो मुझे मौतका सहारा ही है।"
श्रीपाल बारह वर्षकी अवधिके पश्चात् लौटकर आता है। मैनासुन्दरी अपने पिता द्वारा किये गये दुर्व्यवहारके बारेमें बताती है । वह श्रीपालसे कहती है कि आप उनसे यह कहें कि वे कम्बल पहनकर और गलेमें कुल्हाड़ी डालकर उपस्थित हों। वह दूत भी भेज देती है। पिताके प्रति इस प्रकारके व्यवहारकी अपेक्षा उससे नहीं की जाती। जो मैनासुन्दरी पिताकी आज्ञाको सिर-आँखोंपर रखकर कोढ़ीसे विवाह करती है और विवाहके बाद १२ वर्ष तक उसके घर रहती है। उसका पिताके प्रति इस प्रकारका व्यवहार लोकसम्मत नहीं है । इस प्रकार वह धार्मिक आस्थाकी प्रतीक पात्र है।
श्रीपाल
. कृतिका नायक-श्रीपाल, सिद्ध पुरुष है, इसलिए उसके कार्य-कलापोंमें मानवीय संवेदना व स्वाभाविकता नहीं है । वह जो कुछ करता है ऐसा लगता है मानो उसे यह करना ही था और यह पहलेसे ही निर्धारित है। वह कहीं भी असफल नहीं होता । महान् उपलब्धियोंके बावजूद भी वह खुश नहीं दिखता और भयंकर त्रासके समय भी उसका मन द्रवित, दुःखी या निराश नहीं होता है। ऐसा लगता है कि वह चेतन नहीं, जड़ है। प्रारम्भसे लेकर अन्त तक, पूरी कृतिमें कहीं भी उसके मानसिक अन्तर्द्वन्द्वका तथा मनःस्थितिके उतार-चढ़ावका चित्रण नहीं मिलता है। वह इस जन्ममें जो कुछ भी है वह पर्वजन्मके कर्मों और पुण्योंका फल है। इसलिए उसका चरित्र, वरदानों और अभिशापोंका परिणाम मात्र है। वरदानोंके कारण वह अतिशय सुन्दर और अजेय है तथा अभिशापोंके कारण वह अतिशय कोढ़ी है। इस प्रकार वह दो चरम स्थितियों में रहता है। ऐसा लगता है कि नायक पूर्वजन्मके कर्मोके हाथका खिलौना है। इसके अतिरिक्त वह जो कुछ है, वह मैनासुन्दरीके द्वारा बनाया हुआ है। मैनासुन्दरी उसे दो बार उबारती है । पूर्वजन्ममें 'सिद्ध-चक्र विधि' द्वारा उसके पापोंको दूर करती है और इस जन्ममें कोढ़ दूर करती है। पूरी कृतिमें वह मैनासुन्दरीके प्रति कृतज्ञ रहता है ।
बारह वर्षको अवधिके लिए प्रवासपर जा रहे श्रीपालके मनमें अपनी माँ और स्त्रीके प्रति कोई संवेदना नहीं है। उसको छोड़नेका उसे कोई दुःख नहीं है। जाते समय माँ उससे कहती है कि पतिके बाद उसका ही सहारा था, अब वह सहारा भी नहीं रहेगा। कुन्दप्रभाके वचन सुनकर किसी भी कठोर-हृदयका मन द्रवित हो सकता है परन्तु श्रीपालपर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। मैनासुन्दरी भी उसके साथ चलने के लिए कहती है परन्तु वह उसे समझा देता है। मैनासुन्दरीसे बिछड़नेका भी श्रीपालको कोई दुःख नहीं है।
धवलसेठके जहाजों को वह पैरोंसे चला देता है, लाख चोरोंको अकेला ही हरा देता है। श्रीपालका चरित्र एक पौराणिक चरित्र है। इसलिए उसके कार्यों में हमको अस्वाभाविकता लगती है। परन्तु जिस उद्देश्य के लिए उसका चरित्र चित्रण किया गया है, उसकी पूर्ति बह करता है। पौराणिक काव्यका नायक इसी प्रकार कार्य करता है । वह सिद्ध पुरुष है, इसलिए अजेय है। इसके अतिरिक्त कवि 'कर्मोके फल' को बताना चाहता है। पूर्वजन्मके कर्मों के कारण ही वह कोढ़ी है, समुद्र में फेंका जाता है और 'डोम कहलाता है। पूर्व जन्मके अच्छे कर्मोके कारण ही वह असफल नहीं होता और मैनासुन्दरीके समान पत्नी पाता है।
धवलसेठ उसे षड्यन्त्र द्वारा समुद्रमें गिरा देता है। उसकी पत्नी रत्नमंजूषाके प्रति दुर्व्यवहार करता है। डोमोंसे मिलकर षड्यन्त्र रचकर उसे डोम सिद्ध कर देता है। अन्तमें जब रत्नमंजूषासे सचाई मालूम होती है तब राजा धनपाल, धवलसेठको मृत्यु दण्ड देनेकी आज्ञा देता है, परन्तु श्रीपाल उसे छुड़ा देता है । वह उससे अपना हिस्सा ले लेता है। ऐसे व्यक्तिके प्रति भी उसके मनमें कोई द्वेष-भाव उत्पन्न नहीं होता है। इसके अतिरिक्त समद्रमें बहते समय भी उसके मनमें धवलसेठके प्रति कोई आक्रोश या प्रतिशोधकी भावना
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चरित्र-चित्रण
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डालनेका षड्यन्त्र रचा और उसकी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार छोड़ देना, तर्कसंगत नहीं लगता है, बल्कि वह धनपाल
दिखाई नहीं देती है । जिसने उसे दो बार मार किया, उसे केवल धन लेकर ( पुत्रका हिस्सा ) कहता है कि "यह ( धवलसेठ ) नहीं होता तो मुझे गुणमाला नहीं मिलती ।"
श्रीपाल कुल आठ हजार कन्याओंसे विवाह करता है । यह संख्या चौंका देनेवाली है और इस प्रकार - की कल्पना भी करना इस युगमें कठिन है । परन्तु कविने श्रीपालको एक सिद्ध पुरुषके रूपमें उपस्थित किया है । इसलिए अधिक कन्याओंसे विवाह करना भी उसके वैभवको बतानेका एक साधन है ।
गुणमालासे विवाह करनेके बाद श्रीपाल चित्रलेखा और उसके साथ अन्य सौ कन्याओंसे विवाह करता है । विवाहकी यह शर्त थी कि नगाड़ा बजाकर उन कन्याओंको नचाना और उनको जीतना । इसके पश्चात् वह विलासवती और उसके साथ ९०० कुमारियोंसे विवाह करता है । कोंकणद्वीपमें वह यशोराशिविजयकी आठ कन्याओं की समस्याओंकी पूर्ति करके उनसे विवाह करता है । इसके बाद पंच पाण्ड्य, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, गुजरात, मेवाड़, अन्तर्वेद आदि देशोंमें अनेक कन्याओंसे विवाह करता है । कन्याओंसे विवाह के समय कहीं भी उसकी मनोदशाका वर्णन नहीं मिलता है । इन विवाहोंसे उसके मनमें क्या प्रतिक्रिया होती है, वह उन कन्याओंके प्रति क्या भाव रखता है, यह कहीं भी मालूम नहीं होता । जहाँ भी और जितनी भी कन्याओंसे विवाहकी बात होती है, वह तुरन्त तैयार हो जाता है और विवाह कर लेता है । केवल एक बार वह मनमें मैनासुन्दरी के लिए सोचता है - " अब यदि मैं उज्जैन नहीं जाता हूँ तो मेरी प्रिया मैनासुन्दरी, शाश्वत सुख देनेवाली दीक्षा ले लेगी ।" वैसे बारह वर्ष पूरे हो गये थे, इसलिए यह भी निश्चित है कि अब श्रीपालको वापस आना है, क्योंकि उसके सभी कार्य पूर्व निर्धारित हैं । इसके अतिरिक्त उसका वचन न टूटे इसलिए भी यह आवश्यक है कि वह समयपर लौट आये ।
मैनासुन्दरी अपने पिता के द्वारा किये गये दुर्व्यवहारकी शिकायत उससे करती है । वह पिताको कम्बल ओढ़कर तथा गलेमें कुल्हाड़ी डालकर दरबारमें उपस्थित होनेके लिए दूत भेजती है । इसमें कवि श्रीपालकी उदारता व महानता दिखानेका प्रयत्न किया है । वह अपने चाचा वीरदमणको भी हराता है । इस प्रकार श्रीपाल कहीं भी असफलताका मुँह नहीं देखता । वह जहाँ भी रहता है और जिन परिस्थितियों में रहता है, वे सब उसके अनुकूल रहती हैं ।
वह मुनिराज से अपनी सफलताओं तथा यशस्वी होनेका कारण पूछता है । वह यह भी पूछता है कि किन कारणों से वह कोढ़ी हुआ, समुद्रमें फेंका गया और डोम सिद्ध किया गया ? तब मुनि महाराज उसके पूर्वजन्मको कथा सुनाकर उसे बतलाते हैं कि पूर्वजन्मोंके कर्मोंके कारण ही श्रीपालपर विपत्तियाँ आयीं तथा पुण्यों के प्रभावसे ही उसने जीवन में सफलता, यश आदि अर्जित किये । स्पष्ट है कि वह जो कुछ है, वह पूर्वजन्म के कर्मों का फल है । पूर्वजन्मके संचित कर्मोंको वह इस जन्ममें सुख और दुःखके रूपोंमें भोग रहा है । परम्पराके अनुसार अन्तमें वह अपनी रानियों सहित संन्यास ले लेता है ।
धवलसेठ
धवलसेठका चरित्र, खलनायकका चरित्र है । कथानकमें उत्तेजना व मोड़ देनेका काम खलनायक ही करता है । धवलसेठ एक धूर्त, कपटी, कामान्ध और धोखेबाज है | स्वार्थ सिद्धिके लिए वह नीचतम हरकतें भी करता है ।
श्रीपाल उसके जहाज चलाता है, तब वह खुश होकर उसे अपना धर्म - पुत्र मान लेता है । श्रीपाल उससे दसवाँ हिस्सा माँगता है । जलदस्युओंसे भी श्रीपाल उसकी रक्षा करता है । परन्तु कामान्ध धवलसेठ, रत्नमंजूषापर आसक्त हो जाता । वह यह भूल जाता है कि उसने श्रीपालको धर्मपुत्र माना है । धवलसेठको उसका मन्त्री समझाता भी है कि यह पाप है । परन्तु सेठकी आँखोंपर वासनाका चश्मा चढ़ा हुआ होनेसे उसे और कुछ नहीं दिखाई देता । वह मन्त्रीसे रत्नमंजूषाको प्राप्त करनेके षड्यन्त्र में सहायता के लिए कहता है और एक लाख रुपया देनेका लालच भी देता है । श्रीपाल मच्छ देखनेके लिए मस्तूलपर चढ़ता है,
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सिरिवालचरिउ परन्तु रस्सी काटकर उसे समुद्रमें गिरा दिया जाता है। धवलसेठ दिखावा करने के लिए तुरन्त दौड़कर आता है।
धवलसेठ अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिए दूतीको रत्नमंजूषाके पास भेजता है परन्तु रत्नमंजूषा दूतीको खूब फटकारती है । तब धवलसेठ रत्नमंजूषाके हाथ जोड़कर और पैर पकड़कर मनाता है । रत्नमंजूषा उसे खरी-खोटी सुनाती है। उसे सुअर, कुत्ता, गधा, कलमुखी, पापी कहती है । परन्तु उस निर्लज्जपर इसका कुछ भी असर नहीं होता। रत्नमंजूषा उसे अपना ससुर मानती है इसलिए ससुरका बहूके प्रति इस प्रकारका व्यवहार पाप है। अन्त में जलदेवता आकर रत्नमंजूषाकी रक्षा करते हैं।
धवलसेठ दलवटण नगरमें आता है । राजाके दरबारमें वह श्रीपालको देखकर सन्न रह जाता है। वह डोमोंकी सहायतासे षड्यन्त्र रचता है। वह डोमोंसे कहता है कि तुम राज-दरबारमें नृत्य करके श्रीपालको अपना सम्बन्धी बताओ। इस कार्य के लिए वह डोमोंको एक लाख रुपया देनेके लिए वचन देता है। राजा श्रीपालको अपनी जाति छिपानेके लिए दण्ड देनेके लिए तैयार हो जाता है परन्तु रत्नमंजुषा द्वारा सही स्थितिका ज्ञान करानेपर, वह श्रीपालको छोड़कर, धवलसेठको पकड़ता है। वह धवलसेठके हाथ, कान, नाक छेद देता है। वह उसे मरवानेके लिए तैयार हो जाता है, परन्तु श्रीपाल उसे छुड़ा देता है। वस्तुतः ध्वलसेठके चरित्र-चित्रणमें कवि मानवी संवेदनासे दूर है, वह भी श्रीपालकी तरह सिद्ध चरित्र है।
रत्नमंजूषा
रत्नमंजूषा हंसद्वीपके राजा कनककेतुकी कन्या है। वह रूपवती और गुणवती है। कनककेतु जिनमन्दिर में जाकर गरु महाराजसे पछता है कि वह कन्या किसको दी जाये? मनि महाराज उसे बताते हैं कि जो सहस्रकट जिनमन्दिरके वज्र किवाड़ोंको खोल दे, उसीसे रत्नमंजुषाका विवाह कर देना। श्रीपाल उन किवाड़ोंको खोल देता है। इस प्रकार रत्नमंजूषाका विवाह श्रीपालसे हो जाता है । श्रीपाल उसे अपना पूरा परिचय देता है । रत्नमंजूषा अपने पतिसे सन्तुष्ट है । उसे अच्छा वर मिल गया।
___ वह अपने पतिके साथ जहाजमें जाती है । परन्तु दुर्भाग्यसे धवलसेठके षड्यन्त्रके कारण उसे शीघ्र ही पतिका वियोग सहना पड़ता है। वह धवलसेठके द्वारा सतायी जाती है। ऐसे क्षणमें वह अपने भाग्यको कोसती है और परदेशीके साथ विवाह करनेपर पिताको उलाहना देती है। वह कहती है कि पिताने परदेशीके साथ मेरा विवाह क्यों किया ? ऐसे समय वह अपने-आपको असहाय महसूस करती है। इसलिए वह अपने माँ-बाप, भाई-बहनको 'याद करती है। श्रीपालकी वीरताकी बातें याद कर विलाप करती है। वह इसे अपने कर्मोंका ही फल मानती है। उसे यह विश्वास है कि श्रीपालसे उसकी भेंट होगी, क्योंकि मुनिने कहा है कि १२ वर्ष बाद मैनासुन्दरीसे श्रीपालका मिलाप होगा। मनिके बचनोंमें उसे दढ़ विश्वास है। इसके अतिरिक्त उसका विवाह भी नैमित्तिकके कहनेके अनुसार हुआ है, इसलिए उसे विश्वास है कि श्रीपालसे उसका मिलाप होगा।
धवलसेठ उसके पास दूती भेजता है। वह दूती और धवलसेठ दोनोंको फटकारती है। धवलसेठको वह अनेक खरी-खोटी बातें सुनाती है। वह पतिव्रता है और अन्य पुरुषको देखना भी पाप समझती है। धवलसेठको वह पितातुल्य और ससुर समझती है। अन्तमें हारकर फिर वह अपने भाग्य व पूर्वजन्मके कर्मोको इस आपत्तिके साथ जोड़ती है। वह इसे पूर्वजन्मके कर्मोका फल ही मानती है।
___ उसके रोनेपर जलदेवताका समूह आकर उसकी रक्षा करते हैं। धवलसेठके षड्यन्त्रसे श्रीपाल डोम सिद्ध कर दिया जाता है । गुणमाला श्रीपालसे उसकी जाति पूछती है। वह गुणमालाको जानकारी लेने के लिए रत्नमंजूषाके पास भेजता है। गुणमालासे रत्नमंजूषा पहले यह पूछती है कि यह श्रीपाल कौन है । जब उसे यह पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यह श्रीपाल उसका पति ही है, तब वह गुणमालासे सारा रहस्य नहीं बताती
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चरित्र-चित्रण
है। उसके मनमें यह आशंका होगी कि कहीं धवलसेठ फिर कोई षड्यन्त्र न करे। वह जाकर राजाको ही सारी घटना सुनाती है।
रत्नमंजूषा हमारे सामने एक वियोगिनीके रूपमें ही आती है।
प्रजापाल
राजा प्रजापाल ( पयपाल ) उज्जैनीका राजा है। उसकी नरसुन्दरी नामकी पत्नी है। उसकी दो कन्याएँ हैं-सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी । वह सुरसुन्दरीका विवाह तो उसके मनपसन्द वर-कौशाम्बीके राजा सिंगारसिंहसे कर देता है। मैनासुन्दरीसे भी वह कहता है, “तुम अपने पसन्दके वरसे विवाह कर लो।" परन्तु मैनासुन्दरी कहती है, “माँ-बापके द्वारा तय किये गये वरसे ही कुलीन कन्याएँ विवाह करती हैं। माँ-बाप विवाह करते हैं. आगे उसका भाग्य।" पयपाल अपनी बेटीके भाग्यवाद हो जाता है और उसका विवाह कोढीसे कर देता है। कोई भी पिता अपनी कन्याका विवाह जानते हए और बिना किसी मजबूरीसे कोढ़ीसे नहीं करता। वह अपनी जानकारी और समझमें अच्छेसे अच्छे वरकी तलाश करता है और उसीसे विवाह करनेका प्रयत्न करता है। बेटीके शब्दोंको असत्य सिद्ध करनेके लिए या उसको अपने भाग्यपर छोड़ देनेके लिए ही क्रोधमें आकर पयपाल कोढ़ीसे उसका विवाह कर देता है। भाग्यपर विश्वास करने का अर्थ यह नहीं कि जान-बूझकर कुएँ में गिर पड़ना । पयपाल जान-बूझकर उसको कोढ़ीके पल्ले बाँध देता है । सारा रनिवास इस बातसे दुःखी होता है। माँ और बहन भी रोती हैं । पयपालकी पत्नी व मन्त्री भी उसे समझाते हैं। मन्त्री उस कोढ़ी और मैनासुन्दरीको तुलना करके बतलाता है कि यह कन्यारत्न उस कोढ़ीसे विवाह करनेके योग्य नहीं है। पयपालने किसीकी भी चिन्ता नहीं की और उसने मैनासुन्दरीका विवाह कोढ़ीसे कर दिया।
परन्तु बादमें वह अपने कियेपर पश्चात्ताप करता है। वह यह स्वीकार करता है कि उसने यह कार्य क्रोधमें आकर किया है। उसने अपनी पत्नी व मन्त्रीकी बात न मानकर गलती की है। वह यह मानता है कि उसने अपनी कन्याके जीवनको नष्ट कर दिया है। वह यह मानता है कि मौतके बिना अब कोई प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता है परन्तु वह यह भी मानता है कि इसमें उसका दोष नहीं है, क्यं और अशुभ कर्मोका फल है ।
मैनासुन्दरी 'सिद्धचक्र विधि' से श्रीपालका कोढ़ दूर कर देती है। पयपालके मनमें जो पश्चात्तापकी आग जल रही थी, वह अब शान्त हुई । वह श्रीपालके पास जाकर कहता है कि तुमने गुणोंसे युक्त कन्यारत्न प्राप्त किया है । वह मैनासुन्दरीके प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करता है । वह कहता है, "मेरा मुँह काला हो गया था, परन्तु हे बेटी ! तुमने उसे स्फटिक मणिके समान उज्ज्वल बना दिया।"
श्रीपाल बारह वर्ष के बाद लौटता है। मैनासुन्दरी अपने पिता द्वारा किये गये दुर्व्यवहारका बदला लेना चाहती है। वह श्रीपालसे शिकायत करती है और दूत भेजकर प्रजापालको कम्बल ओढ़कर तथा गलेमें कूल्हाड़ी डालकर उनसे मिलनेके लिए कहती है। प्रजापाल दुतके समाचार सुनकर क्रुद्ध हो जाता है। परन्तु मन्त्रीके समझानेपर वह शान्त हो जाता है। इस प्रकार प्रजापालका चरित्र पहले एक सनकीके रूपमें, बादमें प्रायश्चित्तकी आगमें जलते हए और अन्त में समझौतावादीके रूपमें हमारे सामने आता है।
कि शुभ
कुन्दप्रभा
कुन्दप्रभा श्रीपालकी माँ और अरिदमणकी पत्नी है। पतिके मर जाने के पश्चात, उसका एकमात्र सहारा श्रीपाल ही है। श्रीपाल पर्वजन्मोंके कर्मोंके फलस्वरूप कोढ़ी है। मनासुन्दरी 'सिद्धचक्र विधि' द्वारा उसका कोढ़ दूर कर देती है। कुन्दप्रभा यह जानकर बहुत प्रसन्न होती है। तब वह मैनासुन्दरीको बताती है कि श्रीपाल राजा है।
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सिरिवालचरिउ श्रीपाल घरजवाई बनकर प्रजापालके यहाँ रहना पसन्द नहीं करता है। वह बारह वर्षके लिए विदेश जाना चाहता है । कुन्दप्रभाका एकमात्र सहारा भी उससे छिन रहा है, इसलिए वह व्याकुल हो उठती है । वह श्रीपालको बार-बार समझाती है और विदेश जानेके लिए मना करती है। वह कहती है"हे पुत्र ! तुम ही मेरे एक सहारे हो । पतिकी मृत्युके पश्चात् मैं तुम्हारी आशासे अपने दुःखको भूली हूँ। तुम मुझे निराश करके मत जाओ।" कुन्दप्रभाके हृदयमें श्रीपालके प्रति अतिशय स्नेह है। परन्तु जब समझाने
नानेपर भी श्रीपाल रुकनेके लिए तैयार नहीं होता तो वह विवश हो जाती है। माँ अपने पुत्रके लिए अनेक कष्ट सहती है। वह चाहती है कि उसका पुत्र सदैव उसकी आँखोंके सामने रहे ताकि वह उसके दुःखदर्दको दूर कर सके। श्रीपाल प्रवासपर जा रहा है इसलिए कुन्दप्रभा उसे सीख देती है। वह उसको उन सारी कठिनाइयोंसे सावधान कर देती है, जो बाहर कभी भी उसके सामने आ सकती है। वह श्रीपालको कुछ बुराइयोंसे दूर रहनेके लिए कहती है। उसका हृदय माँकी ममतासे ओत-प्रोत है । श्रीपालकी वापसीकी आशा न रहनेपर मैनासुन्दरी कुन्दप्रभासे कहती है-"आज भी तुम्हारा पुत्र नहीं लौटता है तो मैं दीक्षा ले लूंगी।" कुन्दप्रभा उसे एक दिनके लिए रुक जाने की सलाह देती है। उसके मन में दृढ़ विश्वास था कि श्रीपाल अवश्य लौट आयेगा । एक माँ यह कल्पना कैसे कर सकती है कि उसका पुत्र, प्रवाससे लौटकर नहीं आयेगा।
इस प्रकार कुन्दप्रभाको पुत्र-वियोगमें दुःखी और उसके आगमनकी प्रतीक्षामें ही चित्रित किया गया है।
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रस और अलंकार
रस योजना
'सिरिवालचरिउ'में रस योजनाकी वही स्थिति है जो दूसरे अपभ्रंश चरित काव्योंमें है, और चरित काव्योंकी रसात्मक स्थिति यह है कि उसकी अन्तिम परिणति शान्त रसमें होती है । इन काव्योंमें यह आवश्यक नहीं है कि उनमें उपलब्ध रसोंमें अनिवार्य रूपसे अंगांगी भाव हो। यदि अन्तिम परिणतिके आधारपर रसकी मुख्यता मानी जाये, तो यही कहा जा सकता है कि 'सिरिवाल चरिउ'में शान्त रसकी मुख्यता है, नहीं तो विभिन्न प्रसंगोंमें रसोंकी स्वतन्त्र सत्ता भी स्वीकार की जा सकती है। शान्त रसकी मुख्यताके साथ "भक्ति रस के अस्तित्वका भी प्रश्न जुड़ा हुआ है। जैनधर्मकी दार्शनिक प्रतिक्रियामें भक्ति मुक्तिका साक्षात् साधन नहीं है । हाँ, चित्तशुद्धि, वैराग्य आदिके लिए भक्ति उपयोगी है। मैं समझता हूँ कि अन्य अपभ्रंश काव्योंकी तरह आलोच्य कृतिमें भक्तिके प्रसंग और किसी रसके प्रसंगोंसे अधिक प्रसंग हैं। इन प्रसंगोंका विश्लेषण अन्यत्र किया जा चुका है। वैराग्य विरतिके प्रसंग भी इसमें जहाँ-तहाँ उपलब्ध हैं।
इसके अतिरिक्त शृंगारके संयोग पक्षका बहुत कम वर्णन कवि करता है। मैनासुन्दरीसे नाटकीय विवाह और कोढ़ दूर हो जानेके बाद, यह सम्भावना भी थी कि कवि दोनोंके विलासपूर्ण विवाहित जीवनका चित्रण करेगा, परन्तु ऐसा नहीं होता। ससुरालमें रहनेके लोकापवादसे दुःखी श्रीपाल अपने स्वतन्त्र और पुरुषार्थ-भरे जीवनकी खोजमें बारह वर्षके लिए प्रवासपर जाना चाहता है। मैनासुन्दरी उसे मना करती है, फिर उसके साथ जाना चाहती है और जब वह साथ ले जानेके लिए तैयार नहीं होता तो उससे १२ वर्षमें लौट आनेकी प्रतिज्ञा करवाती है और उसे जो लम्बा-चौड़ा उपदेश देती है उसमें कविकी उपदेशात्मकताकी झलक मिलती है। कवि यह संकेत अवश्य करता है कि उसने "चित्रशाला रति मन्दिर में क्रीड़ा करते हुए यह उपदेश दिया, परन्तु क्रीड़ाओंका कवि उल्लेख नहीं करता। उपदेशमें वह दो बातें कहती है-(१) जिनभक्ति ( २ ) उसे विस्मृत न करे। वियोगके समय वह अवश्य प्रियका अंचल पकड़ लेती है। वह मध्ययुगीन वियोगिनीकी तरह आचरण करती है और कहती है
"पढमं पी को मुक्कमि णिय पाण कि अंचलं तुज्झ।"
इसी क्रममें माँ कुन्दप्रभा भी अपने प्रवासी पुत्रको सम्बोधित करती है, यह वियोग शृंगार और वात्सल्यका मिला-जुला प्रसंग समझना चाहिए । वह कहती है
"हे पुत्र ! जब मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देख लेती हूँ तो अपने पति अरिदमनका दुःख भूल जाती हूँ। मैं तुम्हारी आशाके सहारे जीवित हूँ, तुम मुझे निराश करके जा रहे हो।"
ऐसा प्रतीत होता है कि कविकी शृंगारके संयोगपक्षके चित्रणमें अभिरुचि नहीं है । हंसडीपके राजाकी कन्या रत्नमंजुषासे विवाह होनेके बाद श्रीपाल अपनी नयी पत्नीको पिछली बातें बताता है । कवि उनकी विलास लीलाका चित्रण नहीं करता । हाँ, जब धवलसेठकी कूट योजनाके फलस्वरूप वह अपने प्रिय श्रीपालसे बिछुड़कर सेठके चंगुल में फँस जाती है, तो विलाप करती है। इसमें करुण रसका आभास है । आभास यथार्थमें इसलिए नहीं बदल पाता, क्योंकि श्रीपालके जीवनकी पूर्व घटनाओंकी जानकारी होने और दैवी सहायता मिलनेके कारण-उसके अन्तर्मनमें प्रियसे मिलनेकी सम्भावना बनी हुई है। उसे यह ज्ञात है कि मुनिवरका कहा असत्य नहीं हो सकता। अपनी इस सारी वियोग वेदनामें वह एक बात ऐसी कह देती है, उससे युगके यथार्थके मर्मको छू लेती है। वह पिताको उलाहना देती है कि उसका विवाह परदेशीसे क्यों किया ? इस कथनसे मध्ययुगकी भारतीय नारीकी घरघुस चेतनाका बोध होता है। उस युगमें संघर्ष और साहसकी भावना
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सिरिवालचरिउ
नाममात्रके लिए भी नहीं थी। बादमें उसकी भेंट होती है गुणमालासे । विवाह होनेपर भी संयोग श्रृंगारका वर्णन, अवणित रह जाता है। उसके बाद एक प्रकारसे श्रीपाल विवाह यात्राएँ करता है, जिनमें समस्यापूर्ति, आकस्मिकता और निमित्त आदिका उल्लेख है । शृंगारके वर्णनके प्रति कवि तटस्थ है । यह एक अजीब बात है कि कवि अपने नायकको भोग-विलासके प्रचुर साधनोंका एकाधिकार देकर भी, उसके उपभोगका चित्रण नहीं करता । दूसरी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह है कि कवि नरसेन सामूहिक भोग-विलासका वर्णन नहीं करता, परन्तु सामूहिक वैराग्य और दीक्षाका चित्रण अवश्य करता है।
__ 'वीर' रसके भी प्रसंग आलोच्य कृतिमें पर्याप्त थे, परन्तु श्रीपालका पुरुषार्थ, पर्वसिद्ध है (पुण्यफलके सिद्धान्तके कारण ), इसलिए शक्ति प्रदर्शनके बिना ही सब कुछ मिल जाता है। जहाँ वह शक्ति प्रदर्शन करता भी है वहाँ इतनी अनुकूलताएँ और निश्चित आशु सफलताएँ उसे घेर लेती हैं कि वीर रसकी अनुभूति होते-होते रह जाती है। उदाहरणके लिए-लाख-चोरोंको घटनाके समय श्रीपाल वीरोचित उत्साह दिखा सकता था परन्तु कवि यह कहकर छुट्टी देता है कि चोर उसी प्रकार भाग गये जिस प्रकार सिंहनादसे कायरजन भाग खड़े होते हैं। वीर रसका साक्षात् प्रसंग उस समय उपस्थित होता है जब वह अपने स्वर्गीय पिताका राज्य पानेके लिए चाचा वीरदमनपर आक्रमण करता है। युद्धके लिए कूच करते ही धरती हिल उठती है, योद्धाओं और उनकी पत्नियोंकी वीरता और दर्पकी उक्तियोंकी झड़ी लग जाती है। दूतकी वार्ता असफल होते ही रणदुन्दुभी बज उठती है और विजयश्री श्रीपालका वरण कर लेती है। 'बीभत्सका' दृश्य तब उपस्थित होता है जब ७०० कोढ़ी राजाओंके काफिलेका नेतृत्व करता हुआ, कोढ़ी राजा श्रीपाल उज्जैन पहुँचता है और रौद्र रसका इससे बढ़कर उदाहरण और क्या हो सकता है कि स्वयं पिता कन्याके तर्कपर अपने झूठे दम्भ और प्रतिष्ठाके कारण उसका विवाह एक ऐसे कोढ़ी राजासे कर दे कि जिसके हाथ-पैर गल गये हों। कुल मिलाकर कवि नरसेन इस छोटी-सी रचनामें सम्भव रसकी योजना अपने मुख्य उद्देश्यके अनुरूप करने में सफल है । वह श्रृंगारके मानसिक और भौतिक पक्षका वर्णन लगभग नहीं करता। भक्ति और शान्त रसके वर्णनमें वह विशेष सक्रिय है। विप्रलम्भसे युक्त करुण, वीर, बीभत्स और रौद्रकी संक्षिप्त किन्तु मार्मिक अभिव्यक्ति आलोच्य कृतिमें है।
समूची कथा जिनभक्ति और विरतिके भावात्मक धरातलपर बहती है ।
अलंकार योजना सरस्वतीकी वन्दना करते हुए कवि नरसेन कहता है कि सरस्वतीके प्रसादसे सुकवि रसवन्त काव्य करता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कवि रसके साथ अलंकारकी उपेक्षा करता है। इसमें सादृश्य
। अर्थात् उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार प्रमुख हैं। कवि अलंकारोंका प्रयोग वर्णनात्मक व भावात्मक दोनोंमें करता है, यह उसकी विशेषता है। वृत्तोंके आकर गौतमकी वाणीकी तुलना वह उस समुद्रसे करता है कि जिससे ज्ञानकी लहर उठी हो। ( २)
__शब्द मैत्री और यमक उसे विशेष प्रिय हैं । अवन्ती, सहस्रकूट जिनमन्दिर और कोढ़ी राजाके चित्रण, इस सन्दर्भ में उदाहरित है।।
कहीं-कहीं यमकमें श्लेषका भी प्रयोग है और खासकर चरणके अन्तमें तूकके साथ यमक देनेकी प्रवृत्ति है, जैसे सामिउ, गुसामिउ ( १।१० );
कुछ उपमाएँ कविकी मौलिक हैं, जैसे-कपासकी उपमा। कनककेतुके पुत्रोंके चित्तको मोती और कपासकी उपमा दी है यह नयी उपमा है ।
"मोतिउ कपासु णं साइचित्त ।" (
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जिन-भक्ति
धामिक-वर्णन
विभिन्न धर्मावलम्बी अपने इष्ट देवताओंकी पूजा विभिन्न कर्मकाण्डोंके माध्यमसे करते हैं।
अन्धविश्वास और भयके कारण मनुष्य धर्मका पल्ला पकड़ता है। इन्हीं अन्ध-विश्वासोंके साथ पूर्वजन्मका विश्वास भी जुड़ा हुआ है। व्रत, उपवास, तप आदिके माध्यमसे वह धार्मिक-साधना करता है।
प्रस्तुत कृतिमें इस प्रकारके अन्धविश्वास, व्रत, तप और उपवासकी सामग्रीकी प्रचुरता है। पूरी कृति, जैनधर्म और उससे सम्बन्धित कर्मकाण्डोंसे भरी पड़ी है। "सिरिवालचरिउ'का मुख्य उद्देश्य ही 'सिद्धचक्र विधि'के महत्त्वका प्रतिपादन करना है। 'सिद्धचक्र विधि' जैनधर्मकी कर्मकाण्ड साधनाका एक साधन है। इसलिए सम्पूर्ण कृतिमें अनेक स्थानोंपर जैनधर्मसे सम्बन्धित सामग्री उपलब्ध है। जैनधर्मसे सम्बन्धित विवरणको प्रमुख रूपसे तीन भागोंमें विभाजित किया जा सकता है
(१) स्तुतिके रूपमें। (२) जिनभगवानसे सम्बन्धित विवरण व प्रसंगके रूपमें । (३) उपदेशके रूपमें, 'सिद्धचक्र विधि'के प्रसंगके रूपमें ।
स्तुतिके रूप में यह जिनभक्ति निम्नलिखित स्थलोंमें देखी जा सकती है। मंगलाचरण १११; सहस्रकूट जिनमन्दिरमें श्रीपाल द्वारा ११३५; मदनासुन्दरी श्रीपालका कोढ़ दूर करनेके लिए जिनमुनियोंकी स्तुति करती है १११७ । सहस्रकूट मन्दिर में श्रीपाल जिनेन्द्रका अभिषेक करते समय स्तुति करता है ।१९ । जिनेन्द्र भगवानसे सम्बन्धित वर्णन कई स्थलों पर मिलते हैं। जैसे श५, १२८, ११९, १११६, १११७, १११९, १।२०, १।२५, ११३६, ११४०, ११४१, ११४६, २।१२, २।१४, २।२७, २।३० ।
धर्मोपदेश और सिद्धचक्र विधानकी महत्ताके प्रसंगमें भी कुछ विवरण उपलब्ध है
११२, ११२, १।१४, १।१८, १११७, १११९, ११२२, २।३०, २।३२, २।३३, २।३५, २।३४ और २॥३६ ।
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भाग्यवादको दार्शनिक पृष्ठभूमि
‘सिरिवालचरिउ'की कथावस्तु भाग्यवादके प्रति दृढ़ विश्वासकी धुरीपर घूमती है । 'भाग्य'से कविका तात्पर्य है-'पूर्व संचित कर्म । अर्थात् मनुष्य अपने भाग्यका स्वयं निर्माण करता है। कर्मोके संचित फलोंको वह भोगता है । भाग्यवादकी इसी पृष्ठभूमिपर 'सिरिवालचरिउ'की कथावस्तु गठित है। कृतिमें अनेक प्रसंगोंमें 'कर्म के फल' व 'भाग्यके प्रति आस्था का जिक्र किया गया है। यही 'सिरिवाल चरिउ'की दार्शनिक पृष्ठभूमि है।
मैनासुन्दरी पिता द्वारा आरोपित जीवन जीनेकी अपेक्षा अपनी नियतिका जीवन जीना पसन्द करती है। पिता द्वारा तय किये गये वरको ही वह स्वीकार कर लेती है। पिता जब उससे उसकी पसन्दका वर चुनने के लिए कहता है तो वह उत्तर देती है
"माँ-बाप विवाह करते हैं, उसके बाद अपने ही कर्म आगे आते हैं।....शुभ-अशुभ कर्म, जीवन में सबको होते हैं । त्रिगुप्ति मुनीश्वरने यह कहा है कि कर्मसे मनुष्य रंक होता है और कर्मसे राजा । जो कर्म अपने माथेपर लिख दिया गया है, उसे कौन मेट सकता है ? वह तो विधिका विधान है।" (११९)
कोढ़ी श्रीपाल जो कुछ है, वह उसके पूर्वजन्मका फल ही है। वह कोढ़ी इसलिए है कि उसने पूर्वजन्ममें मुनिकी निन्दा की थी। उसके वर्तमानमें उसके भूतके कर्मों का फल निहित है। कोढ़ी श्रीपालके लिए कहा गया है
"मनिका निन्दक, पर्वकर्मोंसे लड़ता हआ। उसी अपराध और पापसे पीड़ित ।" ( १११०)
मैनासुन्दरीका विवाह कोढ़ीसे कर दिया जाता है। विवाहके समय मंगलगीत गाये जाते हैं, परन्तु स्त्रियाँ अमंगल कर रही हैं। इस अवसरपर मैनासुन्दरी अपनी बहन और माँ को समझाती है
"विधाताका लिखा हुआ कौन टाल सकता है ?" ( १११४)
कोढ़ीसे अपनी कन्याका विवाह कर देनेके कारण पयपाल पश्चात्ताप करता है। परन्तु वह इसे स्वयंका दोष न मानकर कर्मका परिणाम बतलाता है। वह कहता है
"इसमें मेरा क्या दोष, क्योंकि शुभ-अशुभ कर्म ही परिणत होकर सब कुछ करते हैं।' ( १।१५)
धवलसेठकी कुचालसे श्रीपालको समुद्र में गिरा दिया जाता है। रत्नमंजूषा विलाप करती है। पहले तो वह पिताको उलाहना देती है कि उसने परदेशीसे उसका विवाह क्यों किया? परन्तु बादमें वह इसे कर्मका ही फल मानती है। वह कहती है
"जो कुछ मैंने बोया है, खिन्न मैं उसे सहँगी। लेकिन पिताने परदेशीसे मेरा विवाह क्यों किया ? उसने कहा था कि किसी नैमित्तिकने बताया था, उसीके अनुसार मैंने तुम्हारा विवाह किया था। हे पुत्री ! सबका कर्मसे विवाह बलवान होता है।" ( ११४३)
इसी सन्दर्भमें आगे रत्नमंजूषा विलाप करती हुई अपने पूर्वजन्मके कर्मों के विषयमें कहती है--
"हे स्वामी! दूसरे जन्ममें मैंने ऐसा क्या किया जो जन्मान्तरमें मुझे निरन्तर दुःख झेलने पड़ रहे हैं।" ( ११४४)
रत्नमंजूषाको उसकी सखियाँ समझाती हैं"जो ऋण संचित किया है, उसे देना ही होगा। इसे कर्मों के अन्तराय समझना चाहिए।" (११४३) श्रीपालको रस्सी काटकर समुद्रमें गिरा दिया जाता है। उसके लिए कहा गया है"कर्मसे नचाया गया वह समुद्रमें गिर गया।" ( ११४५ ) श्रीपालको धवलसेठ, डोम सिद्ध करता है। परन्तु जब वास्तविकता प्रकट होती है तब राजा धनपाल
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भाग्यवादको दार्शनिक पृष्ठभूमि धवलसेठको मृत्युदण्डका हुक्म देता है । श्रीपाल धनपालसे कहता है-"इसे मत मारो। क्योंकि इसीके कारण मुझे गुणमाला मिल सकी है।” ( २।८)
श्रीपालको डोम समझकर जब राजा उसे मृत्युदण्ड देना चाहता है, उस समय श्रीपालके लिए कहा गया है
"जो पूर्वजन्ममें लिखा जा चुका है, उसे कौन मेट सकता है ।" ( २।४ ) श्रीपाल मुनिराजसे पूछता है
"हे परमेश्वर ! मेरी भवगति बताइए। किस पुण्यसे मैं इतने अतिशयवाला हुआ, अतुलनीय योद्धा, तीनों लोकोंमें विख्यात । किस कर्मसे मैं राजाओंमें श्रेष्ठ हुआ, किस कमसे निर्धन कोढ़ी हुआ? किस कर्मसे समुद्र में फेंक दिया गया ? किस पापसे मैं डोम कहलाया ? मैनासुन्दरी मेरी अत्यन्त भक्त क्यों है ? ___ तब मुनि महाराज श्रीपालको उसके पूर्वजन्मके कर्मों के विषयमें बतलाते हैं
"तम पर्वजन्ममें राजा थे। तमने पर्वजन्ममें मनिको कोढी कहा. एकको पानीमें ढकेल दिया था, एक तपस्या कर रहे मुनिको डोम कहा था, इसलिए इस जन्ममें तुम कोढ़ी हुए, समुद्रमें फेंके गये और डोम कहलाये । तुम्हारी पत्नी को ( पूर्वजन्म में ) जब यह मालूम हुआ कि तुमने मुनिनिन्दा की है तो वह तुमसे बहुत नाराज हुई। तब तुमने और तुम्हारी पत्नीने 'सिद्ध चक्र विधि' की थी। उसीके पुण्यसे आज तुम अति यशवाले हुए।"
कविने भाग्यकी सत्ताको तो स्वीकार किया है, परन्तु मनुष्यको भाग्यके हाथ नहीं सौंपा है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्यका निर्माता है। वह जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा ही फल मिलेगा। इस प्रकार कवि मनुष्यजीवनके शुभ-अशुभ और उतार-चढ़ावमें सन्तुलन रखना चाहता है। उसका विश्वास है कि मनुष्य धर्मके माध्यमसे ही यह सन्तुलन स्थापित कर सकता है ।
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सामाजिक चित्रण
'सिरिवालचरिउ' एक पौराणिक कथा है। उसके नायक और पात्रोंका कोई ऐतिहासिक अस्तित्व नहीं है । आलोच्य कृतिके रचनाकाल और प्रतिपाद्य विषयका, सामाजिक तथा आर्थिक वर्णनका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एक ऐसी पौराणिक कथा है, जिसकी कथावस्तु काफी पुरानी है। इसलिए इसमें वर्णित सामाजिक स्थितियों, व्यवहारों और कार्यकलापोंका समकालीन स्थितिसे कोई तालमेल बिठाना उचित नहीं है। फिर भी कहीं-कहीं तत्कालीन परिस्थितियोंकी झलक अवश्य मिल जाती है।
१. विवाह
भारतवर्ष में प्राचीन कालसे विवाह संस्थाका प्रचलन है। विवाह तय करनेके ढंग, अलग-अलग समयमें अलग-अलग रहे होंगे। परन्तु अधिकतर लड़के-लड़कियोंके माता-पिता ही विवाह तय करने में प्रमुख भूमिका निबाहते रहे हैं। 'सिरिवाल चरिउ' में विवाह तय करने के भिन्न-भिन्न ढंग मिलते हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं(१) लड़कीको इच्छापर निर्भर
राजा पयपाल (प्रजापाल ) अपनी दोनों पुत्रियोंसे पूछता है कि वे उनकी इच्छानुसार वर चुन लें। प्रजापालकी जेठी कन्या सुरसुन्दरी तो अपनी इच्छानुसार कौशाम्बीपुरके राजा सिंगारसिंहसे विवाह कर लेती है।' परन्तु मैनासुन्दरीका कहना है कि वह माता-पिताके द्वारा तय किये वरसे ही विवाह करेगी।
प्रजापाल सुरसुन्दरीसे पूछता है
"तुम्हें जो वर अच्छा लगता हो, वह मुझे बताओ, जिससे हे पुत्री ! उससे तुम्हारा विवाह किया जा सके।" ( ११६)
इसी प्रकार मैनासुन्दरीसे पूछता है
"जो वर तुम्हें अच्छा लगे वह माँग लो, जैसा कि तुम्हारी जेठी बहनने अपनी पसन्दका वर पा लिया है।” (१८) (२) लड़कीके पिता द्वारा तय
मैनासुन्दरीको वही वर पसन्द है, जिसे उसके पिता तय कर दें। प्रजापाल उसके लिए एक कोढ़ी वर चुनता है जिसे वह हृदयसे स्वीकार करती है ।
राजा पयपाल मैनासुन्दरीको बुलाकर कहता है"बेटी ! मेरा एक कहना करोगी? तुम कोढ़ीको दे दी गयी हो । क्या उसका वरण करोगी?" मैनासुन्दरी उत्तर देती है"मैंने स्वेच्छा से उसका वरण कर लिया है। अब मेरे लिए दूसरा तुम्हारे समान है।" (११२)
विलासवतीका विवाह भी श्रीपालसे इसी प्रकार हुआ था। पंच पाण्ड्य, मल्लिवाड़, तेलंग, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, गुजरात, मेवाड़, अन्तर्वेद आदि स्थानोंसे भी उसने ( श्रीपालने ) अनेक कन्याओंसे विवाह किये थे, परन्तु उनका स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस प्रकार तय किये थे। सम्भवतः वे पिताके द्वारा ही तय किये गये होंगे।
१. (१६) २. (१।९)
३. (१।१०) ४. (१११३) ।
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सामाजिक-चित्रण
(३) भाग्यपर आश्रित होकर
'सिरिवालचरिउ' में रत्नमंजूषा और गुणमालाका विवाह अनोखे ढंगसे होता है । रत्नमंजूषाका पिता कनककेतु, गुरुसे पूछता है-“यह कन्या ( रत्नमंजूषा) किसको दी जाये ?" मुनि उत्तर देते हैं"सहस्रकूट जिनमन्दिरके वज्र किवाड़ोंको जो खोल देगा, उसीके साथ इसका विवाह कर देना।" श्रीपाल उन किवाडोंको खोल देता है और उसीसे रत्नमंजषाका विवाह कर दिया जाता है। पराने समयमें स्वयंवरमें ऐसी शर्ते रखी जाती थीं। परन्तु यहाँ ऐसा स्पष्ट नहीं है कि राजा कनककेतुने सब दूर यह खबर पहुँचायी हो कि किवाड़ोंको खोलनेवालेके साथ लड़कीका विवाह करेगा।
गुणमालाके पिता धनपालको भी मुनिने बतलाया था कि जो हाथोंसे जल तैरकर आयेगाा, उससे इसका विवाह कर देना । संयोगसे श्रीपाल ही आता है जिससे गुणमालाका विवाह कर दिया जाता है।
"मुणि उत्तउ जु तरइ जलु पाणिहिँ ।
वसइ णरिंद-गेह तहे पाणिहि ॥” (१।४६) (४) प्रतियोगिता या स्वयंवर द्वारा
मकरकेतुकी कन्या चित्रलेखाके साथ विवाह करनेके लिए यह शर्त रखी थी कि जो नगाड़ा बजाकर उनको ( चित्रलेखा, जगरेखा, सुरेखा, गुणरेखा, मनरेखा आदि ) जीत लेगा और १०० कन्याओंके साथ गायेगा, हावभाव से युक्त होकर वह उन सबसे विवाह करेगा । श्रीपाल नगाड़ा बजाकर उन्हें जीत लेता है । (२।९) (५) समस्यापूर्ति द्वारा
कोंकण द्वीपके राजा यशोराशिविजयकी आठ कन्याओंके साथ विवाह करनेकी शर्त यह थी कि उनके प्रश्नोंके उत्तर जो दे देगा उसके साथ उनका विवाह कर दिया जायेगा। श्रीपाल उनके उत्तर दे देता है। वैवाहिक पद्धति
'सिरिवालचरिउ' में वर्णित विवाहकी पद्धति भी लगभग उसी प्रकार की है जो आजकल हमारे देशमें प्रचलित है।
विवाह निश्चित करनेके लिए ज्योतिषियोंसे शुभ-तिथिके लिए पूछा जाता है। ज्योतिषी ही लग्नकी तिथि निश्चित करते हैं। मैनासुन्दरी, रत्नमंजूषा और गुणमालाका विवाह शुभ वेला और लग्न में हुआ, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है । मैनासुन्दरीके विवाहके लिए ज्योतिषियोंसे शुभ लग्न पूछता है । ( १।१२)
रत्नमंजूषाके विवाहमें भी उल्लेख है
"पुणु सुह-वेल लगुण परिठ्ठवियउ ।” (१।३६) गुणमालाके विवाह में
"सुह-वेलग्गह गुणमाल-सुय ।
सिरिवालहो दिण्णी मुसलभुय ॥” (१।४७) बन्दनवार बाँधना, मण्डप बनाना, तोरण बाँधना, मृदंग व बाजे बजाना, मंगलगीत गाना, दुल्हादुलहिनका श्रृंगार करना, रेशमी वस्त्रोंसे वर-वधको सुसज्जित करना, वेद पढ़ना, हवन करना, मंगलोंका उच्चारण करना, मुकुट ( मोर ) बाँधना, हाथमें कंगन पहनाना, अंगूठी पहनाना, गले में हार पहनना, नाचगाने होना, चवरी (भाँवरें) और सात फेरे ( सप्तपदी ) दिलाना, हरे बाँसका मण्डप बनाना, दुलहेको गा
१. ११३२ और १३३ ।
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सिरिवालचरिउ
बजाकर लाना और उसे आसन देना, रास्तेमें पताकाएँ बाँधना, कन्यादान देना और साथ में दहेज भी देना । ये सभी रीति-रिवाज आज भी ज्योंके त्यों प्रचलित हैं। इसके साथ-साथ दास-दासियाँ भी भेंट की जाती थीं।
मैनासुन्दरीके विवाहका दृश्य
__ "तरह-तरहके तोरण भी बनवा दिये । मंदल (मृदंग) बजने लगे। मंगल गीत भी होने लगे ।........। ब्राह्मण वेद पढ़ रहे थे। हवन और मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे। श्रीपालको मकूट बाँध दिया गया और छत्र भी।........। उसकी अंगुलीमें अंगूठी भी दी गयी।" (१।१४)
रत्नमंजूषाके विवाह-वर्णनका उदाहरण__ "नगाड़े, शंख और भेरी बाजे बजने लगे। रास्तेमें पताकाएँ और छत्र शोभित थे। गाने-बजानेके साथ लोग नाच रहे थे। घरमें जाकर उससे ( श्रीपालसे ) बातचीत की और रत्न-निर्मित श्रेष्ठ आसन उसे दिया और फिर शुभ मुहूर्तमें लगनकी स्थापना की। हरे बाँसका वहाँ मण्डप बनाया गया और उसे चवरी तथा सात फेरे दिलाकर रत्नमंजूषाका उससे विवाह कर दिया। उसने बहत-से उत्तम हाथी और घोड़े उसे दिये । रत्नके कटोरे और सोनेके थाल दिये।" (१॥३६)
सामूहिक विवाह
श्रीपालने जितने भी विवाह किये उनमें केवल मैनासुन्दरी, रत्नमंजूषा और गुणमालाके साथ किये गये विवाहको छोड़ शेष अन्य सभी विवाह सामूहिक रूपसे एकसे अधिक कन्याओंसे किये। चित्रलेखाके गम्ति मौ कन्याओंसे (२।९). विलासवतीके सहित ९०० कन्याओंसे (२०१०), कोंकण द्वीपमें आठ कन्याओं सहित १६०० कुमारियोंसे (२०१३), पंच पाण्ड्यमें २००० कन्याओंसे, मल्लिवाड़में सात सौ, तैलंगमें १००० कुमारियोंसे उसने विवाह किया। यह बात दूसरी है कि श्रीपालने इतनी कन्याओंसे विवाह किया या नहीं? परन्तु इससे यह सिद्ध होता है कि सामूहिक विवाहका प्रचलन था।
बहु-विवाह
बहु-विवाहका वर्णन भी मिलता है। श्रीपालने १८,००० कुमारियोंसे विवाह किया था। वैसे यह संख्या चौंका देनेवाली है। भले ही श्रीपालने १८,००० कन्याओंसे विवाह नहीं किया हो, परन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि उसकी एकसे अधिक पत्नियाँ थीं। उस युगमें किसी व्यक्तिकी सम्पन्नताके मापने के तीन मापदण्ड थे-(१) आर्थिक सम्पन्नता, (२) शक्ति (३) अधिक पत्नियाँ । 'सिरिवाल चरिउ' में कविने श्रीपालको साधन-सम्पन्न बतानेके लिए ही इतनी अधिक पत्नियों की संख्याका उल्लेख किया है।
दहेजप्रथा
'सिरिवाल चरिउ' में दहेज देनेका वर्णन भी मिलता है। सुरसुन्दरीके विवाह में -
"राजाने लाकर उसे ( सिंगारसिंहको ) कन्या दे दी और साथमें दिये हाथी, घोड़े, स्वर्ण........." (१६)
मैनासुन्दरीके विवाहमें भी दहेज दिया गया था
"उसने अच्छे घर, सुन्दर भण्डार और सम्पदाएँ दीं। दिव्य वस्त्र और भूषण । रथ, अश्व, छत्र और सिंहासन । हय, गज, वाहन, जम्पाण और यान । बहुत-से चिह्न, चँवर, उनके किकाण, धन-धान्यसे भरे हुए ग्राम और देश ।....शोभासे युक्त राजकुल भी दे दिया। धन, दासी, दास और अन्य सुवर्ण आदि।" (१।१५)
चित्रलेखाके विवाहमें मकरकेतुने श्रीपालको श्रेष्ठ गज, अश्व, ऊँट आदि प्रदान किये ।(२।१)
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सामाजिक-चित्रण
__ "कोंकण द्वीपके राजा यशोराशिविजयने भी श्रीपालको दहेजमें घोड़े, गज, रथ, ऊँट आदि वाहन और बहुत-से मणिरत्न दिये । सोनेके बहुत-से स्वच्छ हार और समूची चतुरंग सेना उसे दी।” (२०१३)
स्त्री-शिक्षा
स्त्रियोंको भी उच्च शिक्षा दी जाती थी। गाना, बजाना, नाचना, ज्ञान-विज्ञान, शास्त्र, पुराण, वेद, अनेक भाषाओंका ज्ञान, कामशास्त्रकी शिक्षा दी जाती थी। व्याकरण, छन्द शास्त्र, आगम शास्त्र, ज्योतिष, समस्त कलाओं, राग-रागिनियों, विभिन्न लिपियोंका ज्ञान भी दिया जाता था। मैनासुन्दरीकी शिक्षाका विवरण कविने दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि स्त्री-शिक्षाका कितना प्रचार था और वे पुरुषसे किसी भी बातमें पीछे नहीं थीं।
मैनासुन्दरीने अनेक प्रकारकी विद्याएँ और कलाएँ सीखी थीं। उसकी विद्याओं और कलाओंका विस्तृत वर्णन दिया है । ( ११७)
गुणमाला भी बहत्तर कलाओंमें निपुण है। (१६४६ ) कविने चित्रलेखाको ज्ञान-विज्ञानमें निष्णात बताया है। (२८)
इसके अतिरिक्त वह नृत्यकलामें भी निपुण है । श्रीपालने सौ कन्याओंसे नगाड़ा बजाकर विवाह किया था, जिनसे विवाह करनेकी शर्त यह थी कि वे सौ कन्याएँ नाचेंगी जिन्हें नगाड़ा बजाकर व हाव-भावसे नृत्य करके जो व्यक्ति जीत लेगा, उन्हींसे उनका विवाह कर दिया जायेगा।
__ शिक्षा देनेका कार्य जैनमुनि और शैवगुरु दोनों ही करते थे। सुरसुन्दरीने ब्राह्मण गुरु और मैनासुन्दरीने जैनगुरुसे शिक्षा ग्रहण की थी।
१. घरजंवाई प्रथा
- घरजवाई रहनेकी प्रथाका वर्णन भी है, परन्तु इसे सम्मानित दृष्टिसे नहीं देखा जाता था। श्रीपाल राजा प्रजापालके यहाँ घरजवाई बनकर रह रहा था, परन्तु जब लोगों द्वारा चर्चाएँ होने लगी तो उसे बुरा लगा। वह खिन्न रहने लगा। एक दिन मनासुन्दरीने खिन्न होनेका कारण पछा तब श्रीपाल बताता है-“हे देवी, यहाँ मुझे कोई नहीं जानता, मेरा मन लज्जित है। घर-घर गीतोंमें लोग यही कहते हैं कि मैं तुम्हारे पिताकी सेवा करता हूँ।"
२. भूत-प्रेत और जादू-टोनेमें विश्वास
"सिरिवालचरिउ' में अनेक स्थानपर डाइन, जोगिनी, पिशाच व जादू-टोनेका वर्णन मिलता है । जिनभगवान्के नामकी महत्ता बतलाते हुए स्पष्ट लिखा है---'जिनके नामसे एक भी ग्रह पीड़ित नहीं करता । दुर्मति पिशाच भी हट जाता है।' (१२४१ ) आगे डाकिनी-शाकिनीका भी उल्लेख है
बारह वर्षकी अवधिपर जानेवाले पुत्र-श्रीपालको माँ कुन्दप्रभा उपदेश देती है उसमें भी साइणीडाइणी और कट्टणीको नहीं भूलनेके लिए सचेत करती है ( १।२४ ) ।
रत्नमंजूषाके रूपपर आसक्त और कामान्ध धवलसेठकी कुचेष्टाओंको देखकर उससे उसका मन्त्री पूछता है-"कोई तुम्हें जन्तर-मन्तर कर गया है ?' ( १।३९) ३. ठग और चोर
'सिरिवालचरिउ' में ठग, चोरों और डाकुओंका भी उल्लेख किया गया है। श्रीपालकी माँ, श्रीपालको उपदेश देती है कि ठग और चोरोंका विश्वास मत करना। (११२४) धवलसेठ को भी रास्तेमें लाख चोर पकड़ लेते हैं और बादमें श्रीपाल उसे छुड़ाता है । ( १।२७ )
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४. दान देनेकी प्रथा
दान देनेकी प्रथाका कहती है—''चार प्रकारके
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वर्णन भो है । मैनासुन्दरी श्रीपालको विदाके समय ( १२ वर्षके लिए ) उसे संघको दान देना मत भूलना ।" ( १।२२ )
५. प्याऊ निर्माण
लोगों को पानी पीनेके लिए प्याऊका वर्णन भी मिलता है । अवन्तीके वर्णनमें लिखा है- "लोग ईखका रस लेकर पीते हैं और प्याऊसे पानी पीते हैं ।" ( ११३ )
"इक्खा - रसु पिज्जइ साउ लेवि ।
पाणिउ पीयन्ति पवालिएवि । ( १ ३ )
६. पान-सुपारीकी प्रथा
किसी अतिथि या सम्मानित व्यक्तिको पान खिलानेकी प्रथाका भी उल्लेख मिलता | राजा धनपाल धवलसेठको भी पान और सुपारी देता है । ( २1१ )
बारह वर्ष में श्रीपाल लौटकर आता है । मैनासुन्दरी अपने पिताके दुर्व्यवहारका वृत्तान्त श्रीपालको सुनाती है । वह अपने पिताके पास दूत भेजती है । प्रजापाल उस दूतको पान देता है और फिर बातचीत आरम्भ करता है । ( २।१६ )
७. दण्ड
अपनी जाति छिपाना घोर अपराध बतलाया गया है । धनपालको जब यह मालूम होता है कि श्रीपाल डोम है ( डोमोंके षड्यन्त्रसे ) तो वह श्रीपालको मृत्युदण्ड देनेकी आज्ञा देता है । ( २१४ )
इसी प्रकार जब धवलसेठके षड्यन्त्रका पता लगता है तो उसे भी मृत्युदण्ड देनेके लिए तैयार हो जाता है । ( २१७ )
८. षड्यन्त्र
धवलसेठ रत्नमंजूषाको पानेके लिए अपने मन्त्री से मदद के लिए कहता है । धवलसेट एक योजना बनाता है, जिसके अनुसार मन्त्री यह कहेगा कि जलमें मछली है, जिसे देखनेके लिए श्रीपाल बाँसपर चढ़ेगा । उस समय मन्त्री रस्सी काटकर उसे जलमें गिरा देगा । इस कामके बदले में धवलसेठ उसे एक लाख रुपया देनेका वचन देता है । ( १|४० )
इसी प्रकार श्रीपालको डोम बतानेके लिए धवलसेठ एक षड्यन्त्र रचता है और डोमोंकी सहायता करनेके लिए एक लाख रुपये देनेका वचन देता है । ( २२ )
आर्थिक वर्णन
'सिरिवालचरिउ' में आर्थिक सम्पन्नताका विवरण मिलता है । सोने, मणियों आदिकी यत्र-तत्र बहुलता दिखती है । वैसे ऐसे प्रसंग अधिकतर राजाओंके सन्दर्भ में ही आये हैं, इसलिए साधारण जनताके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। राजा तो साधन-सम्पन्न होते ही हैं और उनके यहाँ मणि, हीरे, जवाहरात आदिका होना कोई आश्चर्यकी बात या सम्पन्नताके द्योतक नहीं हैं । कुछ शहरों व देशोंके विवरणमें ऐसे विवरण मिलते हैं जिससे आर्थिक सम्पन्नताका आभास होता है। उज्जैनीके वर्णन में 'स्फटिक मणियोंसे निर्मित' दीवालोंका उल्लेख किया गया है। इसके अलावा लोगोंके सुखी होनेका विवरण भी है - " लोग छत्तीस प्रकारके भोगोंको भोगते थे ।" ( १४५ )
मालव देशके वर्णनमें बनियों को श्री सम्पन्न बताया है-
" जिसमें ( मालव देशमें ) श्री सम्पन्न बनिया निवास करते हैं ।" ( ११४ )
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सामाजिक-चित्रण
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इसी प्रकार उज्जैनीके वर्णनमें भी सम्पन्नताका उल्लेख किया गया है"उज्जैनी नामकी नगरी वह अत्यन्त प्रसिद्ध है, जो सोना ओर करोड़ों रत्नोंसे जड़ी हुई है।” (११४) लाख चोरोंको जीतने के बाद श्रीपालने जो वस्तुएँ एकत्रित की उनका विवरण इस प्रकार है
"शोभा सहित गज, अश्व, सात प्ररोहण, मणि-माणिक्य, मँगे एवं और भी द्वीपान्तरोंके रत्नोंको श्रीपालने इकट्ठा कर लिया।" ( १।२९)
बब्बरने श्रीपालको भेंटमें जो वस्तुएँ दीं"रत्नोंसे जड़ा छत्र, और भी उसने दिया हिरण्य, सोना, धन-धान्य आदि ।” (१।३०)
धवलसेठ और श्रीपालके जहाजोंमें मणिमाणिक्य और अन्य बहुमूल्य सामग्री भरी हुई थी-"मोती, श्रीखण्ड, प्रवाल, कपर, लवंग, कंकोल इत्यादि बहुत-से रत्नोंसे भरे हए जहाजोंको लेकर वे लोग चले।" ( ११३)
रत्नद्वीपमें पद्मराग मणि अपरिमित मात्रामें बतलाये हैं। (१।३०) हंसद्वीपमें तो अनेक प्रकारके रत्नों और मणियोंकी खदानोंका उल्लेख किया गया है। (११३० ) इसके अतिरिक्त-"लाट, पाट, जिवादि, कस्तुरी, कुंकुम, हरिचन्दन और कपुर जिसमें थे।" ( १३० )
हंसद्वीपके बाजार मणियों और रत्नोंसे भरे हुए थे"मणि-रयणइँ जहिं आवणि भीतर।" ( ११३३ ) सहस्रकूटके जिनमन्दिर में भी सुवर्ण, मूंगा, पन्ना, मणि आदि प्रचुर मात्रामें जड़े हुए थे।
"सुवर्णसे निर्मित वह लाल मणि और पन्नोंसे जड़ा हुआ था। शुद्ध स्फटिक मणियों और मूगोंसे सजा हुआ। राजपुत्रोंने उसपर बड़े-बड़े मणि लगा रखे थे। वह सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे शोभित था।........उसके चारों ओर इन्द्रनील मणि लगे हए थे। उसकी श्रेष्ठ पंक्तियाँ गवय, गवाक्ष आदि अनेकों स्वच्छ रत्नोंसे और नीचेकी भूमिमें जड़ी हुई थी।” ( ११३४ )
श्रीपाल बारह वर्षकी अवधिके पश्चात् लौटकर आता है तथा प्रजापालसे मिलता है तब वहाँके लोग खुशी मनाते हैं। उस समयका वर्णन देखिए
“घर-घर आनन्द-बधाई हुई। प्रवालोंसे जड़ित मणियों और मोतियोंकी मालाओंसे घर-घर तोरण सजा दिये गये ।" ( २।१७ ) व्यापार
जलमार्गसे व्यापार करनेका वर्णन 'सिरिवालचरिउ'में मिलता है। धवलसेठके साथ अन्य व्यापारी भी थे। नगर, गाँव व देशके अतिरिक्त अन्य देशोंसे भी व्यापार करनेका वर्णन मिलता है। व्यापारी लोग काफी सम्पन्न बताये है। धवलसेठका सम्मान राजा धनपाल करता है (११)। युद्ध में प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्र
मुद्गर, भाले, सब्बल, सैल, फरसे ( १।२७ ), तलवार ( १।२८), तूणीर-धनुष ( २।१२), कोतल, कुन्त और कटारें (२।२४ ) शस्त्रोंका वर्णन आलोच्य कृतिमें मिलता है।
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फसल व वनस्पति
दाख, मिर्च, ईख, तुम्बी', कपास आदिका वर्णन कविने किया है । अवन्तीके वर्णनमें दाख, मिर्च और ईखका वर्णन भी मिलता है ।
"पहं दक्ख मिरिच चक्खति कोइ ॥ इक्खा-रसु पिज्जइ साउ लेवि ।” ( ११३ )
कनककेतुके पुत्रोंके चित्तकी मोती और कपाससे उपमा दी है । " मोतिउ कपासु णं साइचित्त || ” ( १1३२ )
वनस्पति में सालवृक्ष, बाँसका उल्लेख है । एक स्थानपर वटवृक्षका वर्णन भी है" सालहिय पुंसमारइँ लवंति || ” ( ११५ )
रत्नमंजूषाके विवाह में हरे बाँसका मण्डप बनाया गया था ।
"हरिय वांस तहिँ मंडउ ट्ठवियउ || ” ( १।३६ )
1
श्रीपाल समुद्र तैरकर आता है, उसके बाद वह वटवृक्ष के नीचे बैठता है । ( १।४७ ) कस्तूरी और हरिचन्दनका उल्लेख हंसद्वीपके वर्णन में मिलता है । ( १।३० )
भौगोलिक वर्णन
खदानें
'सिरिवाल चरिउ' में मणियोंकी खदानोंका वर्णन सबसे अधिक उल्लेखनीय है । हंसद्वीपमें इस प्रकारकी अट्ठारह खदानोंका विवरण दिया गया है
नगर व ग्राम
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'सिरिवालचरिउ' में अनेक नगरों, देशों व ग्रामोंका वर्णन किया गया है । ग्रामोंके नाम नहीं दिये गये हैं, परन्तु उनकी विशेषताएँ बतलायी हैं । नगरों और देशोंका नामसहित विवरण दिया गया है जिनमें मुख्य रूपसे अवन्ती, मालव, उज्जैनी, कौशाम्बीपुर, अंगदेश, चम्पापुरी, वत्सनगर, रत्नद्वीप, हंसद्वीप, लवण नगर, कुण्डलपुर, कंचनपुर, कोंकण द्वीप, थाना, ' पंच पाण्ड्य, मल्लिवाड, तैलंग, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, गुजरात, अन्तर्वेद, कच्छदेश, भड़ौंच, पाटन, कश्मीर और कोट" के नाम विशेष रूप से उल्लेखन हैं | कौशाम्बी ( २1१ ) और जम्बूद्वीप ( २1१२ ) का नाम भी मिलता है ।
१२
43
गाँव नगरोंके समान हैं और नगर बहुत सुन्दर हैं । नगरोंको सुन्दरता निराली है। समुद्रके किनारे या नदी के किनारे भी नगर बसे हैं, जो स्थल व जल मार्गों से जुड़े हैं। नगर में तालाब भी हैं । लोग गाय व भैंस पालते हैं । नदीके पानी और तालाब के पानी में गन्दगी नहीं है । स्त्रियाँ सुन्दर और सुकुमार हैं । ( १।३ ) नगरो में विद्वान् पुरुष हैं जिनको अनेक भाषाओंका ज्ञान है । नगरोंमें वैश्य रहते हैं जो व्यापारव्यवसाय करते हैं । विद्वान् लोग बहुत-सी भाषाएँ सीखते हैं, सम्भवतः व्यापारियोंके लिए दूसरे द्वीपों में व्यवसाय करने के लिए यह जरूरी था ।
'जहि र विउस पढेहिं बहु - वाणिय ।' ( ११४ )
१०
८. (१।४६),
१. ( १/४६ ), २. (१३), ३. (१/४), ४. (१/६ ), ५. (१२५), ६. (१।२५), ७. (११२७), ९. ( २८ ), १०. (२1१०), ११. (२/११), १२. (२/१३), १३. (२/१३), १४. (२/१३), १५. ( २० ) 1
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भौगोलिक वर्णन
नगरोंके बाहर परकोटे भी सुरक्षाके लिए हैं
"जल-खाइय सोहहिं कमल-छण्ण।
सालत्तय मंडिय पंच वण्ण ॥” (१५) नगरके भीतर बाजार-हाट भी हैं। बीचमें सड़कें भी हैं । लोग साधन-सम्पन्न हैं और छत्तीस प्रकारके भोगोंको भोगते हैं । (१।५)
"क्खतीस पवणि भुजंति भोय।" (११५) कोंकण द्वीपके वर्णनमें स्पष्ट लिखा है कि "देश और गाँव समान बसे हुए हैं।" इसी आशयका उल्लेख अवन्तीके वर्णनमें भी किया गया है
___ "जहँ गाम बसहिं पट्टण समाण ।” ( ११३ ) कोंकण द्वीपका वर्णन
___पहु वसहि णिरंतर देस-ग्राम ।" ( २।११) जातियाँ
शवर, पुलिन्द, भोल, खस, बब्बर, धीवर, डोम, मराठा, गुजर, चाण्डाल आदि जातियोंका वर्णन मिलता है। श्रीपाल १२ वर्षको अवधि पूरी कर लेनेपर उज्जैन लौटता है। रास्तेमें शवर, पुलिन्द, भील, खस और बब्बर ईर्ष्या छोड़कर उसकी सेवा करते हैं
"सवर-पुलिंद-भील-खस-वव्वर ।
लए डंडि ते झाडिय मच्छर ॥” ( २।१३ ) अवन्तीके वर्णनमें धीवरोंका उल्लेख किया गया है
'जिसमें नीलकमलोंसे सुवासित पानी बहता है, जिसका गम्भीर जल धीवरोंके लिए वर्जित है।" (११३ )
धवलसेठको जब लाखचोर पकड़ लेते हैं, तब यह खबर गूजर और मराठे आकर श्रीपालको देते हैं
"तब खिन्न होकर गूजर और मराठोंने यह बात श्रीपालसे कही-बर्बर चोरोंने सेठको नहीं छोड़ा।" (११२८) डोम और चाण्डालोंसे मिलकर धवलसेठ श्रीपालके विरुद्ध षड्यन्त्र रचता है।
"किउ मंतु सव्वु कूडहँ अयाण ।
कोकविय डोम-मातंग-पाण ॥” (२।२) इन जातियों के अतिरिक्त धोबी, चमार ( २।३ ), नट ( २।२९) और भाण्डका भी उल्लेख मिलता है। एक स्थानपर यवनोंका जिक्र भी मिलता है । ( ११४२) बीमारियाँ
पेटमें सूल, सिर दर्द ( १।३९ ), सन्निपात ( १।३९, २।१), गलेका फोड़ा, इकतरा ताप और तिजारा ( ११४१ ) बीमारियोंका वर्णन मिलता है।
धवलसेठ रत्नमंजूषा पर मोहित होकर जो चेष्टाएँ करता है उसके फलस्वरूप उसका मन्त्री
पूछता है
"किं तुव पेट्ट-सूलु सिर-वेयण ॥
कि उम्मउ सणिवाए लइयउ।" (११३९) जिनभगवान्के नामकी महिमामें इकतरा ताप व तिजाराका उल्लेख किया गया है
"जिणणामें फोडी खणि विलाइ । इकतरउ ताउ तेइयउ जाइ॥"( ११४१ )
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सिरिवालचरिउ
जानवर व पक्षी
जानवरोंमें गाय, भैंस, कुत्ता, गधा, सुअर, शृगाल, सिंह, खच्चर, हाथी, ऊँटका उल्लेख है। पक्षियोंमें कोयल, कौआ, गरुड़, हंस और मुर्गेका उल्लेख मिलता है। अवन्तीके वर्णनमें हंस, गाय व भैंसके नाम आते हैं--
"हंसहँ उल सोहहिं हंस-सहिय ।।
गो-महिसि-संड जहिं मिलिय मालि।" ( १।३ ) उज्जैनीके वर्णनमें कोयलका नाम आता है। ( ११५ ) रत्नमंजूषा कामान्ध धवलसेठको कुत्ता, गधा और सूअर कहती है
अब तू कुत्ता, गधा और सूअर है।" ( ११४४) रत्नमंजूषाकी सहायता हेतु व धवलसेठको शिक्षा देने के लिए जो जलदेवता आते हैं उनकी सवारियोंके वर्णनमें मर्गा, सर्प व गरुड़के नाम आते हैं। (१।४५ ) खच्चरका उल्लेख कोढ़ी श्रीपालकी सवारीके रूपमें ( ११० ) तथा श्रीपालकी सेनाके एक अंगके रूपमें (२०३५) भी वर्णन किया गया है।
श्रीपाल पान लेकर धनपालके दरबारमें आता है तब डोम व भाण्ड ऐसे दौड़ते हैं जिस प्रकार कौए, कौएसे मिलते हैं। (२१२)
वीरदमण और श्रीपालकी तुलनामें शृगाल और सिंहकी तुलना की है। (२।२०)
यशोराशिविजयकी कन्याओंके प्रश्नोंके जो उत्तर श्रीपालने दिये हैं उनमें 'मेढक'का उल्लेख भी मिलता है । (२।११)
इसके अतिरिक्त युद्धोंमें और सेनाके वर्णनमें हाथी, घोड़ों और ऊँटका अनेक बार विवरण मिलता है। राजा कनककेतुकी पत्नी कनकमाला"दृष्टिसे वह देखती और फिर देखती तो ऐसी लगती जैसे डरी हुई हिरणी हो ।” (१३१)
इसमें हिरणीका वर्णन भी मिलता है। प्रकृति चित्रण
"सिरिवाल चरिउ' में प्रकृति चित्रण केवल 'देश-वर्णन' के प्रसंगमें ही है, वह भी बहुत थोड़ा है । अवन्तीके वर्णनमें प्रकृतिका परम्परागत वर्णन है।
"जिसमें गाँव नगरोंके समान हैं।....जिसमें सरि, सर और तालाब कमलनियोंसे ढके हए हैं, हंसोंके जोडे हंसनियोंके साथ शोभा पाते हैं। जिसमें गायों और भैंसोंके झुण्ड एक कतारमें मिलकर उत्तम धान्य ( कलमशालि ) खाते हैं । जिसमें नीलकमलोंसे सुवासित पानी बहता है। जिसका गम्भीर जल धीवरोंके लिए वर्जित है।” (११३)
पानीकी स्वच्छता बतानेके लिए कविने कैसा अनूठा वर्णन किया है-ऐसा स्वच्छ पानी कि धीवरों ( मछुओं ) को भी छूना निषिद्ध है ।
उज्जयिनीके वर्णनमें भी कविने प्रकृतिका सुन्दर चित्रण किया है
"वह अनोखी नगरी उपवनोंसे शोभित है। पक्षियोंके श्रावक उसमें चहचहा रहे हैं । लतागृहोंमें किन्नर रमण करते हैं, सालवृक्षों पर कोयले कुक रही है। कमलोंसे ढकी हई जल-परिखाएँ शोभित
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भाषा की दृष्टि से 'सिरिवालचरिउ' की स्थिति विचित्र है, क्योंकि १६वीं सदीका प्रारम्भ, आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्यका युग है न कि अपभ्रंश का । अत: उसकी भाषा में मिलावट अनिवार्य थी । उसकी भाषा जहाँ वर्णनात्मक है वहाँ अपभ्रंश है, लेकिन जहाँ संवाद या बातचीत है वहाँ भाषा लचीली है । उसमें भी मुख्य रूप परम्परागत अपभ्रंश का ही है । फिर भी उसमें मिश्रण और सरलीकरणकी प्रवृत्ति सक्रिय है ।
कारक, संज्ञा, सर्वनामों की स्थिति परम्परागत है । प्रायः सभी कारक मिलते हैं, परन्तु अधिकतर विभक्तियोंका लोप या विनिमय दिखाई देता है । विभक्ति लोप सहज ही प्रचुरतासे द्रष्टव्य है । विभक्ति विनिमयके कुछ उदाहरण उद्धृत हैं
}
१. उववण हैं वि सोहइ ( ग्रंथहं गरीय )
२. कवणहु दिज्जइ अन्हहं अवखरि देखइ सिरिपालहं
३. धरतहं सुरवरहं रयणहं णिवद्ध
सहं चढ़इ
कर्ता
कर्म
करण
सम्प्रदान
अपादान
सम्बन्ध
अधिकरण
भाषा
उ० पु०
म० पु० अ० पु०
[ ६ ]
कर्ता और कर्मके एक और बहुवचन में प्रायः विभक्तियोंका लोप है । केवल स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंगके बहुवचनकी विभक्तियाँ उपलब्ध हैं
एकवचन
o
तृतीय स्थानपर षष्ठी ।
द्वितीयाके स्थानपर षष्ठी ।
एकवचन
मि
हि इ, हि, ति
हि
इं, हि, एं, एण, सेतिय, सिइ
लगि, निमित्त
आउ, होंतउ
हो,हू,ह, रो
पंचमी के स्थानपर षष्ठी ।
बहुवचन
O
o
इ, ए
चूँकि अपभ्रंशमें वृद्धि -स्वर नहीं होते अतः 'केरो' प्रयोग प्रमादजन्य माना जायेगा; या फिर समकालीन खड़ी बोलीका प्रभाव ।
क्रियाओंके निम्नलिखित प्रत्ययरूप और क्रियारूप उपलब्ध हैं
वर्तमान
०
०
हं ( 'ह' स्त्रीलिंग में )
०
बहुवचन
o
न्ति, हि, हि
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सिरिवालचरिउ
कर्मणि प्रयोग
ज्जहिं
भविष्यत् काल एकवचन
बहुवचन उ० पु० म० पु० अ० पु०
सइ इसके अतिरिक्त भविष्यत्कालके लिए कृदन्तके रूप मिलते हैं
जाएवउ, करेवउ, किव्वइ आलोच्य कृतिमें एक विशेष प्रयोग है-मिलइ, गउ, आइवि, इसकी दो स्थितियाँ सम्भव हैं(१) गउ आइवि मिलइ
गया हुआ आकर मिलता है। (२) आइवि मिलइ गउ
आकर मिलेगा। पहला प्रयोग अर्थहीन है, क्योंकि 'गया हआ आकर मिलता है', यह अस्वाभाविक वाक्य है। दूसरे प्रयोगमें सन्धि करनेपर रूप होगा-'मिलेगी' खड़ी बोलीके गा, गे, गी, के विकासका सम्बन्ध, जो विद्वान् संस्कृतके सामान्य भूत, गा, गअ, गा, से मानते हैं, वे अवश्य इससे प्रसन्न होंगे। परन्तु प्रश्न यह है कि भूतकालके कृदन्तसे भविष्यका बोध कैसे सम्भव हुआ ? दूसरे १६वीं सदीके प्रारम्भमें खड़ी बोलीमें गा, गे, गी, रूप आ चुके थे। हो सकता है कविने हिन्दीके 'मिलेगा' का अपभ्रंशीकरण 'मिलेगी' कर दिया हो । यह सम्भावना इसलिए भी सही है, क्योंकि कविने एक स्थलपर 'करह कन्त की सार' में 'की' का प्रयोग किया है, जो खड़ी बोलीके सम्बन्धका परसर्ग है।
विधि और आज्ञामें
p
पौराणिक
हि कराव हि चला० हि । सामान्यभूत कृदन्त
उ, अ पण, णि इत्यादि । पूर्वकालिक क्रिया
इ, इवि, अव, अपि, ओपिण्णु, एवि, एवि, एविणु,
हाप्पिणु । क्रियार्थक क्रिया
अण भू. क्रियाके रूप
हु, हुवइ, होइ, होउ, होहि, होति, होतइ, होख, होउ, होति,
होंतु, होतउ, होसइ, होसहि, होसमि, होएविणु । अस, अस्थि, अत्थिय, अच्छइ, अच्छहि, अछि उ, अछइ "सिरिपाल चरिउ' की भाषाका सबसे महत्त्वपर्ण पक्ष है। उसमें बोलियोंके प्रयोग
ते भले भए ( १।१८) बारह बरस न वावहि ( १।२) तुट्टइ आवण (२०३२)
भउ विवाहु (११३६ ) णत्थि नोय, णउहुइ, णवि होसई ( ११३७) तुवालाखु दायु दइहंउ पसाउ ( ११४०) जिणणामे फोडी खणि बिलाइ (११४१) काहे दिण्ण बप्प परएसहं ( ११४२) धोबी चमार घर करहिं भोज्जु ( २।४ )
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भाषा
तुहं पूच्छण पठई हउँ भत्तारु ( २।५ ) णं अंधे लद्धे बेवि णयण । णं बहिरे फूट्टे भए सवण ( २१६ ) पुण अग्गे लोटिय वार-वार ( २१६ ) आप आपणी बात कहीं ( २६)
टाप, लोह, टोपरि, मरजिया, लेसइ, करहू, कन्तकी सार, फुटे भये, जैसे शब्द और प्रयोग, अपभ्रंशकी परम्परागत भाषाके लिए नये हैं और उसमें समकालीन बोलियोंके विकासके संकेत सूत्र पर्याप्त मात्रामें हैं। संवाद :
कवि संवादोंकी योजनामें निपुण है। 'सिरिवाल चरिउ' में सभी प्रकारके संवाद मिलते हैं । कुछ संवाद मर्मको छू जाते हैं, तो कुछ संवाद तर्कपूर्ण हैं। कहीं कुटिलताको संवादोंमें सँजोया है तो कहीं लोकजीवनकी झाँकीको उतारा है। सभी प्रकारके रंगोंमें रँगे संवादोंकी योजना कविने कुशलतापूर्वक की है। सबसे अनोखी और विशेष बात यह है कि उनमें स्वाभाविकता है। पढ़नेपर ऐसे लगते हैं मानो सचमुच बातचीत हो रही है, वे आरोपित या थोपे हुए नहीं लगते हैं।
(१) मैनासुन्दरीसे उसके पिता द्वारा विवाह सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भाग्यवादी दर्शनको प्रकट करते हैं
राजा पयपाल मैनासुन्दरीसे पूछता है-"जो वर तुम्हें अच्छा लगे वह माँग लो, जैसा कि तुम्हारी जेठी बहनसे पूछा था।"
मैनासुन्दरी उत्तर देती है-"जो कन्या माँ-बापसे उत्पन्न होती है, उसके लिए माँ-बापका मार्ग ही उपयुक्त है। अन्यको चाहना वैसा ही है जैसा वेश्याके लिए लम्पट । पिता तो बस विवाह करता है, आगे उसका भाग्य । शुभ-अशुभ कर्म सभीको होते हैं।" ( १९)
(२) मैनासुन्दरीका विवाह कोढ़ीसे तय कर दिया जाता है। पयपाल उससे कहता है"बेटी, मेरा एक कहना करोगी, तुम कोढ़ीको दे दी गयी हो, क्या उसका वरण करोगी ?"
मैनासुन्दरी उत्तर देती है-“मैंने स्वेच्छासे उसका वरण कर लिया है, अब मेरे लिए दूसरा तुम्हारे समान है।" ( १।१२)
(३) श्रीपालको घरजॅवाई बनकर रहना अच्छा नहीं लगता है । उसका मन खिन्न रहता है । मैनासुन्दरी समझती है कि श्रीपाल किसी अन्यपर आसक्त है । वह श्रीपालसे पूछती है
"तुम दुबले होते जा रहे हो, तुम्हारी क्या चिन्ता है ? यदि कोई सुन्दरी तुम्हारे मनमें हो तो तुम उसे मान सकते हो।"
श्रीपाल उत्तर देता है-"तुम भोलीभाली हो, दूसरी स्त्री मुझे अच्छी नहीं लगती। पिता द्वारा दी गयी स्त्री ही मझे अच्छी लगती है।"
मैनासुन्दरी-"तुम्हारे मनमें क्या चिन्ता है ? अपनी गोपनीय बात मुझे क्यों नहीं बताते ?"
श्रीपाल-"सुनो! मुझे कोई नहीं जानता। मैं लज्जित हूँ कि मैं निर्लज्ज होकर तुम्हारे पिताकी सेवा करता हूँ। घर-घरमें यह गीत गाया जाता है।"
मैनासुन्दरी-"मेरे मनमें भी यही बात थी।" ( १।२० )
कितनी स्वाभाविकता है इन संवादोंमें ? लोक जीवनका एक दृश्य ही उपस्थित हो जाता है। एक उदाहरण, कितना सरल, स्वाभाविक और तर्क पूर्ण है । श्रीपाल बारह वर्षकी अवधिके लिए प्रवास पर जानेवाला है
(४) श्रीपाल मैनासुन्दरीसे कहता है- "मैं बारह बरसके लिए जाना चाहता हूँ ।' __ मैनासुन्दरी-"मैं मोहका निवारण कैसे करूँ? तुम्हारे बिना मुझे बारह दिनका भी सहारा नहीं है। मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगी।"
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सिरिवालचरिउ
श्रीपाल-"स्त्रोके साथ जानेसे काम सिद्ध नहीं होता।" मैनासुन्दरी-"पतिव्रता सीता देवी रामके साथ क्यों गयीं?"
श्रीपाल-"तुम्हीं सोचो कि उसका क्या हुआ ?" ( सीताको राग ले गया था इस ओर संकेत है) (१।२१)
(५) श्रोपाल जब जाने लगता है तब मैनासुन्दरी उसका आँचल पकड़ लेती है । श्रीपाल इसे अपशकुन मानकर कुपित हो जाता है। उस समयकी बातचीत हृदयको छू लेती है। पतिके बिना स्त्रीका रहना कठिन है।
श्रीपाल - 'हे प्रिय ! छोड़ो मुझे, यह मेरे लिए अपशकुन है।''
मैनासुन्दरी-ओ प्रवास पर जानेवाले, तुम मुझपर क्रुद्ध क्यों हो? पहले मैं किसे छो’-अपने प्राणोंको या तुम्हारे आँचल को?" ( ११२३ )
(६) जाते समय श्रीपाल माँके पैर छूने जाता है। उस समयके संवाद माँकी ममतासे भरे हुए हैं। माँ अपने पुत्रके बिना १२ वर्ष तक कैसे रहेगी। जब वह नहीं मानता है तो उसे प्रवासमें काम आनेवाली बातोंके बारेमें बतलाती है। माँके कथनमें स्वाभाविकता है और उसका मनोवैज्ञानिक आधार है--
श्रीपाल-माँ ! मैं विदेश जाता हूँ। इस बहूसे प्रेम करना । हे माँ ! मैं जाता हूँ, वापस आऊँगा !
माँ ( कुन्दप्रभा)- "हे पुत्र ! तुम्हें देखकर मुझे सहारा था । हे वत्स ! जबतक मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देखती हूँ, तबतक मैं अपने पति अरिदमनके. शोकको कुछ भी नहीं समझती। मैंने आशा करके ही अपने हृदयको धारण किया है।"
श्रीपाल-“हे स्वामिनी ! आप धैर्य धारण करें, कायर न बनें। हे माँ ! आदेश दो जिससे मैं जा सकूँ ।”
तब कुन्दप्रभा लाचार हो उसे बिदा करती है और अनेक शिक्षाप्रद बातें कहती है । ( १।२३-२४ ) (७) श्रीपाल सहस्रकूट जिनमन्दिरके द्वारपालसे पूछता हैश्रीपाल-"जो पुण्यशाली सबसे ऊँचा शिखर है, उसके पूरे दरवाजे क्यों बन्द हैं ?'
द्वारपाल-"इसका द्वार अभी तक कोई खोल नहीं सका, उसी प्रकार जिस प्रकार कंजसके हृदयरूपी किवाड़को कोई नहीं खोल सका।" (१९३४)
(८) रत्नमंजूषापर आसक्त धवलसेठसे उसका मन्त्री पूछता है
मन्त्री-“तुम अचेतनकी भाँति क्यों हो ? क्या तुम्हारे पेटमें सूल है या सिरमें दर्द या सन्निपात हो गया है।"
धवलसेठ-"मैं तुम्हें ढाढ़स देनेके लिए कहता हूँ कि ना तो मुझे सिरमें पीड़ा है, ना पेटमें सूल । मेरा हीन मन रत्नमंजूषाके रूपमें सन्तप्त और आसक्त है ।'
मन्त्री-"तुम अनुचित कार्य मत करो। वह तुम्हारे पुत्रकी पत्नी है।"
धवलसेठ- "हे कूटमन्त्री ! तुम सहायक हो, तुम्हें मैं प्रसादमें एक लाख रुपया दूंगा। मैं तुम्हारे गुणोंको हृदयसे मानूँगा, जिससे मैं इस स्त्रीका हृदयसे भोग कर सकूँ।" ( ११४० )
(९) गुणमालाको जब यह समाचार मिलता है कि श्रीपाल डोम है और जाति छिपानेके कारण राजाने उसे बन्दी बना लिया है। वह तुरन्त श्रीपालके पास सचाई जाननेके लिए दौड़ती है। वह श्रीपालसे पूछती है
गुणमाला-"तुम्हारी कौन-सी जाति है ? तुम अपना कुल बताओ।" श्रीपाल-“यही मेरा सब कुछ है।" गुणमाला-"मैं अपना घात कर लूंगी। प्रियजनसे तुम सच्ची बात कहो।"
श्रीपाल-"विडोंके पास एक सुन्दर सुलक्षण नारी है, तुम उस मती रत्नमंजूषासे पूछो। वह जो कहेगी, हे प्रिये, मैं वही हूँ।"
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भाषा
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गुणमाला रत्नमंजूषा के पास जाती है सचाई जानने । प्रश्न यह उठता है कि गुणमाला श्रीपालसे ही क्यों नहीं पूछती ? वह रत्नमंजूषा के पास क्यों जाती है ? कविने यहाँ बहुत ही सतर्कता बरती है । यदि श्रीपाल सच्ची बात कहता भी है तो उसका कहा कोई नहीं मानता ।
मुहावरे व लोकोक्तियाँ
कविने कहीं-कहीं मुहावरे व लोकोक्तियोंका भी प्रयोग किया है। मुहावरे व लोकोक्तियोंसे कविने अपने वर्णनको प्रभावशाली बनाया है ।
मुहावरे
'सिरिवाल चरिउ' में आये मुहावरे व लोकोक्तियों में से कुछ यहाँ दी जा रही हैं
१.
'धाइउ धाइ उरहि पिट्टंती । ( २१४ ) 'ता चितइ णरवइ पट्टिय महु मइ, 'राय मग्गु मइँ हारियज । ( १।१४ )
लोकोक्तियाँ
छन्द
२.
३. 'हउँ थिय पुत्ती किण्हहं वयणु ।'
४.
१.
२.
'खामोयरि मेल्लिय दीह धाह । ( १।४२ ) 'णिय खीरहो मइँ णिरु छित्त छारु ।' ( १।१५ )
'णं दालिद्दिय लद्धउ णिहाणु ।'
'णं अंधे लद्धे बेवि णयण ।'
३.
४. 'बहिरें फुट्टे भए सवण ।'
५.
६.
७.
'णं बज्झहि लद्धउ पुत्तु जुवलु ।'
'लउ पाविय ण दयधम्मु अमलु ।'
'णं वाइहि सिद्धउ धाउ वाउ । ( २६ )
'सिरिवाल चरिउ' में कुल दो परिच्छेद हैं । पहलेमें ४७ और दूसरेमें ३६ कड़वक हैं । परन्तु 'ग' प्रतिके पहले परिच्छेद में ४७ के बजाय ४६ कड़वक हैं । 'क' और 'ख' प्रतियोंके पहले परिच्छेदके २२वें कड़वक में दो गाहा १ अनुष्टुभ् (संस्कृत) एक दोहड़ा और अन्तमें घत्ता है । परन्तु 'ग' प्रतिमें इसे अलग कड़वक स्वीकार नहीं किया गया । उसे २३ कड़वकके ऊपर 'प्रक्षिप्त' रूपमें डाल दिया गया है । इस प्रकार अपने आप एक कड़वक कम हो जाता है । वैसे उपर्युक्त पाँचों छन्द कहींसे प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं । अन्तमें घत्ता होने से उसे भूलसे कड़वक समझ लिया गया । वस्तुतः इस प्रकार के कड़वककी रचना 'सिरिवाल चरिउ' की शैली के विरुद्ध है । 'सिरिवाल चरिउ' के कड़वकोंकी रचना भी अपभ्रंश चरित काव्योंकी परम्परागत शैलीके आधारपर हुई है । प्रारम्भमें अपभ्रंश चरित काव्यों में चार पद्धड़िय अर्थात् सोलह पंक्तियोंका विधान था, ये सोलह पंक्तियाँ आठ यमकों में बँटी रहती हैं । यमकका अर्थ है दो पंक्तियोंका जोड़ा जिसमें अन्त्यानुप्रास भी हो । हालाँकि पाठक देखेंगे कि आलोच्य कृतिमें कहीं इस नियमका पालन नहीं हुआ । एक कड़वकमें यमकों की संख्या के विषय में 'कवि' किसी एक लोकपर नहीं चलता । किसी कड़वक में १२ पंक्तियोंका यमक है और कहीं ७ का है ।.
1
घत्ता - वस्तुतः किसी छन्दका नाम नहीं, बल्कि छन्दके विशेष प्रयोगका नाम है । उदाहरणके लिए स्वयम्भूच्छन्द के आठवें अध्यायसे ऐसा लगता है कि 'कड़वक' के आरम्भका छन्द 'घत्ता' कहलाता था और अन्तका छन्द छड्डिनी । परन्तु अपभ्रंशके उपलब्ध चरित काव्योंसे इसका समर्थन नहीं होता । 'कड़वक'की समाप्तिको सूचित करनेवाला छन्द ही 'घत्ता' कहलाता है । घत्ताका अर्थ भी है कि जो विभक्त करे । इसके 'ध्रुवा ध्रुवक' या 'छड्डुणिया' नाम भी मिलते है । पिंगलके अनुसार घत्ता में ३१ मात्राएँ होती हैं । यति १० और ८ पर तथा अन्तमें दो लघु होने चाहिए । परन्तु यह कोई विशेष नियम नहीं है । इस
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सिरिवालचरिउ प्रकार प्राकृत पैंगलम्का 'घत्ता' वस्तुतः आचार्य हेमचन्द्रका छड्डुणिआ है । परिभाषा वही १०-८, १३ अन्तिम दो लघु । आचार्य हेमचन्द्रने 'छड्डणिआ' को दुवईका एक भेद माना है। उनका कहना है कि दुवईकी तरह षट्पदी और चतुष्पदीका भी प्रयोग होता है। अतः वे भी 'घत्ता' कहला सकते हैं। इस प्रकार 'छड्डणिआ' दुवईकी एक जाति है, जो कड़वकके अन्तमें आनेपर 'घत्ता' कहलाती है। स्वयम्भूने एक जगह कहा है कि चतुर्मुखने छर्दनिका, द्विपदी और ध्रुवकोंसे जड़ित पद्धड़िया दी । यहाँ छर्दनिकाका ही छडुणिआ है, जो कड़वकके अन्तमें प्रयुक्त होनेपर घत्ता कहलायी। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीने 'घत्ता' को ही एक स्वतन्त्र छन्द मान लिया है, जो कि गलत है। प्राकृत पैगल १९०२ की भूमिकामें टीकाकार लिखता है-'अथ द्विपदी घत्ता छन्द' प्रारम्भ होता हैं। इस प्रकार 'घत्ता' छन्दका प्रयोग विशेष है, न कि छन्द । 'सिरिवालचरिउ' में प्रयुक्त 'घत्ता' दुवई जातिका ही है, उसमें छड्डणिआका घत्ताके रूपमें प्रयोग सम्भवतः सबसे अधिक है। जैसे
१० - ८; + १३ = ३१ १२ -८;+ १२ = ३२ १० -५;+१२ = २७
इत्यादि । दो-एक अपवादोंको छोड़कर 'कड़वक' की रचना चौपाईसे हुई है। पूरे काव्यमें चार जगह वस्तुबन्ध छन्द आया है। इस प्रकार छन्दके विचारसे आलोच्य कृति सरल है, उसमें छन्द-बहुलता या उनका जटिल प्रयोग नहीं है ।
१. अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य, पृ. २४२, २४३ ।
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दिपाईनमोवीतरामायबासिद्धवकविहिरिडियागणहसमिडिया गणवप्पिागामिडमुणीसरा नाही याकमिणमालालवियङसंगलासिद्धमहासारसामियहो॥॥जयपाहिहि दरम्याइ जितनयनियनिमाहिवमाहेबाडेसाजयसत्तबझाइयमुबशाल जवाहणदागसहयरमणा गानामभयपादकम्मारिवाहानयामशाहरपलाहाजयजयसुधासमिरिरमाणेय जय वेदपहधमोहयामानावयतदामियारिवग्गाजयीयलसाहिवमारकमग्गाजयसयतबस रकमलहसंजयवासपूजयलइसीसा जयविमलाणापकरुणनिद्राणजयाजणवर्णतजाणि ययभागोजमधम्मतिबमोदएकतिजयमतिजिसरविहिपसंतिजियर्क नाहकदाजीव मित्रिजियनरमाणियाणिवाणथुनिजियमल्लिनिसरमल्लिमोद जयसुबयधुंयवियसिंदबि राजयनमित्यपनयमसियंगाजयणमितजियराष्ट्रामाइसंगाजययासनुवाकमसलनाण,
प्रखपुरविनमनतासवताना तिपालकानाउहरपधारानू। दानापास प्राताराताला मेरायरमश्रावकमदासाघुनामदेसुतेनेदरापालनामा कमेकानिमितलिका
तन्याचा माकलादयता लिखितपंवारसंघातिलेर जलेररले
नबेदनातरपवतिसका जानवानं मानाने नियोतयादा मारवदना सुखानित्यानमाधान बजानवता परमयकामास अननदशीपालन गाहकदापारामितावाईमानित
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सिरिवालचरिउ
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सिरिवालचरिउ
संधि १
घत्ता-सिद्ध-चक्क-विहि-रिद्धिय, गुणहि समिद्धिय, पणवेप्पिणु सिद्ध-मुणीवरहो।
पुणु अक्खमि णिम्मलु भवियहु मंगलु सिद्ध-महापुरि-सामियहो ।। जय णाहिहि णंदण आइ-बंभ जय अजिय जिणाहिय महिय-डंभ। जय संभव झाइय-सुक्क-झाण जय अहिणंदण सुह-परम-णाण । जय सुमइणाह कम्मारि-वाह जय पोमणाह रत्तुप्पलाह । जय जय सपास सिरि-रमणि-पास जय चंदप्पह हय-मोह-पास । जय पुप्फयंत दमियारि-वग्ग। जय सीयल साहिय-मोक्ख-मग्ग। जय सेयं भव्व-कमल-सर-हंस जय वासपूज जय लद्ध-संस। जय विमल णाण-करुणा-णिहाण जय जिण अणंत जाणिय-पमाण । जय धम्मणाह सोवण्ण-कंति जय संति जिणेसर विहिय-संति । जय कुंथुणाह कय-जीव-मित्त जय अरसामी" णिव्वाण-थति । जय मल्लि-जिणेसुर मल्लिमोद जय सुव्वय थुअ-तियसिंद-विंद । जय णमि रयणत्तय-भूसियंग जय णेमि तजिय-रायमइ-संग। जय पास भुवण-कमलेक-भाण जय जयहि जिणेसर वढमाण । घत्ता-जिणगुणमाल पढेसइ मणि भावेसइ रिद्धि-विद्धि-जसु लहइ जउ ।
सो सिद्धि-वरंगण-णारिहि, हय-जरमारिहि सुक्खु णरसेणहँ परम-पउ ||१||
१५
जिण वयणाउ विणिग्गय सारी सुकइ करंतु कव्वु रसवंतउ । सा भगवइ महु होउ पसण्णी पुणु परमेट्ठि-पंच पणवेप्पिणु विउल-महागिरि आयउ वीरहो तहो पयवंदण सेणिउ चलियउ तिण्णि पयाहिण देवि पसंसिउ
पणवमि' सरसइ देवि भडारी । जस पसाइँ बुहयणु रंजंतउ। सिद्ध-चक्क-कह कहउँ रवण्णी। जिणवर-भासिउ धम्मु सरेप्पिणु । समवसरणु जिण-सामिह धीरहो। चेलणाहि परिवारहिं मिलियउ। उत्तमंगु भू धरवि णमंसिउ ।
१. १. क गुण । २. ख ग डिभ । ३. ख ग रमण । ४. ख सीस । ५. ख ग अर माणिय । ६. ख थत्ति ।
७. ख ग जो। ८. ख मारिहिं । २. १. ख ग पणविवि । २. ख ग जसु । ३. ख ग पसाइ। ४. ख होइ । ५. ख ग वीर हु। ६. ख
भूरेवि क भरेवि ।
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श्रीपालचरित ( हिन्दी अनुवाद ) सन्धि १
१
सिद्धपुरके स्वामी सिद्ध मुनीश्वरको प्रणाम कर मैं ( पण्डित नरसेन ) पवित्र, भविकजनोंके लिए मंगल एवं गुणोंसे समृद्ध 'सिद्धचक्र विधान' रूपी ऋद्धि का आख्यान करता हूँ ।
आदिब्रह्म नाभिनन्दन ( आदिनाथ ) की जय हो दम्भका नाश करनेवाले जिनराज अजितनाथकी जय हो । शुक्लध्यान करनेवाले सम्भवनाथकी जय हो । शुभ परमज्ञानवाले अभिनन्दननाथकी जय हो । कर्मरूपी शत्रुओंके लिए बाधा-स्वरूप सुमतिनाथकी जय हो । रक्तकमलकी आभावाले पद्मनाथकी जय हो । लक्ष्मीरूपी सुन्दर स्त्रीके पास रहनेवाले सुपार्श्वनाथकी जय हो । मोहबन्धनको काटनेवाले चन्द्रप्रभुकी जय हो । शत्रुसमूहका दमन करनेवाले पुष्पदन्तकी जय हो । मोक्षमार्गको साधनेवाले शीतलनाथकी जय हो । भव्यरूपी कमल-सरोवर के लिए हंसस्वरूप श्रेयांसनाथ की जय हो । ज्ञान और करुणाके कोश विमलनाथकी जय हो । प्रमाणोंको जाननेवाले अनन्त जिनकी जय हो । सुवर्ण कान्तिवाले धर्मनाथकी जय हो । शान्तिका विधान करनेवाले शान्ति जिनेश्वरकी जय हो । जीवमात्रसे मित्रता रखनेवाले कुन्थुनाथकी जय हो । निर्वाणमें स्थिरता प्राप्त करनेवाले अरहनाथकी जय हो । फूलोंसे विनोद करनेवाले मल्लिजिनेश्वरकी जय हो । देवेन्द्र-वृन्द द्वारा स्तुतसुव्रतनाथकी जय हो । तीन रत्नों ( सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) भूषित शरीर मिनाथ की जय हो । राजमती ( राजुल ) का साथ छोड़नेवाले नेमिनाथकी जय हो । विश्वरूपी कमल लिए एकमात्र सूर्य पार्श्वनाथकी जय हो । वर्द्धमान जिनेश्वरकी जय हो ।
घत्ता - जो जिन ( भगवान् ) की गुणमाला पढ़ता है, मनमें ध्यान करता है, वह ऋद्धि, वृद्धि, यश और जय प्राप्त करता है तथा बुढ़ापा और कामको आहत करनेवाली सिद्धिरूपी सुन्दर स्त्रीका सुख एवं ( नरसेन कविके द्वारा कथित ) परमपद को प्राप्त करता है ||१||
२
मैं जिनमुखसे निकली हुई श्रेष्ठ, आदरणीय सरस्वती देवीको नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रसादसे सुकवि सरस काव्यकी रचना करता है, जिसके प्रसादसे बुधजन शोभा पाते हैं, वह भगवती सरस्वती मुझपर प्रसन्न हों। फिर, मैं पंचपरमेष्ठीको प्रणाम कर तथा जिनवर द्वारा कहे गये धर्मका अनुसरण कर सुन्दर सिद्धचक्र कथा कहता हूँ । स्वामी जगवीर महावीरका समवशरण विपुलाचल पर्वतपर आया । ( राजा ) श्रेणिक अपनी ( रानी) चेलना और परिवारके साथ उनकी पदवन्दना - के लिए चल पड़ा । तीन प्रदक्षिणा देकर उसने उनकी प्रशंसा की और अपना सिर धरतीपर रखकर
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१०
सिरिवालचरिउ
[१.२.८गणहर-णिग्गंथहँ पणवेप्पिणु अज्जियाहँ वंदणय करेप्पिणु । खुल्लय इच्छायारु करेप्पिणु सावहाणु सावय पुंछेप्पिणु । तिरियहँ किउ समभाउ गरिट्ठउ पुणु णरिंदु णर-कोहि णिविट्ठउ ।
सेणिउ वीरजिणेसर सिद्ध-चक्क-फलु कहि परमेसर । ता उच्छलिय वाणि वय-आयर णं लहरी-तरंग रयणायर । घत्ता-गोयमु गणि साहइ, अणु पडिगाहइ ए उवएसु पयासइ ।
सिद्ध-चक्क-विहि इट्ठिय णिसुणि सइट्ठिय सेणिय कह मि समासइ ॥२॥
इह भरहे' अवंती-विसउ रम्म
इ पालइ सच्चधम्मु । जहँ गामवसहिं पट्टणसमाण पट्टणहि वि णिज्जिय सुरविमाण । णयरायर-पुर-सोहा-रवण्ण दोणामुह-कव्वड-खेड-छण्ण । सिरि-सर-तडायँ कमलिणिहि पिहिय हंसह उल सोहहिं हंसि-सहिय । गो-महिसि-संड जहि मिलिय मालि भक्खंति सइच्छइँ कलम-सालि। णीलोप्पल-वासिउ वहइ णीरु धीवरहँ विवज्जिउ जलु गहीरु । जेमहि पंथिय जहिं खड-रसोड पहे" दक्ख-मिरिय चक्खंति कोड। इक्खा-रसु पिज्जइ साउ लेवि पाणिउ पीयंति पवालिए वि। धत्ता-तहि विसउ जि मालउ, बहु-विह-माल उ, इयरदेस कयमालउ ।
जहिँ तिय सोमालउ अइ-सुअमालउ पुण णं मालइ-मालउ ॥३।।
जो भुवमंडल-मंडल अग्गें जहिं पहु जयसिरिमंडल अग्गें ?। जहिं ण गहइ गहु मंडलु कोई अभउ ण भउ परमंडल कोई। जहिं पुरि पवरंतरि आवंती णिहय सणा विहुर आवंती। जहिं पहु आइ पडइ अरि पातलं वसु-दह-लक्खण णावइ रावल । रच्छ-चाप-जण जाणइ आवण खेज्ज-वत्थ पूरे पंथावण । जहिं णर-विउस पढहिं बहु वाणिय सिरिणिवास वसहिं बहुवाणिय । गो जिम किउ चउथण पय-पोसण तम बेवि धण-कण, पय-पोसण । जहिं अकित्ति ण पावइ परसण अमरावइ आवइ जिय परसण । घत्ता-उज्जेणि णयरि तहिं पयडि थियः कणयरयण-कोडिहिं जडिय ।
बलिवंड धरंतहँ सुरधरह अमरावइ णं खसि पडिय ॥४॥ ७. गणिग्गंथहं । ८. ख अज्जियाह । ९. ख ग णंदणहं । १०. ख गुरिट्ठउ । ११. ख पुच्छहं ।
१२. ख हउ उदेस । १३. खणिग्गयरिट्ठिय । ग गरिट्टिय । ३. १. 'ख' और 'ग' प्रति में ये पंक्तियाँ अधिक है-"इह जवु दीव दीवहँ समिधु तह भरहखेत्तु जय
सुयसिद्ध । तहिँ अस्थि अवंती विसउ रम्मु जहि णरवइ पालइ सच्च-धम्मु ।। २. ख पट्टणहं । ग पट्टणह । ३. ख ग सरि । ४. ख तलाव, ग तलाय । ५. ख ग भक्खंति इच्छ खड कमल सालि। ६. ख जिमहि, ग जैवहि । ७. 'ख' 'ग' में ये पंक्तियाँ अधिक है-“चिय खीर दहिय सक्कर हं मोई।
८. क-जहि विजउजमालउ । ४. १. ख ग "जहि पहु आइ पडइ अरिपातल वसुबह-लक्खण वाणवपालल।" २. क कछति वत्थु परि
पंथावण । ३. क प्रति में यह पंक्ति नहीं है।
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१.४.१०]
हिन्दी अनुवाद उन्हें नमस्कार किया। मुनियों, गणधरों और निर्ग्रन्थों (परिग्रहसे रहित) को प्रणाम कर, अजिंकाओंकी वन्दना कर, क्षुल्लकोंको इच्छाकार कर, सावधान होकर श्रावकोंसे पूछकर और तिर्यंचोंके प्रति
समभाव प्रकट कर राजा श्रेणिक मनुष्योंके कोठेमें बैठ गया। राजा श्रेणिक वीरजिनेश्वरसे पूछता है-'हे परमेश्वर, सिद्धचक्र विधानका फल बताइए । तब व्रतोंकी आकर ( खानि ) उनकी वाणी इस प्रकार उछली मानो ज्ञान-लहरोंकी तरंगोंवाला समुद्र उछला हो।
___ घत्ता-गौतम गणधर उस वाणीको साधते हैं । अणु ( सूक्ष्म ) रूपसे प्रतिग्रहण कर कहते हैं- "हे श्रेणिक, मैं इष्ट सिद्धचक्र विधि थोड़ेमें कहता हूँ, तुम इष्टजनों सहित उसे सुनो' ॥२॥
इस भारतमें सुन्दर अवन्ती प्रदेश है, जहाँ राजा सत्यधर्मका पालन करता है। जिसमें गाँव नगरके समान हैं और जहाँ नगरोंने भी 'देव-विमानों' को जीत लिया है, जो द्रोणमुख कव्वड ( खराब गाँव ) और खेड़ों ( छोटे गाँव ) से घिरा हुआ है। जिसमें नदियाँ, सर, तालाब कमलोंसे ढके हुए हैं, हंसिनियोंके साथ हंसोंके झुण्ड शोभित हैं। जहाँ गायों और भैसोंके समूह कतारोंमें मिलकर स्वेच्छापूर्वक उत्तम धान्य चरते हैं। नीलकमलोंसे सुवासित पानी बहता है, जिसका गम्भीर जल धीवरोंके लिए वर्जित है। जहाँ पथिक षड्रस युक्त रसोई जीमते ( खाते ) हैं । रास्ते में दाख और मिर्च ( काली मिर्च ) चखते हैं। सभी लोग ईखके रसका पान करते हैं। प्याऊसे पानी पीते हैं और जहाँ बालाएँ अपने स्तन दिखाती हैं।
__ घत्ता–जहाँ अनेक प्रकार ( ग्रामों, नगरों, मार्गों आदि ) की पंक्तियोंसे युक्त मालव देश है जो कई अन्य देशोंसे घिरा हुआ है। वहाँ की स्त्रियाँ सुकुमार हैं। उनकी भुजाएँ इतनी कोमल हैं मानो मालतीकी मालाए हों ॥३॥
भूमण्डलके मण्डलमें जो सबसे आगे है, जहाँका राजा जगत् भरकी राजश्रीमें श्रेष्ठ है, जिसके गृहसमूहको कोई ग्रस्त नहीं करता ( जैसे राहु ग्रह, चन्द्र या सूर्यमण्डलको ग्रहण कर लेता है ) वहाँ सभी निडर हैं, किसी को भी शत्रुमण्डलका डर नहीं है । उस विशाल मालवदेशमें अवन्तिपुरी ( उज्जयिनी ) नामक नगरी है जहाँ उनके राजा द्वारा आने वाली विपत्तियों का पहले ही विनाश कर दिया जाता है। जहाँ जब राजा आता है तो शत्रओके पाटल ( पाँवड़े ) बिछ जाते हैं । अठारह लक्षणों वाले धनुर्धारी राजपूत्र उपस्थित रहते हैं। जहाँ तीर और कमान वालों का ही आना-जाना है। जहाँ रास्तोंमें खाद्य वस्तुएँ भरी पड़ी हैं । उस नगरीमें विद्वान् लोग बहुत सी भाषाएँ पढ़ते हैं और श्रीसम्पन्न बनिये निवास करते हैं। वहाँ राजा उसी प्रकार प्रजा का पालन करता है जिस प्रकार गाय चारों थनोंसे अपने बछड़ेका पालन करती है। जहाँ अकीर्ति स्पर्श नहीं कर पाती, मानो अमरावती ही उसका स्पर्श करने आती है।
घत्ता-उस मालव दशमें उज्जैनी नामकी प्रसिद्ध नगरी है, करोड़ों स्वर्ण रत्नोंसे जड़ी हुई, वह मानो अमरावती है, जो दवताओंके बलपूर्वक पकड़ने पर भी छूट पड़ी हो ॥४॥
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सिरिवालचरिउ
पुणु हुकुमरि पिण वायरणु छंदु णाउ मुणिउ
५
उववणहिं' वि सोहइ सा विचित्त वल्लीहरेहिं किंणर रमंति जल - खाइय सोहहिं कमल- छण्ण पुणु यरह अंतरि हट्ट - मग्गु हँ सुद्ध-फलिह-मणि- भित्ति पेक्खि णव-सत्त-पंच भोमइं" घराई खडतीस पवणि भुंजंति भोय पयपालु णरेसरु वसइ तित्थु र-सुंदरि घरिणि मणोहरीय तो पण सुर-सुंदरीय
कारंडहँ सावय चुमुचुमंत । सालहिय पुंसमारइँ लवंति । सालत्तय - मंडिय पंचवण्ण । रयणहि बिद्धुणं मोक्ख - मग्गु । afras asfबंबु देक्खि । सोहति णिबद्ध तोरणाइँ । जिण धम्मासत्तिय वसइ लोय सत्तंगु रज्जु पाइ पसत्थु । जिह कामहो रह राहुवहु सीय । मासुंदरि लहरिय विणीय ।
धत्ता - पाढहँ निमित्त गुण-संजुत्त पढण समप्पिय दियवरहो । जहिं जिय- पुरंदर मयणासुंदरि सो आएसिय मुणिवरहो ||५|| ६
सा जेठ कण्ण पुणु पढइ केम तह वरिद्धि पेक्खेव ताउ जो वरु रुच्चइ सो कहहि मुज्झ ते मग्गिड वरु णरवइ अभीहु सो आणिवि राएं दिष्ण कण्ण परिओसिउँ परियणु सयलु लोउ अणि परिबुझि विप्प-धम्मु गोव- अमेहर-सवाइँ जि - जोणिय सहियहँ मुणइ भेउ भद्दागम अक्खिय जलहँ सुद्धि पसु-कय-बहेण तहि सग्गु रम्मु अणु सत्थएण
बुहयणुविण उत्तरु देइ जेम | सुरसुंदरि अग्गे भइ राउ | जिम तासु विवाहहुँ पुत्ति तुज्झु | कोसंबीपुरि सिंगारसीहु | हयगय आपूरिं हिरण्णवण्ण । सो कुँवर-सहिउ विलसंतु भोउ । बलि-वाएउ दिक्खियह कमु । अय-जण बिहाणइँ मुणिय ताइँ । गंडहँ कुरिहि कुल मंस- हेउ । तिष्पति पियर पुणु मंस-गिद्धि । गो-जोणिहि परसे परम-धम्मु | परमत्थ' - गंथ सुबुज्झिय तेण ।
घत्ता - -भवियहु णिसुणिज्जहु हियइँ मुणिजहु मयणा सुंदरि पढण - विहि । वाइँ बुज्झितिहुवणु सुज्झिउ भू-भविस्सु विष्फुरइ तहि ||६||
७
[ १. ५. १
पणारु वि अइह-पवरु जिह | rrigate लक्ख सुणिउ ।
५. १. गउववर्णाहि । २. सो लहिय पुंस महुरइ लवंति । ग साहिय पुंस महुरई लवंति । ३. ख ग पिक्खि । ४. गवेधु । ५. खग भूमइँ । ६ ख खड़तीस । ग छत्तीस । ७ ख ग भोउ । ८. ख ग लोउ ।
६. १ ख अग्गइ । २. ग हय गय अऊरि हिरण्ण वण्ण । ३. ग परिउसिउ । ४. ख दिविखयह । ग
दिउ । ५ ख घिय जोणिय सहियहं मुणई भेउ गंडयह कुरु सहियउ मुणइ भेउ गंडयहं कुरिहि कुलि मंस हेउ । ६. क परम सत्य-गंथु बुज्झिण तेण । ७ ख ग णिसुणिज्जहु ।
७. १ ख लहुइ । ग लहुव ।
कुलि मंस हेउ । ग जिय जोणिय सत्थ-गंथ बुज्झिउ तेण । खं परम
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१.७.२]
हिन्दी अनुवाद
वह अनोखी नगरी उपवनोंसे शोभित है, जिसमें पक्षियोंके बच्चे चहचहा रहे हैं। किन्नरोंके जोड़े लतागृहोंमें क्रीड़ा करते हैं। सालगृहों पर कोयले कूक रही हैं। कमलोंसे ढकी हुई जलकी खाइयाँ शोभित हैं, जो पंच-रंगे तीन परकोटोंसे घिरी हुई हैं । नगरके भीतर बाजार-मार्ग है, मानो रत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी तीनों रत्नों ) से जड़ा हुआ मोक्षमार्ग ही हो । जिसमें स्फटिक-मणियोंकी दीवालोंमें हाथी अपना प्रतिबिम्ब देखकर संडसे छेद करते हैं। जहाँ तोरणोंसे सजे हुए नौ, सात और पांच भूमियों वाले घर शोभा पाते हैं, जहाँ लोग छत्तीस प्रकारके भोजन करते हैं; जहाँ जिनधर्ममें श्रद्धा रखनेवाले लोग निवास करते हैं। उसमें पयपाल ( प्रजापाल ) नामका राजा निवास करता है। वह प्रशस्त सप्तांग ( सात अंगोंवाला ) राज्यका परिपालन करता है। नरसुन्दरी नामकी उसकी मनोहर पत्नी है। वह वैसी ही सुन्दर है जिस प्रकार कामकी रति या रामकी सीता सुन्दर थी। उसकी पहली कन्या सुरसुन्दरी है और छोटी विनीत मदनासुन्दरी।
घता-उनमें-से राजाने गुणवाली बड़ी कन्या पढ़नेके लिए द्विजवरको सौंप दी। इन्द्राणीको भी जीतनेवाली दूसरी कन्या मदनासुन्दरीको उसने मुनिवरके पास ले जानेका आदेश दिया ॥५॥
जेठी कन्या इस प्रकार पढ़ती कि उसके सामने कोई विद्वान् भी उत्तर नहीं दे पाता। पिताने उसकी रूप-ऋद्धि देखकर एक दिन उससे कहा-"जो वर तुम्हें ठीक लगे, वह मुझे बताओ, जिससे उसका विवाह तुमसे हो सके।" उसने कौशाम्बीके राजा सिंगारसिंहको पसन्द किया। राजाने उसे बुलाकर कन्या दे दी और उसे अश्व, गज तथा सोनेसे लाद दिया। परिजन और सब लोगों ने उसे बहुत चाहा। राजा सिंगारसिंह उस राजकुमारीके साथ भोग-विलास करने लगा। दिन-रात वह ब्राह्मण-धर्मका बोध प्राप्त करता तथा राजा बलि और वासुदेवके दीक्षाकर्मका भी। उसने गौ-सुत अश्वमेध नर-सुत ( यज्ञ ) और अजयज्ञके विधानको समझ लिया। जीवकी योनियोंके भेद भी उसने जान लिये। मांसके लिए गैडों और कुरुकुल(?)के भेदोंको उसने जान लिया। वह बताता-भादोंके आनेपर जलसे शुद्धि होती है। मांस खानेसे पितर सन्तुष्ट होते हैं। पशुओंके वधसे सुन्दर स्वर्ग मिलता है। गायकी योनि छूनेसे परमधर्म होता है। उसका मन दिनरात मिथ्याशास्त्रमें लगा रहता ।
___घत्ता-अब हे भव्यजनो, मदना सुन्दरीके पढ़नेकी विधि सुनिए और मनमें धारण कीजिए। उसने मुनियोंसे जो कुछ समझा था, उससे उसे त्रिभुवन सूझने लगा तथा उसके लिए भूत और भविष्यत् काल स्पष्ट हो गया ॥६॥
छोटी कुमारी भी उसी प्रकार निष्णात हो गयी, जिस प्रकार प्रतिज्ञावाला अत्यन्त बुद्धिमान् व्यक्ति निष्णात हो जाता है ? उसने व्याकरण, छन्द और नाटक समझ लिये। निघण्टु,
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सिरिवालचरिउ
[१.७.३
पुणु अमरकोसु लंकार-सोहु. आगमु जोइसु बुझिउ अखोहु । जाणिय बाहत्तरि कल पहाण चउरासी-खंडई तह विणाण । पुणु गाह-दोह-छप्पय-सरूव जाणिय चउरासी बंध-रूव । छत्तीस राय सत्तरि सराउ
पणे सहह चरसटठिह कलाउ । पुणु गीय णेत्त पाइअईकव्व परियाणिय सत्थ-पुराण सव्व । छब्भासा छह दंसण णियाणि छण्णवइ लिहिय पासंड जाणि । सामुद्दिय लक्खणु मुणिय सज्ज ता पढिय मुणिय चउदह वि विज्ज । भेसहँ ओसहँ गण फुरई ताहि अंगुल-अंगुल छाणवइ वाहि । बुज्झइ पहाणं बहुदेस भास अट्ठारहलित्रि जाणिय णियास । णव-रस चउ-बग्गहँ मुणिय भेय जिण समइ लिय चारिउ णिएये । रइ दुस्सह कामत्थु वि मुणेइ पुणु कामरूव'' तहि की जिणेइ । खवणाणइँ पढिय सुमुणिहि पासु अट्ठाणवइ जिवह समासु । ए सयल सत्थ परिणइय तासु सम्माहिगुत्तु मुणिवरहँ पासु । मयणासुंदरि लहुरी विणीय सा एवमाइ गंथहँ गरीय । घत्ता-गय कुमारि लहु तत्तहि अच्छइ जत्तहि सहा-परिठिउ ताउ जहि ।
सा जण मण-हारी बहुगुणसारी लावइ काम-पिसाउ तहि ॥७॥
जिण-गंधोवउ सीस लएप्पिणु आसीवाउ दिण्णु पणवेप्पिणु । सीस लएवि लयउ गंधोबउ णिम्मलीय-णिम्मल-करणोवउ । पुण्ण-पवित्तु पाव-पविणासणु अट्ठ-कम्म-पयडीह विणासणु । पुणु कुँवरियहि रूउ अवलोइवि थिउ णरिंदु हिट्ठामुहु जोइवि । चिंतइ णरवइ कण्ण सलक्षण कवणहु दिज्जइ एह वियक्खण । एम भणेविणु' कण्ण बुलाव मागहि वरु जो तुव मणि भावइ । जेम पुत्ति तुव जेठिहिँ इंछिउ 'वरु गिण्णहु सुरसुंदरि वंछिउ । किंपि ण वोल्लइ मउणे अच्छिउँ भणइ राउ सुय काई णियच्छउ । दीसहि देवि रूव धवलंवर परिणि पुत्ति जो फुरइ सुयंवर । णिसुणेविण सुंदरिय चमक्किय 'हिक्किरेवि अहोमुह करि थक्किय । घत्ता-मणि कंपइ पुणु जंपइ, ताउ चवेइ णिरुत्तउ ।
कुल-उत्तउ जं जुत्तउ, देमि अज्जु पडिउत्तरु ।।८।।
ता भणइ कुँवरि भो णिसुणि ताय जा कण्ण होइ मा-बप्प-जाय ।
कुल-उत्तिहि बप्प किएउ मग्गु अण्णइँ' इंछिउ वेसा-भुवंगु । २. ख ग कलपहाण । ३. ग तह । ४. ख जोणी । ५. ग पण सद्दह । ६. ग पाउ-गइ। ७. ख अंगुलि अंगुलि । ८. क पहाउ । ९. क णिणास । १०. ग कामच्छु। ११. ग कामरूव । १२. ग अट्ठाण वइ
हि। १३. ग लहुइ। ८. १. ग भणेप्पिणु । २. ग वरु जेट्टिहिं । ख जेट्ठिहि । ३. ग वरु गिहिउ सरुसुंदरि वंछिउ। ४. ग अच्छहि ।
५. गणियच्छहि । ख णियछई। ६. ख दिक्ख रेवि । ९. १. ख, ग आणइं।
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१.९.२ ]
हिन्दी अनुवाद
तर्कशास्त्र और लक्षणशास्त्र समझ लिया और अमरकोष तथा अलंकार शोभा भी । उसने निस्सीम आगम और ज्योतिष ग्रन्थ भी समझ लिये । मुख्य बहत्तर कलाएँ भी उसने जान लीं । उसी प्रकार चौरासी खण्ड विज्ञान भी । फिर उसने गाथा, दोहा और छप्पयका स्वरूप जान लिया । उसने चौरासी बन्धोंका स्वरूप जान लिया तथा छत्तीस राग और सत्तर स्वरोंको भी । पाँच शब्दों और चौसठ कलाओंको भी जान लिया। फिर गीत, नृत्य और प्राकृत काव्यको भी जान लिया । उसने सब शास्त्र और पुराण जान लिये । अन्तमें छह भाषा और षड्दर्शन भी जान लिये। छियानबे सम्प्रदायोंको भी उसने जान लिया । उसने सामुद्रिक शास्त्र के लक्षणोंको भी शीघ्र समझ लिया । उसने १४ विद्याओंको पढ़-गुन लिया । औषधियों और भावी घटनाओंके समूहका भी ज्ञान हो गया । छियानबे व्याधियाँ वह उँगलियोंपर गिना सकती थी। बहुत से देशोंकी मुख्य भाषाएँ भी उसने सीख ली । उसने अठारह लिपियाँ भी जान लीं । नौ रसों और चार वर्गोंको उसने जान लिया । जिन शासन अनुसार उसने चारित्र और निर्वेद ले लिया । दुस्सह रति और कामार्थमें उसे कौन जीत सकता है ? उसने क्षपणक मुनिके पास जीवोंके अट्ठानबे समासों का अध्ययन किया । समाप्ति के पास उसने इन समस्त शास्त्रोंको अच्छी तरह जान लिया । छोटी कन्या मयनासुन्दरी अत्यन्त विनीत थी । वह इन समस्त शास्त्र-ग्रन्थोंसे महान् थी ।
घत्ता - वह कुमारी शीघ्र ही वहाँ गयी जहाँ पिता प्रजापाल राजसभामें बैठे थे । जनमनका हरण करनेवाली बहुगुणोंसे श्रेष्ठ उसने वहाँ कामभाव उत्पन्न कर दिया || ७ ||
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1
जिन भगवान् के गन्धोदकको अपने सिरपर लेकर राजा प्रजापालको प्रणाम कर उसे आशीर्वाद दिया । राजाने सिरपर उस गन्धोदकको ले लिया, जो निर्मलको और भी निर्मल कर देनेवाला था । वह पुण्यसे पवित्र और पापका नाशक तथा आठ कर्मप्रकृतियोंका नाश करनेवाला था। कुमारीका रूप देखकर राजा अपना मुँह नीचा करके रह गया । राजा सोचता है कि कन्या सुलक्षणा है, विचक्षण यह किसे दी जाय ? यह सोचकर उसने कन्याको अपने पास बुलाया और कहा - "हे पुत्रि, जो मनमें अच्छा लगे वह वर माँग लो। हे पुत्र, जिस प्रकार तुम्हारी जेठी बहने चाहा था, वैसा सुरसुन्दरीने मनोवांछित वर प्राप्त कर लिया ।" वह कुमारी कुछ नहीं बोली, चुप रह गयी । तब राजा बोला - " हे पुत्र, चुप क्यों हो ? हे देवी, तुम्हारा रूप धवलअम्बर के समान दिखाई देता है । हे पुत्र, जो वर स्वयं ठीक लगे उससे विवाह कर लो ।" यह सुनकर वह चौंक गयी । धिक्कार कर वह मुँह नीचा करके रह गयी ।
घत्ता — उसका मन काँप उठा । वह सोचने लगी कि पिता व्यर्थ की बात कर रहे हैं, इसलिए जो कुलोक्त और ठीक है, वही उत्तर मैं आज दूँगी ॥८॥
९
९
तब कुमारी बोली - " हे तात ! सुनिए । जो कन्या अपने माँ-बाप से उत्पन्न होती है, उस कुलपुत्रीके लिए वही वर होता है कि जिसकी बाप मंगनी करता है । यदि वह दूसरे वरकी इच्छा
२
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१०
१०
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सिरिवालचरिउ
जणु व पाइपखालि देइ जणपंच बसि रोव हि विवाहु मा-बप्पु तार्मो परिणउ करे ate सुहागु चारहडि पुत्त
सुहिताय जिणागम लक्खि एम भई तिगुत्ति मुणीसरु यि - कम्मे जु लिलाsह लिहियउ यहँ हँ मा करि वियप सुपि कविउ णिवइ घत्ता-ता णरवइ कुद्धउ, भणइ विरुद्ध, जाहु पुत्ति यिगेहहो । सागयवर-गामिणि, जण-मण-रामिणि, गय सरंति जिणदेवहो ॥९॥
परिवार - कुटुंबहु मंतु लेइ । देह बप्प इम सो जिणाहु । यि कम्मुताहँ अग्गइँ सरेइ । दूहव सूहव को करइ कंत । कम्मु सुहासह सव्त्रहँ अक्खिर । कम्मे रंकु विकम् ईसरु । सोको मेटइ जो विहि-विहियउ । होइज्ज लिहिउ कम्म बप्प | देखि कम्मु इहि तणउ मइ ।
१०
ता पहुणिय-मणि रोसु वत ह्य-गय-वाहण-सिविया - जानहिं ' रोय-सोय- बहु- दुक्खें पत्तउ वेसर - रूढऊ वियलिअ-गत्तउ मुणि निंदियर पुव्वगुण-भीडिउ ढलहि चँवर बहु-घंटा - सद्दहि गलिय- पास-कर-चरणंगुलियइँ " ते पहिं इम्ह सामिउँ
५
इ कोढि किर अइ णिकिट्टर बहु-आडंबरेण सहुँ चल्लइ
मंडलवइ परमंडलि संचइ
-सह कि भंडारी बहिरदाहु तंमोलु समप्पइ
वाहियालि लहु चलिउ तुरंतउ । आयवत्त- सिग्गरि-अपमाणहि । दिसमुह आवंतउ । सीसोवरि पलास-दल-छत्तउ । रातहि पावें पीडिउ । कय- कोलाहलु सिंगाणद्दहि | कोढिय ताह निरंतर मिलिय हूँ । अज्जु अवंती आउ गुसामि । वि हु तो फिट्ट । वाहि पेक्खि यि परियणु घल्लइ । घत्ता–चालइ णिवसुत्तह्", दुहियण-जत्तह, देस विएस घडई । कंथा- गूडर-घर अरु कंवलवर मेलइ णिव पइ ताडई 3 ||१०||
तो वि
११
[ १.९.३
रत्त-पित्त-रण-पाउँण खंचइ । जल दोणीय सयल पणिहारी । कंठधारी सरीरइं चप्पई ।
२. ख पक्खालि । ३. ख ग कुटुंबही । ४. ख ताइ । ५ ख ग लक्खिउ । क भासिउ । ६. क भणेवि । ७. ग देक्खिव्वउ कम्मु वि तणउ मइ ।
१०. १. ख ग जाहिं । २. ख ग सिग्गरि अपमाणहि । ३ ख ग. मुणिणिदियई । ४ ख ग उवरहिं तहिं । ६. ग यहु । ७. क सायउ । ८ क गुसामउ । ९. ग फिट्टइ । १०. ग भज्जइ लोउ
५. ख गुलिय
वि महियलि हल्लइ । ११. ग णिय उत्तह । १२. ग धाडवइ । १३. ग ताडवइ ।
११. १. ग मेहदहु सह किय भंडारिय । जल दोणिया सयल पणिहारिय || बहिर दाहु तं वोलु समप्पाहि । उक्कणतिय पावसि जवालिय । गुम्म वाहि घर सह कुटवालिय ॥ सूरवण्ण
कंठधार सरीरहं चप्पाहि ।।
ते सूर सलक्खण । गलिय साहु ते मंति वियक्खण ॥ कछ राहु वे यंचिय दलवइ । वर टियाल सह रक्खहिं णरवइ || पाडिहेर जेणा की भासहिं । उवरोहिय जे कालउ भासहिं ॥ पित्तसुक्कु नरहु वइ गच्छहि । रोम विहीण अंगरह अच्छहि ।। २. खदाहु |
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११
१. ११.२]
हिन्दी अनुवाद करती है तो यह उसी प्रकार है, जिस प्रकार वेश्या लम्पटको चाहती है। जहाँ पिता परिवार
और कुटुम्बकी मन्त्रणा लेकर और पाँव पखारकर कन्याको दे देता है, पाँच आदमियोंको इकट्ठा कर विवाह रचता है। इस प्रकार पिता जिसको दे देता है वह उसका पति है। हे पिता ! माँ-बाप केवल विवाह करते हैं उसके बाद तो कन्याका अपना कर्म ही काम आता है। बेटियोंके लिए सौभाग्य वीरता पूत्र दुःख और सुख कौन करता है ? हे स्वामी! जिनागममें कही गयी बात सुनिए कि शुभाशुभ कर्म सभीको भोगने होते हैं। त्रिगुप्ति मुनीश्वरने कहा है कि जीव कर्मसे इश्वर होता है और कर्मसे रंक होता है। अपने ललाटमें जो कर्म लिखा है उसे कौन मेट सकता है । वह विधिका विधान है। इन वचनोंमें विकल्प मत करिए। हे पिता, वही होगा जो कर्ममें लिखा है ।" यह सुनकर राजा कुपित हो उठा और सोचने लगा कि मैं तुम्हारी कर्मबुद्धिको देखूगा।
घत्ता-तब राजा क्रुद्ध हो उठा और विरुद्ध होकर बोला-'हे देवी, अपने घर जाओ।" जनमनका रमण करनेवाली वरगामिनी वह चल दी तथा जिनदेवकी शरणमें जा पहुँची ।।९।।
१०
राजा अपने मनमें क्रोध करता हुआ तत्काल चला। अश्व, गज, वाहन और पालकी तथा अनगिनत छत्र और ध्वजदण्डोंके साथ नगरके बाहर मैदानकी ओर चल पड़ा। उस ने देखा कि रोग, शोक और तरह-तरहके दुःखोंको प्राप्त एक कोढ़ी सामने आ रहा है। गधेपर बैठा। विगलित शरीर। सिरपर पलाशके पत्तोंका छाता। मनिनिन्दक और पर्वजन्मके कर्मों ( गणो ) से । हुआ। विशेष प्रकारके कुष्ठरोग ( उपराँव ) के पापसे पीड़ित। बहुतसे घण्टोंकी ध्वनियोंके साथ उसपर चँवर ढल रहे हैं। सिंगी-बाजोंसे जो कोलाहल कर रहे हैं; दोनों पार्श्व भाग हाथ और पैर, जिसके गल चुके हैं। दूसरे कोढ़ी उससे लगातार मिल रहे हैं। वे कहते हैं कि यह हमारा स्वामी है और यह गोस्वामी अवन्ती प्रदेशमें आया है। यद्यपि वह कोढ़ी और अत्यन्त नीच है फिर भी उनका स्नेह उसके प्रति कम नहीं होता। वह आडम्बरके साथ चलता है, व्याधि देखकर वह अपने परिजनोंको छोड़ चुका है।
घत्ता-दुःखी जनोंसे युक्त राजपुत्रोंके साथ चलता है, देश-विदेशमें घूमता है। कन्था और गूडर (गूदड़ी) ही उसका घर है। उत्तम कम्बल उसके पास है। वह राजाका पद ठुकरा चुका है ।।१०।।
मण्डलपति होकर भी वह दूसरेके मण्डलमें घूमता है, वह रक्त, पित्त और रणके पापसे लिप्त नहीं होता। जिसे मधुमेह है, वह राजाका भण्डारी है, उसकी जितनी पनहारिनें हैं उनके
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सिरीवालचरिउ
[ १. ११. ३उक्कतिय पाविय जं वालिय गुम्म वाहि घर सह कुट वालिय । सूरवण्ण ते सूर सलक्खण
गलिय-साइ किय मंति वियक्खण । कच्छदाहु पवंचिय दलवइ
वरटियाल सह रक्खइ णरवई । पाडिहेर जे णा की भासिय उवरोहिय जे काल उक्खासिय । पित्त-सुक्क-णरेंसंह गच्छइ
रोम-विहीण अंगरह अच्छइ । चमरहारि मक्खियगणु लग्गइ छत्तु धरइ णासइ फुडु भग्गइ । काहल तहि जो सहणइ दावइ घंट लेई जहि बोलण आवइ। इय सामग्गी देइ पयाणउ
अप्पणु उत्रराइँ सहराणउ । __ घत्ता–पेक्खेविणु राणउं पुणु अणुराएं मंतिहि बोलण लग्गउ ।
कुढिराणउ आवइ महु परु भावइ मयणासुंदरि-जोग्गउ ॥१२॥
१२
इउपेक्खिवि राएँ आएसिउ मंति-वग्गु सवडम्मुहु पेसिउ । हकरावहु जामायउ होसइ । मयणासुंदरि हियउ हरेसइ । गयउ मंति आणिं दुह-किण्णउ जण्णवासु पुरबाहि रि दिण्णउ । वाहुडि णरवइ गेहहु आवइ मयणासुंदरि दुहिय बुलावइ । अक्खिउ सुय महु कहिउ करेहि तुहुँ दिण्णी कोढि हि परिणेहि । भणइ कुमरि परिणवहुँ सइच्छउ अवर पुरिस महु तुव सारिच्छउ । सिंघरासि जोइसिय बुलाइय वेय-मज्झ ? तहु लगुण गणाइय। साहउ ? धरहु कण्ण परिणावहु मयणासुंदरि सुहु भुंजावहु । ता अंतेउरु भणइ रुवंतउ । कण्णारयणु ण कोढि हि जुत्तउ । रयणमाल जा तिहुवणु मोहइ सा किं सुणहहि बंधी सोहइ। घत्ता-इय परियणु सयलु विसूरियउ णयर-लोउ विभइँ भरिउ ।।
सह जंपहि णरवइ-मंडलिय इहु अम्ह अचंभउ संभरिउ ॥१२।।
पणवंति मंति'जंपहिं तिसुद्धि विभिउ पडिहासहिं ते महीस जो कुट्ठ-वाहि-वाहिउ णिहीणु जहि गलिय पलिय अंगुलिय पाय मयणासुंदरि सुवियड्ढ दुहिय पडिउत्तर दिण्णउ णिव-पवीण किम कहहु एहु तुम्ह वाहि-अंगु एयह वेसरि वाहण' अखोह'
तिक्काल-कुसल जे गंतबुद्धि । आयण्णि वयणु हो णिव गरीस। उक्किट्ठउ णिक्किट्ठउ जु दीणु। तहि केम समप्पहि कण्ण राय । किण्णरि-सुरि-विज्जाह रिहि अहिय" । "तुम्हहँ सह विंभिय बुद्धि-हीण । जसु परियणु छज्जइ चाउरंगु । एयहँ पडिहासइ रायसोह ।
३. ग धर । ४. ख णरहएं गच्छहि । ५. ख अंगरह अच्छहिं । ६. ख तहिं । ७. ख घंटालहि ।
८. ख पिक्खविणु क पेखेविणु । ९. ख मणि । १२. १. क पेखिवि । ख पिक्खि । २. ख हकारवह । ग हक्कारह। ३. ग परिणिवउ। ४. ख सइच्छई।
५. ख सारिच्छई। ६. ख बुलावहु । ७. ख गणावहु । १३. १. क पणयंग । २. ख ग तुह । ३. ख ग जहिं । ४. ख छइवलु । ५. ग वाहणु। ६. ग अखोहु ।
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३
१. १३. ८ )
हिन्दी अनुवाद शरीरसे पसीना और पीप बहती है। जिन्हें कण्ठमालका रोग है, वे उसके शरीरकी मालिश करते हैं । ( अर्थ स्पष्ट नहीं है ), जिनके फोड़े फुसियाँ हैं, वे घर और सभाकी देखभाल करते हैं। सूर्यके रंगवाले ( कोढ़ के कारण ) वे सुरवीर और विलक्षण हैं। जिसका पूरा शरीर गल चुका है, वह कोढ़ीराजका विलक्षण मन्त्री है, जिन्हें खाज और जलन है, वे सेनापति हैं जो वरटियाली के साथ राजाकी रक्षा करते हैं। प्रतिहारी वे हैं जो बोल नहीं सकते। पुरोहित वे हैं जो कालको थपेड खा चके हैं ? पित्त और शक्रवाले लोगो के साथ वह चलता है। उसका अंगरक्षक रोम विहीन है। चमर धारण करनेवालीपर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, जो कोढ़ीराजपर छत्र लगानी है, उसकी नाक सड़ चुकी है, ऐसी कौन-सी काहलता है जो उसमें दिखाई नहीं देती। जहाँ लोग घण्टा लेकर ही बोल पाते हैं। इस सामग्रीके साथ वह कोढ़ीराज कूच करता है, वह स्वयं अंगराज है और उसके साथ सात सौ राणा हैं।
पत्ता-उन्हें देखते ही राजा बड़े प्रेमसे मन्त्रियोंसे बोला-'कोढ़ी राजा आ रहा है, वह मुझे अच्छा लगता है। यह मदनासुन्दरीके योग्य वर है' ।।११।।
१२ उसे देखकर राजाने आदेश दिया, मन्त्रि-समूह उसके सामने भेजा और कहा कि उसे बुलाओ वह दामाद होगा। मदनासुन्दरीके हृदयका हरण करेगा। आज्ञासे मन्त्री गये और दुःखसे पीड़ित उन्हें गाँवके बाहर जनवासा दिया। अपने घर आकर राजाने बेटी मदनासुन्दरीको बुलाया। वह बोला-"बेटी, मेरी बात मानोगी? तुम कोढीको दे दी गयी हो। क्या उससे विवाह करोगी?" कुमारी बोली-"मैं ने स्वेच्छासे उसका वरण कर लिया है। अब हे तात ! मेरे लिए दूसरा पुरुष तुम्हारे समान है।" राजाने तब सिंहराशि ज्योतिषीको बुलाया। उसने वेदोंके अनुसार उसकी 'लगन' बतायी। "घर अच्छा है, कन्याका विवाह कर दो। मदनासुन्दरी सुख पायेगी।" यह सुनकर सारा अन्तःपुर रो पड़ा। उसने कहा-"यह कन्यारत्न कोढ़ीके योग्य नहीं है, जो रत्नमाला त्रिभुवनमें शोभा पाती है, क्या वह कुतियाको बाँधनेसे शोभा पायेगी ?'' .
घत्ता-इस प्रकार सारा परिवार रो रहा था। नगरके लोग आश्चर्यमें थे। राजाओंकी इकट्ठी हुई सभा कह उठी कि इससे हमें बड़ा अचम्भा हो रहा है ॥१२॥
१३
तब प्रणाम करके मन्त्री बोला-"जो मन, वचन, कर्मसे शुद्ध त्रिकाल कुशल और अनन्त बुद्धिवाले हैं वे भी आश्चर्यमें हैं। हे नृपश्रेष्ठ, हमारी बात सुनिए; जो कोढ़की बीमारीसे पीड़ित है, उखड़ा हुआ निकृष्ट और दीन है, जिसकी अँगुलियाँ और पैर गलकर सफेद पड़ गये हैं, हे राजन् ! उसे अपनी कन्या कैसे दे रहे हैं ? मदनासुन्दरी चतुर कन्या है। वह किन्नर, देव और विद्याधरोंकी कन्याओंसे भी अधिक (सुन्दर) है।"
इस पर चतुर राजाने प्रतिउत्तर दिया-"तुम्हारी सभाकी मति मारी गयी है। तुम यह क्यों कहते हो कि इसके शरीरमें रोग है ? जिसके परिजन हैं और चतुरंग सेना है, कभी न क्षुब्ध
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सिरीवालचरिउ
[ १.१३. ९एयहँ हत्थहँ दीसइ सुपत्तु एयहँ सिरि सोहइ आयवत्तु । 'एयहँ साहु आएसु मणंति
एहहँ पुणु छह चमरा ढलंति । एयहँ अग्गासण लइय संट
वज्जावंत घंट। एयहँ अग्गइँ गायई णडंति एयह पुणु छइ-राणउ भणंति । इह णिव-लक्खण दीसहि • णिजास एयहँ पुणु छइक्खाहुलीय भास''। यहु मंदगमणु रत्तक्ख एस१२ एयहाँ सिरि दीसई सुहुम-केस । एयह सामग्गिय मइ महल्ल __ एयहँ सव्वइँ कट्टार-मल्ल । इहि णिरु हरिहर बंभहँ पयासु एयहँ पुणु मठ-देवलहँ वासु । जिहि ३.बंभणु अडदह वणराउ यहु पुणु अट्ठारह वण्णराउ । एयहँ अंधारी१४ अंग-छार एयह पुणु सहइ सहाचार ।१५
१६ यहु सूलपाणि जिम भमइ भिक्ख यहु भइरउ जिम जग देइ सिक्ख । घत्ता-विलवंतउ राएं सयलु जणु, अवगण्णिवि मंडउ राइउ ।
मणिमय-खंभ समुद्धरिया, बहुभंतिहि तोरणु राइउ ।।१३।।
वज्जइ मंदलु णिज्जइ मंगलु णारियणु' जणु करइ अमंगलु। कोढिउ पेक्खिवि रोवइ सहु पुरु मयणासुंदरि भग्णइ णं सुरु । आहरणइँ देवंगई वत्थई दोणि वि सिंगारियई पसत्थई । धीरत्तणु कुँव रिहि मणि भाविउ मयरद्धउ मइँ पुण्णे पाविउ । माय-वहिणी रोवंति णिवारइ । विहिणा विहियउ को किर वारइ। बंभण वेय पढंतह संतह
अइहव-मंगल चारु करंतह । सिरिसिरिवालो मउड़ णिबद्धउ एक-छत्तु णं रज्जु णिबद्धउ । कर-कंकण उरयले हारावलि करह रज्ज जिम सधर-धरावलि । मोद्दीवी संगुलि दीणी तहो जिम विलसइ पुहवि समुद्दहो। सिद्ध-चक्क-फल-पुण्ण पहावें परिणिय कण्ण-रयणु उच्छाहें। पाय-जुलि णिवडंति पलोइय कुँवरिहि-रूव-सिरी अवलोइय । घत्ता–ता चिंतइ णरवइ णट्ठिय महु मइ, रायमग्गु मई हारियउ।
जं दिण्ण कुमारिय कोढियहो, मंतिहि वारिउ मई कियउ॥१४॥
१०
हउँ णट्ठ-बुद्धि कोहें खविउ हउँ कुलक्खु रज्जि परिढविउ हउँ मिलियउ णीच-णराहिवेण
जं कोढेहि कग्णालविउ । मई कंतहि वयणु अइक्कमिउ । पाविय इउँ पक्खि जडाउ तेण।
७. ग आयतु । ८. ग एयहं सह आयसु जिउ भणंतु । ९. गविणवंति वि अग्गई संचलंति । ( ग प्रति में ये पंक्तियाँ अधिक हैं )। १०. ग दीसहिं । ११. ग छइ खाहुलियभास । १२. ग रत्तंखिएस । १३. ग जिम । १४. ग अधारी । १५. ग सहअचार । १६. ग यह पुणु ईसरु जिम फिरइ वारु । (ग प्रतिमें
ये पंक्तियाँ अधिक हैं )। १४. १. ख ग नारियण जण करहि अमंगल । २. ख ग मुद्दीवी । ३. ख ग समुद्दलहो। १५. १. ख ग अइक्कमिउ । २. ख जेण ण = जेम ।
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१. १५.३ ] हिन्दी अनुवाद
१५ होने वाला गधा इसकी सवारी है। इसके पास राजशोभा दिखाई देती है। इसके हाथमें सुपात्र है। इसके सिर पर छत्र है। सभी इसका आदेश मानते हैं। इस पर छह चमर ढलते हैं। समहमें यह सबसे आगे है। इसके लिए घण्टे बजाये जाते हैं। इसके आगे गाया-नाचा जाता है। इसे लोग 'छैराना' कहते हैं। इसमें राजाके लक्षण दिखाई देते हैं। इसे छह भाषाएँ आती हैं। यह धीरे-धीरे चलता है। इसकी आँखें लाल हैं। इसके सिर पर सूक्ष्म केश दिखाई देते हैं। इसके साधन और मति महान् हैं। इसके सब कटारवाले श्रेष्ठ योद्धा हैं। यह निश्चय ही हरि, हर और ब्रह्मा है। इसका मठ और देवालयोंमें वास है। जिस प्रकार ब्राह्मणोंके अट्ठारह वर्ण राग होते हैं, इसके भी अट्ठारह उपराग हैं। इसके पास अधारी और अंगों पर धूल है। और सभाके सभी उपकरण इसे सोहते हैं। यह शूलपाणि ( शिव ) की तरह भिक्षा माँगता है और यह भैरवकी तरह दुनियाको सीख देता है।
धत्ता-इस प्रकार सब लोग विलाप कर रहे थे, परन्तु उनकी चिन्ता न कर राजाने मण्डप बनवाया। उसमें मणिमय खम्भे लगाये गये और तरह-तरहके तोरण बाँध दिये गये ॥१३।।
१४
मन्दल ( वाद्यविशेष ) बज रहा है । मंगल गीत गाये जा रहे हैं। परन्तु स्त्रियाँ ( रोकर ) अमंगल कर रही हैं। कोढ़ीको देखकर सारी नगरी रोती है परन्तु मदनासुन्दरी समझती है कि मानो वह देव है। गहने और दिव्य वस्त्रोंसे दोनोंका शृंगार कर दिया गया। सुन्दरीको ( उस समय ) मनमें धीरज ही अच्छा लग रहा था कि जैसे उसने कामदेवको प्राप्त कर लिया हो। वह रोती हुई अपनी माँ-बहनको समझाती है कि विधिके लिखेको कौन टाल सकता है ? ब्राह्मण वेद पढ़ रहे हैं। अत्यन्त उत्सव और मंगल हो रहे हैं। श्रीपालको मुकुट बाँध दिया जाता है, मानो एक छत्र राज दे दिया गया हो। उसके हाथमें कंगन और हृदयमें हारावली है। जैसे वह पहाड़ सहित धरतीका राज्य करेगा। उसकी अँगुलीमें मुदरी पहना दी गयी, जैसे समुद्रसे धरती शोभित हो। सिद्ध चक्रके फल और पुण्यके प्रभावसे उसने उत्साहपूर्वक कन्यारत्नसे विवाह कर लिया। पिता उसे पैरों पर गिरते हुए देखा। उसने कुमारीकी रूपश्रीका अवलोकन किया।
घत्ता-तब राजा सोचता है कि मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी। मैंने राजमार्ग भी खो दिया जो मैंने अपनी कन्या कोढ़ीके लिए दे दी। मैंने वही किया जिसके लिए मन्त्रीने मना किया था ॥१४॥
"मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी, क्रोधने मुझे खा लिया कि जो मैंने कोढ़ीके लिए अपनी कन्या दे दी। कुलका क्षय करने वाला मैं राजपद पर प्रतिष्ठित हुआ। मैंने मन्त्रियोंका कहा नहीं माना।
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सिरीवाल चरिउ
[१. १५.४ जे आणिउ दिण्णउ अमिय-हलु विस-हलु पडिहासइ सो वि खलु । जसु दिहिहि सज्जा होहिं अंध सो किमि मारिज्जइ रे पिरंध । हउँ दिवि पउलाहि भयउ
हउँ चक्कि सुभउम जेम बहिउ । हउँ अलियउ वसु णरवइ भयउ हउँ रावण जिम अवजसु लयउ। असि सुणई मुणिहि जिम दावियउ जसवइ णिव जिस पछितावियउ । पुत्तिया मई मारिय णिरु गँवारु णिय-खीरहो मई णिरु छित्त छारु । अहवा पुणु अम्हहँ कवणु दोसु परिणवइ सुहासुह करि विसेसु । इय चिंतिवि दिण्णइँ सुहयराई। भेंडारई संपई मणहराई। देवंगई णिवसण-भूसणाई
रह-तुरय-छत्त-सिंघासणाई। हय-गय-वाहण-जंपाण-जाण बहु-चिंध-चमर-करहई किकाण । देसई गामइँ धण-धाणपूरि मालवउ दिण्णु बेसहस चूरि । दिण्णउँ राउलु सोहा-रवण्णु धणु दासी-दास हिरण्णु अण्णु । उज्जेणिहि बाहिरि दिण्णु हाउ सिरिपालु रहिउ तहिं अंगराउ । सय-पंच- सप्त-मंदिरई तेवि कोढियण णिजालइ रहिय बेवि । तहिं णेह-परंपर अइविचित्त अच्छई विण्णि वि सुहु अणुहवंत । पुणु देक्खिवि णरवइ गहवरइ' विसमउ चित्तई णउ वीसरइ । अइ-मो हिउ सोइउ पहु भणइ विणु मुए णवि पछिताउ हणइ । १२ ता मंतिहि कीयउ कवड-मंतु णिव-पुरउ पजंपिउभउ कुजंतु । आइय आयणहि पहु पुकारि सीमा-संधिहि मारइ धुंधुमारि । मरहट्ठउ णिग्घिणु जोवि'४राउ पहु सोआयरु मुणि सो वि आउ । पयपालु समुट्ठिउ मारि मारि इम बुद्धि करिवि लइ गय णिसारि । जहिं अंगदेसु चंपउरि-ट्ठाउ १५ । जहिँ होंतु आसि अरिदमणराउ । णिव-धाडीवाहण-कुल-पवीणु जो देव-सत्थ-गुरु-पाय-लीणु ।
तहिं होंति आइसिरिवाल जणणि कुंदप्पह णिव-अरिदमण-घरिणि । घत्ता-ता उट्ठिय बे विविणउ करेवि पाय-कमलि णिवंडतई।
सा देइ असीस तिहुवण-ईस-पट्ट-घरिणि सिरिवाल तुह ।।१५।।
२५
ता कुँवरि-चित्ति फिट्टउ सँदेहु भल्लउ भउ जं पुच्छिउ ण गुज्झु जिणहरि जाइवि गिण्हमि वयाइँ मुणि पुंछिवि जिण सासण-पहाणु ण्हवणाइ वि बहुल-पसूण लेवि
जाणिउ णिरु रायकुमार एहु । ता लिंतु णाहु आराहु मज्झ । तुव फेडमि गुरु-पायहँ पसाई। पुणु करमि सिद्ध-चक्क वि विहाणु । कुंकुम कप्पूरई लइय' ते वि ।
३. ग साज्जा होहिं अंध । ४. ग हउ णउलहि जिम जेम अहिउ । ख हउ दविण उलहइ जेम अहिउ । ५. क असेस णह मणिहिं जिम दाविय। ६.ग णिय-खारहु। ७. ख ग सारइँ। ८.ग करहह । २. ग जेवि । १०. ग कोढियजण सहल रहिय तेवि। ११. ग गहवरइ । १२. क विण मइ णवि पछिताउ जाइ। १३. ग ययंएइ। १४. ग जोवराउ। १५. ग चंपहिडाउ। १६. ग आसिहोंत ।
१७. ग आय । १८ ग देवि । १६. १. ग लइ चलिय देवि ।
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१. १६.५]
हिन्दी अनुवाद मैं नीच राजाओंके साथ मिल गया। इसलिए पक्षी जटायुकी तरह मैं पापी हूँ। मुझे अमृतफल लाकर दिया गया, परन्तु वह भी मुझे विषफल दिखाई दिया। जिसकी दृष्टिसे अन्धे भी आँखवाले हो जाते हैं, मैं इतना अन्धा हो गया कि मैं उसे भी मारना चाहता हूँ। मैं नकुल ( नेवला) साँपके समान हो गया। मैं चक्रवर्ती सुभौमके समान हो गया । मैं राजा वसुके समान झूठा हुआ। मैंने रावणके समान अपयश प्राप्त किया। राजा जसवइने मुनिको सारा आकाश दिखाया था और अपने मनमें पछताया था, वैसे ही मैं भी पछता रहा हूँ।"
हे बेटी! मैंने तुझे व्यर्थ मार डाला। मैं अत्यन्त गँवार हूँ। खोटी बुद्धिवाले, मैंने अपने ही दूधमें राख डाल दी। अथवा इसमें हमारा क्या दोष है ? क्योंकि किया गया शुभ-अशुभ कर्म ही विशेष रूपसे परिणमन करता है। यह विचार कर राजा प्रजापालने सुखकर भण्डार और सम्पत्ति श्रीपालको दे दी। दिव्य भूषण और वस्त्र भी दिये। रथ, घोड़े और सिंहासन भी दिये । अश्व, गज, वाहन और जंपाण यान दिये। उसे प्रचुर चिह्न, चमर, करभ, किकाण तथा धनधान्यसे भरे दो हजार गाँवोंके साथ मालवा दे दिया और भी दासी-दास तथा स्वर्ण दिया। मन्त्रियोंने उज्जैनके पास श्रीपालको जनवासा दिया। अंगराज श्रीपाल वहाँ आकर रहने लगा। वहाँ जो साढ़े सात सौ मन्दिर थे, उनमें सभी कोढ़ी रहने लगे। वहाँ वे दोनों अति विचित्र स्नेह परम्परासे सुखका अनुभव करने लगे। ( इधर ) मन्त्रीने देखा कि राजा प्रजापालकी विह्वलता नहीं जाती, वह इस विषमताको चित्तसे नहीं भुला सकता। अत्यन्त मोहित और शोकातुर होकर राजा कहता है कि "मरे बिना मेरा पश्चात्ताप नहीं जा सकता," तब मन्त्रीने कपट मन्त्र किया। वह बोला कि "अपने नगरको कोई खतरा पैदा हुआ है। हे राजन्, सुनिए, बाहरसे पुकार आ रही है। सीमान्त प्रदेशमें (धुन्धुमारि) हलचल मची हुई है। निर्दय जो मरहठा राजा है, वह आपको शोकसे व्याकुल समझकर आ गया है।" तब प्रजापाल राजा "मारोमारो" कहकर उठा। युद्धके विचारसे अपने हाथीपर बैठकर वह निकला। अंगदेशमें चम्पापुर नामका नगर है, उसमें धाड़ीवाहन कुलका एक निपुण राजा था, जो देव, शास्त्र और गुरुका भक्त था। उसी राजा अरिदमनकी पत्नी और श्रीपालकी माँ कुन्दप्रभा वहाँसे आयीं।।
घत्ता-वे दोनों (श्रीपाल और मदनासुन्दरी) विनयपूर्वक उठे, उसके चरणकमलोंमें गिर पड़े। माँने आशीर्वाद दिया "हे त्रिभुवनईश श्रीपाल, यह तुम्हारी पटरानी बने।"
१६
यह सुनकर मदनासुन्दरीका सन्देह दूर हो गया। वह समझ गयी कि यह राजकुमार है। यह अच्छा ही हुआ कि मैंने गुप्त बात नहीं पूछी, नहीं तो स्वामी मेरा अपराध मानता। जिनमन्दिरमें जाकर मैं व्रत ग्रहण करूँगी। जिनशासनमें प्रधान मुनिसे पूछकर मैं सिद्धचक्र-विधान
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१८
सिरिवालचरिउ
[१. १६.६पहिरिवि चल्लिय कर-कंकणाई सुंदरि लेविणु करि कंकणाई। वायाहर-सिरि-छण-चंदणाई लेविणु चल्लिय कर चंदणाई। सई सुंदरि दिंती' सरस कुसुम जिणमुणि-जोग्गई लइ चलिय कुसुम । सुह-कम्महँ कारणु जाणि वेय गिहिवि चल्लिय सरसा णिवेय । णिय-णाह-सणेहारत्तियाई
लेविणु चल्लिय आरत्तियाई। चंगी पय-वाल-णरिद धुवा गिण्हेविणु गमइ दहंग-धुवा । जहिं दिणे णिरु उत्तम-फलाई लेविणु चल्लिय उत्तम-फलाई । भालयलि णिवेसिउ करंजलीय करि तोवि पसूण करंजलीय । घत्ता-जिणहरि जाएविणु जिण पुज्जेविणु पुणु पुजिउ आयमु पवरु ।
पुणु जाइवि दरसइ मुणि-पय परसइ साहु समाहिदत्तु सुगुरु ॥१६॥
गुरुभत्ति दऍविणु भाव-सुद्धि परमेसरु दिण्णी भाव बुद्धि । पुणु थुवइ सहास-दियंवराई पहु तुम्ह पवित्ति दियंवराई। बसि किय करण-विसउ वय-वसेण तुहं वसण बसि किय सवसेण । रइ पीइ पियंविणि हियय-सल्ल 'तुम्हहिं पियाणि रतिभेय सल्ल । जय-जय-जय तुहुँ तव-सिरीबाल दइ णा भिक्खपई सिरीवाल । 'जिम तिणइं निरंदइ सीर-वाहितिम दइ सिद्धचक्कु हय कुट्टवाहि । भवि पभवइ पुत्ति सम्मत्त लेहि अणवयई गुणव्वय तिणि एहि । पुणु सिक्खा-वय गेण्हहि चयारि पभणेइ मुणिसरु पावहारि । सुह सिद्ध-चक्कु सब्भाव लेहि हाहई गंदीसरु करेहि। वसु-दिण आरंभहि सिद्ध-चक्कु वसुदिण पुत्ति जिणहरे थक्कु । वसु-दल आराहहि सिद्ध-जंतु । असिया-उसाइ तहि परम मंतु । तिवल उ सकूडु तुहि पासि फेरि "छोडतउ को ओंकार केरि चउ-कोपहँ लिहहि तिसूल अट्ठ परमेसर-पंच-मज्झहं अट्ठ । पुणु मंगल गोत्तम सरण चारि जिण-धम्म-पुज्ज किज्जइ वियारि । पुणु दल-दल अवलेह हि समग्ग अ क च ट त प य स लिहि अट्ट वग्ग । दल-अंतरि दंसण-णाणु-चारु । चारित्त-चारु तउ लिहहि सारु । पुणु चक्किणि जाला-मालिणीय ___ अंवा परमेसरि पोमणीय । पुणु लिहियहि तह दह दिसावाल गोमुह जक्खेसर तहि सभाल। पुणु बाहिरमंडल माणिभद्द । पुणु दह-भुव-माणिउ वितरिंदुः । वसुदिण पालहि चउ बंभयारि 'एइंदिय-पसारु बसि करि कुमारि । करि एकचित्त वसु दिणइँ जाउ णिञ्चितु होवि दिदु' करहि भाउ ।
१. ग. दितिय सरस कुसुम । २. क. थुवा । १७. १. ख ग दइविवि । २. ग पह पुरु पलित्ति दियंवसई। ३. ग तुम्ह अवसण वणिकिय वयवसेण ।
४. ग तुम्हहं वियहिय तिय-भेय सल्ल । ५. ग स तुव सिरीपाल । ६. ग पालइ जिम तिणहं किकंदइ सीर-बाहि । ७. क छोडंतह। ८. ग मंगल लोगोत्तम सरण चारि । ९. ग णामिउ । १०. ग इंदिय पसारु मा करि कुमारि । ख रय । ११. ग दिढु ।
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१. १७. २१ ]
हिन्दी अनुवाद करूँगी। स्नानके लिए विविध फूल लेकर तथा केशर, कपूर आदि लेकर वह चली। वह हाथोंमें कंगन पहन कर चली। सरस्वती-लक्ष्मी और पूर्णिमाके समान वह हाथमें चन्दन लेकर चली। अत्यन्त सुन्दरी वह सरस फूल देती हुई; मुनिके योग्य फूल-नैवेद्य लेकर चली। शुभकर्मके लिए शास्त्रोंको जानकर वह सरस नैवेद्य लेकर चली। अपने स्वामीके प्रेममें पगी हुई वह आरती लेकर चली । प्रजापाल राजाकी पुत्री बहुत भली थी। वह दस प्रकारकी धूप लेकर चली। जहाँ देनेसे उत्तम फल होता है, वह वहाँ उत्तम फल लेकर चली। उसने अपनी करांजलि भालतलपर रख ली फिर भी उसकी करांजलिमें फूल थे।
घत्ता-जिनमन्दिरमें जाकर जिनभगवान्की पूजाकर फिर उसने आगम-प्रवरकी पूजा की। फिर जाकर उसने मुनिके दर्शन किये और मुनिवर गुरुके पैर छुए।
गुरुभक्तिसे भी भावशुद्धि नहीं होती। भावबुद्धि परमेश्वरकी दी हुई होती है। उसने दिगम्बरोंकी स्तुति की कि "हे स्वामी, आप दिगम्बरोंमें पवित्र हैं। व्रतके बलपर आपने इन्द्रियों
और मनको अपने वशमें कर लिया है। अवशको अपने वशमें कर लिया है। जो रति कामिनियोंके हृदयमें शल्य करती है उस रतिका आप भेदन करनेवाले हैं। तपश्रीका पालन करनेवाले आपकी जय हो । हे स्वामी, श्रीपालको भीखमें दे दीजिए । जिस प्रकार किसान तृणोंको नष्ट करता है उसी प्रकार कोढ़-रोगको नष्ट करनेवाला सिद्ध चक्र विधान मुझे दो।" यह सुनकर मुनि बोले- "हे पुत्री, तुम सम्यग्दर्शन ग्रहण करो, अणुव्रत और ये तीन गुणवत। फिर चार शिक्षाव्रत ग्रहण करो।" पापका हरण करनेवाले मुनिवर बोले-हे पुत्री, शुभ-सिद्धचक्र विधान सद्भावसे लो। अष्टाह्निका और नन्दीश्वरकी पूजा करो। आठ दिन सिद्धचक्र विधान करो। हे पुत्री ! आठ दिन जिनमन्दिरमें रहो । आठदलवाले सिद्धचक्र मन्त्रकी आराधना करो। उसमें भी 'असिया उसाइ' परम मन्त्रका ध्यान करो। उसके पास सकूट तीन वलय खींचो। ओंकार मन्त्रको कौन छोड़ता है ? चार कोनोंमें आठ त्रिशूल लिखो, पाँच परमेष्ठियोंको लिखो। चार मंगलोत्तमकी शरणमें जाना चाहिए। जिनधर्मका विचारकर पूजा करनी चाहिए। फिर एक-एक दलको समग्र भावसे देखना चाहिए। आठ वर्गों में अ क च ट त प और स लिखना चाहिए। प्रत्येक दलमें सुन्दर दर्शन, ज्ञान और चरित लिखना चाहिए, उसीमें श्रेष्ठ सुन्दर पंक्तियाँ लिखनी चाहिए। फिर चक्रेश्वरी ज्वालामालिनी अम्बा परमेश्वरी और पद्मिनी। फिर दश दिग्पाल लिखे जायें और मालसहित गोमुख और यक्षेश्वर लिखे जायें, फिर बाहर मण्डलमें मणिभद्र लिखे जायें, फिर दसमुख और माणिक व्यन्तरेन्द्र लिखे जायें। आठों दिन ब्रह्मचर्यका पालन किया जाये । हे कुमारी, इन्द्रिय-प्रसारको भी रोका जाये, आठों ही दिन एकचित्त जाप करो। निश्चिन्त होकर अपने भावको दृढ़ करो। इस
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सिरिवालचरिउ
[१.१७. २२आयम-उत्तउजं तं करेहि
संसउ छंडिवि सिरु मणु धरेहि । एयहँ विहि करि सिरिवाल-कति णासिउ वाहिउ अट्ठम-दिणंति । ता भत्ति अट्ठ-दिणि कियउ तेण वाढिउ विसेसु दिण-दिण-कमेण | पढमढह किय जायरणु संतु मालइँ णिव-चंपई पूजि जंतु । इक-गुणी पूज किय कुँवरि कंत णव मिहिं दिणि भइ दह-गुणि तुरंत । दह मिहिं पुणु किरिया कम्मु साहि सयगुणि कराइय पूज ताहि । एयारसि दिणि बहु-फल-फलीय सहस-गुणी पूजा अग्गलीय । बारसि दिणि आराहेवि जंतु दस-सहस-गुणी पूजइ तुरंतु । तेरसि दिणि सुंदरि सिद्ध-चक्कु लक्ख-गुण-पूजिउ णाइ चक्कु । चउदसि आराहिवि जंत पाय दहलक्ख-गुणी पूजा कराय। पुण्णिउ परिपूरणु सिद्धजंतु कोडिगुणी पूजइ कुँवरि कंतु । घत्ता-संपुण्णई दिण्णई अट्ठमई मयरद्धसम-देहु भउ।
__ जिणधम्म-पहावे सुद्धे भावे देसु-दिसंतरि लद्ध-जउ ।।१७।।
१८
जे कोढिय सब दुक्ख सहतई। ते सब भले भए जि तुरंतई। पाव-घोर जे पीडिय आवइ सिद्ध-चक्क-फल भए णिरावइ । जहि-जहिं सीस गंधोवउ परसिउ तहिं-तहिं देह कणयमउ दरसिउ । पंचकोडि जो अठसठि लक्खइँ णं णाणवइ सहासइ संखइँ । पंचसयई चुलसी अणु-कमियइँ एवमाइ वाहिउ उवसमियई। सीसि गंधु णर गिण्हइ आउल. सयल अवंती भइय णिराउल । दिण-दिण पूज करइ बहु-भंतिय पत्तहु दाणु देइ विहसंतिय । दोहिमि कील करंतई णिय घरि पयवालु वि तह आयउ अवसरि । दोण्णिवि देक्खि कियउ हिट्ठा मुहु ता केण वि लवियउ सवडम्मुहु । देव म करहि भंति पुण्णाहिउ यहु सो कोढिउ तुव जामायउ। घत्ता–णरवइ अणुरंजिउ परियणु रंजिउ घरि-घरि णच्चिहिं वालिय ।
वद्धाए वज्जहिं मंगल गिज्जहिं तूरभेरि अप्फालिय ॥१८॥
'संतोसिउ णरवइ मणि खोहिउ भणिउ कामरूव तुहुँ धण्णउ वार-बार जंपइ मणि हरसिउ पुणि सुंदरि उच्छंगि लएप्पिणु हउं थिउ सुपुत्ती किण्ह-वयणु
मउ जामाइय-घरि अइ मोहिउ । कण्णारयणु लधु गुण-पुण्णउ । भोजणु किज्जहि अम्हहं सरिसउ । सिरु चुंविउ बहुभाव करेप्पिणु । पइं उज्जोयउ जिह फलिह-रयणु ।
१२. ग सहसग्गुण । १३. ग आराहेइ । १४. क लक्ष । १५. ग सक्कु । १८. १. ग जे कुट्ठिय । २. ग सह । ३. ग अट्ठसठि । ४. ग सहासई । ख पंचसई लघु सीअ णु अमियई ।
५. ग सयल अवंग भंगि णीराउल । ६. ग भत्तिय । १९. १. ग ये पंक्तियां अधिक है। ता भुववइ चिंतइ पुण्याहिय णिच्छउ एह कुमरि हय-वाह्य । २. ग
उच्छगइ लेविणु।
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१. १९. ५ ]
हिन्दी अनुवाद
२१
प्रकार आगम में कहे अनुसार यन्त्र करो । संशय छोड़कर अपना मन स्थिर करो। तुम इस प्रकार श्रीपालको ( नीरोग ) करो । आठवें दिन उसकी व्याधि नष्ट हो जायेगी । तब उसने शीघ्र ही अष्टाङ्क्षिका की और क्रमसे वह प्रतिदिन उसे बढ़ाती गयी । आठों ही दिन उसने जागरण किया । मालवमें चम्पा नरेशने भी यन्त्र की पूजा की । कुमारी और कान्तने पहले दिन एकगुनी पूजा की। नवमीके दिन वह पूजा दसगुनी हो गयी । दसवींके दिन क्रिया-कर्म साधकर उन्होंने सौगुनी पूजा करायी । ग्यारस के दिन उसने बहुत फलोंसे फलित हजार गुनी पूजा करायी । बारहवींके दिन यन्त्रकी आराधना कर शीघ्र दस हजार गुनी पूजा करायी । तेरसके दिन सुन्दरी ने सिद्धचक्रकी एक लाख गुनी पूजा करायी । कुँवर और कान्तने समस्त सिद्धचक्र यन्त्रकी एक करोड़ गुनी पूजा करायी ।
घत्ता - आठवाँ दिन समाप्त होते ही श्रीपालकी देह कामदेवके समान हो गयी। जिनधर्म के प्रभाव और शुद्धभावसे देश - देशान्तर में उसने जय प्राप्त की || १७ ||
१८
कोढ़ी; जो दुःख सहन कर रहे थे वे सब शीघ्र ठीक हो गये । जो घोर पाप उन्हें पीड़ा पहुँचाते आ रहे थे, सिद्धचक्र के फलसे वे उनसे निरापद हो गये । सिरपर जहाँ-जहाँ गन्धोदकका स्पर्श होता वहाँ-वहाँ शरीर स्वर्णिम हो जाता । पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानबे हजार पाँच सौ चौरासी रोगोंकी संख्या बतायी गयी है वे सब व्याधियाँ शान्त हो गयीं। लोग आतुर होकर गन्धोदक ले रहे थे । समूचा अवन्ती- प्रदेश निराकुल हो गया । वह तरह-तरह की पूजा करती और पात्रों हँसती हुई दान करती । इस प्रकार दोनों अपने घरमें तरह-तरहसे क्रीड़ा करने लगे । उस अवसरपर राजा प्रजापाल भी आया । उन दोनोंको इस प्रकार क्रीड़ा करते देखकर वह अपना मुँह नीचा करके रह गया। तब किसीने उसके सम्मुख जाकर कहा - "हे देव ! सन्देह मत कीजिए, यह पुण्यात्मा वही तुम्हारा कोढ़ी दामाद है ।
घत्ता - राजा प्रसन्न हो उठा और परिजन भी प्रसन्न हुए । घर-घर बालाएँ नाचने लगीं । बधावा बजने लगा, मंगलगीत गाये जाने लगे और तूर्य नगाड़े बज उठे ।
१९
राजाका क्षुब्ध मन सन्तुष्ट हो गया । दामाद भी अति मोहित होकर घर गया । उसने कहा—“कामरूप, आप धन्य हैं कि आपने गुणोंसे परिपूर्ण कन्यारत्न प्राप्त किया ।" मनमें हर्षित होकर वह बार-बार कहता - "हमारे साथ भोजन करिए।" फिर उसने सुन्दरीको अपनी गोद में बैठा लिया और सद्भावसे उसका सिर चूम लिया । उसने कहा - " हे पुत्री, हमारा मुँह काला हो
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सिरिवालचरिउ महु अवजसु थिउ भुवणयल पूरि पई घालिउ सुंदरि सयलु चूरि । हउँ मरिज्जंतु विसमउ महंतु ए कम्में किज्जउ पुणु जियतु । महु वाउं ण पुत्तिय लेइ कोइ ह उँ चिरूँ वराउ भउ सयल-लोइ । जिह वय-फलिं भउ सिरिवालु सक्कु महु पुणि वि करावहि सिद्ध-चक्कु । णिउ कहइ धण्णु सो रिसि पवित्तु महु पुणरवि सरणु समाहिगुत्तु । 'पुणु जंपइ कि करमि पुरंदर लेहि-रज्जु पालहि सधरा-धर। भणइ वीरु सिरिवालु सयाणउ मालव देस देउ परिराणउ । देसमंडल महु अस्थि ण कज्जु वि 'जो ण रक्खु सो महु यहु रज्जु वि । घत्ता-सिरिवालु गरेसरु थुवइ जिणेसरु, अच्छइ सुहु भुंजंतु महि । सो 'समरस-रूवउ भल्लउ हूवउ, महिमंडलि जसु भमिउ तहिं ।।१९।।
२० भट्टहिं विरदावलिउ पढिज्जइ गायणेहिं सरसई गाइज्जइ । जामायउ तुहुँ णिव-पयवालहो। एम भणिवि सलहहि सिरिवालहो। इय णिसुणेविणु अइ-विद्धाणउ मयणासुंदरि पुच्छइ राणउ । दुब्बलु पहु तुव चिंत ण जाणमि । माणहि हिय-इंछिय वर-कामिणि । भणई कुमरु तुहुँ देवि अयाणिय अण्णणारि महु हियइ ण माणिय। गुरुणा दिण्णउ मई मणि भाविउ परदारहो णिवित्त-वउ साहिउ । तो वि णाह किं णिय-मणि झंखहि गुज्झ वत्त कि ण अम्हहँ अक्खहि । सुणि महु को वि ण जाणइ सुंदरि एयहि गायण गावइ घरि घरि । महु मणु वट्टइ देवि सलज्जउ करमि सेव तुव ताय णिलज्जउ । पिय भणइ देव एहु जुत्तउ
महु मणि अच्छइ एहु णिरुत्तउ । घत्ता-ता पुच्छइ राणउ मणि विद्दाणउ हउँ जाएमि विएसहिं । ता जंपिउ तीए चंदमुहीए मइँ जाएवउ समाउ तउ ॥२०॥
२१ जइ एह वत्त राणउ सुणेइ
संकलु घल्लिवि विण्णिवि धरेइ । ता भणइ कुँवरु अवहियई जामि बारह बरिसइ हउं इच्छु थामि । भणइ कुँवरि किं मोहु णिवारउ । पई विणु बारह दिण ण सहारउ । वयणु ण पिय अण्णारिसु किव्वउ मइँ पुणु तुम समेउ जाएव्वउ । चंपाहिउ जंपइ विहसंतउ होइ ण सिद्धि धणिय-सिहु जंतउ पुणु जंपइ तिय वय-आसत्तिय गइय सीय किम राहव-सेत्तिय । सिरिवाले अक्खिउ उ जुत्तउ तुहँ मि वियारहि जं जिह वित्तउ । इम संबोहि वि सुंदरि बालिय बारह बरिसइँ अवहि विचारिय ।
३. ख हउं विरु वारउ भउ सयल लेइ। ४. ग विरु वारउ । ५. क धम्म । ६. ग पुणु जंपइ णिउ तुहं लेहि रज्ज । पालहि सधराधर भमई सोज्ज। ७. ग कज्जोवि। ८.ग सो विण्णवइ लेउ इउ
रज्जवि । ९. ग सोमरस रूवउ । २०.१. ग गायणेहिं । २. सरसहिं । ३. ग मवि । ४. ग चित ण जायणि । २१. १. ग वारह वरिस्सह हउ इच्छु थामि । २. ग पहवय-आसत्तिय । ३. ग सुंदरि इम संबोहि रहाइय ।
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२३
१. २१.८]
हिन्दी अनुवाद गया था, तुमने उसे स्फटिक मणिकी तरह स्वच्छ बना दिया। मेरा अपयश सारे भुवनतलमें फैला हुआ था, हे सुन्दरी, उसे तुमने चूर-चूर कर दिया। मैं मारा गया था। बड़ा विस्मय है, तुमने एकाएक मुझे जीवित कर लिया। हे पुत्री, मेरा नाम कोई नहीं लेता। मैं समस्त लोकमें निरीह दीन हो गया था। जिस व्रतके फलसे श्रीपाल इन्द्रके समान हो गया, वह सिद्धचक्र विधान मुझे भी करा दो। वह मुनि द्वारा कहा गया धर्म मुझे बताइए, मैं भी समाधिगुप्त मुनिकी शरणमें हूँ।" वह फिर बोला- "हे इन्द्र, यह राज्य लो और पर्वतसहित इस धरतीका पालन करो।" तब
श्रीपाल कहता है-'हे देव, आप मालवदेशके राजा हैं, मुझे देश मण्डलसे कोई काम नहीं है, फिर भी इसमेंसे आप जो नहीं रखना चाहते, वह मेरा राज्य है।"
पत्ता-राजा श्रीपालने जिनेश्वरकी स्तुति की और वह सुखपूर्वक धरतीका भोग करने लगा। समान रस और रूपवाला वह अच्छा था। उसका यश धरती मण्डलमें फैल गया।
भाट श्रीपालकी विरदावली पढ़ते। घर-घरमें उसके सम्बन्धमें गीत गाये जाते । “तुम राजा प्रजापालके दामाद हो।" यह कहकर श्रीपालकी प्रशंसा की जाती। यह सुनकर श्रीपाल खिन्न हो उठा। मयनासुन्दरीने राजा श्रीपालसे पूछा-"तुम दुर्बल क्यों हो? मैं तुम्हारी चिन्ता नहीं जानती। कोई मनचाही कामिनी हो तो उसे मान सकते हो।" तब कुमारने कहा-“हे देवी, तुम अजान हो । मैं अपने मनमें दूसरी स्त्रीको नहीं मानता। मेरे मनको वही कन्या अच्छी लगती है जिसे उसका पिता देता है। मैंने परस्त्रीके त्यागका व्रत साधा है।” ( मयनासुन्दरी पूछती) है- "हे स्वामी! फिर बताओ तुम्हारे मनमें क्या बात है ? अपनी गोपनीय बात मुझे क्यों नहीं बताते ?" कुमार कहता है-“हे सुन्दरी, यहाँ तुम्हारा कोई ( आदमी ) मुझे नहीं जानता। घरघरमें यही गीत गाया जाता है, यही बात मेरे मनमें है और मैं लज्जित हूँ कि मैं निर्लज्ज तुम्हारे पिताकी सेवा करता हूँ।" तब प्रिय मयनासुन्दरी कहतो है-“हे देव, ठीक है। मेरे मनमें भी निश्चय रूपसे यह बात थी।"
घत्ता-मनमें खिन्न श्रीपाल उससे पूछता है-"मैं विदेश जाता हूँ।" इसपर चन्द्रमुखी कहती है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।
२१
वह बोली-“यदि यह बात राजा सुन लेगा तो शंकित होकर क्रोधसे दोनोंको बन्दी बना लेगा।" इसपर कुमार कहता है कि मैं अवधि देकर जाऊँगा, मैं बारह वर्षके लिए जानेका इच्छुक हूँ। कुमारी कहती है-"मैं मोहका किस प्रकार निवारण करूँ ? तुम्हारे बिना मेरे लिए बारह दिनका भी सहारा नहीं है। हे प्रिय, तुम दूसरी बात मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूंगी।" ( यह सुनकर ) चम्पाधिप हँसकर बोला--"पत्नी (धन्या ) के साथ जानेमें सिद्धि नहीं होती।" स्त्रीव्रतमें आसक्त मयनासुन्दरी कहती है कि सीता रामके साथ क्यों गयी ? श्रीपाल बोला-"यह ठीक है। तुम ही सोचो कि उसका क्या परिणाम हुआ था ?" इस प्रकार सुन्दरी बालाको समझा
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सिरिवालचरिउ
[ १. २१.९ दोहा-'किम महु हियडइ उत्तरइ पइँ जेही सुकलत्त ।
पर पिन विहि विच्छोहु किउ बारह बरिस णिरुत्त ।। घत्ता-ता जंपइ पिय महुरसर महु हियडई तुहु कंतु। बारहवरिस ण आवइ तो तउ करउँ महंतु ॥२१।।
२२ कीलंत्ती चित्त-साल-मंदिरि देइ सँदेसउ मयणासुंदरि । जिण बीसरहु णाह संसारहँ धम्मुअहिंसा पर उवयारहूँ । *जिण बीसरहु सुअण-आणंदण जिणहँ तिकाल करेवी वंदण । जिण वीसरहु सुहिअहो मग्गह। दाण चयारि दितु चउ-संघहँ । जिण वीसरहु कुंदप्पह मायरि अंगदेसु णयरी चंपाउरि । जिण वीसरहि णाह जिण-आणा । अंगरक्ख सई सातउ राणा। जिण वीसरहि अह्मारे सामिय साहसु पुरिसायारु गुसामिय । जिण वीसरहि कहउँ परमक्खर हियइँ देव पणतीसउ अक्खर । जिण वीसरहि सुपिय आआउह रायणीति छत्तीसउ आउह । जिण वीसरहि कहउँ जग-दुल्लहँ . सामिय कज्जु करेल्वउ वल्ल हैं। जिण वीसरहि कहव जइ अच्छिउ भोलेराों पियारे पच्छिउ । जिण वीसरहु देव णिय-गव्व सिद्ध-चक्क णंदीसर-पवई। जिण वीसरहु सुभोय पुरंदर बारह बरिसइँ आगम सुंदर । वयणु एक्कु पिय कहउँ समासिय जिण बीसरहु णाह हउं दासिय । घत्ता-जइ णाह बिसारहो तउ णिरु मारहो जइ आगमपहपडिचलणु।
1°जइ आइ ण पारहो कहव सहारहो तउ अम्हहँ केवलु मरणु ॥२२॥
एम सुणेवि' जिग्गभिउ धाइवि गहिउण अंचल मुद्ध ता कुविऊण पयंपई मुंच पिए ण मे अव सउण । (गाहा) हो हो पवासगामिय वत्थं धरिऊण कुप्पियं कीस पठमं ची' को मुक्कमि णिय पाण किं अंचल तुझु । कर मुत्तिय जातोऽसि वलयादिह किमद्भुतं हृदयाजदि निर्यासि पौरुसं गणयाम्यहं । (दोहउ) भणइ वियक्खणु पिय णिसुणहि वल्लहि पराण । वाह भास जउ विचलइ सिद्ध-चक्क वय-आण । .
वारह वरिसइ अवहि विहाइय । ४. ग प्रति में यह दोहा घत्ताके रूपमें प्रयुक्त है। ५. ग मेहु हियडई
तुहुँकरु । २२.१.ग कीलंति । २. ग चित्तसालिय रइ मंदिरि । ३. ग प्रतिमें निषेधके अर्थ में 'जिण' की जगह 'जण'
है। ४. ग सुहाइय मग्गहं । ५. ग गुसामिय । ६. ग अलाउह । ७. ग रज्ज । ८.ग वारह वरिसहं
गमणु वि सुंदरु । ९. ग आगमपह पडिचलणु । १०. ग जइ आणई पालहु कहव सहारहु । २३.१. ग भणिवि । २. ग पयंपए । ३. ग मुच्चसु । ४. ग कुणसु मासवणं। ५. ग चिय। ६. ग वाला
दिह । ७. ग मुहि वल्लहिय ।
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१. २३. ८ ]
हिन्दी अनुवाद
२५
बुझाकर और बारह वर्षको अवधिका विचारकर वह बोला कि क्या तुम जैसी स्त्री मेरे हृदयसे उतर सकती है ? फिर भी हे प्रिये ! विधाताने बारह वर्षका निश्चय ही विछोह दिया है ।"
घत्ता—तब सुन्दर स्वर में वह बोली - " हे स्वामी, तुम मेरे हृदयमें हो । यदि तुम बारह वर्षमें लौटकर नहीं आये, तो मैं महान् तप ग्रहण करूँगी ||२१||
२२
घरकी चित्रशाला में क्रीड़ा करते हुए मदनासुन्दरी प्रियको सन्देश देती है - "हे स्वामी, संसारको नहीं भूलना । अहिंसा धर्म और पर उपकारको नहीं भूलना । स्वजनोंको आनन्द देना नहीं भूलना । जिन भगवान्की तीन काल वन्दना करना । शुभ मार्गको नहीं भूलना । चतुविध संघको चार प्रकारका दान देना । कुन्दप्रभा माँको मत भूलना। अंगदेश और चम्पापुरी नगरीको नहीं भूलना । हे स्वामी ! जिनकी आज्ञाको नहीं भूलना । अंगरक्षक सात सौ रानाओंको नहीं भूलना। मेरे स्वामी, आप साहस और पुरुषार्थको नहीं भूलना। मैं पैंतीस अक्षरोंका परममन्त्र कहती हूँ, यह मत भूलना । अपने प्रिय आयुधों को मत भूलना। मैं कहती हूँ स्वामी मत भूलना जगमें दुर्लभ प्रिय लोगों का काम करना । मत भूलना जो कुछ कहा है, बादमें मत भूलना हे मेरे प्यारे भोले राजा, हे देव, अपने गर्वको मत भूलना । सिद्धचक्रविधान और नन्दीश्वर पर्वको नहीं भूलना । भोगने योग्य इन्द्रके पदको मत भूलना और बारह वर्षमें अपने सुन्दर आनेको मत भूलना। थोड़े में हे प्रिय, एक बात और कहती हूँ, हे स्वामी, मुझ दासीको मत भूलना ।”
घत्ता - " हे स्वामी, यदि तुमने भुला दिया और तुम आनेसे मुकर गये तो तुम मुझे मार डालोगे । यदि तुम नहीं आ सके और सहारा नहीं दिया तो हमारे लिए केवल मरण निश्चित है ।"
२३
यह सुनकर वह कुमार चला और दौड़कर मुग्धाने उसका आँचल पकड़ लिया। तब क्रुद्ध होकर उसने कहा - "हे प्रिये, छोड़ो मुझे अपशकुन मत करो ।” ( गाहा ) ।
उसने कहा - " ओ ! प्रवासपर जानेवाले, वस्त्र पकड़नेपर तुम क्रुद्ध क्यों होते हो ? पहले किसे छोड़, हे प्रिय, अपने प्राण कि तुम्हारा आँचल ?”
इसमें अचरजकी क्या बात है कि तुम हाथ छुड़ाकर जबर्दस्ती जा रहे हो ? हृदयसे यदि निकल जाओ तब तुम्हारा पौरुष मैं जानूँ । वह विलक्षण कहता है- 'हे प्रिय प्राणवल्लभे, तुम सुनो यदि मैं अपने व्रत और वचनसे विचलित होता हूँ तो मुझे सिद्धचक्र व्रतकी शपथ है । ...
४
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२६
सिरिवालचरित
[१.२३.९पत्ता-पुणु जणणि समंदइ चलणई वंदइ अंवि विएसहो गच्छमि ।
सुण्हा-छलु किव्वइ जिणु पणविज्जइ जामि माइ आगच्छमि ।।२३।।
२४
करुणु करती माय णिवारिउ पइं पेक्खिवि सुव हियउ सहारिउ । जाम वच्छ तुहं णयणहि पेच्छमि णिव-अरिदमणहो सोउ ण लेखमि। मई उरु धरिउ आस करेप्पिणु जाहि वच्छ णिरास करेप्पिणु । धीरी सामिणी होहि ण कायरि दुइ आएसु जामि जिम मायरि । भणइ माइ बीससहि मा णंदण अहि आसी-विस आणा खंडण । मा वीससहि पुत्त विस विसहर कउल-पिसाय-जलणजल जलहर । अट्ठ-वट्ठ-कक्कस कठोहरहं दंती-णहि-सिंगी दाढालहं । मा वीससहि कुपुरिस णिलक्खण 'मइर-पियाण अभक्खण-भक्खण । मा वीससहि वसण-आसत्तिय अलिय जुवाण णारि विड-रत्तिय मा वीससहि पुत्त परएसह साइणि-डाइणि-कुट्टणि-वेसह । मा वीससहि सुयण णिद्दालस लोही-आसण कोही-माणुस । मा वीससहि पुत्त खल-दुट्टहँ पित्तिय वीरदवण पाविठ्ठहँ । घत्ता-डंभी पाखंडी भवहिं तिदंडी, आण आहि सुय मेरिय ।
एयहँ ण पतिव्वउ कहिउ ण किव्वउ घाड-पहाड-वसेरिय ।।२४।।
o
लन्दुह
२५
सिद्धासीस दिण्ण सिरिवालहो। किउ भालयलि तिलउ सुउमालहो। दहि-दूवक्खय मत्थय देविणु पुणु आरत्तिउ उत्तारेप्पिणु । दिण्ण असीस पुत्त एउ पावहि चाउरंगु बलु लेविगु आवहि । माय-घरिणी विणि वि संवोहिय अंगरक्ख सयसत्त विबोहिय । साहस-कोडि-भडहँ आसंघिवि गउ पायार-सत्त णह लंघिवि । णाणा देस-णयर विहरंतउ
सरि-सरवर-पव्वय लंघतउ । गउ भडु वच्छ-णयर सुविसालउँ । धवलु सेठि जहि अवगुण-आलउ । सत्थवाह परदीवहँ चलियउ . "पोहणाहं सयपंचहं मिलियउ । बोइत्थ-सय-सायर-तड़ झेल्लिय चलइ बत्तीस-लक्खण-पय पेल्लिय । वणि समूह अवलोयण धाविउ जोयंतहँ सिरिवालु वि पाविउ। वणह मज्झि सुत्तउ परियाणिउ छाया गमणिं उत्तम जाणिउ । आपु आपु कहुँ धरि धरि ताणहिँ कोडि भडो वि ण वणिवर जाणहिं।
कोलाहलु पहणु जणु खुहियउ कह हि कोइ परएसिउ गहियउ। ८. ग प्रतिमें इन पाँच छन्दोंको अलग कड़वक नहीं माना गया। इनके बाद वस्तुतः तेईसवाँ कड़वक
प्रारम्भ होता है । अतः उसमें एक कड़वक कम है। २४. १. ग पिक्खिवि हियवउ साहारिउ । २. गणिव । ३. ग वीस सह ण णंदण । ४. ग अहिय-असेवय
आणा खंडण । ५. ग अट्रवद्र कक्कस लंवा ठोरहं । ६. ग मयर । ७. ग अलिय जवार णारि विडरत्तिय ।
८. ग आलस । ९. ग डिभी । १०. ग सुव । २५.१. ग माथे । २. ग धण पुत्तय पावहिं। ३. ग नह । ४. ग वेसालउ । ५. ग पोहणाहं सय संक्खहिं
मिलयउ । ६. ग घोलिय । ७. ग पराविड़। ८. ग छायागमणे । ९. ग मिलियउ ।
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२७
१. २५. १३]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-धीरे-धीरे वह माँके चरणोंकी वन्दना करता है और कहता है-“हे माँ ! मैं विदेश जाना चाहता हूँ। बहूसे स्नेह करना। जिन भगवान्को प्रणाम करना। विदेश जाता हूँ माँ, फिर वापस आऊँगा।" ॥२३॥
२४
करुण ( विलाप ) करती हुई माँने उसे मना किया। "हे पुत्र, तुम्हें देखनेसे हृदयको ढाढ़स मिलता है। जब मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देखती हूँ तब अपने ( पति ) अरिदमनके शोकको कुछ नहीं समझती। आशाके बलपर ही मैं अपने हृदयको धारण कर सकी। हे पुत्र, तुम मुझे निराश करके जाओ।" पुत्रने कहा-“हे स्वामिनी, धीरज धारण करो, कायर मत बनो। माँ आदेश दो जिससे मैं जाऊँ।" माँ कहती है- "हे पुत्र, विश्वास मत करना, विषैले दाँतवाले साँपों तथा आदेशका खण्डन करनेवालों का। हे पुत्र, विष और विषधरका विश्वास मत करना। कौल, पिशाच, आग और पानीका विश्वास नहीं करना। हे पुत्र, ठग और चोरोंका विश्वास मत करना । अट्ठ-वट्ट ? लवणकठोर ? लोगोंका विश्वास नहीं करना। दाँत, नख, सींग, दाढ़वालों (पशुओं ) का विश्वास नहीं करना। मदिरा पीनेवालों और अभक्ष्य भक्षण करनेवालों
और व्यसनोंमें आसक्त लोगोंका विश्वास मत करना। झूठे युवक और गुण्डोंमें आसक्त नारीका विश्वास नहीं करना। हे पुत्र, परदेशीका विश्वास नहीं करना। साइन-डाइन, कुट्टनी और वेश्याका विश्वास नहीं करना। निद्रालसी सुजनका विश्वास मत करना । आसनके लोभी और क्रोधी मनुष्यका विश्वास मत करना। हे पुत्र, खल और दुष्टोंका विश्वास नहीं करना और अपने पापी चाचा वीरदवणका भी विश्वास मत करना ।
घत्ता-दण्डी, पाखण्डी और त्रिदण्डीका विश्वास नहीं करना। यह मेरी आज्ञा है । इनका विश्वास नहीं करना चाहिए। इनका कहा नहीं करना चाहिए। घाट पहाड़में बसनेवालोंका विश्वास नहीं करना चाहिए।"
२५
श्रीपालको उसने सिद्ध आशीर्वाद दिया। उसके सुकुमार भालपर तिलक किया। माथेपर
दूध और अक्षत देकर उसने फिर आरती उतारी और आशीर्वाद दिया- "हे पुत्र,तुम सब कछ पाना-चतरंग सेना लेकर आना। तब उसने मां और पत्नी दोनों नारियोंको सम्बोधित किया। सात सौ अंगरक्षकोंको भी समझाया। करोड़ योद्धाओंका साहस अपने में इकट्ठा कर सातों परकोटोंको लाँघता हुआ वह चला गया। वह योद्धा विशाल वत्सनगर पहुंचा, जहाँ अवगुणोंका घर धवलसेठ था। सार्थवाह धवलसेठ दूसरे द्वीपको जा रहा था। उसके पाँच सौ जहाज सम्मिलित थे। जहाज सागर तटपर जाम हो गये, जो बत्तीस लक्षणोंसे युक्त किसी मनुष्यके प्रेरित करनेपर ही चल सकते थे। वणिक्-समूह ( उस आदमीको ) देखनेके लिए दौड़ा। ढूँढ़ते हुए उन्होंने श्रीपालको पा लिया। छाया नहीं पड़नेसे उन्होंने उसे उत्तम समझ लिया। वे अपने आप कहने लगे कि उसे पकड़ो, पकड़ो! वे वणिक्वर उस कोटिभडको भी नहीं समझ सके । बाजारमें कोलाहल होने लगा। लोग क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने कहा कि कोई परदेशी पकड़ा गया है।
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सिरीवालचरिउ
घत्ता - जो जिणपय-भत्तउ धम्मासत्तड कोडिवीरु अभउ जोवि रणे । सुर-कर-करि-वाहउ जयसिरि-लाहउ केम गहिज्जइ इयर जणे ||२५||
2
५.
आणिवि दंसिउ जह सत्थ-वाहि बाई बज्जिय विडहरेहिं वर - कुसुमहिं पुज्जिउ उत्तमंगु आराहि कर पहु सो वियारु सय-पंच-परोहण रहियतीर विहसेविणु जंपर वीरु ताहि ता चल्लिय वणिवर तहिँ तुरंत जाइवि पुज्जिय जल-देवयाइँ पय परसइ पोहण वीरु जाम ता सेट्ठि पपइ तह तुरंतु महि जीव जो फुरइ तोहि दह - सहस वीरहू जिणहि तेम सुणि सेट्ठि पर्यपमि तुज्झु अज्जु घत्ता-पंचसयइँ जल- जाणइँ रयण-समाणइँ सायर - मज्झ सरंति कि । free मिलियइँ उडुयण चलिय हूँ ससि - रवि - केउ सहति जिह ||२६||
विसारिय
णु
मझ वंसु रोपियउ उकिट्ठउ लोहढोपरी मत्थइँ अच्छ गह-गहार चालहि वाणिज्जई चलिउ सत्थसहु जाणारूढउ मरुवसेण चालंति परोहण एक्कमक्क जुझंति परोप्परु धवलु सेट्ठि संगरि सण्णद्धउ धाणुक्किय चालिय अगिवाणहूँ बंधिय अंगरक्ख सण्णाह हुँ असिवर छुरिय- फरिय चालतह पुणु मरहट्ठ जाण उट्ठतहँ
१२
[ १.२५.१४
२६
3
पहु आणि लक्खणवंतु चाहि । मणिय वीरु पहु आयरेहिं । हरिचंद - चच्चि वीर अंगु । जिम दुत्तरु तरहि' समुद्द-पारु । चालावहि ते वीराहि-वीर । चलु सायर-कूल सत्थवाहि । पडुप डह - भेरि काहल रसंत । पडवाई - पोहण - वावसाइँ । 'सयलवि तरेविणिग्गमहि ताम । तुहुँ वीरु महारउ धम्म-पुत्तु । दह- सहस-तण दइ सेट्ठि मोहि । तें कहिउ सीहु गय घडह जेम । महु जीव' दिज्जहि किय" कज्जु ।
२७
वाउ सपडवाई संचारिया | तहि चडेवि मरजिया बइठउ । णत-भेरुंड चड-उलई गच्छइ ।
-दी उपर मणोज्जई । जणुं कल्लोलत्तरंगह खद्धउ । लक्खु चोरु तहि धाविउ गोहण । हक्क दिति मारतिय मरु-मरु | दह सहसहिँ पाइ कहिँ सद्धउ । तीरी - तोमर-सर- संधाणहँ" । "ट्टाहर सीस देवि सुद्दाहहँ । धाइय मुग्गर- कोंत-गुणं तहँ । सव्वल-सेल ह्त्थ-फरकुंत हूँ ।
13
२६. १. ग वद्धावा । २. ग विडहरेहि । ३. ग आयरेहिं । ४. ग चंदण । ५. ग कहि । ६. ग तहिं ७. ग काल दिन । ८. ग सयल वि महि छुट्टिवि चलिय ताम । ९. ग जिम्बलु । १०. ग कियइ ।
२७. १. ग कड्ढेवि । २. ग संचारिय। ३. ग ऐसारिय । ४. ग लोहटोपरी मत्थे अच्छई । ५. ग चिडउ गल । ६. ग जल कल्लोल तरंगह छूटउ | ७. ग मोहण । ८. ग मारंतिय । ९. ग अगिवाणिय । १०. ग संचाणिय । ११. ग टाटर सीसि देवि उच्छातहं । १३. ग गुणंत ।
१२. ग च चालंतई ।
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१. २७. १२ ]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-जो जिनवरका भक्त और धर्ममें आसक्त है, जो युद्धमें कोटिभड वीरके नामसे प्रसिद्ध हुआ। जिसके हाथ ऐरावतकी सुंडकी तरह हैं, जिसे जयश्रीका लाभ है, वह दूसरोंके द्वारा क्या पकड़ा जा सकता हे ?
उन्होंने उसे लाकर वहाँ दिखाया जहाँ सार्थवाह था और कहा कि हे प्रभु ! लक्षणोंसे युक्त • ( बत्तीस लक्षणोंवाला ) व्यक्ति ला दिया है, देख लीजिए। विटघरमें बधाई बजने लगी। राजाने
उस वीरको आदरसे बहुत माना। उत्तम फूलोंसे उसके उत्तमांग ( सिर ) की पूजा की। उस वीरके शरीरका लाल चन्दनसे लेप किया। राजाने उसकी आराधना की। हे स्वामी ! ऐसा विचार कीजिए जिससे यह दुस्तर समुद्र हमलोग पार कर सकें। ये पाँच सौ जहाज समुद्रके तटपर जाम हो गये हैं। हे वीरोंके वीर, आप इन्हें चला दें। उस वीरने हँसकर उससे कहा-“हे सार्थवाह, समुद्रके किनारे चलिए।" तब वह वणिकवर शीघ्र ही वहाँ गया। नगाड़े, भेरियाँ और काहल बज उठे। जाकर उन्होंने जलदेवताकी पूजा की। पटवादियों ( पालवालों ) ने जहाज प्रेरित किये । जैसे ही वीरने पैरसे जहाज छुए वैसे ही सब तिरकर उस पार पहुँच गये । तब सेठने तुरन्त उससे कहा-“हे वीर, तुम मेरे धर्मपुत्र हो, तुम्हें जितना धन माँगना हो माँग लो।" उसने कहा-“हे सेठ, दस हजार दो।" तब उन्होंने कहा-"दस हजार वीरोंको तुम उसी प्रकार जीत लेते हो जिस प्रकार गजघटाको सिंह ।' तब कुमारने कहा-'हे सेठ सुनो, मैं तुमसे आज कहता हूँ, मुझे धन तब देना जब मैं तुम्हारा काम करूँ।
धत्ता-रत्नोंके समान पाँच सौ जलयान समुद्र के बीचमें इस प्रकार चल रहे थे मानो आकाशतलमें चन्द्र, सूर्य और केतुके साथ मिलकर नक्षत्रगण चल रहे हों ॥२६।।
लंगर उठाकर जहाजोंको चला दिया गया। पटवादियोंने हवा तेज की। बीचमें उत्तम बाँस रोप दिया गया। मरजिया उसपर चढ़कर बैठ गया। लोहेकी टोपी उसके सिरपर थी। नत-भेरुंड और गौरैयाका समूह भी उसके साथ चल रहा था। सुन्दर वाणिज्यके लिए वे प्रसन्न होकर चले। यानोंपर बैठे हुए सार्थवाह रत्नद्वीपके ऊपरसे यात्रा कर रहा था। लोग हिलोरों और तरंगोंसे क्षुब्ध थे। हवाके वेगसे जहाज चल रहे थे। तब लाख चोर उसके पीछे लग गये। वे एक-दूसरेसे युद्ध करने लगे। 'मारो ! मारो !!' की हाँक देकर, एक दूसरेको मारने लगे। धवलसेठ भी युद्धके लिए तैयार हो गया। वह दस हजार योद्धाओंसे लैस था। धनुषधारी अग्निबाण चलाने लगे। तीर, तोमर और सरोंका सन्धान किया जाने लगा। कवच पहने अंगरक्षकोंको बाँध दिया गया।...? उत्तम तलवारें, छुरे और फरसे चलाते हुए वे मुद्गर और कोतको घुमाते हुए दौड़े। मराठा लोग भी सब्बल, सेल और हाथमें फरकुन्त ( फरसे ) लेकर उठे।
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सिरीवालचरिउ
[ १. २७. १३घत्ता-जाएप्पिणु बव्वर समर-धुरंधर धवलु सेठ्ठि रणि अब्भडिउ ।
अण्णत्तहिं संगर कय-रण-डंवरु जाइवि सत्तु उवरि पडिउ ॥२७॥
२८
रणे 'संगामु करता दिठिहि चोर-उलइँ जित्तई सह सेठिहिं । रहसारूढउ पुठिहि लग्गउ वाहुडि चोरहँ धरिउ अभग्गउ । गहिउ सेठ्ठि पाइक्क पलाणा गूजर मरहठ्ठय विदाणा। जाइवि कहिउ तेहि सिरिवालहँ सेठि ण अग्गाहु बव्वर चोरहं । इय आयण्णिवि कोवाऊरिउ धाइय हाक्क दिंतु रण-सूरउ । वाम-करग्गे वारणु तोलिउ दाहिणेण असिवरु संचालिउ ।' जाइवि लक्खु-चोर हक्कारइ जिह गयवर वलि-हरिणा संकइ । सीह-णादु भड-कुवर कीयउ सवर-समूहु जंतु जणु भीयउ। पडिउ भगाणउ सव्वहँ चोरहँ लइउ ललाइ वहिउ जिम भोरह। कोडि-भडहँ बहु पउरिस धाविउ उपरा उपरि सयल बंधाविउ घत्ता-बवर समर-विथक्कई रणहँ चमक्का , वंधिवि सुहडह धरिय खणे ।
रे रे पाविठ्ठहो समरि णिठ्ठहो, महु पहु वंधिवि लेहु रणे ।।२८।।
सेट्ठिहि बंध कुमारू बिछोडइ. कम्म-पडि जिम केवलि तोडइ । वंधिउ तक्कर-गणु भइ कंपइ विडयणु तु रहसे जंपइ। जे रक्खिय अट्ठाई सो गंदउ पुत्त-कलत्त-सहिउ अहिणंदउ । सह कुसमाल धरेविणु आणिय ताह वत्थु गिण्हेवि अपमाणिय । वणिजारिय-सिरु सेस भरंतह अइहव-मंगल चारु करंतह । घरि घरि तोरण-वंदण-मालई कंचण-कलसइँ मालइ-मालइ । णव-णट्टई गेयई गिज्जंत. मंदल-पडह-संख वायंतई। धवलु सेठि सिरिवालु वि धण्णउ पुण्णवंतु गुण-गण-संपुण्णउ । बव्वर समरथेण सह आणिय बहु-भोयण-वत्थहिं सम्माणिय । करिवि तिलउ, सिरि दूवय घल्लिय पुणु सिरिवाल सव्व मोकल्लिय भणिउ तेहि तुहुँ सामि महारउ पेसणु देहि देव गरुयारउ। जणणि जणणु जे जणिय सुघग्णउ अम्हहँ जीव-दाणु पई दिण्णउ । किम हम उरिण होहिं तुव सामिय रिण-मुक्के करि मैगल-गामिय । घत्ता---गय तुरय सरोहण सत्त-परोहण मणि माणिक्क-पवालहिं । ___ अवर जि दीवंतर रयण णिरंतर ते ढोइय सिरिवालहिं ॥२९॥
१०
१४. ग अन्भिडिउ । १५. ग सत्थ । २८.१.ग रण । २. ग करंतह। ३. ग वाहुडि चोरहं धणुहरु सजिउ । ख वाहडि चोरह छडिउ अभग्ग:
४. ग विण्णाणा । ५. ग गाहउ । ६. ग संभालि उ । ७. ग जिम गय जूहु हरिहि णउ संक्कर। ८. ग
पउरिस । ९. ग उपरापरु सयल वि वंघारिय । २९.१क सह कुसवाल । २. क अपवाणिय। ३.ग करतई। ४. क बालई। ५. ग वहगण । ६. ग वव्वर
समर धरेसह आणिय।
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१. २९. १५]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-धवलसेठ भी जाकर धुरन्धर बब्बरोंसे युद्ध में भिड़ गया। दूसरी जगह भी संग्राम हो रहा था। युद्धका आडम्बर करनेवाला वह शत्रुके बीच कूद पड़ा ॥२७॥
युद्ध में लड़नेवाले चोर-कुलको सेठने अपनी दृष्टिसे जीत लिया। हर्षसे भरा हुआ वह उनका पीछा करने लगा। बादमें चोरोंने उसे साबत पकड़ लिया। सेठके पकड़े जानेपर पैदल सिपाही भाग खड़े हुए। गूजर और मराठा नष्ट हो गये। उन्होंने जाकर श्रीपालसे कहा कि धवलसेठको चोरोंने पकड़ लिया है। यह सुनकर वह क्रोधसे भर उठा और युद्धवीर वह, हकारा देकर दौड़ा। बायें हाथमें उसने ढाल ले ली और दायें हाथसे उसने अपनी श्रेष्ठ तलवार चलायी। जाकर उसने लाखचोरको हाँक दी। जिस प्रकार बड़े-बड़े हाथी सिंहसे डरते हैं, उसी प्रकार भटकुमारने सिंहनाद किया। उससे सवर-समूह मानो डरकर भाग खड़ा हुआ। सब चोरोंमें भगदड़ मच गयी। [ इस पंक्तिका अर्थ स्पष्ट नहीं है ] कोटिभड बहुत पौरुषसे दौड़ा और तटके ऊपर सबको बँधवा दिया।
घत्ता-बव्वर युद्ध में थक गये। रणमें वे चौंक गये। एक क्षणमें सुभटोंको बाँधकर रख लिया गया। कुमार बोला- "हे युद्ध में पराजित पापियो, तुम मेरे स्वामीको युद्ध में बन्दी बनाकर ले जाना चाहते हो?" ||२८||
२९
कुमारने सेठके बन्धन खोल दिये । उसी प्रकार जिस प्रकार जिन भगवान् कर्म प्रकृतियोंको तोड़ देते हैं। बन्दी चोरोंका गिरोह डरसे काँप उठा। विडजन सन्तुष्ट होकर खुशीमें कहते हैं कि जिसने अष्टाह्निका की है वह फले फूले । पुत्र-कलत्र सहित उसका अभिनन्दन किया। चोरों सहित उन्हें वे पकड़कर ले आये और उनकी वस्तुएँ लेकर उन्हें अपमानित किया। एक दूसरेको सिरसे भरते हुए वणिक् अत्यन्त उत्सव और सुन्दर मंगल करने लगे। घर-घर तोरण और वन्दनवार सजा दिये गये। स्वर्णकलश और मालतीकी मालाएँ वहाँ थीं। नव नृत्य और गीत होने लगे। मृदंग, नगाड़ा और शंख बज उठे। धवलसेठ और श्रीपाल धन्य हैं। पुण्यवान् और गुणगणसे परिपूर्ण है। समर्थ वरके साथ उसे लाये । बहुत भोजन और वस्त्रोंसे उसका सम्मान किया। तिलककर सिरपर दूब रखी। फिर श्रीपालने सबको छोड़ दिया। उस (बव्वर ) ने भी कहा"आप हमारे स्वामी हैं। हे देव, कोई बड़ी आज्ञा दीजिए। जिस माता-पिताने आपको जन्म दिया वे धन्य हैं। आपने हमें जीवन-दान दिया। हे स्वामी, हम आपसे कैसे उऋण हो सकते हैं। हे कल्याणगामी, हमें ऋणसे मुक्त कीजिए।
घत्ता-गज, अश्व आदि और शोभायुक्त मणि-माणिक्यों और मूंगोंसे भरे सात जहाज और भी जो द्वीप-द्वीपान्तरोंके रत्न थे वे उन्होंने श्रीपालको अर्पित कर दिये ॥२९॥
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सिरीवालचरिउ
[१.३०.१
३० णित्तु खंभु मणिभूसणु अंबरु रयणहँ जडिउ छत्तु धणुडंवरु । दिण्णु हिरण्णुवण्णु धण-धण्ण सयई सत्त दासी गुण-पुण्णई। बव्वर भणइ सेट्रिइम किज्जइ अम्हहँ वक्खरु सादिवि लिज्जइ । मुत्ताहल-सिरि-खंड-पवालई कप्पूर-लवंग-कंक्कोलई। एय-माइ बहु रयणहँ भरियइँ लेविणु वत्थ परोहण चलियई। रयण-दीवि लग्ग: जल-जाण. पोमराय-मणि तहिं अपमाणहूँ। खंचिवि हंसदीवि पोहणु णिउ. सुद्ध-फलिहमणि णं विहिणा किउ । जेहि दीव अट्ठारह क्खाणियं सार टार गय कणय पहाणिय । लाटहँ पाट जिवाइ कत्थूरिय कुंकुम-हरियंदण-कप्पूरिय । कूव-विहरि अम्माउ सुरंगई धवल-हरई जिणहर उत्तंगई। रहिय परोहणाई तहो अग्गई वणिजार सह भोयण लग्गई। घत्ता-पोहण-सह थक्कइ चलिवि ण सक्कई दीउ विउलु घण गज्जइ । धम्मु वि दह-लक्खणु णाण-वियक्खणु सयलविवणि आवज्जइ ॥३०॥
३१ विडहर रहि थक्के हंस दीवि णियरुइ सविसे सिय हंसदीवि । तहिं विज्जाहर-वइ कणयकेउ सोहलय-सिहर जहि कणय-केउ । रायंगु मुणइ णवि सो अणंगु जसु विग्गहिं णिग्गहियउ अणंगु । 'जो पाया किसि-रक्खणु किसाणु जो वइरि-सुक्खु-भूरुह किसाणु ।
जस वाय-विरुद्धउ जो वि राउ बहुविह णिवाल सो खहवि जाउ । . जो दीण-दयावण-कप्प-विडउ । जो पाव-कला-णिहि-पिहुण-विडउ ।
जो असहणं दरसय पलइ वाहु जो अतुल तुलइ सुपयंड-वाहु । जो सेयवंतु बहु-सुक्ख-धम्मु अहणिसु चिंतइ दय-सुक्ख-धम्मु । पणवासर इव मंती पहाण समरंगणि खंडियं जेहिं पहाण ।
घत्ता-गहिणि पिय-वल्लहँ परियण-दुल्लहँ रइ-रस रुव-सुरंगी। दि ट्ठिहि जण-जोवइ पुणु अवलोवइ णं भयभीय-कुरंगी ॥३१॥
गय-गामिण भामिणि कणयमाल सुपियारी जिह मणि-कणय-माल । महुरालावणि जिह कोइलाइँ तहि सरिसु जुवइ णहि कोइलाइ । गुरु-पिय-पय वंदइ सा सईय भत्तिय आहंडलि जिह सईय।
बे सुय तहि जाया गुण-धणाइँ उवयारणं सावण-घणारे । ३०. १. क ग णित्तु खंभुणिन्भूसणु अंबरु । २. ख तत्तु । ३. ग साटिवि । ४. ग खानिवि । ५. ग पहाणिवि ।
६. ग लाटह पाटह जिवाइ कत्थूरिय। ७. ख कुव विहारइं णरइ सुरंगइ। गांव विहरि अमराउल
गंधइ । ८. ग वणिवराय सह । ३१. १. क जो कवडीय अपणीय राउ । २. क जो वासु किसि रक्खणु किसाणु । ग जो पयासु किसि
रक्खणु पहाणु । ३. ग जो वइरि णिहणु-भूरुह किसाणु । ४. ग पणवासर इव मती पहाण ।
५. क खंडी। ३२.१. ग महरक्खर णिज्जिय कोइलाई।
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१. ३२.४]
हिन्दी अनुवाद
३३
३०
उचित रेशमी वस्त्र, मणियोंके आभूषण अम्बर (?) रत्नोंसे जड़ा हुआ विस्तृत छत्र, सोना-चाँदी, धनधान्य, गुणोंसे परिपूर्ण सात सौ दासियाँ उसे दीं। बब्बर बोला-'सेठ जी, ऐसा करिए कि अनुग्रह कर हम लोगोंकी बाखर ले लीजिए। मोती, श्रीखण्ड, मंगा, कपूर, लौंग और कंकोल आदि बहुतसे रत्न उसमें भरे हुए हैं। वस्तुएँ लेकर जहाज वहाँसे चल दिये और जलयान रत्नद्वीपसे जा लगे। उसमें अनन्त पद्मराग मणि थे। वहाँ से चलकर वे लोग हंसद्वीप पहुँचे, जिसे विधाताने शुद्ध स्फटिक मणियोंसे बनाया था। जिस द्वीपमें अट्ठारह खदानें हैं। सार (धन), टार ( अश्व, टट्टू ), गय ( हाथी ) और स्वर्णकी खदानें जिनमें प्रमुख हैं। लाट, पाट, जीवादि, कस्तूरी, कुंकुम, हरिचन्दन और कपूरकी खदानें उसमें हैं। जिसमें अमित कुँए और विहार ( स्थल) हैं। रंग-विरंगे धवलगृह और ऊँचे जिनमन्दिर हैं। उसके सामने जहाज ठहर गये। सब वणिक् लोग भोजनमें लग गये।
__ घत्ता-जहाजोंके साथ वे वहीं ठहर गये, वे चल नहीं सके। उस द्वीपमें सघन बादल गरज उठे। मानो ज्ञान विचक्षण दस लक्षणोंवाला धर्म, समूची धरतीको प्रसन्न कर रहा हो ॥३०॥
३१
दुष्ट थककर हंसद्वीपमें ठहर गये और अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उसकी विशेषता बढ़ाने लगे। उसमें विद्याधर राजा कनककेतु रहता था। जिसके सोलह शिखरों पर कनककेतु थे। वह राजनीतिकी चिन्ता करता था-कामदेवकी नहीं। कामको तो उसने अपने शरीरसे ही जीत लिया था। वह अपनी पत्नीमें अनुरक्त था और अपने नगरका राजा था, जो प्रजा रूपी खेतीकी रक्षा करने वाला किसान था, जो शत्रुओंके सुखरूपी वृक्षोंके लिए आग था । जो भी राजा उसके वचनोंके विरुद्ध जाता, वह राजा उसके लिए क्षय था। जो दीन और दयनीय लोगोंके लिए कल्पवृक्ष था और पापरूपी कलानिधिको नष्ट करने के लिए दुष्ट था। जो असहनशील लोगोंके लिए प्रलय दिखा देता था और प्रचण्डबाहु अतुलनीयको तोल लेता था। जो बहुतसे सुखों और धर्मका सेवन करता था तथा दिनरात दया और सुख धर्मका चिन्तन करता था। दिनरात जो मन्त्रणा करने में प्रमुख था और जिसने युद्धके मैदानमें प्रधानोंको नष्ट कर दिया था।
घत्ता-परिजनोंके लिए दुर्लभ उस प्रिय पतिकी घरवाली कनकमाला रति, रस रूपमें सुन्दर थी। दृष्टिसे वह, लोगोंको देखती और फिर देखती, ऐसी लगती जैसे डरी हुई हिरनी हो॥३१॥
३२
गजके समान गमन करने वाली कनकमाला उसकी प्यारी स्त्री थी। इतनी प्यारी कि जिस प्रकार मणि-स्वर्ण-माला हो। कोयलोंके समान मधुर बोलने वाली उसके समान युवती कोई नहीं ला सका। वह सती अपने गुरु और प्रियके चरणोंकी वन्दना करती उसी प्रकार जिस प्रकार भक्तिसे इन्द्राणी इन्द्रके पैर पड़ती। उसके प्रचुर गुणवाले दो पुत्र उत्पन्न हुए, जो परोपकारमें
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१०
५
१०
३४
सिरिवालचरिउ
२.
जग झंपर णिम्मल चित्त णामेण चित्तु बीउ विचित्तु तीजी रयणमँजूस धी हग्गल रूवग्गल सुतार एक्कहि दिणि णिउ लइ फुल्ल जाइ पुच्छिउ परमेसरु एह धुवा मुणि उत्तर जिणहरु सहसकूड लहि पवि-किवाड फेडइ जु कोइ
मोतिउ कपासु णं साइचित्त । साहस होण छंडइ जाहँ चित्तु । सीलाहर जो गंभीर धीय । लोण उ गुरु-सुक्क-तार | गुरु-पय पुज्जिय जिण-भवणु जाइ । कहो " दिज्जइ सो पहु कहहु धुवा । जो फेडइ सहसा पाव- कूडु | सो परिणइ वि अण्णु जिण होइ ।
धत्ता-ता णरवइ जाणिवि मणि परियाणिवि वारवाल वइसारिय | after जो आवइ ए विहडावइ सो महु कहहु पुकारिय ||३२||
३३
एम भणेविष्णु गउ घरि णरवइ एत्तहिं वणि गच्छहिँ पुरि भीतर उवहि-तरंग-भंग बेला उलु जहिं जइणी सोहहिं वेसाइँ जहिं मुणिग्गइ थणवट्टइ जहिँ दंड परदारा- पेक्खण जहिं बोलिज्जइ खज्जइ महुरउ जहिं असंख-सीमा- हालाहल कूव जहिं पुर करुण कूव - बहु वाटी "जहि णिव्भय वण कीलहि सावय मय-भुल्ला गय अलि महुमास हूँ वहार णिवसहि सिरिवालह
दि तेहिं जिणहरु हु- लग्गउ 'अंड - दंडइक सोवण्ण- घडियउ सुद्ध-फलिह-विम-आवद्ध सूर-कंति-ससि - कँतिहिं सोहिउ गरुडायार-वद्ध सवणासह आवलसारु जडिउ गोमेयहिं
चित्तु खपावेण रमई' | मणिरण हूँ जहिं आवणि भीतर । पिक्खहि विउ लच्छि वेला उलु । रुण कोइ गच्छइ वेसाड हूँ । 'परमेसरी वद्ध-ण- वट्टई | रण सहहिं परदारापेक्खण | विदिजइणवि छुइयइ महुरउ । रिद्धि तहिँ वि हालाहल | कई हु वाटी । देव-सत्थ- गुरु-भत्ता सावय । जणु विरतु निम्म महु-मासहँ । किं बहु व सिखमि सिरिवाल हूँ । घत्ता- - तहिँ अस्थि णेमु सिरिवालहँ अइ-सुकुमालहँ जहिं णयरहो चेयालउ | से विणु परसेवइँ भोयणु करइ बालउ ||३३||
Tea
३४
दंसण पाव-पडलु जसु भग्गउ । पोमराय - मरगय-मणि जडियउ । रावट्टे भीसम-मणिहिं णिवद्धउ | कडियल-गय-मुत्ताहलु खोहिउ । इंदणीलमणि पुणु उपासहँ । पुक्खर गवय- गवक्ख - अणेयहिं ।
[ १.३२.५
२. ग सीलाहारि । ३. ग लोयणरुह् गुरु णं सुक्कतार । ४. ग एक्कहिं । ५. ग कहि दिज्जइ सो पहु कहहि धूव ।
४. क कइ ।
३३. १. ग रमइ । २. ग परमेसरु व घण घण वट्टइ । ३ ग णासिज्जइ महुरउ । ५. क जेहि णिग्गसवाण कीलहि सावय । ६. ग कवमि । ७. ग देवखेवइ । ३४. १. ग अंड दंड इक सो वण्ण घडियउ । २. क रावट्टे भीसण मणिहि वद्धउ । ३. ग सुवणासहि ।
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१.६४. ६ ]
हिन्दी अनुवाद सावनके मेघोंके समान थे निर्मल और पवित्र चित्तवाले। उन्होंने उपकारसे संसारको ढक लिया। उनका चित्त मोती और कपासके समान स्वच्छ था । एकका नाम चित्र था और दूसरेका विचित्र । उनका चित्त एक पलके लिए साहस नहीं छोड़ता था। तीसरी बेटी थी-रत्नमंजूषा । शीलके आभूषण वाली जो गम्भीर पुत्री थी। वह स्नेह और रूपकी सुन्दर अर्गला थी। उसके दोनों नेत्र ऐसे थे मानो शुक्र तारे हों। एक दिन राजा कनककेतु फूल लेकर जा रहा था। गुरुके चरणोंकी पूजा करनेके लिए जिनमन्दिर जा रहा था। उसने गुरु महाराजसे पूछा- “यह कन्या किसको दी जाये ? हे स्वामी कृपया बताइए।" मुनि बोले-“सहस्रकूट जिनमन्दिर है, जो अनायास पाप समूहको नष्ट कर देता है। उसके वज्र-किवाड़ोंको जो खोल देगा उसीके साथ हे राजन्, कन्याका विवाह कर देना। दूसरी बात नहीं हो सकती।"
पत्ता-यह बात जानकर राजाने मनमें निश्चय कर लिया। उसने द्वारपाल बैठा दिया, और बोला-जो आकर ये किवाड़ खोले, उसको खबर मुझे देना ||३२।।
यह कहकर राजा अपने घर चला गया। उसका हृदय एक क्षणके लिए भी पापमें रमता नहीं था। यहाँ वणिकपुत्र भी नगरके भीतर गये। जहाँ बाजारमें मणि और रत्न भरे पड़े थे। जो समुद्रकी लहरोंसे आकुल तटकुल ऐसा लगता है मानो विपुल लक्ष्मीका तट हो। जहाँ जैनोंकी वैश्याटवी ( बाजार ) शोभित है। वहाँ वेश्यालयमें कोई भी नहीं जाता। स्त्रियाँ जहाँ नियमसे निकलती हैं। परमेश्वरके समान जिसमें मेघ गरजते हैं । जिसमें परस्त्रीको देखना दण्डित समझा जाता है। लोग परस्त्री देखना सहन नहीं करते। जहाँ मधुर ( मीठा ) बोला जाता और खाया जाता है, परन्तु जो मधुर (शराब) न तो देते हैं और न छूते हैं। जिसकी सीमाओं पर असंख्य मालाकार हैं, परन्तु अपनी सिद्धिके लिए हलचल नहीं है। जहाँ नगरमें कुँए और बहुत सी बावड़ियाँ हैं.... अर्थ स्पष्ट नहीं है-जहाँ वनमें पक्षि निडर विचरण करते हैं, और श्रावक देव, शास्त्र और गुरु की भक्तिमें लीन हैं। भ्रमर मधुमाह ( वसन्त ) में मदसे छक जाते हैं लेकिन लोग मधुमाहमें निर्मद और विरक्त होते हैं । व्यापारी श्रीपालके पास निवास करते हैं । मैं ( कवि ) बहुत क्या कहूँ और श्रीपालको क्या सिखाऊँ ?
घत्ता-वहाँ भी अत्यन्त सुकुमाल श्रीपालका नियम था। उस नगरमें जो चैत्यालय था. उसके दर्शन और स्पर्शके बिना वह भोजनको हाथ नहीं लगाता था ।।३३।।
४
उसने आकाशको चूमनेवाले जिनमन्दिरको देखा। जिसके दर्शन मात्रसे पापका समूह नष्ट हो जाता था । अण्ड' दण्ड और सुवर्णसे निर्मित वह लाल मणि और पन्नोंसे जड़ा हुआ था। शुद्ध स्फटिकमणियों-मूंगोंसे सजा हुआ। राजपुत्रोंने उस पर बड़े-बड़े मणि लगा रखे थे। वह सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे शोभित था। उसका मध्यभाग गज-मोतियोंसे चमक रहा था। उसमें श्रमणोंकी सभा गरुड़के आकारकी बनी हुई थी। उसके चारों ओर इन्द्रनील मणि लगे हुए थे। उसकी श्रेष्ठ पंक्तियाँ ( आवलसार ) गोमेद रत्नोंसे जड़ी हुई थीं। पुष्कर, गवय, गवाक्ष आदि
१. मछली की आकृतिका दण्ड था, जो स्वर्णसे जड़ित और पद्मराग तथा पन्नोंसे जड़ा हुआ था ?
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३६
सिरिवालचरिउ
[ १. ३४.७तार-सुतारहिं घडिउ णियंबिउ सुक्कोदय-मोत्तिय-पडिबिंबिउ । एहउ सहसकूडु जिणमंदिरु गउ सिरिवालु तित्थु जगसुंदरु । 'वज-पाटलागइ सिहवार "वारवाल पुच्छिय सिरिवालई। जो उत्तंग सिहरु गण पुण्णउ सो सव्वंग-वारु किह दिण्णउ । ते जंपहिं पहु ण कुहु उघाडइ जिह पहु किवणहो हियय-कवाडइ । छुत्तु वीर उघाडिउ तुरंतउ दिउ जिणहँ बिंदु विहसंतउ । जयकारिउ जय-जय परमेसर जय सव्वंग-णाह जगणेसर । घत्ता-हरि-णवियउ पुणु हरि-जवियउ हरि-थुइ हरिहि पसंसिउ ।
हरि वंदिउ हरि आणंदिउ इम छह हरिहि णमंसिउ ॥३४।।
जय तासण-णासण सरवेसर जयहि अणाइ आइ परमेसर । जयहि अणाइ आइ वंभीसर जय पसत्थ रयणत्तय आवण जय सामी थक्कउ वसु आवण । तं कहि पहु जहि तुइ आवण तहिंढ्इ लइ जहिं जाइ ण आवण । जय पहु विरमउ चउगइ-रिद्धी जइ लइ थक्कउ सिव-सुह-रिद्धी । जय जय जाह लहय्य-परुप्पउ जय सुजाण जाणिय-परमप्पउ । इम वंदिवि जिणु परमाणंदे जम्मण्हवणु किउ मेरु सुरिदे । घियह दुद्ध-दहि-खंड-पवाहें सव्वोसहि पहाविउ उच्छाहें । आवजिउ सुह-कम्मु थुणेप्पिगु अठ्ठपयार पूज विरएप्पिणु । पुणु णिविट्ठ मझाण समाइय एत्तहि चर रायहरु धाइय । घत्ता-तहि अक्खिउ जं मइ रक्खिउ मण-चिंतिउ संपाइयउ ।
हंसदीव-वर-सामिय णहयल-गामिय रयणमँजूस-वरु आइयउ ॥३५।।
१०
३६
कणयकेउ विज्जाहरु चलियउ पुणु आणंद-भेरि अप्फालिय णिवइ गंपि जिणु दिट्ठ अभंगउ पुणु सिरिवालु भेटिउबहु-करणहिं रयणमँजूस धीय सुह-लक्खण *बहु उछाहुँ णयरहँ पइसंतहँ । रच्छा सोह हिं सिगरि छत्तहिं
कणयमाल घरिणिएँ सहु चलियउ । णिसुणि लोय जिणवंदण चालिय । सोक्खु-मोक्खु-सामी-पहु मग्गिउ । चालु सुहड महु कण्णा परणहिं। तुझु कहिय मुणि वरहि वियक्खण । मंदल-संख-भेरि वायंतहँ । गायण-वायणेहि वच्चंतहिं ।
४. ग वज्ज कवाड लग्ग सिह वारई। ५. ग द्वारपाल पुच्छिय । ६. ग कहि । ७.ग ते जंपहिं कुइ
पहु ण उघाडइ । ३५. १, ग जय भवणासण सव्व सुरेसर । २. ग अणाई णाई वंभेसर। ३. ग वसुहा वण । ४. ग ठइ ।
५. ग प्रतिमें ये पंक्तियाँ अधिक हैं-"जय आवज्जिय चउ सठि रिद्धि। जय तांडिय
कम्माणं रिद्धि ॥" ३६. १. ग सहबंदणु । २. ग सिरिपालुवि भेट्टिवि वहुकरणहिं । ३. ग वहुउच्छह । ४. ग रत्था सोहहिं
सिग्गिरि छत्तहिं । गायण वायणेहिं णच्चतहि ॥
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१. ३६.७] हिन्दी अनुवाद
३७ अनेकों स्वच्छ रत्नोंसे उसकी नीचेकी भूमि जड़ी हुई थी, जो ऐसी लगती थी मानो शुक्रके उदयमें मोती प्रतिबिम्बित हों । यह है वह सहस्रकूट जिनमन्दिर । जगसुन्दर श्रीपाल उसके भीतर गया। उसके सिंहद्वार पर वज्रके दरवाजे लगे हुए थे। श्रीपालने ( द्वारपालसे ) बार-बार पूछा-"जो पुण्यशाली सबसे ऊँचा शिखर है उसके पूरे किवाड बन्द क्यों है ?" द्वारपालने कहा"इसका द्वार अभी तक कोई खोल नहीं सका, उसी प्रकार जिस प्रकार कंजूसके हृदयरूपी किवाड़ कोई नहीं खोल सकता।" तब उस वीरके छूते ही किवाड़ खुल गये। उसने जिन भगवान्के हँसते हुए प्रतिबिम्बको देखा। उसने जयजयकार किया। "हे परमेश्वर, आपकी जय हो । हे जगदीश्वर और सर्वांग स्वामी, आपकी जय हो।"
पत्ता-आपको नारायण नमस्कार करते हैं। इन्द्र जपता है। राम स्तुति करते हैं। श्रीकृष्ण प्रशंसा करते हैं । ब्रह्मा वन्दना करते हैं। विष्णु प्रसन्न होते हैं । इस प्रकार छह हरि आपको नमस्कार करते हैं ॥३४॥
३५
त्रासका नाश करनेवाले हे सर्वेश्वर, आपकी जय हो। हे अनादि और आदि परमेश्वर (आदिनाथ), आपकी जय हो। हे आदिब्रह्म, आपकी जय हो। हे प्रशस्त तीन रत्नोंके आश्रय, आपकी जय हो। हे स्वामी, आपकी जय हो। हे प्रभु, ऐसी बात कहिए जिससे संसारमें आना रुक जाये और वहाँ स्थित हो जाऊँ, जिसे प्राप्त करनेके बाद इस संसारमें आना सम्भव न हो। हे प्रभु, आपकी जय हो । मैं चार गतियोंकी ऋद्धियोंसे विरत हो जाऊँ, जिसे प्राप्त कर मैं शिवसुखकी ऋद्धिमें स्थित हो जाऊँ। हे नाथ, जय, आपकी जय हो। आपने परमपद प्राप्त किया है। हे ज्ञानवान्, आपकी जय हो, आपने परमपद जाना है। इस प्रकार परमानन्दसे जिन भगवान्की वन्दना कर उसने घी, दूध, दहीकी अखण्ड धारा और सब औषधियोंसे उसी प्रकार उत्साहके साथ जिनप्रतिमाका अभिषेक किया, जिस प्रकार इन्द्र सुमेरु पर्वतपर जिन भगवान्का करता है। स्तुति कर उसने शुभ कर्म अर्जित किया। आठ प्रकारकी पूजा कर जब वह बैठा तब दोपहर हो चुकी थी। यहाँ दूत राजाके घर दौड़ा।
पत्ता-दूतने वहाँ जाकर कहा-"जिस बातके लिए आपने मुझे वहाँ पहरेपर रखा था वह मनचाहा व्यक्ति वहाँ आ गया है। हे आकाशगामी, हंसद्वीपके स्वामी, रत्नमंजूषाका वर आ गया है ।॥३५॥
कनककेतु विद्याधर चल पड़ा। उसकी पत्नी कनकमाला भी उसके साथ चली। उसने आनन्दसे डुगडुगी पिटवा दी। लोगो सुनो और जिन वन्दनाके लिए चलो। राजाने अखण्ड जिन भगवान्के दर्शन किये, जो कि सुख और मोक्षके स्वामी एवं प्रभासे परिपूर्ण थे। फिर उसने अपनी समस्त इन्द्रियोंसे श्रीपालसे भेंट की और कहा-“हे प्रभु! मेरी कन्यासे विवाह करो। मेरी बेटी रत्नमंजूषा लक्षण वाली है। विचक्षण मुनिवरने जिसका विवाह तुमसे होना बताया है ।" श्रीपालने बड़े उत्साहके साथ नगरमें प्रवेश किया। नगाड़े, शंख और भेरी-वाद्य बजने लगे। रास्तेमें
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३८
सिरिवालचरिउ
[१.३६.८घरि पेसियउ कियउ संभासणु रयण-विणिम्मिउ दिण्णु वरासणु । पुण सह-वेल लगण परिट्रवियउ हरियवांस तहिं मंडउटठवियउ। चउरी भावरि सत्त दिवाविय रयणमँजूस तासु परिणाविय । गयवर-तुरय दिण्ण असरालई रयणकचोल-सुवण्णइ-थालई। भयउ विवाहु सुक्खु पुरि घरि घरि गउ सिरिवालु लेवि तहि विडहरि । घत्ता-जय मंगल-सहहिं समउ गरिंदहि णं णारायणु लच्छि सहि ।
धवलु सेठि तहि विडहरि गुणगण-मणहरि आयउ लइ सि रिवालु तहिं ॥३६॥
विडहँ मज्झि उच्छहु पयासिउ __ कवडे धवलु सेठि मणि हरसिउ । भोयण-खाण-पाण तंवोलहिँ दिण्ण कपूरइँ कुंकुम-लोलहिं। भणइ वीरु पच्छाण मँजूसहिं पिय महु पिय छइ मालव-देसहि । परम-सणेही मयगासुंदरि । जें णिय रूवें जिणिय पुरंदरि । मयणासुंदरि सरिस महासइ णत्थि तीय णउ हुइ वि होसइ। तहिं उज्जेणि जणणि महारी कुंदप्पह मा सासु तुहारी। तहिं अच्छइ सयसत्तय-राणा अंगरक्ख महुजीव-पराणा।
मूल-थत्ति णिसुणहि खामोयरि अंगदेसु णयरी चंपाउरि । • सयल-समूहु उज्जेणि रहायउ बारह-वरिस अवहि दइ आयउ । धिय जिन पिय परएसह दिण्णी। होसहि राय-भोय-संपुण्णी। भणइ मँजूस मिलिउ वरु चंगउ णेह-महा-भरेण आलिंगिउ । घत्ता-जो कम्मे दिउ मुणिवर-सिट्ठउ सहसकूड-उग्घाडणु ।
सो मइँ लद्धउ पिउ णं संगरि रिउ-रोरविहुरधण-ताडणु ।।३७।।
३८
पुणु चलियई विडइं परमाणंदें गायत' वायत जय-जय-सदें । जलहि मज्झि वोहित्थई पेल्लिय __ वाय-वसेण जति णं रेल्लिय । णाडय-गीय-विणोय-महंत
वणिवारउ सिरिवालु भणंत । पोहणाहि जणु णच्चइ जावहिं धवलु सेठि उम्माहिउ तावहि । देखिवि रयण-मँजूस विदाण उ, भिण्णउ काम-सरेहिं अयाणउ । ताल-विल्लि लग्गइ मणि सल्लइ जिम सरि सुक्कइ मच्छइँ विल्लई। जिह जिह सुंदरि णाड उ णच्चइ' तिह-तिह सेठिहि हियवउ रच्चइ । रयणमॅजूस अलावणि लावइ सेठ्ठिहि णं हियवउ सल्लावइ । जेम मँजूसा विहसइ गावइ सेलिहि मरण-अवत्था दावइ । जिम जिम सुंदरि पिउ आलिंगइ सेलिहिणं सहंतु जरु लग्गइ ।
१०
५. ग हरिहिं वंस तहिं मंडवु रइय । ६. ग चाउरी। ३७.१. ग वीरु इपच्छण। २ ग पिय मह छइ मालव देसहि । ३. ग जिणइ। ५. ग समाणा।
६. ग धीरी पिय परएसह दिण्णी। ७. ख ग कम्मई। ८. क णं सवरि रिउ रोर विहण घणताडणु। ३८.१. ग गायण वायण । २. ग उम्मोहिउ । ३. ग जिम मजूस सरस सर गावइ । ४. ग सेट्टिहि मरण
वत्थ णं दावइ। ५. ख से टिहि णरु महं तुडिवि लग्गइ। ग सेट्टिहि जुरु महिंडणं लग्गइ। ६. ग ह णरइ गउ ।
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१. ३८.१० ]
हिन्दी अनुवाद
३९
पताकाएँ और छत्र शोभित थे । गाने-बजानेके साथ लोग नाच रहे थे । घरमें ले जाकर उससे बातचीत की और रत्न - निर्मित श्रेष्ठ आसन उसे दिया और फिर शुभ मुहूर्तमें लगनकी स्थापना की। हरे बाँसका वहाँ मण्डप बनाया गया और उसे चवरी और सात फेरे दिलाकर रत्नमंजूषाका उससे विवाह कर दिया । उसने बहुत उत्तम हाथी और घोड़े उसे दिये । रत्नके कटोरे और सोनेके थाल दिये । विवाह हो गया और नगरमें घर-घर खुशियाँ मनायी गयीं । श्रीपाल उसे लेकर विडघर पहुँचा ||३६||
घत्ता - श्रीपाल जय-मंगल शब्दों और राजाओंके साथ गुणसुन्दरी रत्नमंजूषाको लेकर जहाँ धवसेठ था उस विडगृहमें ऐसे पहुँचा मानो नारायण और लक्ष्मी हों ||३६||
३७
fasोंके बीच उत्साह फैल गया और धवलसेठ भी कपटसे मनमें प्रसन्न हुआ । उसने उसे खान-पान और पानके साथ केशर मिश्रित कपूर दिया । बादमें श्रीपाल रत्नमंजूषासे कहने लगा"हे प्रिये ! मेरी प्रिया मालव देशमें है, मदनासुन्दरी अत्यन्त स्नेहवाली । उसने अपने रूपसे इन्द्राणीको जीत लिया है । मदनासुन्दरीके समान महासती स्त्री न तो है, न हुई है और न होगी । वहाँ उज्जैन नामकी नगरी है । वहाँ कुन्दप्रभा मेरी माँ और तुम्हारी सास रहती है । वहाँ सात सौ राणा और हैं जो मेरे अंगरक्षक हैं और मेरे जीवन के प्राण । हे कृशोदरी, और भी सुनो । मेरा मूलनिवास अंगदेशमें चम्पापुरी नगरी है लेकिन समस्त समूह उज्जयिनी में रहता है । मैं उन्हें बारह वर्ष की अवधि देकर आया हूँ । जिस तरह हे प्रिये ! तुम मुझ परदेशीको दी गयी हो, तुम भी राज्य-भोगसे परिपूर्ण हो जाओगी । तब रत्नमंजूषाने कहा - "मुझे अच्छा वर मिला ।" और महान् स्नेहसे भरकर उसने उसका आलिंगन कर लिया ।
धत्ता- जो कर्मोंके द्वारा देखा गया और जिसका कथन मुनिवरने किया वह सहस्रकूटका द्वार उद्घाटित हो गया । मैं ने पति पा लिया । मानो युद्धमें शत्रु घोर धन ताड़न सह रहा है (?) ||३७||
३८
फिर विs लोग आनन्दपूर्वक वहाँसे चल पड़े । गाते-बजाते जय-जय शब्द करते हुए । समुद्रके भीतर जहाज चला दिये गये, हवाके झोंकेसे, मानो यन्त्र ही प्रेरित कर दिये गये हों । नाटक, गीत और बड़े-बड़े विनोद वणिक् लोग श्रीपालको बताने लगे । जब लोग जहाजमें नाच रहे थे तब धवलसेठ कामसे उन्मत्त हो उठा । रत्नमंजूषाको देखकर वह विद्रूप हो उठा। वह मूर्ख कामके तीरोंसे विद्ध हो गया । उसका तालु संकुचित हो गया । मनमें शल्य लग गयी । उसी प्रकार जिस प्रकार नदी सूखने से मछली तड़फने लगती हैं जैसे-जैसे सुन्दरी नाटक करती, वैसे-वैसे सेठका हृदय आकृष्ट होता जाता । रत्नमंजूषा आलाप भरती, सेठके हृदयमें कराह उठती । रत्नमंजूषा हँसती और गाती, परन्तु उससे सेठकी मरणावस्था दिखाई देने लगती । वह जैसे ही अपने प्रियका आलिंगन करती वैसे ही उस सेठको बहुत बड़ा ज्वर चढ़ आता ।
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सिरिवालचरिउ
[१. ३८. ११घत्ता-कलमलइ, वलइ करयल मलइ धवलु सेठि कामें लयउ ।
परतिय-आसत्तउ मयणे मत्तउ णर जाणइ इहु णरयगउं ॥३८॥
३९
र
इय' दक्खिवि मंती परियाणिउ सेठि-सरीरु कुचिल्लउ जाणिउ । पुच्छिउ किं णाइक्क अचेयण किं तुव पेट्ट-सूलु सिर-वेयण । किं उम्मउ सणिवाए लइयउ किं तुह अत्थु मंतु कहिं गयउ । भणइ सेठि तुम कहउँ सहारिवि णा मथवाहि हरि णव हारिवि । भणइ हीशु महु मणु आसत्तउ । रयणमँजूस-रूव-संतत्तउ । भणइं ते वि मा करहि अजुत्तउ तुव पुत्तहो केरउ सुकलत्तउ । कामंधउ णउ णरयहो भीयइ कामंधउ परलोय ण ईहइ । घत्ता-कामिहि णउ लज्ज बहिणि ण भज्ज णउ पाविहि सँतु अवसरु ।
धिय बहिणि ण जोवइ पाउ पलोवइ जिम वणयरु कुक्करु खरु ॥३९।।
पुणु कहइ कूड-मंतिहि सहाउ तुम लाखदामु दइहउँ' पसाउ । तुव'गुणु जाणेसउँ हउँ मणेण जिम एह णारि माणउँ सुहेण । ता कहि उ तुम्हि घोसु वि करेहु उच्छलिउ मच्छु जलि वज्जरेहु । ताकिविणु एहु सहँ चढ़ेइ , कट्टहु वरत्तु जिम जले परेइ । ता कियउ कुलाहलु मुक्कदीह 'मरजिया ताहँ मेलइ बिचीह । उच्छलिउ मच्छु वणिवरहँ घोरु किं आवइ इहु असमयहु चोरु । करसउ कवांसु उत्तंगु दीहु सिरिवालु चढिउ देखणे अभीहु । कट्टिय वरत्त ढंढ़तरालि
सो पडियउ वूडिवि गउ पयालि । पणतीसक्खर सुमरंतु मंतु गइयउ णियाणि जिणु जिणु भणंतु । जिम सूरु ण भुल्लइ हथियारु जिणमंत्तु तेम जलि णमोयारु । घत्ता-रिद्धि-विद्धि-वरमंगलु सुहु गुणअग्गलु सुव कलत्त मणु रंजणु । घरि घरि होइ सुसंपइ गणहरु जंपइ विहुर-रोर-दुह-खंडणु ॥४०॥
४१ जिणणामें मयगलु मुवइ दप्पु
केसरि वसि होइ ण डसइ सप्पु । जिणणामें डहइ ण धगधगंतु हुववह-जाला सय पज्जलंतु । जिणणामें जलणिहि देइ थाहु आरण्णि चंडि णवि वहइ वायु । जिणणामें भर-सय-संखलाई तुट्रेवि जंति खणि मोक्कला।
३९. १. ग इउ देक्खिवि मंतिहि परिवाणिउ । सेट्टि सरीरु कुचिट्ठउ जाणिउ । २. ख किं तु अत्थु मंत किथु
गइयउ । ग कि तुव अत्थु दव्वु किछु गईयउ। ३. ग णाहि। ४. क केरो। ५. ग वीहउ । ६.क
कामिणिहि । ७. ग भणिज्ज । ८. ग जाणहिं । ४०.१. ग करिहउं । २. ग मई कहिउ गतु उ जाणिभणेण । ३. ग काटिय वरत । ४. ग पोमदीह । ५. ग
मरजीवा तहिं मेलविय जीह । ६.ग कवंसु । ७. ग वेढहंतरालि ।
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१. ४.४१ ] हिन्दी अनुवाद
४१ घत्ता--वह कलमलाता, मुड़ता और हाथ मलता। धवलसेठ कामसे ग्रस्त हो उठा। दूसरेकी स्त्रीमें आसक्त और कामदेवसे मदोन्मत्त वह नरकगतिको नहीं जानता था ॥३८॥
यह देखकर मन्त्री समझ गया। उसने सेठके शरीरकी कुचेष्टा जान ली। उसने पूछा कि तुम बेहोशकी भाँति क्यों हो? क्या तुम्हारे पेटमें शूल है ? या सिरमें दर्द है, या सन्निपात हो गया है, या कोई तुम्हें जन्तर-मन्तर कर गया है ? सेठ कहता है-"मैं तुम्हें सहारा देनेके लिए कहता हूँ कि ना तो मुझे सिरमें पीड़ा है, मैं न ही व्याधिसे पीड़ित हूँ।" वह हीन कहता है-"मेरा मन आसक्त है । वह रत्नमंजूषाके रूपसे सन्तप्त है।" तब मन्त्रियोंने कहा कि तुम अनुचित काम मत करो। वह तुम्हारे पुत्रकी पत्नी है। कामान्ध व्यक्ति नरकसे नहीं डरता। कामान्ध व्यक्ति परलोक नहीं देखता।
पत्ता-कामीको लज्जा नहीं लगती, चाहे वह बहन हो चाहे भार्या । पापीको केवल अवसर नहीं मिलता। वह बहन-बेटीको नहीं देखता, पाप देखता है। जैसे वनका कुत्ता या गधा ॥३९||
४०
फिर वह कहता है कि हे कूट मन्त्री, तुम्हीं सहायक हो, तुम्हें मैं प्रसादमें एक लाख रुपया दूंगा । मैं तुम्हारे गुणोंको हृदयसे मानूँगा। यदि मैं इस स्त्रीका हृदयसे भोग कर सकूँ। तब उसने कहा कि तुम इस बातकी घोषणा करो कि जलमें मच्छ उछला है। उसे देखनेके लिए यह बाँसपर चढ़ेगा । तुम रस्सी काट देना जिससे यह जलमें गिर पड़े। तब उसने बहुत जोरसे कोलाहल किया। मरजियाने लहरोंके बीच कहा-"वणिग्वरो, बहुत बड़ा मच्छ उछला है। क्या असमयमें चोर आयेगा।" इसपर ऊँचा लम्बा बाँस खींचकर श्रीपाल देखनेके लिए उसपर निडर होकर चढ़ गया । कोलाहलके बीच रस्सी काट दी गयी और वह पानीमें डूबकर पातालमें चला गया। पैंतीस अक्षरके मन्त्रका स्मरण करते हुए अन्तमें वह 'जिन-जिन' कहता हुआ चला गया। जिस प्रकार शूर-वीर अपना हथियार नहीं भूलता उसी प्रकार श्रीपाल जलमें णमोकार मन्त्र
नहीं भूला।
घत्ता-इस मन्त्रसे ऋद्धि-सिद्धि, उत्तम मंगल, शुभ गुणकी शृंखला, सुत, मनरंजन कलत्र और घरमें सुसम्पदा होती है । गौतम गणधर कहते हैं कि यह मन्त्र कठोर रौरव नरकका दुःख नाश करनेवाला है ॥४०॥
४१ 'जिन'के नामसे मतवाला हाथी अपना दर्प छोड़ देता है। सिंह वशमें हो जाता है। सर्प नहीं काटता। 'जिन'के नामसे धक-धक करती हुई आगकी सैकड़ों ज्वालाएँ नहीं जला सकतीं। 'जिन' के नामसे समुद्र अपनी थाह बता देता है । जंगलमें हवा भी प्रचण्डतासे नहीं बहती। 'जिन' के नामसे सैकड़ों बेड़ियाँ टूट जाती हैं और आदमी एक क्षणमें मुक्त हो जाता है। 'जिन' के नामसे
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सिरिवालचरिउ
[१.४२. ५जिणणामें दुरियई खयहु जति परिपुण्ण-मणोरह णिरु हवंति । जिणणामें छिज्जइ मोह-जालु उप्पज्जइ देवहँ सामि-सालु । जिणणामें णासइ सयल वाहि गल-गुम्म-गंड ण वि कोदु ताहि । जिणणामें णउ छलु छिद्दु कोइ डाइणि साइणि जोइणि ण होइ । जिणणामें णासइ रोरु घोरु घर-सत्थ-पंथ मूसइ ण चोरु । जिणणामें ठकु ठाकुरु ण दुठु थावर जंगमु णवि काल-कुछ। जिणणामें फोडी खणि विलाई इकतरउ ताउ तेइयउ जाइ । जिणणामें उच्चाटइ ण कोइ थंभणु मोहणु वसियरणु होइ । जिणणामें दिणि लब्भइ सुहाई सुह सोवत सेजहिं णिसि विहाइ । जिणणामें सज्जण देहिं लीह फणि मुहु गोवहिं दुज्जण दुजीह । घत्ता-जिण-गुण-चारित्तें दिठ-सम्मत्तें दुरिउ असेसु विणासइ। जं जं मणि भावइ तं सुहु पावइ दीणु ण कासु विभासइ ।।४।।
४२ एत्तहिं हाहारउ भउ तुरंतु धवलु वि धायउ कवडें रुवंतु । खामोयरि मेल्लिय दीह धाह हा कहिं गउ हा कहिं गयउ णाह । हा चंपा हिव-सुय सिरियवाल हा कनयकेय हा कणयमाल । हा बंधव चित्त-विचित्त वीर हउँ अच्छमि मरंति समुद्दतीर । धवलेण वुत्तु पुणु भलउ हुउ उच्चरिहु सयल सिरिवालु मुउ । पावियह चित्त-वद्धावणउ
रयणमँजूस रोवइ घणउ । वणिवर वि सयल रोवहिं तुरंत चोरह रक्खे मंजूसकंत । सिरिवालु जवण लग्गंतुखोर ___ता लिंतु परोहण लक्खु चोर । सिरिवालु वि धावतु जवणपुट्ठि को वंधिउ छोडा धवलु सेठ्ठि । घत्ता-णाह णाह विलवंती करुणु रुवंती रयण-मँजूस विहलग्गय । सिरिवालु णरेसरु महि-परमेसरु पई विणु हउँ जीवंती मुय ॥४२॥
४३ करुण-पलाउ करंति समुठ्ठिय कहिं गउ णाह छाडि सा दिठ्ठिय । कहिं गउ णाह णाह कोडीभड कहिं गउ विहडावण-तक्कर-घड । कहिं गउचलण-परोहण-चालण कहिं गउ जीव-दया-प्रतिपालण । कहिं गउ जण-पिय पिय जग-सुंदर सहसकूड-उग्घाडण-मंदिर। "वाविउ मई विण्णविउ सहेसह काहे वप्प दिण्ण परएसहँ । तेण कहिउ जं कहिउ णिमित्तिय सो मई तुझु विहायउ पुत्तिय । सव्वहँ कम्म-विवाउ वि बलियउ मुणिवर-भासिउ होइ ण अलियउ । वाहुडि रयणमँजूसा घोसइ 'सो कहि मयणासुंदरि होसइ ।
४१. १. ग ट्ठाकुरु । २. ग सुहाई । ३. ग सिन्जिहिं । ४२. १. ग हउं अच्छमि मज्झ समुद्दतीर । २. ग सिरिपालु जउ ण लग्गंतु खोर। ३. ग पुट्ठि। ४. ग . छोड़इ । ५. ग से ट्ठि । ४३. १. ख ग कलुणु । २. ग समर सूर विहडावण गय घड। ३. ख ग दयापरिपालण। ४. ख ग पाविउ
मइ विण्णिविउ सहेसहं । ५. ख ग सव्वहं कम्म विवाउ वि वलियउ। ६. ख ग सा।
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१. ४३.८]
हिन्दी अनुवाद एक भी ग्रह पीड़ित नहीं करता। दुर्मति पिशाच भी हट जाता है। 'जिन'के नामसे पाप नष्ट हो जाते हैं और समस्त मनोरथ परिपूर्ण हो जाते हैं। 'जिन'के नामसे मोहजाल क्षीण हो जाता है और आदमी देवताओंका स्वामीश्रेष्ठ होता है। 'जिन'के नामसे समस्त व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। उसे घूमड़ ( फोड़ा), गंडव और कोढ़ नहीं होता। 'जिन'के नामसे कोई छल-माया नहीं होती। डायनी, सायनी और जोगिनी नहीं होती। 'जिन'के नामसे भयंकर ( रोर ) नरक नष्ट हो जाता है। चोर घर और शास्त्र और पन्थको चोर नहीं सकता। 'जिन'के नामसे ठक ठाकुर दुष्ट नहीं हो पाते । स्थावर-जंगम और कालका कष्ट नहीं होता। 'जिन'के नाम फूड़िया एक क्षणमें बिला जाती है। इकतरा ताप और तिजारी चली जाती है। जिनके नामसे कोई उच्चाटन नहीं कर सकता। स्तम्भन, मोहन और वशीकरण भी नहीं होते। 'जिन' के नाम से दिन-प्रतिदिन लाभ होता है और सुखसे सोते हुए दिन-रात बीत जाते हैं। 'जिन'के नामसे सज्जन अपनी लीक दे देता है और सर्पमुख दुर्जन अपनी जिह्वा छिपा लेता है।
पत्ता-'जिन'के गुण, चरित्र और दृढ़ सम्यक्त्वसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । मनमें जोजो इच्छा होती है, वह सुख पाता है । वह किसीसे भी दीन नहीं बोलता ॥४१॥
इधर शीघ्र ही 'हा-हा' की ध्वनि गूंज उठी । धवलसेठ भी तुरन्त कपटपूर्ण दौड़ा। दुबलीपतली देहवाली वह लम्बी साँसें छोड़ रही थी। हे स्वामी, तुम कहाँ गये, तुम कहाँ गये ? हे चम्पानरेशके पुत्र श्रीपाल, हे कनककेतु, हे कनकमाला, हे भाई चित्र और विचित्र वीर ! मैं यहाँ हूँ और समुद्रके किनारे मर रही हूँ। धवलसेठने कहा- "चलो अच्छा हुआ।" सबने कहा कि श्रीपाल मर गया। उस पापीका हृदय बधाइयोंसे भर गया, जबकि रत्नमंजूषा खूब रो रही थी। सभी वणिकपुत्र रो पड़े । ( यह कहते हुए ) कि रत्नमंजूषाके पतिने चोरोंसे बचाया। श्रीपाल यवनोंके पीछे लगा, नहीं तो लाखचोर जहाज छीन लेते। परन्तु श्रीपाल उसके पीछे-पीछे दौड़ा। धवलसेठको बन्धनसे किसने छुड़ाया ?
पत्ता-हे नाथ ! हे नाथ !!'' यह कहती हुई, करुणापूर्वक रोती हुई रत्नमंजूषा विलाप कर उठी । "धरतीके स्वामी, हे श्रीपाल, तुम्हारे बिना जीते हुए भी मैं मरी हुई हूँ" ॥४२।।।
इस प्रकार करुण विलाप करती हुई वह उठी और बोली-“हे स्वामी, वह दृष्टि छोड़कर तुम कहाँ चले गये ? चोर-समूहका नाश करनेवाले तुम कहाँ चले गये ? अपने पाँवसे जहाज चलानेवाले तुम कहाँ गये? हे लोगोंके और विश्वके प्रिय, तुम कहां चले गये ? सहस्रकूट मन्दिरका उद्घाटन करनेवाले तुम कहाँ चले गये ? जो कुछ मैं ने बोया है, खिन्न मैं उसे सहूँगी। लेकिन पिताने परदेशीसे मेरा विवाह क्यों किया?" उन्होंने कहा था, "किसी नैमित्तिकने बताया था उसीके अनुसार मैंने तुम्हारा विवाह किया था। हे पुत्री, सबका कर्मसे विवाह बलवान होता है।" मुनिवरका कहा कभी असत्य नहीं हो सकता। फिर रत्नमंजूषाने कहा कि मदनासुन्दरीका क्या होगा ? जो राजा प्रजापालकी बेटी है और गुणोंसे परिपूर्ण है, जिसे उसके प्रियने बारह बरस
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सिरिवालचरिउ
[१.४३.९जा पयपाल-धीय गुण-पुण्णिय वारहवरिस-अवहि पिय दिण्णिय । कहिं होसइ कुंदप्पह मायरि को लेसइ णयरी चंपाउरि । अंग-रक्ख ते को रक्खेसइ
को तहिं अंगदेसि जाएसइ। को पिय सावय-वउ स्वएसई सिद्ध-चक्क-वउ कवण करेसह। इम विलवंति वि वारइ सहियणु अवसें दिण्ण जो संचिउ रिणु । अंतराय कम्मु इहु जोयहि संभरिवि वहिणि मा कंद हि रोवहि । घत्ता-कारुण्णु णिवारइ हियउ सहारहि पाणिय अंजुलि देहि तहो।
सिरिवालु अतीत उ गयउ जु वीतउ रयणमँजूसा रुवहि कहो ।।४३।।
लोयायरहँ' कुणहि पलोवणु करि भोयणु सइ पहाणु विलेवणु । खाणह-पाण-विलेवण मायई 'महाएवि सिरिवालहो आयई। अच्छइ एम महासइ जावहिं दूई सेठ्ठि पठाई तावहिं। भणइ दूइ सिरिवालु म जोवहि धवल सेट्ठि सामिउ अवलोयहि । णिसुणि मणिउ हे दूइ णिक्किठ्ठिय अम्हह ससुरु होइ पाविठ्यि । जुत्ताजुत्त ण जाणइ कामिउ सुण्ह बहिणि सेवइ णिण्णामिउ । बलिवंडइ किर आइ बुलावइ पाइ लागि कर जोडि मणावइ । रयण-मँजूस भणइ विहडप्फड ओसरु रे ओसरु तिय-लंपड । पापिय काल-मुखी कुल-भंडिय पइँ णिय-माइ-बहिणि किम छंडिय । हउँ जाणउँ ससुरउ वावुहरु अव तूरे कूकरु खरु सूवरु। अहो जल-देवय तुम्ह णिरिक्खहु इहि पापियहि पास मोहि रक्खहु । घत्ता-बहु-दुक्ख णिरंतर अण्ण-भवंतर कासु कीय भो णाह मई।
परलाउ करंतहँ एम रुवंतहँ जल-देवि-गणु आउ सई ॥४४॥
४५ माणिभदु सायरु हल्लोलिउ पोहणु धरि अहमुहु चम्बोडिउ । चक्केसरिय चक्कु जिम फेरिउ वणि आउलिय परंपरि बोलिउँ । हरिसंदण अंबाइय आइय
कुक्कुड सप्प रहहँ पोमाइय । खेत्तपालु सुणहा चढ़ि धायउ धवल-सेठि-मुह लूहडु लायउ । धूमायारु कियउ तव रोहिणि अग्गि पजाली जाला-मालिणि । रयणमँजूस-सील-गुण-से विहिं वणिवर तासे सासण-देविहिं। वितरिद गरुडासणि आयउ । दह-मुह-णामिउ गहु सइ मायउ ।
आइवि धवलु सेठि तहिं साधिउ णिविडबंध पाछे करि वाँधिउ । उद्ध पयइं अह सिरु करि चालिउ पुणु अमेहु पापी-मुह घालि 3 । एवमाइ वहु-दुक्खु सहतउ रक्खहु रक्खहु एम भणंतउ ।
७. ख ग पालेसइ। ८. ग दिण्ण उं । ख देवउं ४४. १. ख लोयाचारुहु । ग लोयाचारु वि । २. ख ग इय पवित्ति सिरिपालुहु आपई। ३. ग जुत्तु अजुत्तु ।
४. ग सुण्ह । ५. ग पाविय । ६. ख पापी काला सुह । ग 'कालय मुह' । ७. ग कुक्करु । ८. ग तहिं । ४५. १. ग पोहणु धरि करिउ मुहं चमोलिउ। २. ग फेरिउ । ३. ग हरिदंसण । ४. ग खेत्तपालु सुणह है
रह धायउ । ख खेत्तपालु सुणहा रह धायउ । ५. ग लुहलु । ६. ग पंज्जालिय । ७. ग सेट्रि।
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१. ४५. १०] हिन्दी अनुवाद
४५ की अवधि दी है। माता कुन्दप्रभाका क्या होगा? चम्पापुर नगरीको कौन लेगा? उन अंगरक्षकों ( सात सौ ) की कौन रक्षा करेगा? इस प्रकार विलाप करते हुए उसे सखीजनोंने समझाया कि जो ऋण संचित किया है, उसे देना ही होगा। इसे कर्मोका अन्तराय समझना चाहिए। हे बहन, अपनेको सँभालो, चिल्लाओ और रोओ मत।
पत्ता-करुणा छोड़ो, हृदयको ढाढ़स दो। उन्होंने उसे अंजुलीमें पानी दिया। श्रीपाल अब 'अतीत' हो चुका है । जो गया, वह जा चुका है। हे रत्नमंजूषा, अब क्यों रोती हो ? ॥४३।।
तुम लोकाचारको देखो, भोजन करो, स्वयं स्नान विलेपन करो। हे आदरणीये, भोजन पान भी लो। हे महादेवी, श्रीपाल आयेगा। इस प्रकार वह महासती किसी प्रकार रह रही थी कि इतने में सेठने अपनी दूती भेजी। दूतीने आकर कहा कि तुम श्रीपालकी बाट मत जोहो । स्वामी धवलसेठकी ओर देखो। यह सुनकर उसने कहा-'हे नीच दूती, वह पापी हमारा ससुर होता है। कामी पुरुष उचित-अनुचितका विचार नहीं करता। निर्नाम वह, बहू और बहनका सेवन करता है। वह धूर्त बलपूर्वक उसे बुलाता है। उसके पैर पड़कर और हाथ जोड़कर उसे मनाता है। विह्वल रत्नमंजूषा उससे कहती है-हे स्त्रीलम्पट, दूर हट, दूर हट। ओ कुलनाशक कालमुखी पापी, तूने अपनी माँ-बहन किस प्रकार छोड़ दी। मैंने तुझे अपना ससुर और बाप समझा था। अब तू कुत्ता, गधा और सुअर है । ओ जलदेवताओ, अब तुम देखो, मुझे इस पापीके मोहपाशसे बचाओ।"
घत्ता- "हे स्वामी, दूसरे जन्ममें मैंने ऐसा क्या किया जो जन्मान्तरमें मुझे निरन्तर दुःख झेलने पड़ रहे हैं।" परलोक मनाती हुई वह रो रही थी। उसके इस प्रकार रोनेपर जलदेवताओंका समूह स्वयं आया ॥४४॥
४९
माणिभद्रने समुद्रको हिला दिया । जहाजको पकड़कर उलटा कर दिया। चक्रेश्वरी देवीने जैसे ही अपना चक्र चलाया, वणिक् व्याकुल होकर एक-दूसरेसे कहने लगे-अश्वोंके रथपर अम्बा देवी आयो । मुर्गों और साँपोंके रथपर पद्मादेवी आयी। क्षेत्रपाल कुत्तेकी सवारी करके आये। उन्होंने धवलसेठके मुखपर लूघर ( जलती हुई लकड़ी ) मारा। रोहिणीने सब ओर धुआँ फैला दिया। ज्वालामालिनीने सब दूर अग्नि ज्वाला प्रज्वलित कर दी। रत्नमंजूषाके शील गुणकी सेवा करनेवाली शासनदेवियोंने धवलसेठको खूब उत्पीडित किया । तब व्यन्तरेन्द्र अपने गरुड़ आसनपर आया। उसने दसमुखको झुका दिया और स्वयं आया। आकर उसने धवलसेठको वहाँ साधा। खूब मजबूतीसे कसकर उसके हाथ पीछे बाँध दिये। सिर नीचे और पैर ऊपर कर उसे चलाया गया और 'अमेह' चीज उस पापीके मुँहमें डाल दी। इस प्रकार बहुतसे दुःखोंको सहन करनेके
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सिरिवालचरिउ
[ १. ४५ ११वणिवर भणहिं ठेंदु णिसारहो' इहु पाविठ्ठहो दुठ्ठहो जारहो। गय उवसग्ग करेविणु बिंतर वणिवर सिक्खा देवि णिरंतर । रयणमँजूसहि गय मण्णाइवि तुव सिरिवालु मिलइ गउ आइवि । ता" एत्तहिं जल-जाण पयहि दीव दीव टापू संघट्टहिं । णिसुणहु अण्णकहा संचलिय "सायर-वीर जहिं उच्छलिय। घत्ता-रयणायरि पडियउ कम्में णडियउ रयणमँजूसा-बल्लहउ ।
सयल वि सुर हल्लिय करुणे बुल्लिय गउ सिरिवालु बि दुल्लहउ ।।४५||
ता सिरिवालु वीरु तहिं झावई' जिणवर-सिद्ध-सूरि मणि भावइ । जल-कल्लोल-लहरि आसंघइ करणदेवि जल-भवणइँ संघइ। मयर-गोह-घडियाल वलावइ कच्छ'-मच्छ-जलमाणुस णावइ । सुंसुमार जलकरिणउं थक्कहि वडवानलँ-तंतु ण तहि संकहि । गउ पयालु उच्छलिउ महावलु जिह जल-मज्झे मुक्कु तुंबी-फलु । भुव-बलेण सायरु संभरियउ पुण्णे कठु-खंडु करि धरियउ । हत्थे जलहि तरंतु समागउ सिरिवालु वि दलवट्टण लग्गउ । जो अरि-राय माणदल-वट्टणु दीउ दिछु पाटणु दलवट्टणु । तहिं धणवालु णिवइ धर-वाल उ धणय-जक्ख णावइ धणवालउ । पट्टम हिसि णामें वणमाला ललिय-भुवहि णं मालइ-माला । तिण्णि पुत्त तहि पढमु मणोहरु पुणु सुकंतु सिरिकंठु मणोहरु । कहि उवमिज्जइ ते णरवइ सुरु अहि णिसु पढहिँ गाइ पव्वय सुय । पुणु तहि दुहिय ह गुणमाला णं विहि विहिय णेह-गुण-माला । रूव-छंद-लायण्णहिं सोहाइ । कला-बहत्तरि सहु जणु मोहइ । ताह कज्जि पुच्छिउ मुणिराएं को वरु सो अक्खहु अणुराएं। लडह बियक्खण कण्ण कुमारी णं जुवाण-जण-रइय-कुमारी। "सील-विवेय-णाह अइ-भल्ली ''जा कामियण-उरत्थल-सल्ली। मुणि उत्तउ जु तरइ जलु पाणिहिं वसइ गरिंद-गेहे तहे पाणिहिं । एम पयासिउ जइवइ जाणिहिँ छलु दइ णिउ गउ चढ़ि जाणिहिं । । घत्ता-आय उ कर तरंतु सो सायरु पेक्विवि मोहिय किंकरा ।
__ सलहहिं इहु वरवीरु पुग्ण चड़िउ णिव-सुव-करा ॥४६॥
८. ग णीसारह । ९. ग देहि । १०. ग ता एतूहिं । ११. ग सायर वीर तहा उछलियउ । ४६. १. ग मायइ। २. ग किरणदेवि । ३. ग मच्छ कच्छ । ४. ख ग वडवानल तरुण
५. ग कटू-खंड । ६. ग माण । ७. ग णामइं। ८. ग णेयगणमाला । ९. ग प्रतिमें यह पंक्ति नहीं है। १० ग सील विवेय णाई अइमारी। ११. गजा कामियण-उरत्थल भल्लो । ख सा परणेवी केण सुहिल्ली। १२. ग आयउ कर तरंत सो सायरु मोहिय देक्खि किंकरा । सयलहं पीरमज्झि वीराहिउ पुण्णहिं चडिउ सुवकरा॥
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४७
१.४६. २१ ]
हिन्दी अनुवाद बाद वह चिल्लाया कि मुझे बचाओ। वणिग्वर भी बोले कि इस नीचको निकालो। इस पापी नीच और दुष्टाचारवालेको। व्यन्तर देवता इस प्रकार उपसर्ग करके चले गये। उन्होंने लगातार उस वणिग्वरको शिक्षा दी। वे रत्नमंजूषाको भी समझाकर चली गयीं कि तुम्हारा श्रीपाल आकर मिलेगा। इसके बाद जलयान चल पड़े तथा वे दूसरे द्वीपों और टापुओंसे जा लगे। अब सुनिए कथा वहाँकी जहाँ श्रीपाल उछला था।
घत्ता-कर्मसे नचाया गया, रत्नमंजूषाका प्रिय समुद्रमें गिर गया। सभी शोकमें पड़ गये। करुणासे भरकर बोले-“अब श्रीपाल दुर्लभ हो गया" ।।४५।।
४६
श्रीपाल वहाँ ध्यानमें लीन हो गया। जिणवर सिद्ध साधुका वह मनमें ध्यान करने लगा। जलसमूहकी लहरें आकर उससे टकराने लगीं। करुणदेवी अपने जलभवनमें बोलने लगी । मगर, गोह और घड़ियाल भी चिल्ला उठे। कच्छ, मच्छ और जलमनुष्य ज्ञात होने लगे। सुंसुमार और जलहाथी भी चुप नहीं बैठे। बडवानलकी ज्वालाओंसे भी वह डरा नहीं। वह महाबली उछलकर पाताल लोकमें चला गया। उसी प्रकार जिस प्रकार मुक्त तुम्बीफल जलके भीतर। अपने बाहुबलसे वह समुद्रका सन्तरण करने लगा। पुण्यसे उसे काठका एक टुकड़ा मिल गया। हाथसे समुद्रको तैरता हुआ आया और दलवट्टण नगरके किनारे जा लगा। जो शत्रु राजाओंके मनका दमन करने वाला था। उसने पाटनद्वीपमें दलवट्टण नगर देखा। वहाँ राजा धनपाल धरतीका पालन करता था। उसे धनद और यक्ष नमस्कार करते थे। उसकी पट्टरानीका नाम वनमाला था। अपनी कोमल भुजाओंसे वह मालतीकी माला थी। उसके पहले तीन सुन्दर पुत्र थे, कण्ठ, सुकण्ठ और श्रीकण्ठ। नरपतिके उन पुत्रोंकी उपमा किससे दी जाये ? पर्वतकके सुतकी तरह वे दिन-रात पढ़ते । उसकी एक पुत्री थी, जो स्नेहकी गुणमाला थी। मानो विधाताने स्नेहगुणमालाका निर्माण किया हो। वह अपने रूप और उन्मुक्त सौन्दर्यसे शोभित थी। बहत्तर कलाओंसे सब मनुष्योंको मोहित करती थी। राजाने उसके विवाहके लिए मुनिराजसे पूछा कि प्रेमसे बताइए कौन वर होगा ? यह कुमारी कन्या लड़कियोंमें विलक्षण है। मानो यह युवाजनोंके लिए रति है। शील और विवेकशालियोंमें यह अत्यन्त भली है। जो कामीजनोंके उरके लिए शल्य है। तब मुनिने कहा-"जो हाथोंसे जल तैरकर आयेगा, हे राजन् ! यह उसके हाथोंके घरमें रहेगी।" ज्ञानी मुनिवरने यह प्रकाशित किया । बहाना बनाकर राजा यानपर चढ़कर घर गया।
पत्ता-वह समुद्रके तटपर आया, उसे देखकर अनुचर भौंचक्के रह गये। उनसे उसने सलाह की कि यही वरवीर है । पुण्यसे ही यह राजपुत्र हाथ चढ़ा है ॥४६॥
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४
सिरिवाल चरिउ
[ १. ४७.१
चरपुरिसहिँ रायहो संसिठ्ठा देव णिमित्तिएहिं जं दिउ । सो वरु आयउ णाह गरिठ्ठउ तरि जलणिहि वड-छाहि बइठउ । छायातणु छाडिवि ण गच्छइ जहिं णिविट्ठ तहिं अजवि अच्छइ । ता णरिंदु मइ रहसो सुम्माइउ अवहीसरहिँ कहिउ सो आयउ । ता णरवइ सइँ सम्मुहुँ आयउ णयरिमाहँ उच्छाहु करायउ। रच्छा सोहई मंगलु गिज्जइ भट्टहिँ विरदावलीय पढिज्जइ । इयउच्छाहें णयरि पवेसिउ सिरिवालु वि राएं संतोसिउ । सुह-वेलग्गहे गुणमाल-सुय सिरवालहो दिण्णी मुसलभुय । घत्ता-जा पुव्व-भवंतरि सुक्ख-णिरंतरि सिद्ध-चक्क-विहि जे विहिय ।
ते वयहँ पहावें मण-अणुराएँ गुणमाला सुंदरि लहिय ॥४७॥
इय सिद्ध कहाए महारायसिरिवाल-मयणासुंदरि-देविचरिए, पंडितणरसेण-देवविरइए इह-लोय-परलोय-सुहफल कराए रोर-दुह-घोर-कोढ-वाहि-भवाणुभवणासणाए मयणासुंदरि-रयणमंजूसा-गुणमाला-विवाह
लंभो णाम पढमो परिच्छेउ सम्मत्तो ॥१॥
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१. ४७.९]
हिन्दी अनुवाद
चर पुरुषोंने राजासे कहा कि हे देव, नैमित्तिकोंने जो बताया था वह आ गया है, वरश्रेष्ठ । समुद्र तटपर वह वटवृक्षकी छायामें बैठा है। छाया उसे छोड़कर नहीं जा रही है। वहाँ जहाँ बैठा था वह, अभी वहीं है। तब राजाकी बुद्धि हर्षसे भर उठी कि अवधीश्वरने जो कहा था, वह बात पूरी हुई। राजा स्वयं सामने आया। नगरीके भीतर उसने उत्साह करवाया। रास्ते में शोभनाओंने मंगल गीत गाये। भाटोंने यशकी प्रशस्तियोंका गान किया। इस प्रकार उत्साहपूर्वक नगरमें उसे प्रवेश दिया गया। राजाने श्रीपालको सन्तुष्ट कर दिया। शुभ वेला और लगनमें मूसलके समान भुजाओंवाली । गुणमाला कन्या श्रीपालको दे दी गयी।
घत्ता-सुखोंसे परिपूर्ण अपने जन्मान्तरमें उसने जो सुखोंसे परिपूर्ण सिद्ध चक्र विधि सम्पन्न की थी, उसी ब्रतके प्रभावसे मनको अनुरक्त करनेवाली सुन्दरी गुणमाला उसने प्राप्त की ॥४७॥
सिद्ध कथामें महाराज श्रीपाल और मदनासुन्दरी देवीके चरितमें पण्डित श्री नरसेन द्वारा विरचित, इस लोक और परलोकमें शुभ फल देनेवाला, भयंकर दुःख और कोड़ __ व्याधि तथा जन्म-जन्मान्तरोंका नाश करनेवाला मदनासुन्दरी, रत्नमंजूषा
और गुणमालाके विवाहवाला पहला परिच्छेद समाप्त हुआ।
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५
१०
१५
。N
सन्धि २.
१
पुणु अक्खमि भव्व' गंजणु भउ सिरिपाल जह आपसे दुट्ठ-पवंचु कहूं ।
पुणु जामायउ रारं वृत्त उ देव ण मग्गमि कहमि समासह करइ रज्जु सिरिवालु सइच्छइ तह कहा पट्ठत्तहि सच्चई सील-पइज्ज महासिरि "णिय-पइ मेल्लि अण्णु जउ मोहिय धवलु सेट्ठि तर करइ पयट्टणु पाविउ आइ दीव तहिं लग्गइ दि राउ धवलेण वेष्पिणु भराउ को इहु कोसुंमिउ राउ चवइ सिरिवाल समप्पइ 'भरिय तमोल - कपूर- सुपाडिय जइ पावि देखइ सिरिवालह पुणु थिर- दिट्ठि करे विणु झाइय कवणु एहु आयउ कहिँ होंतउ केवि कहिय राय - जमायउ धत्ता - तहि सेठि पराय इहु छइ सिरिवा
किमंतु स कूड अयाण अक्खि तहँ तुम्हीँ करहु चचु तुम्ह कहु म सिरिवाल पुतु तं सुणिवि पहुत्त रायवार अवलोइय डोमहिं राय- सहा आरंभिउ णव - रस- देक्खणउ
जं मग्गहि तं देमि णिरुत्तउ । दिन दस पंच अछमि तुव पासहँ । गुणमाला भामिणिहु सुच्छइ । मँजूस महासइ जेत्तहि । णं सास- देवी परमेसरि । तउ हुउँ देव-सत्थ-गुरु- दोहिय । कहा- संजोउ आउ दलवट्टणु । रायहो पासि चलिउ लग्गइ । मुत्ताहलइँ णवल्लइँ लेप्पिणु कहइ सेट्ठि हउँ धवलु सधम्मिर । थवई माडु वीड इह अप्पर सोवण पासि सेकिहुं झाडिय । तर जणु हयउ सी वजतालहुँ । तर सणिवाय-लहरि जणु आइय । पुच्छर सेट्ठि 'हियएँ पजलंतर ।
सिरिवालु वि सायरु तिरि आयउ । विडहरि आयउ वइसिवि मंतिहि अक्खियउ । महु खयकालु रायकुंवरि परिणिवि थि ||१||
२
कोकविय डोम - मातंग-पाण | रायंगणइ खेलहु पवंचु । तर लक्खु दामु दइहउँ णिरुत्तु । भीतर गय पुच्छिवि पाडिहार । जणु इठ गण-गंधव्व - सहा । उहास उडिच्छल-हय- पेक्खणउ |
१. १. ख ग भव्व । २. ख ग उत्तउ । ३ ख ग सच्छइ । ४. क सच्च सील-पड़जा रुरूढा सिरि । ५. खग णिय पय । ६. ग में निम्नलिखित पंक्ति अधिक है। " एतहि तत्थ परोहण लग्गउ ।" ७. ग थइय
as तमो वियई । ख धवइ वालु वीडउ इह अप्पई । ८. ग भरिय तमोल - कपूरसुखाडिय । सोवण उप सेट्ठि कहु झाडिय । ९. ख हियइ ।
२. १. ग णच्चु । २ ख ते सुणिवि पहुत्तउ रायाहि राय । ३. ग हंसावलि छिलहट पेक्खणउ ।
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दूसरी सन्धि
हे भव्यजनो, अब मैं कहता हूँ कि श्रीपालका गंजन किस प्रकार हुआ। सेठकी दुष्ट प्रवंचना कथा भी सुनिए। राजाने अपने दामादसे कहा कि तुम जो माँगोगे वह मैं तुम्हें निश्चयसे दूंगा। ( उसने कहा )-'हे देव, मैं कुछ नहीं माँगूंगा। संक्षेपमें अपनी बात कहता हूँ कि मैं दस-पाँच दिन आपके पास हूँ।" इस प्रकार श्रीपाल स्वच्छन्दतापूर्वक राज्य करने लगा। गुणमाला पत्नीके साथ सुखसे रहता था। इसी बीच कथा वहाँ पहुँचती है जहाँ कि महासती रत्नमंजूषा थी। सत्य और शीलकी अपनी प्रतिज्ञापर आरूढ़ वह मानो साक्षात् परमेश्वरी शासन देवी हो। ( उसने कहा )-"यदि मैं अपने पतिको छोड़कर किसी दूसरेके प्रति मुग्ध होऊँ, तो मैं देव, शास्त्र और गुरुके प्रति विद्रोही बनूँ।" धवलसेठ वहाँसे कूच करता है और कथाका संयोग दलवट्टण नगर आ जाता है। वह पापी भी इसी द्वीपमें आ पहँचता है और मिलनेके लिए राजाके पास जाता है। नये-नये मोती लेकर और प्रणामकर धवलसेठने राजासे भेंट की। राजाने पूछा-"इनमें कोई कोशाम्बीका है ?" सेठने उत्तर दिया-"मैं हूँ, आपका साधर्मी जन ।" राजा तब कहता है"इन्हें ( उपहारोंको ) श्रीपालके लिए सौंप दो। श्रीपाल ! इसे पानका बीड़ा दो।" उसने कपूर, पान और ( सुपाडिय ) सुपाड़ी स्वर्णपात्रमें रखकर सेठके पास रख दी। उस पापीने जैसे ही श्रीपालको देखा, वैसे ही मानो उसके सिर पर वज्र गिर गया। फिर जब उसने अपनी दृष्टि स्थिर करके सोचा तो उसे जैसे सन्निपात की लहर मार गयी। हृदयमें जलते हुए सेठने पूछा-"यह कौन है और कहाँसे आया है ?' तब किसीने कहा-यह राजाका दामाद है। श्रीपाल, जो समुद्र तैरकर आया है।
घत्ता-तब सेठ वहाँसे चला और अपने डेरेमें आया। बैठकर मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करने लगा। उसने कहा-'मेरा क्षयकाल श्रीपाल तो यहाँ है। वह यहाँ की राजकुमारीसे विवाह करके रह रहा है" ॥१॥
उस मूर्ख ( सेठ ) ने सब प्रकार कूट मन्त्रणा की और उसने डोम, चाण्डाल आदिको बुलवाया । उनसे कहा-"तुम नृत्य करो, राजाके दरबारमें जाकर छल करो। तुम कहना कि श्रीपाल मेरा पुत्र है। मैं तुम्हें निश्चय ही एक लाख रुपया दूंगा।" यह सुनकर वे राजाधिराजके पास पहुँचे । भीतर जाकर उन्होंने प्रतिहारियोंसे पूछा। डोमोंने भीतर जाकर राजसभा देखी मानो साक्षात् गन्धर्वसभा ही बैठी हो। उन्होंने नवरसका प्रेक्षण प्रारम्भ किया। हास्य और छलसे
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सिरिवालचरिउ
[२. २.७पुणु इंदजालु आरंभियउ णाडय-पेक्खणु-जणु विभियउ । तंडव-ल्हासहिं जणु खोहियउ भँवरियाचरणहि उम्मोहियउ। भूमी-पोमासणु णडिउ ताहिँ सुर-पर-खेयर मोहियउ जाहिं । ता तुट्ठउ णरवइ किं करेइ
आहरण-वत्थ सव्वहँ मि देइ । सिरिवालु आउ तंमोलु लेइ पुणु कोडि-दाम सव्वह मि देइ। एत्तहि आयउ सिरिवालु जाम आलिगिवि एकहिं लयउ ताम | घत्ता-धाइय सह-भंडिवि णाडउ छंडिवि वायस जिम वायसु मिलहि ।
किंवि पुच्छहि पच्छहि किं वि तहि मुच्छहि रोवहि कूवारउ करहि ।।२।।
चिरु जीवहु पई धणवाल तुम्ह जिह दिण्णी णंदण भिक्ख अम्ह । हम जाति-डोम-चंडाल देव' । खजइ अखज्जु पिज्जइ अपेव। हम्मारउ णरवइ कवणु चोज्जु धोवी-चमार-घर करहिं भोज्जु । खर-कूकर-सूवर गसहि मासु हम डोम-भाड कहियहि कणासु। सो भणइ मज्झुरो छडउ पुत्तु णातियउ एक्कु थेरेहिं उत्तु । डोमिणिय एक्क अक्खिउ अजुत्तु यहु मज्झु देव पुत्तियहँ पुत्तु ।। अण्णेक्कु भणइ इहु मज्झु भाइ एक्केण वि कहियउ धीय-जाइ । मायंगि एक्क कहियउ कणि/ एको वि थिट्ट पभणेइ जेठु। मायंगि एक्क पभणेइ एउ
एउ जि लहाइ मई जण्णदेउ । 'कलि करि भोयण लगि अम्हहूसि इहु पडिउ समुद्दहँ देव रूसि । घत्ता-ता णरवइ कुद्धउ, भणइ विरुद्धउ गहहु कहिउ तलवरहँ सिउ ।
मारहु चंडालु डोम-विटालु अम्हहँ सह मंडिवि कियउ ॥३॥
५
तलवरेहिं सिरिवालु वि बद्धउ को मेटइ जो पुव्व-णिबद्धउ । णयरि मज्झि हाहारउ जायउ कवणु दोसु सिरिवाल हि आयउ । अंतेउरु धाहहिं आरडियर
पिय-विच्छोहु गुणमालहि पडियउ । धाइउ धाइ उरहि पिटुंती
जहिं गुणमाल तिलउ साजंती । वस्तुबंध- काइँ सुंदरि करहि सिंगारु मुह-मंडणु किं करहि ।
काइँ णयण अंजण हिं अंजहि आलावणि किं आलवहि ।। सिरिवालु णिग्गहणे लिज्जइ छंडि तमोल वि आहरण छंडवि हार सुतार |
हंस-गमणि गुणमाल उठि करहि कंतकी सार कलमलिय कुँवरि वयणेण सिरिवाल-पास गय तक्खणेण । कर जोडिवि बोलइ तहो घरिणी पइँ तीए जुत्तउ णवतरुणी। तुहुँ णाह वियक्खणु कोडिभडु तुह पुरउ ण कोवि अण्णु सुहडु। पहु कवण जाइ णिव कह हि कुलु सिरिवालु भणइ इहु महु सयलु । गुणमाल लवइ अप्पउ हणउं पहु सच्चु पयासहि सुह-जणउ ।
३. १. ग देउ । २. ग अपेउ । ३. ग कण्णास । ४. ग इक्के वि। ५. ग रजलियाहु इमइ जणिय देव । ६.
भोयण लग्गि विण्णि वि कलह रूसि ।
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२. ४. १३ ]
हिन्दी अनुवाद
५३
।
भरपूर प्रदर्शन प्रारम्भ किया और तब इन्द्रजाल । नाटकके देखने से लोग आश्चर्यमें पड़ गये । वे ताण्डव और लास्यसे क्षुब्ध हो उठे भँवरिया के प्रदर्शनसे सब उन्मद हो उठे । उन्होंने भूमी पद्मासनका नाट्य किया । उसपर सुर, नर और विद्याधर मुग्ध थे । तब राजाने सन्तुष्ट होकर सभीको आभरण और वस्त्र दिये । श्रीपाल पान लेकर आया और वह सबको पान देने लगा । जैसे ही श्रीपाल इधर आया कि एकने आलिंगन करके उसे उठा लिया ।
घत्ता - नाटक छोड़कर सभी भाँड़ दौड़े। जिस प्रकार कौए कौओंसे मिलते हैं उसी प्रकार वे एक-दूसरे से मिले और बादमें कुछ पूछने लगे। तुम क्यों मूच्छित होते हो और विलाप करके क्यों रोते हो ? ||२||
३
धनपाल, तुम चिरकाल तक जीवित रहो । जिस प्रकार तुम लोगोंने मुझे पुत्रकी भीख । हे देव, हम जातिसे डोम और चमार हैं, हम अखाद्य खाते हैं और अपेय पीते हैं । हे नरपति, हम लोगों का कौन-सा शौक ? धोबी और चमारोंके घर हम भोजन करते हैं । गधा, कुत्ता और सुअरका मांस खाते हैं । हम डोम भाँड़ और अन्नकण खानेवाले हैं। वह कहता है हम भाँड़ समझे जाते हैं । एक कहता है कि यह मेरा मझला बेटा है । एक और कहता है कि यह मेरा भाई है । एकने कहा यह मेरी कन्यासे जन्मा है । एक डोमने कहा यह मेरा छोटा भाई है । एक और ढीठने कहा कि यह मेरा बड़ा भाई है । एक चाण्डाली कहती है कि यह हमें जन्नदेव की कृपासे मिला है । एक दिन भोजन के लिए झगड़ा करके यह गया । हे देव, यह रूठकर समुद्रमें जा पड़ा।
घत्ता - यह सुनकर राजा क्रुद्ध हो गया । एकदम विरुद्ध होकर राजाने तलवरसे कहा-इसे पकड़ो। इस चण्डाल और नीच डोमको मार डालो। इसने हमारे गोत्रमें दाग लगाया है || ३ ||
४
तलवरने श्रीपालको बाँध लिया । जो पूर्वजन्ममें लिखा जा चुका है, उसे कौन मेट सकता है । नगर के मध्य हाहाकार होने लगा कि आखिर श्रीपालका दोष क्या है ? विलाप करता हुआ अन्तःपुर रो उठा कि गुणमालाको प्रियका विछोह हो गया । अपना उर पीटती हुई धाय दौड़ती हुई वहाँ पहुँची, जहाँपर गुणमाला तिलक लगा रही थी ।
वस्तुबन्ध—वह बोली – “हे सुन्दरी, तुम शृंगार क्यों करती हो ? मुँहका मण्डन क्यों करती हो ? आँखों में अंजन क्यों आँज रही हो ? वीणा ( आलापिनी ) क्यों बजा रही हो ? श्रीपालको तो बेड़ियाँ डाल दी गयी हैं । तुम पान और गहने छोड़ो। स्वच्छ हार भी छोड़ो । हंसगामिनी गुणमाला उठो और अपने कन्तकी सुध लो । "
उसके वचनोंसे कुमारी गुणमाला काँप उठी और उसी क्षण श्रीपाल के पास गयी । उसकी पत्नी उससे हाथ जोड़कर बोली - " तुम नवतरुणीसे युक्त हो । हे स्वामी, तुम विचक्षण कोटिभट हो। तुम्हारे सामने कोई दूसरा सुभट नहीं है । तुम्हारी कौन सी जाति है ? तुम अपना कुल बताओ ।" श्रीपाल कहता है - "यही मेरा सब कुछ है ।" तब गुणमाला कहती है कि मैं अपना
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सिरिवाल वरिउ
[२.४.१४ ता पिय इम सिरिवाले भणिया विड अच्छइ णारि सुलक्खणिया। सो पुच्छहि रयण मँजूस तिया जो कहइ मोहि सो होउ पिया । __ घत्ता-तहिं गय गुणमाल अइसुमाल अच्छइ रयणमँजूस जहिं ।
____ जाइ सुकुलु सिरिवालहो कोडि-भडालहो तासु वत्त मुहि वहिणि कहि ॥४॥
ता पुच्छइ रयणमँजूस सहि सिरिवालु कवणु किर माइ कहि । गुणमाल भणइ सायरु तरेवि अम्हारे पुरे थिउ पइस रेवि । तह परएसिहि हउं दिण्ण कण्ण 'अवडोमहँ किय सहवत्त अण्ण । तिण्हि पेक्खणु णञ्चिउ भाव-जुत्तु पाणेहि भणिउ इहु अम्ह पुत्तु । ते वयणे रायहुँ कोहु जाउ सिरिवालु हणहु हु पाणु पाउ । मइँ पिउ आइवि पुच्छिउ सुतारु "तुहुँ पुच्छण पठई हउँ भत्तारु । ता भणइ मॅजूसा सयलजुत्ति हउँ फेडउँ रायहो तणिय भत्ति। गुणमाला रयणमँजूस तहिं
गय विण्णि वि अच्छइ राउ जहिं । विज्जाहरि पभणइ देव सुणि 'सिरिवालहो जायउ कुलु सुगुणि । सिरिवालु णरेसरु राय-वुत्तु हउँ विज्जाहरि महु देव कंतु । इहि-तणउ णराहिउ अंगदेसु अरिदवणु ताउ चंपा-णरेसु । हउँ कणयकेय-णरवइहि धीय जसु ठाउ णराहिव हंसदीव । महु लगि पापिहि किउ कूड सच्छि राजु कादिवि खिउ उवहि मज्झि । धवलहो पवंचु इहु सयलु राय जं जाणहि तं तुहुँ करहि ताय । घत्ता-णिसुणेविणु वयण कोपिउ पभणइ गउ तुरियउ धणवालु पहो ।
सिरिवालहो उत्तउ कियउ अजुत्तउ जामायउ खमु करहि यहो ।।५।।
ता सिरिवालु भणइ अइ तुम्हहँ 'णिम्मित्तिउ जं कहइ णरेसर णउ मुणहि देव अम्हहँ पमाणु मोकल्लि परिग्गहु सुहड थड पायहँ लग्गउ धणवालु राउ कर धरिवि चढ़ायउ करिवरिंद लेविणु गउ णिय-मंदिरहु राउ णिय चावरि बइसारिउ तुरंतु गुणमाला-मणु रंजि उ पवाणु णं अंधे लद्धे बेवि णयण णं बज्झहि लद्धउ पुत्त-जुवलु णं वाइहि सिद्धउ धाउवाउ
मंतु ण दिट् ठु ताय पुणु अम्हहँ । सो किइ असच्चु होइ परमसर । जो उवहि गणइ गोवय-समाणु । हउँ एक णराहिव कोटिभड । खमु करि कुमर म करि विसाउ । जो सेविउ अगणिय-भमरविंद । बहु तूर-भेरि-मंगल-सहाउ । किउ तिलयपट टु जय-जय भणंतु । णं दालिद्दिय लद्धउ णिहाणु । णं बहिर फुट्टे भए सवण । लउ पाविय ण दयधम्मु अमलु । गुणमालहिं तह संतोसु जाउ ।
५.१.ग अवडोम कहिय वत्त अण्ण । २. ग तहि पेरणु । ३. ग तुहं पुंछण पट्टइ हउँ भत्तारु । ४. ग सिरि
पाल हो जायउ कुलु सुगुणि । ५. ग रज्जू कट्टि वि । ६. ग घिउ । ६. १. 'ग' प्रतिमें ये पंक्तियाँ अधिक है-दोसु णत्थि जम किउ भवि अम्हहं तिहि पावहु फलु सयल-समा
यहो दोसु ण सेट्ठिण पाण-वरायहो णउ छुट्टिज्जइ अज्जिय-कम्हहों।
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२. ६. १२ ]
हिन्दी अनुवाद घात कर लूंगी। प्रियजनसे तुम सच्ची बात कहो।" तब प्रियने गुणमालासे कहा कि "विडोंके पास एक सुन्दर सुलक्षण नारी है। तुम जाकर उस सती रत्नमंजूषासे पूछो। वह जो कहेगी, हे प्रिये ! मैं वही हूँ।"
घत्ता-तब गुणमाला वहाँ गयी, अत्यन्त सुकुमार रत्नमंजूषा जहाँ थी। वह बोली-"हे बहन, मुझे कोटिभट श्रीपालके कुल और जातिकी बात बताओ'' ||४||
तब सखी रत्नमंजूषा पूछती है- "हे आदरणीय, यह बताओ कि यह श्रीपाल कौन है ?" गुणमाला बताती है कि समुद्र तैरकर वह हमारे नगरमें आकर रहने लगा है । उस परदेशीके लिए मैं (कन्या) दे दी गयी है। अब डोम दसरी हजारों बातें कर रहे हैं। उन्होंने भावपूर्ण प्रेक्षण और नृत्य किया है । डोमोंने दूसरी बात कही है। उनके वचनोंसे राजाको क्रोध आ गया। "श्रीपालको मार डालो" यह राजाका आदेश है। हमने आकर अपने प्रिय पतिसे पूछा । उसने हमें तुमसे पूछने के लिए भेजा है। तब पूर्णयुक्ति वाली रत्नमंजूषा बोली-"मैं राजाकी भ्रान्ति दूर करूंगी।" गुणमाला और रत्नमंजूषा दोनों वहाँ गयीं, जहाँ राजा था। विद्याधरी वहाँ बोली-“हे देव, सुनिए । श्रीपालका जन्म अच्छे और गुणी कुलमें हुआ है। श्रीपाल राजपुत्र है। मैं विद्याधरी हूँ, परन्तु वह मेरा पति है । हे राजन् ! इनका अंगदेश है। चम्पानरेश अरिदमन इनके पिता हैं। मैं राजा कनककेतुकी पुत्री हूँ। उनका स्थान हंसद्वीप है। मेरे लिए इस पापीने कूट साक्ष्य ( कपटाचरण ) किया है। उसने रस्सी कटवाकर उन्हें समुद्रमें गिरा दिया। हे राजन्, यह सब धवलसेठकी प्रवंचना है। अब आप जो ठीक समझें, हे तात, वह करें।"
घत्ता-यह वचन सुनकर राजा क्रुद्ध होकर बोला। धनपाल तुरन्त गया और श्रीपालसे बोला-"मैंने बहुत अनुचित किया, हे दामाद, तुम मुझे क्षमा करो" ।।५।।
तब श्रीपालने कहा-"यह तुम्हारा अतिवाद था। हे तात, आपने हमारा मन्त्र नहीं समझा। नैमित्तिकने जो कुछ कहा है वह असत्य कैसे हो सकता है ? हे देव, मेरी शक्तिकी बात मत पूछिए जो समुद्रको भी गोखुरके समान गिनता है। मैंने सुभट समूहको पकड़कर छोड़ दिया। हे राजन्, मैं अकेला कोटिभट हूँ।" धनपाल राजा उसके पैरोंपर गिर पड़ा और ब कुमार, आप विषाद न करें।" हाथ पकड़कर उसने उसे गजराजपर चढ़ाया। जो अनेक भ्रमरसमूहसे सेवित था। उसे लेकर राजा अपने महलमें गया, अनेक नगाड़े, भेरी और मंगल शब्दोंके साथ । उसे अपने सिंहासनपर बैठाया, और जय-जय शब्दके साथ तिलककर उसे राजपद दे दिया। गुणमालाका मन विशेषरूपसे रंजित हुआ, मानो किसी दरिद्रने खजाना पा लिया हो। मानो अन्धेने दो आँखें पा ली हों। मानो बाँझ स्त्रीने दो पुत्र पा लिये हों। मानो पापीने पवित्र दयाधर्म पा लिया हो । मानो वादीने धातुवाद सिद्ध कर लिया हो । गुणमालाको उससे इतना सन्तोष हुआ।
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सिरिवालचरिउ
[२.६.१३
घत्ता–पियमेलहिं तुट्टी पणवइ जेट्ठी पाइँ पडिवि धणवाल-सुव । हउँ उरिणु ण तुम्हहँ अवरहँ इहि उवयार मँजूस तुव ।।६।।
मंजूसा पुणु भेटिउ सुरंगु 'पिय-चलणअंते धरि उत्तमंगु । बल्लह-पय झाडे केसभार पुणु अग्गे लोटीय वार वार । उहावियं आलिंगिय वरेण मुहु चुंबिउ सामी-महवरेण । उच्छंगे लगवि पुच्छिय पिएण चंगी मॅजूस अच्छहि सुहेण । मंजूस कहइ एकंत-गोहि
अइसउ सुखु देखउं धवलु सेट्ठि। इय अच्छहि सुह-कीलाइ जाउ धणवालु कुविउ वणिवरह ताउ । णिउ जंपइ मारहु धवलु सेहि पाणह समेउ पाविधिहि । धरि बोल्लिउ धवलु अमेह-कुंडि खर-रोहणु किउ तहो मुंडु मुंडि । सह पाण विगोइय महाय राय छिदे कर-णासा-कण्ण-पाय ।। पुणु सेहि मरावइ जाम राउ छंडावण तहँ सिरिवालु आउ । बोलइ कुमारु मा मारि राय इह होतइँ मई गुणमाल पाय । सिरिवालु भणइ मा करि विसाउ तुहुँ से ट्ठि महारउ धम्म-ताउ । पुत्तहो बप्पहो विवहारु जुत्तु जंलहणउ तं महु देहि वित्तु । *सिरिवाल लियउ तं सयलु वित्तु अप्पणउ वि जंतउ लियउ सव्वु । पुणु सेट्टि ह किउ आमंतणउ दिण्णउ तहो खड-रसु भोयणउ । घत्ता-देखेविणु भत्तिय गुणगण-जुत्तिय फुट्टिवि हियडउ णरय गउ ।
तहिं दुक्ख-परंपर सहिय णिरंतर सेठ्ठि णरय पर-तियहँ लउ ।।७।।
अच्छइ सुहेण 'अरिदवण-पुत्तु गुणमाला-रयणमजूस-जुत्तु । ता आयउ वणिवरु एकु तित्थु सिरिवाले पुच्छिउ कहि पसत्थु । जं दिट् ठु अपुरवु कहि णिरुत्तु णिय देस-मँडलु जुत्तउ अजुत्तु । ता कहइ सेठ्ठि गुणगण-विसालु जो सव्व-सलक्खणु अइ-गुणालु । कुंडलपुर-णामें देव रम्मु
तहिँ मयरकेउ णरवइ सुधम्मु । 'अंगरुह विण्णिवि जियउणु मारु जीवंतु अवरु सुंदरु कुमारु । कप्पूर-तिलय णामेण धी
तहि चित्तलेह णामेण धीय । सउ-बहिणिउ तहि संबंधिणीय विण्णाण-जाण-रइ-बंधणीय । घत्ता-दुइजी जगरेह अवर सुरेह गुणरेहा मणरेह तहँ ।
रंभा जीवंती पुणु भोगवती रइरेहा अच्छरिय जहँ ।।८।।
७. १. 'ग' पय जुवलअंत । २. ग झाडि । ३. ग अग्नें। ४. ग उट्ठाविवि । ५. न गहवरेण । ६. ग पुत्तहु ।
७. ग प्रतिमें ये पंक्तियाँ नहीं हैं-ता साच्च धम्मउ जोवहि णिउत्तु । वणिवरहि भणीयउ एह जुत्तु ।। ८. १. ग सणेह । २. ग अंगरुह विणिजि णिजियउ मेरु ।
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२. ८. १० ]
हिन्दी अनुवाद
५७
घत्ता -प्रिये, इस गलतीको क्षमा करो । जेठीको प्रणाम करो । धनपाल - सुत तुम इसके पैर पड़ो। मैं तुमसे न इस जन्ममें और न दूसरे जन्ममें ऋणमुक्त हो सकता हूँ । हे रत्नमंजूषा, तुम्हारा इतना उपकार मेरे ऊपर है ||६||
७
मंजूषा तब प्रसे भेंट की । प्रियके चरणोंमें उसने अपना सिर रख दिया । केशभारसे प्रियके पैर पोंछे और फिर आगे आकर वह बार-बार लोटी । उस महावरने उठाकर उसका आलिंगन किया और उसका मुँह चूम लिया । गोदमें बैठाकर प्रियने उससे पूछा - " हे रत्नमंजूषा, क्या तुम सुखसे रही ?”..एकान्त गोष्ठीमें रत्नमंजूषाने बताया कि धवलसेठसे मैंने अतिशय सुख देखा। इस प्रकार वे दोनों सुख-विलास करने लगे। इधर धनपाल वणिग्वर धवलसेठ पर कुढ़ गया । राजा ने कहा - " धवलसेठको मार डालो । प्राणों समेत यह पापी नष्ट हो जाये ।" उसने कहा कि “धवलसेठको अमेह कुण्डमें पटक दो । मूँड मूड़कर उसे गधेपर बैठाओ । चण्डालोंके साथ इसे भी कलंकित करो । उसके हाथ, नाक, कान और पैर छेद दो ।" और इस प्रकार जब सेठको राजा मरवा रहा था, तब उसे छुड़वानेके लिए श्रीपाल आया । कुमारने कहा, "हे राजा, तुम इसे मत मारो। इसीके होनेसे ही मैं गुणमालाको पा सका ।" श्रीपालने सेठसे भी कहा कि तुम विषाद मत करो । हें सेठ, तुम हमारे धर्मपिता हो। इसलिए दोनोंमें पुत्र और पिताका व्यवहार ही युक्त है । जो मुझे लेना है वह धन मुझे दे दो। इस प्रकार श्रीपालने उससे सब धन ले लिया और जाते हुए अपना भी सब धन ले लिया । फिर सेठको आमन्त्रित कर उसे षड्स भोजन कराया ।
घत्ता - श्रीपालकी गुणसमूहोंसे युक्त भक्ति देखकर धवलसेठका हृदय विदीर्ण हो गया । वह नरकगतिमें गया । परस्त्रियोंके कारण, जहाँ वह दुःख परम्पराको निरन्तर झेलता रहा ||७||
८
अरिदमनका पुत्र ( श्रीपाल ) सुखसे रहने लगा, गुणमाला और रत्नमंजूषा के साथ । तब इतने में वणिग्वर वहाँ आया । श्रीपालने उससे कुशल - कामना पूछी । जो कुछ तुमने अनोखी बात देखी हो वह सुनाओ | अपने देश और मण्डलके युक्त अयुक्त समाचार सुनाओ। तब दूत ने कहा कि वहाँ गुणगणसे विशाल एक सेठ है जो सर्वगुणोंसे सम्पन्न और अत्यन्त गुणवाला है । कुण्डलपुर नामका एक सुन्दर नगर है । उसमें मकरकेतु नामका सुधर्मी राजा है । उसके दो पुत्र हैं जिन्होंने कामदेवको जीत लिया है। एकका नाम जीवन्त है और दूसरेका सुन्दर । कर्पूरतिलक नामकी उसकी पत्नी है। उससे चित्रलेखा नामकी लड़की है, जो विज्ञान और रतिमें निष्णात है ।
धत्ता - दूसरी है जग रेखा । एक और सुरेखा, गुणरेखा, मनरेखा, रम्भा, जीवन्ती, भोगमती और रतिरेखा जैसे अप्सरा हो ||८||
८
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सिरिवालचरिउ
[२.९.१
वस्तुबंध-जो णच्चेसइ पडह वारण सउ-हाव-भाव संजुत्तउ ।
सो परणेसइ सयल ते रायकुमरि सउ-कण्ण-जुत्तउ ।। जासु पटह-वाएण पुणु उच्छहिँ णडहिँ विचित्त ।
सिरिवाल-सामी णिसुणि तसु केरउ ते सुकलत्तु ।। आयण्णिवि सेट्ठिहि वयणगइ तहिँ गउ सिरिवालु वि अमलमइ । तहि दिट्ठी सुंदरि ससिवयणी गल कंदलि लोलइ हार-मणी । ता भणइ कुमरु णाडउ णडहि घायर मुयंगु तुहुँ णच्चिसहि । ता धरिउ तालु चचपुटु मुयंगु सा चित्तलेह णच्चिय सुरंगु । जयमंगल-तूर. वज्जियाइँ कण्णडियइँ सरसई णच्चियाई । एक्केण सहिउ सउ परणियाउ ससुरें सिरिवालु समण्णियाउ । रहवर-यवर-गयवर-घणाई करहई दिण्णई कर-कंकणाई । ता मयरकेउ रंजिउ मणेण संतोसिउ जणु कुंडलपुरेण । जा अच्छइ सुहेण जामायउ ता तहिं एकु पुरिसु संपायउ । घत्ता-सो भणइ णवेप्पिणु पय पणवेप्पिणु विण्णत्ती अवधारि पहु ।
इह अत्थि पसिद्धउ वहुगुण-रिद्धउ कंचणपुरु णामेण तहु ॥९।।
५
तहिं वज्जसेणु णामें णरिंदु । विहवेण पराजिउ जेण इंदु । तहो कंचणमाला पिय-घरिणी जहि रूवें जित्तिय सुर-रमणी । सुय चारि देव पढमउ सुसीलु गंधव्वु जसोहु विवेय-सीलु । तहो कण्णा णाम विलासमइ णिय-गमण-विजित्तिय-हंसगइ । वस्तुबंध-राउ' सुंदरि अस्थि णउसयई
सविलास सविज्जमइँ परिणि देव रइ-सुक्खु माणहि । कंतइँ कुसलइँ कुच्छरइँ सुरय-रंगु ते बहु विजाणहि ।। सव्वहँ जेट विलासमइ तुव विरहे संतत्त ।
चल्लहि कुँवरि-पसाउ करि परणहि सयल कलत्त ।। ता भणइ दूउ रइ-रमण-हारि
जो चित्तलेह परिणइ कुमारि । तहो णव सय पुणु वि णिमित्तिएण इय कहियउ आयम-जुत्तिएण | तं सुणिवि कुमरु संचालियउ गउ णयरहो दिट्ठउ बालियउ । ता परिणिय कण्ण विलासमइ णव-सयइँ ताहँ पुणु सुद्धसई। राएं सिरिवालु संमाणियउ पुण्णाहिउ इहु संदाणियउ । दिण्णई भंडारई मणहराई पुणु दिण्ण तुरंगम-साहणाई। कयवइ दिवसा तहिँ करिवि रज्जु पुणु करइ वीरु पत्थाण-कज्जु । एक्को जि सहसु एक्को ण अहिउ चालिउ अंतेउरु सयल-सहिउ । घत्ता-पुणु सहु कण्णडियहि, गय-घड-गुडियहिँ, चलिउ वीरु दलवट्टणु ।
वहु-समउ गरिंदहि, कुवलय-चंदहि, सिरिवालु वि अरि-दलवट्टणु ॥१०॥
९. १. ख क-ण जसइ । २. ग अच्छइ सुहिण कुमारु जाम ता एकु पुरिसु संचंतु ताम । १०. १. ग राय
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२. १०. १९ )
हिन्दी अनुवाद
वस्तुबन्ध-जो नगाड़ा बजाकर और भी दूसरे हावभाव और विभ्रमसे युक्त सौ कन्याओंको जीत लेगा, राजकुमारी चित्ररेखाके साथ वे सौ कन्याएँ उससे विवाह कर लेंगी। जिसके नगाड़ा बजानेसे वे उत्सवमें नाचेंगी, हे श्रीपाल सुनिए, वे उसीकी पत्नियाँ होंगी। सेठके वचन सुनकर अमलमति श्रीपाल वहाँ गया। वहाँ उसने चन्द्रमुखी सुन्दरीको देखा। उनके गले में कन्धौरा और मणिहार हिल रहे थे। उससे कुमारने कहा कि तुम नाट्य करो। मृदंग बजाता हूँ तुम नाचो। तब उसने 'च च पुट' ताल पर मृदंग बजाया। चित्रलेखा उसपर नाचने लगी। जयमंगल नगाड़े बजने लगे। कन्याएँ सरस नृत्य करने लगीं। अकेले ही सौके साथ उसने विवाह कर लिया। ससुरने श्रीपालका सम्मान किया और उसे रथवर, अश्व, गजवर, धन, ऊँट और कंचन भेटमें दिया। राजा मकरकेतुका मन खूब सन्तुष्ट हुआ और कुण्डलपुरके लोग भी प्रसन्न हुए। दामाद वहीं सुखपूर्वक रह रहा था कि एक आदमी वहाँ आया।
धत्ता-चरणोंमें प्रणामपूर्वक वह बोला-मेरी विनतीपर ध्यान दिया जाये। यहाँपर अत्यन्त प्रसिद्ध, बहुतसे गुणोंसे समृद्ध कंचनपुर नामका नगर है ।।९।।
१०
उसमें वज्रसेन नामक राजा है। उसने वैभवमें इन्द्रको पराजित कर दिया है। उसकी कंचनमाला नामकी सुन्दर पत्नी है। जिसके रूपने इन्द्राणीको जीत लिया है। उसके चार पुत्र हैं-सुशील, गन्धर्व, जसोह और विवेकशील। उसकी एक विलासवती कन्या है, जिसने अपनी चालसे हंसकी गतिको पराजित कर दिया है।
वस्तुबन्ध-विलास और विद्यासे परिपूर्ण उसकी नौ सौ राजकुमारियाँ हैं। उनसे हे देव, विवाह कीजिए और रतिसुखका आनन्द लीजिए। वे कान्ताएँ कुशल हैं। सुरतिरंग और विज्ञानमें कुशल हैं। उनमें सबसे बड़ी है विलासमती जो तुम्हारे विरहमें सन्तप्त है। चलिए और कुमारीपर प्रसाद करिए और सभी कन्याओंसे विवाह कीजिए।
दूत कहता है--- "सुन्दर और मौन धारण करनेवाली चित्रलेखासे जो विवाह करेगा वही उन नौ सौ कन्याओंसे भी विवाह करेगा। ऐसा आगमयुक्तिको जाननेवाले नैमित्तिकने कहा है।" यह सुनकर कुमार चल पड़ा। नगरमें पहुँचकर उसने कन्याओंको देखा। वहाँ उसने विलासमतीसे विवाह किया और नौ सौ पवित्र सतियोंसे। राजाने श्रीपालका सम्मान किया। पुण्याधिकोंका यही सम्मान होता है। उसे सुन्दर भण्डार दिये और घोडे आदि साधन दिये। कितने ही दिनों तक उसने वहाँ राज्य किया, फिर वह वीर वहाँसे कूच कर गया। एक हजार एक अन्तःपुर उसके साथ चला।
घत्ता-शत्रुदलको चूर-चूर करनेवाला वह वीर कन्याओं और कवचोंसे सजी हुई गजघटा और कुमुदोंके लिए चन्द्रमाके समान राजाओंके साथ दलवट्टण नगरके लिए चल पड़ा ।।१०।।
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सिरिवालचरिउ
[२.११.१
११ कंचणपुरु छंडिवि चलइ जाम आइवि भेटि उ चर-पुरिसु ताम । पहु वसइ णिरंतर देस-गाम तहिं ठावा कोकणु दीउ णाम । जसु-रासिविजउ णामें णरेसु णं सग्गु मुइवि आयउ सुरेसु । चउरासी राणी रूव-खाणि
जसमाला-देवी पट्टराणि । पण णंदणु तहो पढमउ हिरण्णु णेहाउलु जोहु जियारिकण्णु । तहो दुहियइँ सोलह-सय-गुणड्ढ़ सोहग्गगउरि जेट्ठी वियड्ढ़ । पुणु बीई तहि सिंगारगोरि पउलोमी तहि तीजी किसोरि । रण्णा चउथी पंचमी सोम
संपइ छट्ठी सत्तमिय पोम । अट्ठमी देव ससिलेह तीय जसरासि विजय जसमाल धीय । अवरह सह बहु-णरवइहि सुवा संबंधी सह सिरिवाल तुवा । अट्ठहु जो भणइ वयण-गइ सो परिणइ सोलह-सय णिवइ । जेट्ठी जहि साहस-सिद्ध-चोरि गउ पेक्खंतह सव्वु सिंगारगोरि । पउलोमी तहिं कच्च-रा सुमिठ्ठ रण्णा पंचाइणु सीहु सिठ्ठ । सोमा कह कासु पियाउ खीरु संपय कइ कहँ वि ण दिट् ठुधीरु । पोमा कह कासु विधत्तु तेइ ससिलेहा सो तहि काई करेइ । घत्ता-वर-वयणु सुणेपिणु सिंहु चलेप्पिणु ठाणा कोकण आउ सही।
अक्खिउ सहुं कण्णउं तुम्ह बलिमण्णउ अप्पणी वत्त कही ॥११॥
१२ सोहग्गगवरि-समस्सा
"जहँ साहसु तहँ सिद्धि।" सत्तु सरीरहँ आयतउ दइवायत्ती बुद्धि ।
एत्थु म कायउ भंति करि जहिं साहसु तहिँ सिद्धि ॥११॥ सिंगारगोरी-वचनं--
“गउ पेखंतहं सव्वु ।” णउ वंचिउ खदउ ण विकिउ ण संचिउ दव्वु ।
रावलि जूव-पलेवणई गउ पेखंतहँ सव्वु ॥२॥ पउमलोमी दंदोलि सिरीवालु भणइ
रयणायरु थोरउ कहइ दद्रु कूव-पइट्ट ।
जेहि ण खद्धउ णारियलु तहो कच्चरा सुमिठु ॥३॥ रण्णादेवी उत्तं
"ते पंचाइण सीह।" सील-विहूणे जे वि णर तिण्ह कीलेहु मलीह । जे चारित्तह णिम्मले ते पंचाइण-सीह ॥४॥
११. १. ग आपणी वात कही।
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२. १२. १५]
हिन्दी अनुवाद
कंचनपुर छोड़कर जैसे ही उसने कूच किया कि इतने में एक चर पुरुषने आकर उससे भेंट की। वह बोला, "हे स्वामी, कोकपद्वीप नामका एक स्थान है, उसमें बहुत देश और गाँव सघन बसे हुए हैं। उसमें यशोराशि विजय नामका राजा राज्य करता है। वह इतना सुन्दर है कि मानो इन्द्र ही स्वर्ग छोड़कर आया हो । रसकी खान, उसकी चौरासी रानियाँ हैं। उसमें जसमाला देवी मुख्य रानी है। उसके पाँच पुत्र हैं, उनमें पहला पुत्र है हिरण्य । स्नेहाकुल योद्धा और शत्रुकन्याओंको जीतने वाला। उसकी गुणोंसे योग्य सोलह सौ कन्याएँ हैं। उनमें सौभाग्य गौरी जेठी और विदग्ध है। दूसरी है शृंगार गौरी। तीसरी है पुलोमा। चौथी है रण्णा, पाँचवीं है सोमा, छठी है सम्पदा, सातवीं है पद्मा और आठवीं है शशिलेखा। यशोराशि, विजया और यशमालाकी कन्याएँ और भी दूसरे राजाओंकी सौ कन्याएँ हैं जो तुम्हारे लिए हैं। जो उन आठ कन्याओंके आठों प्रश्नोंका उत्तर देगा, वह राजा सोलह सौ कन्याओंसे विवाह करेगा। जेठी कहती है-"जहाँ साहस है, सिद्धि दासी है।" शृंगार गौरी कहती है-"देखते-देखते सब कुछ चला गया।" पुलोमा कहती है—“काचरी मीठी होती है।' रण्णा कहती है-"पंचानन ही शेर है।' सोमा कहती है---"क्षीर किस मुंहसे पियाऊँ ?" । सम्पत्ति कहती है-"धीर कौन दिखाई देता है ?"। पद्मा कहती है"तेज किससे बढ़ता है ?" । शशिलेखा कहती है-"उसका क्या किया जाये ?"
घत्ता-चरके वचन सुनकर सिंह श्रीपाल चलकर थाणा कोकण जा पहुँचा। लड़कियोंसे बोला-"तुम्हारी बलिहारी जाता हूँ। अपनी-अपनी बात कहो ॥११॥
(१) सौभाग्य गौरी
जहाँ साहस है वहाँ सिद्धि है। शरीरका शत्रु आलस्य है, बुद्धि भाग्यके अधीन है।
इसमें कुछ भी भ्रान्ति मत करो, जहाँ साहस है वहाँ सिद्धि है। (२) शृंगार गौरी वचन
देखते-देखते सब चला गया। धर्म अर्जित नहीं किया, कुछ खाया नहीं, संचय भी नहीं किया द्रव्य। राजकुलमें
द्यूत ( जुआ ) देखते ( खेलते ) हुए सब कुछ चला गया। (३) पउलोमी घुमक्कड़ श्रीपालसे कहती है
कुएँ में बैठा मेढक, समुद्रको छोटा बताता है।
जिसने नारियल नहीं खाया उसके लिए कचरियोंका रस ही मीठा लगता है। (४) रण्णादेवी कहती है
वे पंचानन सिंह हैं। शीलसे रहित जो भी मनुष्य हैं वे मलिन वस्तुओंसे क्रीड़ा करते हैं, परन्तु जो चारित्र्य से निर्मल है पंचानन ( इन्द्रियों के लिए ) सिंह है।
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२०
२५
३०
३५
४०
६२
सोमकला-वचन गति"कासु पियावउँ खीरु ?"
संपदादेवी भणति -
सिरिवालचरिउ
रावण सिद्धी विज्ज दहमुह इक्कु सरीरु । ताकेकसि चिंतावियउ कासु पियावउँ खीरु ॥
पदमा-वचनं
" सो मई कहँविण दिट्ठ ।”
सातउ सायर हउँ फिरिउ जंबूदीव पइट्टु |
तत्ति पराइ जु ण करइ सो मइँ कहँ वि ण दिडु ||६||
هان
"काई विदत्तुर तेण ।"
कोंती जाए पंच सुव पंच पंच- पिएण । गंधारी सजाइयउ काइँ विढत्तर तेण ॥७॥ चन्द्रलेखा कथयति
" सो तहि काइँ करेइ ।"
सत्तरि जासु 'चउग्गलिय बालियों परिणेइ | अच्छ पास बइरि सो तहि काइँ करेइ ||८|| णाणा- पयारेण सिरिवालो समस्सा पूरेइ - 'अट्ठमिहिं गाहु फेडियउ जाम र-णारीयण बहु कियड रोलु जससेणविजउ आइयउ ताउ पडु-पडह तूर वज्जिय महंत परिणाविउ सोलह-सइ कुमारि हय-गय-रह-करहइँ वाहणाइँ बहु हार सुतार हिरण्णु वण्णु पहि णिव सुय पंच वि कुमार तुहुँ बंदणीउ सिरिवाल तेम अम्हहं छठउ तुहुँ परमभव्वु अम्हीँ" पंचहँ तारणु तुहुर्त म इयपि अहिउ बहु- पयारु सोलह-सइ लइ चालिउ खणेण पंचहि पंडिय - सुपएस एहिं मल्लिवाहि "सत्तसई विवाहिय एवमाइ अंतेउर-सहियउ
[ २.१२.१६
णयरहिं " कोलाहलु भयउ ताम | ठाणाकोकण-हल्ला- कलोलु । देवावि तहिं णीसाण- घाउ । 'भेरी-काहल - संख हूँ रसंत । विज्जाहरि णं अच्छरिय णारि । इज्जइँ मणि-रण घणाइँ । अवरार्ड दिष्णु चउरंगु सेण्णु । जुवरायपट्टसु तिभुवणसार । पंच पंडव महि विष्णु जेम । पण दव्व माहि जिम जीव- दव्वु । परसमय देव जिण - समउ जेम । पर तो विण तहिँ थक्कउ कुमारु । जे मुणि भासिय अवहीसरेण । परिणिय सहसइँ कण्ण तेहिं । सहसु तिलंग - देसि परिणाय । चारं वलु से मिलियउ ।
१२. १. क चउगइ । २. क बालि । ३. ग वट्टलिय । ४. क अट्टहंमि । ५. ग णयरहं । ६. ग भेरिय काहल संखइ महंत । ७. ग विज्जाहरि अछरि अरु कुमारि । ८. ग आऊरि । ९. क पंच हरिउ वइ सीयारि जेम । १०. अम्हहं पंचहं तारणु तुहं पि । पर समउ देव जिण समय तंपि ।। ११. ग सयसत्त । १२. ग महिय ।
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२. १२. ४८ ]
हिन्दी अनुवाद (५) सोमकला का वचन
किसे पिलाऊँ क्षीर? रावण को जब एक शरीर और दस मुखवाली विद्या सिद्ध हुई, तब कैकशी ( रावणकी माँ) को चिन्ता हुई कि वह किस मुंहसे दूध पिलाये ?
(६) सम्पदादेवी कहती है
वह मुझे कहीं भी नहीं दिखाई दिया। सातों समुद्रोंमें मैं घूमा और जम्बू द्वीपमें भी। जो दूसरेको सन्तप्त नहीं करता, नहीं सताता, ऐसा आदमी मुझे दिखाई नहीं दिया।
(७) पद्मावचन
उसने क्या जोड़ा? कुन्तीने उत्पन्न किये पाँच पुत्र, जो पाँचों के पाँच प्रिय थे। गन्धारीने सौ पुत्र पैदा किये, उससे उसका क्या बढ़ गया ?
(८) चन्द्ररेखा कहती है
उसके लिए क्या किया जाये? जिसकी सत्तर और चार (७४) की आयु हो चुकी है। फिर बालासे विवाह करता है, वह उसके पास बैठी हुई है, वह उसका क्या करे ?
इस प्रकार श्रीपाल ने नाना प्रकार से समस्यापूर्ति की।
ज्यों ही उसने आठवीं गाथा हल की त्यों ही नगरमें कोलाहल होने लगा। नर-नारियोंने बहुत शब्द (आश्चर्य व्यक्त ) किया। थाना कोकणमें हलचल मच गयी। इतनेमें जयसेन वहाँ आया और उसने नगाड़े बजवाये । बड़े-बड़े पट-पटह और तूर्य बाजे बजने लगे। भेरी, काहल और शंख गूंज उठे। उसने सोलह सौ कुमारियोंसे विवाह किया। वे मानो विद्याधरी या अप्सराएँ थीं। घोड़े, गज, रथ, ऊँट आदि वाहन और बहुत-से मणिरत्न दहेजमें दिये। सोनेके बहुतसे स्वच्छ हार और समूची चतुरंग सेना उसे दी। राजा कहता है कि ये पाँच कुमार हैं किन्तु भुवनश्रेष्ठ हे युवराज, यह पट्ट तुम्हारा है। हे श्रीपाल, तुम उसी प्रकार वन्दनीय हो जिस प्रकार पाँच पाण्डवोंमें विष्णु । हमलोगोंमें तुम छठे भव्य हो, जैसे पाँच द्रव्योंके भीतर जीव द्रव्य । हम पाँचोंको तारनेवाले तुम हो, उसी प्रकार जिस प्रकार हे देव, परसिद्धान्तोंमें जिनसिद्धान्त उद्धार करता है। इस प्रकार उन्होंने तरह-तरहसे कहकर उसे रखना चाहा। परन्तु कुमार वहाँ रुका नहीं। सोलह सौ वधुओंको लेकर एक क्षणमें चल पड़ा, जैसा कि अवधिज्ञानी मुनिने कहा था। पंच पाण्डवोंके सुप्रदेशमें उसने दो हजार कन्याओंसे विवाह किया। मल्लिवाडमें सात सौको ब्याहा । और एक हजार कन्याओंसे तेलंग देशमें विवाह किया। इस प्रकार अन्तःपुर और चतुरंग
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सिरिवालचरिउ
[२. १२. ४९दलवट्टणु पट्टणु संपत्तउ
गुणमाला-मजूस अणुरत्तउ । किर अच्छइ सुहेण जामायउ रयणिहि अद्धरत्ति चिंताविउ । जइ ण जाइ भेटउँ उज्जेणि तउ लेइ दिक्ख पिय सुक्ख-जोणि । धणवालु राउ विण्णविउ ताम जाएवउ मई पठ्ठव हि माम । जइ ण जाउँ तो भास ण वुच्चइ मयणासुंदरि तउ पडिवज्जइ । घत्ता-इय भणिवि कुमार णिज्जिय-मारु गय-वर-रूढउ विमलमइ ।
मयजलभिभारुणु सिदूरारुणु घंटियालु करि मंदगइ ॥१२॥
१3
१३
चाउरंगु बलु चलिउ तुरंतउ । काहल-तूर-भेरि वाजंत'। रायहो चउ-पासिउ अंतेउरु । पिंडवासु रुणझुणियउ णेउरु । सोरठ्यि -राणा सलवलियई। लयउ कप्पु अगिवाणहँ चलियई। पंच-सयई परिणिय सोरठिय अवरई पंच-सयई मरठिय । गुजरात सय चारि विवाहिय मेवाडिय बे सय परिणाविय । अंतरवासिय सेव कराविय कण्ण-छाणवइ तहिं परिणाविय । सवर-पुलिंद-भील-खस-वव्वर लए डंडि ते झाडिय मच्छर । मालव-देस मज्झि जे वंकुड । 'ते सई विक्कमेण कय संकड । बारह-संवच्छर सम्पत्तउ
उज्जेणिहि आइयउ तुरंतउ । घत्ता-सिमिरु मुक्कु चउपासई कोडि-सहासइँ खोहु वि णयरह जाइयउ ।
_ हल्लोहलि हूवउ सयलु पुरु कवणु णराहिउ आइयउ ।।१३।।
सेणावइ तहो कडयहो थप्पिवि। गउ एकल्लु घरिणि देखण वरु सासु हि अग्गइ भणइ विसूरिय । जइ णवि आजु आउ तुम्ह णंदणु ता सिरिवाल-माय वारइ तहु 'किम वारउ' सुंदरि इम कहियउ मुणिउ ण माइ ताह किं होसइ बारह-वरिस जोण पिउ आवइ तउ सिरिवाले बोलिउ सुंदरि ताम झत्ति तहो वारु उघाडिउ
१४ गउ पायार सत्त णहू लंघिवि । मयणासुंदरि झावइ जिणवरु । आजु अवहि सामिय' की पूरिय । कालि करउँ तर दिक्खा-मंडणु । दिवसु एक्कु पडि वारहि कुलवहु । 'अवरु ताउ परमंडल-गहियउ' । कहिं-होतउ सामिउ आवेसइ। तउ महु सासु दिक्ख परिभावइ । उग्घाडहि किवाड णिय-मंदिरि । गंपि जणणिपय कमलु जुहारिउ ।
१३. ग जइ जाउ ण तो भासिउ चलेइ मयणासुंदरि पवज्ज लेइ। १४. क घट्टियालु । १३. १. ग वज्जतउ। २. ग पंच सयइं परिणिय मरहट्ठिय। ३. ग समर पुल्लिंद मिल्ल खस वव्वर
लइय दंडि ते छाडिय मच्छर । ४. ग ते सहविक्कमेण कय संकूड। ५. ग विभय भ वउ कवण णरा
हिउ आइयउ। १४. १. ग सामिय किय पूरी । २. ग अज्जु । ३. ग कल्लि । ४. ग वरइत्त हो। ५. ग जइ ।
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२.१४. १०]
हिन्दी अनुवाद सेनाके साथ वह दलवट्टण नगरमें आया और वहाँ गुणमाला और रत्नमंजूषा में अनुरक्त होकर दामाद श्रीपाल सुखपूर्वक रहने लगा। एक दिन आधी रातको वह सोचने लगा कि यदि अब मैं उज्जैन मिलने नहीं जाता तो मेरी प्रिया मैनासुन्दरी सुख देने वाली दीक्षा ले लेगी। उसने राजा धनपालसे विनय की कि मैं जाऊँगा, हे ससुर, मुझे भेज दो। अगर मैं नहीं जाऊँगा तो मेरी बात नहीं रहेगी और मैनासुन्दरी तप ग्रहण कर लेगी।
पत्ता-यह कहकर कामदेवको जीतनेवाला विमलमति कुमार मन्दगतिवाले गजवरपर बैठकर चला, उसपर मदजलसे भ्रमर गुनगुना रहे थे। सिंदूरसे लाल, और बजती हुई घंटियोंवाला।
१३
चतुरंग सेना तुरन्त चल पड़ी तूर्य और भेरी बजाती हुई । राजा के चारों ओर अन्तःपुर था । अन्तःपुरके नूपुरकी रुनझुन झंकार हो रही थी। सौराष्ट्रका राणा एकदम सकपका गया। श्रीपालने अग्निबाण चलाकर उससे कर वसूल कर लिया और सौराष्ट्रकी पाँच सौ कन्याओंसे विवाह कर लिया और भी पाँच सौ महाराष्ट्र की कन्याओंसे। गुजरातकी चार सौ और मेवाड़की नौ सौ कन्याओंसे उसने विवाह किया। अन्तर्वेदके लोगोंसे उसने सेवा करवायी और वहाँकी छियानबे कन्याओंसे उसने विवाह किया। शवर, पुलिन्द, भील, खस और बब्बरने ईर्ष्या छोड़कर उसकी सेवा की। मालव देशके भीतर जो दृष्ट लोग थे, उसने स्वयं अपने पराक्रमसे उनमें संकट उत्पन्न किया। इस प्रकार बारह वर्ष पूरे होते ही वह तुरन्त उज्जैन नगरीमें आ गया।
घत्ता-चारों ओर उसने अपनी सेना छोड़ दी और चारों ओर सहस्र कोटि सेना नगरमें चली गयी। सारे नगरमें हलचल मच गयी कि कौन राजा आ गया है ?।।१३।।
१४
सेनापतिको छावनीमें स्थापित कर वह अकेला सात परकोटेको लाँघकर अपनी पत्नीको देखनेके लिए घर गया। मदनासुन्दरी जिनवर का ध्यान कर रही थी और सासके आगे रो-रोकर कह रही थी कि आज स्वामी की अवधि समाप्त होती है, यदि आज भी तुम्हारा बेटा नहीं । आता तो कल मैं दीक्षा ले लँगी। तब श्रीपालकी माँने दीक्षा लेनेसे एक दिन और उस कुलवधूको रोका। सुन्दरी ने कहा-"मुझे मना क्यों करती हो। पिताको शत्रुमण्डलने घेर लिया है। हे माँ ! तुमने नहीं सोचा कि उनका क्या होगा? वह (श्रीपाल) भी सादर कहाँसे होकर आयेंगे? ( क्योंकि उज्जैनको शत्रुसेनाने घेर लिया है। ) बारह बरस में भी यदि प्रिय नहीं आता, तो हे सास, मुझे केवल दीक्षा ही अच्छी लगती है।" इतनेमें श्रीपालने कहा- "हे सुन्दरी ! अपने घर का दरवाजा खोलो।" उसने द्वार खोला। श्रीपालने जाकर माँ के चरणकमल छुए तथा मदना
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सिरिवालचरिउ
[२.१४.११पुणु आलिंगिय मयणासुंदरि लेहु देवि पहिरहु मोत्तियसरि । मेहजाय पंगुरइ जि वासिउ घत्ती-हल-पमाणु रूइ वासउ । घत्ता-ता भणइ णरिंदु कुवलयचंदु चाउरंगु बलु सज्जियउ ।
सयल वि अंतेउरु णिज्जिय रइवरु तुझु पसाएँ अज्जियउ ॥१४॥
दोणि वि कर धरेवि गउ तेत्तहि खंधावारु अवासियउ जेत्तहि । अंतेउर-परिवार सणेहें
किउ परिणामु सयल उच्छाहें । रयण मँजूस आइ गुणमाला सुंदरि पाइँ पडिय वणमाला। चित्तलेह जग-रेह सुरेहा रंभा जीवंती गुणरेहा। मयरकेय-णिव-सुय जणमोहा पाय-पडिय सह मयणासुंदरि णिय-सवें जिण्हि जिणिय पुरंदरि । "पविसेण-कणयमालहि सुव । णवसइ सविलासमई जु धुव । 'तहि पणवाविय मयणासुंदरि पउलोमी जिम इयरह अच्छरि । पुणु आइय तहि सुहागगोरि सिंगारगोरि सई-चित्त-चोरि । पुणु रण्णा चंदा संपईय
पोमावइ ससिलेहा विणीय । जसरासिविजय-णिव-तणिय धूव तिण्हु पणामिय पुणु पयपाल-सूव । सिद्ध-चक्क वउ कियउ जु कामिणि अट्ठ-सहस-उप्परि भई सामिणि । पत्ता--जंपइ रइ-मंदिरि मयणा सुंदरि परिह उ अक्खउं णाह सहो ।
सह-महि-णिभंछी अइ-दुग्गंछी कम्मु विणिंदउ ताय महो ॥१५॥
१६
मयणासुंदरि मंतु पयासिउ जइ अम्हारउ कहिउ सुणिजहु कंबलु पहिरिवि गले कुरहाडी तो संधाणु अस्थि णो अस्थिय अइसउ बोलि दूउ पायउ। पडिहारे रावलि पइसारिउ दइ आसणु गउरवि वइसारिउ पुच्छिय बात सुकुसल-पयासणु दूए वात कहिय अणुराएँ यहु दीवाहिउ णरवइ जुंजइ जं लेहइं लिहियउ तं किज्जइ
मेरउ कम्मु ताय उवहासिउ । तउ तायहँ सहुँ एम भणिजहुँ । एम भेट जई करइ महारी। एह वातणउ होइ पसत्थिय । लेक्खु लेवि उज्जेणिहि आयउ । सीसु णाइ णरवइ जयकारिउ । दिण्णु तमोलु कियउ संभासणु । को इहु णरवइ पुच्छिउ राएँ ।
.. दीव-समुद्द-घाड-सह भुंजइ ।
धम्म-दुवारु मग्गिं जाइज्जइ ।
६. ग मेहजाइ । ७. ग थत्ति लइय माणु रुइ वासउ । १५. १. ग तेत्तहुं । २. ग जेत्त । ३. जिणि । ४. ग कणयप्पह पविसेणह जे सुव । ५. ग तेहि वि । ६. ग
सयचित्त । ७. ग संपईय। ८. ग उपरि । ९. ग भइ । १६. १. ग सुणिज्जइ। २. ग सिहं । ३. ग भणिज्जइ। ४. ग गलय कुडारी । ५. ग वत्त । ६. ग अइ
सउ वुल्लिवि । ७. ग वत्त । ८. क भागि ।
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२. १६. ११ ]
हिन्दी अनुवाद
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सुन्दरी का आलिंगन किया । उसने कहा - "हे देवी, मोतियोंकी माला पहनो । मेघजातकी सुवासित साड़ी पहनो । धात्रीफलके प्रभाववाला और कान्ति से सुवासित ।"
घत्ता - पृथ्वीचन्द्र राजा श्रीपाल बोला - " चतुरंग सेना सज्जित है और अन्तःपुर भी । हे देवी, आज मैंने तुम्हारे प्रसादसे कामदेवको भी जीत लिया है ॥१४॥
१५
उसके दोनों हाथ पकड़कर वह वहाँ गया कि जहाँपर पड़ाव था । अन्तःपुरने परिवार के स्नेहके कारण उत्साहपूर्वक मयनासुन्दरीको प्रणाम किया । रत्नमंजूषा और गुणमाला भी आयीं । सुन्दरियाँ उसके पैरोंपर गिर पड़ीं। चित्रलेखा, जगरेखा और सुरेखा, रम्भा, जीवन्ती, गुणरेखा । जनोंको मोहित करनेवाली और अपने रूपसे इन्द्राणीको जीतनेवाली मकरकेतु राजाकी कन्याने मदनासुन्दरीके पैर पड़े । वज्रसेन और कनकमालाकी विलासवती आदि नौ सौ पुत्रियोंने भी मदनासुन्दरीको प्रणाम किया । पद्मलोमा जैसी दूसरी अप्सराएँ भी वहाँ आयीं । इन्द्राणीका चित्त चुरानेवाली सौभाग्यगौरी और श्रृंगारगौरी, रण्णा, चन्द्रा, संवईय, पद्मावती और विनीत चन्द्रलेखा । यशोराशि विजयराजाकी पुत्री, इन्होंने भी राजा पयपालकी कन्या मदनासुन्दरी के चरण छुए। उस कामिनीने सिद्ध चक्र विधान किया था, इसीसे वह अठारह हजार स्त्रियोंकी स्वामिनी बनी |
घत्ता -- अपने रतिमन्दिरमें मदनासुन्दरी बोली - "हे नाथ, मैंने अक्षय पराभव सहन किया । सभा में मुझे बुरी तरह फटकारा गया । पिताजीने मेरे कामकी निन्दा की ” ॥१५॥
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मदनासुन्दरी ने अपने मनका रहस्य प्रकट करते हुए कहा कि "पिताजीने मेरे कर्म ( या आचरण) का उपहास किया है। यदि आप मेरा कहना सुनें तो पिताजीसे यह कहिए कि कम्बल पहनकर गलेमें कुल्हाड़ी डालें और हमसे भेंट करें। तभी कुशल है, नहीं तो, कुशल नहीं है और यह अच्छी बात नहीं होगी ।" ऐसा कहकर उसने दूत भेजा । वह लेख लेकर उज्जैन आया । प्रतिहार उसे राजकुलमें प्रवेश दिया । उसने सिर झुकाकर राजाको नमस्कार किया। उसे आसन देकर गौरव के साथ बैठाया गया । पान देकर उससे बातचीत की। उसने राजाके दूतसे पूछा - "प्रजा तो सकुशल है ?” राजाने पूछा - "यह कौन नरपति है ?" दूतने प्रेमपूर्वक बात कही- यह राजा द्वीपाधिप है और योग्य है । द्वीप, समुद्र और सैकड़ों घाटोंका उपभोग करता है । इसलिए जो लेख में लिखा है उसे आप अवश्य कीजिए । धर्मद्वारके मार्ग से ही तुम्हें जाना चाहिए ।
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सिरिवालचरिउ
धत्ता - पयपालु वि कुद्धउ भणइ विरुद्ध कवणु एहु को मण्णइ | समरंगणि मारउँ महि विब्भाडिउँ करउँ रज्जु णिय- पुणइँ ||१६||
१७
मंतिहिं संबोहि मालव हूँ जइ पहु अम्हहँ कहिउ सुणिज्जइ म करि देव असाहु णिरुत्तउ | मंतवणें पहु वसंतर जह तुम्हि कहिय तह भेटेसमि सिरिवा मण्णाविय सुंदरि सिरिवालें पुणु दूर - विसज्जिउ मालवराउ चढिउ' साणंदे करुणदेव सिरिवाल समायउ कण्णदेव तुहुँ म परियाणहि तो आलिंगि विणयरि पवेसिउ पुणु भेटिय सात सय राणा हार-डोर - सेहरई समप्पिय सयल विदेस देस किय राणा हट्ठ-सोह जा किय तहि अवसर
घत्ता - सिरिवालु पयउ पुरयणु
'राय-णीति हारिय सामिय पहूँ । लिस व करिज्जइ । सव्व राय - कम्मु बलवंतउ । सम्माणिउ सो दूर तुरंत । गयउ दूउ कहिय सामीसिमि । खमहि देवि अम्हीँ परमेसरि । समपरिवद्धे भेंट करिज्जउँ । चंपाहिंउ सिरिवा गयंदे | जय जय भणेवि मामु बुल्लाविउ । जामायउ सिरिवा ण जाणहि । चारं बलुसलुवि तोसिउ । बालमित्त जे जीव - पराणा | कडय- चूड-कर-कंकण अपिय । ये महु याहु मित्त व राणा । वासरि वण्णइ परमेसरि । तुट्ठउ घरि घरि कियउ बद्धावण" । मणि-मोत्तिय मालहिं खचिय- पवालहिं मंदिर-मंदिर तोरणउ || १७||
१८
[ २.१६.१२
जय-मंगल-सद्दहिं लवहि संख रायगणि कणयासणइँ देवि जिह गउर वणु क्रियउ सिरिवालहो चंपाउरि मणि सुमरिय तावहि ता पुच्छिउ उज्जेणिहि राणउ पयपाण उत्तुजं किंपि वि भइ कुमरु पुणु एहु ण जुज्जइ मय-गलिय-गंड कुंजर रसंत डिंडिम- दमाम वज्जिय णिसाण रावत चडिय रणजुज्झमाण गय- घड चल्लिय घंटा-रवेण
धत्ता - सिरियालु विचल्लिउ महियलि हल्लिउ' अरि संकिय भेरी-वेग | सामंतइँ चलियइँ सुहडइँ मिलियइँ गहु छायउ हय-खुररवेण ॥१ ॥
भेरी-काहल-मंदल असंख । वयसारिउ सिरि सेसइँ भरेवि । तो विसेसु किउ संधावारहो। किर सुण तहिँ अच्छइ जाव हि । भइ त पहिँ देउं पयाणउ । अरज्जु लेहि तुहुँ टिवि । हो हो माम एम तं पुज्जइ । आरूढ णरवइ पट्टदंत । हिलि हिलि हिलंत खंचिय किंकाण । तोलंत खग्ग | दिढ-पहरमाण । धय-वड-छत्तइँ रण - उच्छवेण ।
१७. १. ग रायणीई । २. ग हारिय । ३. ग वर्याणि । ४. ग णिरुत्तउ । ५. ग मन्नावि । ६. ग समपविद्धे । ७. ग करिव । ८. ग चलिउ । ९. ग लोयहिं दिट्ठउ । १०. ग वधावणउ । १८. १. ग हो हो माम माम तं पुज्जइ । २. ग महंत । ३. ग लुइल्लिउ ।
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२. १८. १३ ]
हिन्दी अनुवाद
६९
धत्ता - पयपाल राजा यह सुनकर क्रुद्ध हो उठा। वह विरुद्ध होकर बोला - " यह कौन है ? कौन इसे मानता है ? मैं उसे युद्धप्रांगण में समाप्त कर दूँगा । उस योद्धाको जीतकर धरतीपर राज्य करूँगा अपने पुण्यसे ॥१६॥
१७
तब मन्त्रीने मालवपतिको सम्बोधित करते हुए कहा कि "हे स्वामी, आप राजनीति में हार गये। यदि आप मेरा कहा सुनें तो इस बलवान् के साथ आपको अपनी शक्तिका प्रदर्शन नहीं करना चाहिए । निश्चय ही देव आप असत् को पकड़नेका प्रयास न करें । हे राजन्, सबसे बलवान् कर्म होता है ।” मन्त्रीके वचन सुनकर राजा शान्त हो गया । राजाने तुरन्त उस दूतका सम्मान किया और कहा - " तुमने जो कुछ कहा है, वह ठीक है, मैं भेंट करूँगा ।" दूत वहाँसे चला गया और संक्षेपमें उसने वह बात श्रीपालको बता दी । तब श्रीपालने उस सुन्दरीको मनाया कि हे परमेश्वरी देवी, तुम क्षमा करो । श्रीपाल फिरसे दूतको भेजा कि वह (प्रयपाल ) सेनाके साथ भेंट करें ? उसके साथ कर दिये । मालवराज सानन्द वाहनपर चढ़ गया । चम्पाधिप श्रीपाल भी हाथीपर आरूढ़ हो गया । करुणापूर्वक श्रीपाल आया और जय-जय शब्दके साथ उसने अपने ससुरको बुलाया । हे कर्णदेव, आप मुझे जानते हैं, क्या आप अपने दामाद श्रीपालको नहीं जानते ? तब उसने उसे अपने आलिंगन में परिवेष्टित कर लिया। यह देखकर चतुरंग सेना सन्तुष्ट हो गयी । फिर उसने सात सौ रानाओंसे भेंट की, जो उसके बालसखा और उपराना थे । हार, डोर, शेखर उन्हें भेंटमें दिये गये । कटक, चूड़ा और हाथके कंगन समर्पित किये गये। सभी देश-विदेशके राना और भी जितने मित्र राना हैं, वे भी आये उस अवसरपर | बाजारकी जो शोभा की गयी, उसका वर्णन परमेश्वरी वागेश्वरी ही कर सकती है ।
धत्ता - श्रीपालने नगरमें प्रवेश किया, पुरजन सन्तुष्ट हुए । घर-घर आनन्दबधाई हुई | प्रवालोंसे जड़ित मणियों और मोतियोंकी मालाओंसे घर-घरपर तोरण सजा दिये गये ||१७||
१८
शंखोंसे जयमंगल शब्द हो रहे थे । अगिनत भेरी, काहल और मन्दल ( वाद्य ) बज रहे थे । राजभवन में श्रीपालको स्वर्णसिंहासनपर प्रणामपूर्वक बैठाया गया । श्रीपालको जैसा गौरव दिया गया उसी प्रकार उसकी सेनाका विशेष प्रबन्ध किया गया । वह सुखसे वहाँ रहने लगा । इतने में उसे अपने मनमें चम्पापुरीकी याद आयी । उज्जैनीके राजा पयपालने उससे ( मनकी बात ) पूछी। उसने कहा कि मैं चम्पाके लिए कूच करूँगा । तब राजा पयपालने जैसे-तैसे कहा कि तुम मेरा आधा राज्य बाँटकर ले लो । इसपर कुमार कहता है, यह उपयुक्त नहीं है । हे ससुर ! वह आपको ही पर्याप्त है । तब राजा श्रीपाल मदजलसे गलितगण्ड एवं चिग्धाड़ मारते हुए मुख्य हाथी पर सवार हो गया । डिण्डिम, दमाम और निशान बज उठे । हिलते डुलते किंकाण निकाल लिये गये । युद्धमें लड़नेवाले राजपुत्र सवार हुए । दृढ़ प्रहार करनेवाले वे अपनी तलवारें तौल रहे हैं। घंटा शब्दके साथ गजघटाएँ चलने लगीं । युद्धके उत्साहसे ध्वजपट और छत्र फहराने लगे ।
घत्ता - तब श्रीपालने भी कूच किया । धरती हिल गयी । भेरीके शब्दसे शत्रु काँप उठा । सामन्त चले और योद्धा आपस में मिल गये । घोड़ोंके खुरोंकी ध्वनिसे नभ छा गया ॥ १८ ॥
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सिरिवालचरिउ
[२. १९.१
१९ रायउत्त जे समरि धुरंधर सेव कराविय राय वसुंधर । इय साहंतु देसु वइरायहँ
कण्ण कुमारिउ परिणिउ रायहँ । अठ्ठ-सहस मणहर अंतेउर तेत्तिय पिंडवास' पय-णेउर । चाउरंगु बलु मिलिउ असेसहँ आये अंगदेस सुपएसहँ । चंपा-णयरिहि णियडु परायउ वीरदमण' कहँ भटु परायउ। भट्टई कहिउ जाहि मण अच्छहि धम्म-दुवारु दिण्णु खल गच्छहि । जाहि जाहि विगुञ्चिय आलवहि जीव-दाणु दिण्णउ सिरिवालहि । पई जु भतीजउ मारि णिसारिउ सो सिरिवालु आउ पञ्चारिउ सिरिवालहो जं परिसु सीसइ सो महि-मंडलि कासु ण दीसइ । आयण्णिवि भट्टहँ वयण-भाउ अइ-कोपिउ जंपइ वीरराउ । संगरि जो मोडइ सुहड-थटू को गणइ एहु सिरिवालु भट्ट । घत्ता-सिरिवालु णिभच्छई भट्टु पसंसइ सेवमाणु जहिँ अतुल-बलु । ___ तं तुज्झु वि माणहि बहु-विह-राणहि रण-अभंगु सिरिवाल-दलु ॥९॥
१०
२० जहिं ट्ठारह-लक्ख वाणवइ देसु सो सेवइ उज्जेणी-णरेसु । सोरठ-गूजर-वइ पंडिराउ। 'दलवट्टण धणवालहु सुवाई। मेलिउ सुकंठ सिरिकंठ आइ तहिँ कणयकेय णंदण पियार। आवासे चित्त-विचित्त वार बहु इयर-राइ तहि को गणेइ। जहिं तिलँगराय सेवा करेइ' तहि कासमीर कीर भडवाण । खस-बब्बर मेली अपमाणा भडउच्छ पाटण आउ वराहिउ। सेवइ कच्छ-देस कच्छाहिउ कोडि भडहँ पउरिसु सिरिवालहँ। णउ खल छुट्टहिं सग्ग-पयालहँ अन्ज वि किण्ह-वयण किं अच्छहिं। लेविणु पाण गच्छि जइ गच्छहिं अंगरक्ख जिण मेटहि आणा ।कोवें तुज्झ सात-सय-राणा । ___ घत्ता-कहिं जंबू कहिं केसरि कहिं हय वेसरि कहिं रीरी सोवणु कहिं ।
जहिं पहु सिरिवालु अरि-खय कालु तहिं वीरहं ठांउ कहिं ॥२०॥
२१
जा जाहि भट्ट जंपहि असारु इम भणिवि दिण्ण संगाम-भेरि
रण-महिं बंधिवि घल्लउँ कुमारु । णिसुणेवि सर्दु खलभलिय बेरि।
१९. १. ग पिंडवासु । २. ग आइय । ३. ग वीरदमण तिहुं भट्ट पठायउ । ४. ग पचारिउ । ५. ग वय
___णुल्लउ । ६. ग बहु भल्लउ । ७. ग थट्टवि । ८. ग भट्टवि । ९. गणिभसंइ । २०. १. ग जसु-ठारह । २. ग जरासि विजउ कुंकुहिं आउ । तहिं वज्जसेणु कंचणपुरेउ । कुंडल पुर वह
जहिं मयर केउ । ( उक्त पंक्तियाँ 'ग' प्रतिमें अधिक है ) ३. ग सुवाउ । ४. ग सिरि कटू आउ।
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२. २१.२]
हिन्दी अनुवाद
१९ युद्धमें धुरन्धर राजपुत्रोंसे उसने राजसेवा करायीं। इस प्रकार बहुतसे देश और उपराज्योंको साधते हुए उसने बहुत-सी राजकन्याओंसे विवाह किया। आठ हजार सुन्दर अन्तःपुर उसके साथ था। इतना ही पदनूपुरवाला पिण्डवास । समस्त चतुरंग सेना मिल गयी। वे सुन्दर प्रदेशवाले अंगदेशमें आये। वे चम्पानगरीके निकट पहुँचे। श्रीपालने वीरदमनके पास दूत भेजा। उसके मनमें जो बात थी वह दूतको बताते हुए उसने कहा कि “यही धर्मद्वार है। वह (वीरदमन) इसपर चलता है तो ठीक, नहीं तो उससे खरी-खरी बात कहो । तुमने बचपनमें मारकर निकाल दिया था। वह तुम्हारा भतीजा तुम्हें जीवनदान दे रहा है। तुम्हारा वही भतीजा आ गया है। वह तुम्हें बुला रहा है। तुम श्रीपालके पुरुषार्थको स्वीकार लो। उसका प्रताप त्रिभुवनमें किसे दिखाई नहीं देता?' दूतके वचनोंका आशय जानकर वह वीर राजा कुपित होकर बोला-"जो समरघटामें सुभट समूहको मोड़ देता है, वह इस योद्धा श्रीपालको क्या समझता है ?"
घत्ता–इसपर, दूत कहता है—'तूं अपनी प्रशंसा करता है, और श्रीपालकी निन्दा करता है जिसकी अपार सेना सेवा करती है। तुम भी उसे मानो, उसकी सेना बहुतसे रानाओंके कारण अभंग है ।।१९।।
२०
जिसके पास अट्ठारह लाख बानबे देश हैं, ऐसा उज्जैन नरेश उसकी सेवा करता है। सौराष्ट्र, गूजर, पंडिराज, दलवट्टणके राजा घनपालके बेटे सुकण्ठ, और श्रीकण्ठ भी आकर मिल गये। उसमें कनककेतुका भी प्यारा पुत्र है। चित्र-विचित्र वे भी आये हैं। और भी दूसरे राजा वहाँ थे, उन्हें कौन गिन सकता है? वहाँ तिलकराज सेवा करता है। उसमें कश्मीर और कीरका राजा है। अगनित खस और बब्बर आकर इकट्ठे हो गये हैं। भड़ौच और पाटनके राजा भी आये । कच्छदेशके कच्छवाहे भी सेवा करते हैं। प्रवीर कोटिभट श्रीपालसे तू स्वर्ग और पाताल लोकमें भी जाकर नहीं बच सकता। आज भी कठोर वचन क्यों कहता है ? अपने प्राण लेकर जहाँ जा सके, वहाँ जाओ। अपने अंगदेशको बचाओ। आज्ञाको मत मेटो। तुमसे सात सौ राणा कुपित हैं।
__ पत्ता-कहाँ शृगाल और कहाँ सिंह; कहाँ घोड़ा और कहाँ गधा; कहाँ पीतल और कहाँ सुवर्ण ? जहाँ प्रभु श्रीपाल हैं शत्रुओंके क्षयकाल, अन्य वीरोंको स्थान कहाँ ? ॥२०॥
२१
तब चम्पानरेशने कहा-“हे भट्ट, तुम जाओ। तुम सारहीन बोलते हो । मैं कुमारको युद्धमें पकड़कर बन्दी बना लूँगा।" यह कहकर उसने रणकी भेरी बजवा दी । उसका शब्द सुनकर खलबली मच गयी। वीरदमन तुरन्त उठा। मानो मतवाले हाथी पर आरूढ़ यम हो। हाथियोंकी घटाएं चलने लगीं। धनुर्धारी उठकर, रथ और किक्काण खींचते हुए दौड़े। घर-घरसे बाकी राजपुत्र भी इकट्ठे होने लगे, जो युद्ध में शेष चतुरंग सेनाको जीत सकते हैं। अपने पतियोंसे स्त्रियोंका यह सन्देश वचन था- "हे प्रिय, मुझे श्रीनेत्र पट्ट लाकर देना।" एक कहती-"हाथियोंके गण्डस्थलोंसे उछलते हुए जितने भी मोती मिले हे प्रिय, उतने लाना।" कोई एक सरस प्रिया कहती है कि एक तलवार अपने पौरुषके प्रतीक स्वरूप मुझे देना।
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सिरिवालचरिउ
पुणु वीरदम उट्ठ तुरंतु गयघड चालिउ सिंदूरराय रह- किक्काणइँ कढिज्जमाण घरि घरि रावतहिं भरिय सेस णा संदेसें णारि करण अरि-करि-कुंभत्थल- मोत्तियाइँ कवि भइ एक्क पिय सरसियाउ
वस्तुबंध - ताम कुद्ध भग्गइ सिरिवालु
3
लेहु लेहु पभणंतु पधायउ णिग्गय धाणुक्किय वि महंत हूँ संगाम - तूर- कालिय सह sa - डिंडिम-डम तुरुतुरु रसंति कस घाहिये ताडिय वर-तुरंग "मल्हतिर गय घड वेरियाउ बहु-छत्त- चिंधणहु छाइयाई पहरंति परोप्परु सुहड-मल्ल "रावत्तहिं सउ रावत्त खलिय पाइक भिडिय पाइक्किएहिं ता उभय-बल इँ देखिवि महंत
मयले आरुढ णं कथंतु । कामण-भुवंग कर तुह विणाय । धाइ धाणुक्किय उट्ठमाण | रणि चारं वलु जिणहि सेस । सरित पट्ट महु आणि रमण ।
हिप पावहि जेत्तिया हूँ । असिव णिय-पोरुसु मज्झु दाउ ।
धत्ता - वीरदमणु पहु णिग्गउ समरि अभग्गउ सिरिपालहु दूएँ अक्खियउ | अरिवहु णंद परबल - मद्दणु पिक्खि समग्गड पित्तियउ ||२१||
'रह सज्जहु गयघड गुरहु चढहु सुहड सण्णद्धं सज्जहि । पल्लाहु वर तुरय देहु ढक्क रण गहिर-गज्जहि ॥ आरूढ करि-कंधलु देहि असीस पुरंधि | आयदेवि तोणा जुलु दिढ धणहरु सरसंधि ||
[ २. २१. ३
२२
चाउरंग बलु कहिंमिण मायउ । 'घणु-गुण-वाण-पंति लायंत हूँ । तिवलिय गुंजा कालिय-सद्द | सुणि वीर-सरण- मुहि सर्वति । असवारहिं णिज्जिय जहिं समग्गे । करढह - सद्दे णच्चंतियाउ । तहि उभय-वलइँ र आइयाइँ | तीरी - तोमर वाबल्ल- भल्ल ।
- घडहिं वि गय- घड सघणमिलिय । धाणुका सिउधाणुक्किएहिं । पुणु रइय-मंत मंतिहिँ विचित्त ।
धत्ता - यि मणि पहु वुच्चइ दोण्णि वि जुज्झइ समरि वि जु जित्तइ अज्जु । दि परियण-मंदिर महियलि भुंजइ रज्जु ||२२||
सो
२१. १. ग कामिणि भुयंग कर तुह विणाय । २. ग कछिज्जमाण । ३. ग णाहहु संदेसउ णारिवयणु । ४. ग फरु । ५. ग दूए । ६. ग रह सज्जहु गयवर गुडहु । ७. ग सण्णद्ध ।
२२. ग १. धणु गुणहं वाण सज्जंत संत । २. ग वरतुरंग । ३. ग माल्हंतउ । ४. ग रावत्तहं सिउ रावत्त खलिय ।
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२. २२. १३
हिन्दी अनुवाद
७३
घत्ता - राजा वीरदमन निकल पड़ा। अरिदमनके पुत्र श्रीपालसे दूतने जाकर यह बात कही कि देखो, शत्रुओं का दमनकारी तुम्हारा चाचा आ गया है || २१॥
1
वस्तुबन्ध-तब क्रुद्ध होकर श्रीपालने कहा - रथ और महान् गजघटा सजाओ । हे सुभटो, तैयार होकर उनपर चढ़ाई कर दो। अश्वोंपर कवच चढ़ा दो और युद्धके गम्भीर बाजे बजाओ । वह हाथी के कन्धेपर चढ़ गया । इन्द्राणी उसे आशीर्वाद देने लगी । उसने दो तूणीर और धनुष ले लिया । और धनुषपर तीर चढ़ाया ।
२२
लोलो, कहता हुआ वह दौड़ा। उसकी चतुरंग सेना कहीं भी नहीं समायी । बड़े-बड़े धनुर्धारी निकले । उन्होंने धनुषोंपर बाणोंकी पंक्ति चढ़ा ली । भयंकर संग्राम भेरी बज उठी । तिवलिय गूँज उठी और काहल शब्द कर उठे । डवडिम डिम-डिम करने लगे । तुर्यं तुरु तुरु शब्द करने लगे । वीरशब्द सुनकर, योद्धा रण की ओर चले । अश्ववर कोड़ों की मारसे पीड़ित होने लगे । अश्वारोहियोंने वहाँ सब कुछ जीत लिया । मस्तीमें झूमती हुई गजघटा प्रेरित कर दी गयी । करहडके शब्दपर वह नाचने लगी । बहुतसे छत्र और पताकाएँ छा गयीं । दोनों ओरकी सेनाएँ युद्ध के मैदान में कूद पड़ीं । वीर योद्धा एक-दूसरेपर तीरी, तोमर, वावल्ल और भालोंसे प्रहार करने लगे । राजपुत्र गिरने लगे । गजघटाएँ भी सघन घटाओंसे मिल गयीं । पैदल सेनाएँ, पैदल सेनासे भिड़ गयीं । धनुर्धारी धनुर्धारियों से भिड़ गये। दोनों ओरकी सेनाओंको देखकर मन्त्रियोंने राजकीयमन्त्रणा की ( और कहा ) ।
घत्ता - "हे राजा, अपने मनमें सोचिए कि हम दोनों ही द्वन्द्वयुद्ध करें । युद्ध में जो जीत जाये, वह वीर परिजनोंसे अभिवन्दित धरतीपर राज करे ||२२||
१०
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७४
सिरिवालचरिउ
[२. २३.१
२३ आयण्णिवि मंतिहिं वयण-गइ पहु वीरदमण-सिरिवाल वइ । 'अभिडिय सुहड णं दोणि सीह णं मत्ता मयगल रसिय-जीह । णं सुव्वउ सत्ति-कुमारु सारि
णं भिडिय चपळूउ तल-पहारि । णं रावण-लक्खण सुहड-मल्ल गंभीम-दसासण धरिय-सल्ल । णं भरहु राउ बाहुबलि कुमार णं जिणवर णं रइणाहु सवरु। णं अज्जुणु कण्णु महापयंडु अभिडिय बेवि णं मत्त-संडु। सुग्गीउ वि विड-सुग्गीउ जेम हणुवहो अक्खय जिस भिडिय तेम । जिम भीमसेणु भिडियउ कम्मीरु तिम वीरदमणु सिरिवालु वीरु । घत्ता-दोण्णि वि जिह मयगल समरि समुज्जल एकमेक्क हय मोग्गरई ।
पुणु असिवर-धारहि णिसिय पहारहिँ मुचंति परोप्परु तीमरई ।।२३।।
२४
कउतले कुंतह लाई कटारिय एवमाइ वहु पहरण-चूरिय । कर अपफालिवि विण्णिवि धाइय। मल्ल-जुज्झ पुणु समरि पराइय। ठोक्कर-करण-चरण-संधाण पइसहिँ खलहिं बलहिं विण्णाणई। वीरदमण सिरिवालें हक्किउ मरहि वप्प कहि जाहिं ससंकिउ । करणु देवि गले लायउ ठोक्कर करु करेण चूरिवि किउ सक्करु । साहुंकारु कियउ सुर-विंदहिँ कुसुम-माल घालिय सुरसुंदहिं । वीरदमणु बंधिवि रण-मुक्कउ खम करि सुव तुहुँ अम्ह गुरुक्कउ । पालि पुहवि मणि-कणय-गुरुक्कउ वीरदमणु बोलइ वियसंतउ । हउं अवराहिय दिक्खा जुत्तउ तुझि जि रज्जु पुत्त इउ उत्तउ । घत्ता-कणय तार-वर-कलसहिं जणमण-ह रिसहिं सिरु कुवरहँ अहिसिंचिउ । .. चामीयर-घडियउ रयहिं जडियउ पट्टबंधु सिरिवाले किउ ॥२४॥
२५
तवयरणु भणिवि गउ वीरदमणु सिरिवालु पइट्ठउ णियय-भवणु । घरि-घरि मोत्तिये रंगावलीउ उम्मे तोरण-मयगल-गुलीउँ । पुणु अइहव-मंगल-चारु गीउ वंभणहिं वेय-उच्चारु कीउ । वेयालिय-गण सलहति ताहि . णारियणु णडइ वहु-उच्छवेहि। सिगिरिय-छत्तहिं-चामर धरेहिँ सामंत-मंति-साह-णियारेहिं । से विज्जमाणु सिरिवालु तहिँ तहि अंगदेसु चंपापुरिहिं । पट्ट महाशवि मयणासुंदरि अट्ठ-सहस-अंतेउर-उप्परि । सत्तंगरज भुंजइ सुहेण
पय पोसिय चारिउ-वण्ण तेण । पहिलारउ साहिउ धम्म-तित्थु पुणु अत्थु कामु मोक्खवि पसत्थु । २३.१. ग अबिभडियरहं। २. ग रणि अभीह । ३. ग संति । ४. गणं भिडिउ वापुलउ तल पहारि ।
५. ग समरु । ६. ग कमारु । ७. ग हणु। २४. १. ग क्कोंतल कोंतल तय कटारिय। २. ग संदाणइं । ३. ग दिक्खइं। २५. १. ग मुत्तिय रंगाबलियउ । २. क गुडीउ । ३. ग चमरएहिं । ४. ग तहिं पट्ट मयणसुंदरि सिरीय।
५. ग जा अट्टसहस मज्झहं गरीय ।
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२. २५.९]
हिन्दी अनुवाद
२३ मन्त्रियोंके वचन सुनकर वीरदमन और राजा श्रीपाल दोनों योद्धा आपसमें भिड़ गये, मानो दोनों सिंह हों। या मतवाले दो चिग्घाड़ते हुए हाथी हों। मानो कुमार सुन्द उपसुन्द हों। मानो दो चपल तलप्रहार करनेवाले ( चाँटोंसे प्रहार करनेवाले ) भिड़ गये हों। मानो रावण और सुभद्र योद्धा लक्ष्मण आ भिड़े हों। मानो आशंकित होकर भीम और दुःशासन भिड़ गये हों। मानो कुमार बाहुबलि और भरत भिड़ गये हों। मानो जिनवर और कामदेवका युद्ध हो। मानो अर्जुन और महाप्रचण्ड कर्ण हों। वे ऐसे जा भिड़े मानो दो मत्त साँड़ हों। जैसे सुग्रीव और कपट सुग्रीव । हनुमान् और अक्षयकुमार जिस प्रकार भिड़े, उसी प्रकार जिस प्रकार भीमसेन और कम्मीर-वीर आपसमें भिड़े थे उसी प्रकार वीरदमन और श्रीपाल आपसमें भिड़ गये।
घत्ता-दोनों ही मतवाले गजके समान थे। युद्ध में समुज्ज्वल, एक-दूसरेको मुद्गरसे मारने लगे। फिर उन्होंने पैनी तलवारोंसे प्रहार किया। एक-दूसरेपर 'तोमर' छोड़ने लगे ॥२३॥
२४ कोतल कुन्त और कटारें, ये और इस प्रकारके बहुत हथियार चूर-चूर हो गये। तब हाथ फटकारते हुए दोनों दौड़े। अब युद्धके मैदान में मल्लयुद्ध प्रारम्भ हुआ। ढोक्कर, करण और चरणोंका संघात । कौशलसे वे घुसते, स्खलित होते और मुड़ते । तब श्रीपालने वीरदमनसे कहा"बेचारे, तुम मरोगे, शंकित तुम कहाँ जाओगे ? तब उसने करण दावसे गलेमें ढोकर (दाव) डाल दिया और हाथको हाथमें लेकर चूर-चूर कर दिया। तब सुरसमूहने जय-जयकार किया और उसके ऊपर पुष्पमालाएँ अर्पित की।' वीरदमनको बाँधकर श्रीपालने मुक्त कर दिया और उसने कहा"तुम मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारा पूज्य हूँ। मणि और सोनेसे मण्डित महान् धरतीका तुम पालन करो।" तब वीरदमन हँसता हुआ बोला-"मैं अपराधी हूँ, मैं दीक्षाके योग्य हूँ। हे पुत्र, यह तुम्हारा राज्य है। यही ठीक है।"
पत्ता-जनमनोंको हर्षदायक सोनेके स्वच्छ श्रेष्ठ कलशोंसे कुमारके सिरका अभिषेक किया गया । स्वर्ण निर्मित रत्नोंसे जड़ा राजपट्ट श्रीपालके सिरपर बाँध दिया गया ।।२४।।
२५
तपश्चरणकी बात कहकर वीरदमन वहाँसे चला गया। श्रीपालने अपने भवनमें प्रवेश किया। घर-घर मोतियोंकी रांगोली की गयी। दोनों ओर तोरण बाँधे गये । मदगल हाथी गरजने लगे। अत्यन्त भव्य और सुन्दर गीत गाये जाने लगे। ब्राह्मण वेदोंका उच्चारण कर रहे थे। वैतालिक जी भर प्रशंसा कर रहे थे। बहुतसे उत्सवोंमें नारियाँ नृत्य कर रही थीं। ध्वजचिह्नों और छत्रोंके साथ चवर ढोर रही थीं। सामन्त, मन्त्री और सेना श्रीपालकी सेवामें तत्पर थे। उस अंगदेशकी चम्पानगरीमें मदनासुन्दरी पट्टरानी थी, अट्ठारह हजार रानियोंके ऊपर। वह सप्तांग राज्यका सुखपूर्वक उपभोग करने लगा। उसने चारों वर्णोकी प्रजाका पालन किया। सबसे पहले उसने धर्मका साधन किया, फिर अर्थ, काम और प्रशस्त मोक्षका भी।
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सिरिवालचरिउ
सुहेण जहिँ ।
घत्ता - अरिदवणहो णंदणु णयणाणंदणु सहावइ वहु-फल-दल-फुल्लइँ सुट्ठ-णवल्लइँ, लइ आयउ वणवालु तहिं ॥२५॥
२६
पिय भासण अरि-तासण गरेस "जो जोइट्ठाण - गुणु जो विणीउ मल-मलिण-गत्तु चारित-पत्तु सो संजयंतु मुणि आउ तेहि छइ वासपूजै-जिणहरि विचित्तु पय सत्त छँडिअ आसणु निवेण "र- णियरहि परिवारिउ णरिंदु पय उर- सद्दइँ रुणुझुणंति आइय वंदण पुरलोय सव्व
बद्धावर सुणि गुण-गण-असेस | - सुर- खेर - अविंदणीउ । तव-वय- पहाणु विय-संत-वत्तु । उववण-किउ सरइ वसंतु जेहिं । आयउ वंदहुँ अरिवण-पुत्तु । गुरु व परोक्ख विणइ तेण । अंतर- सहियउ णं सुरिंदु | चल्लियजुवई मुणि गुण थुणंति । जे दूर भव्व आसण भव्व ।
घत्ता - जिण मंदिर दिट्ठउ सिलहि णिविट्ठर पिंडीदुम-छाया - वरेण । ति पाणि विणु विणउ करेविणु वंदिउ मुणिवरु णर- वरेण ||२६||
[ २.२५. १०
२७
धम्म- बुद्धि' दिण्णिय सम्भावें जल-चंदण-अक्खय-कुसुमोहें पुणु कुसुमंजलि जिण-पय देष्पिणु पय पुज्जिवि वंदिवि अहिदिउ कहइ भडारउ हिंसा-वज्जिउ पर-दविणुवि पर-तिय वज्जिज्जइ तिणि गुण व्वय सिक्ख चयारि वि पुणु पणवेष्पिणु पुच्छइ णरवइ केण वि पुणे अइस जायउ Shrfa में भरायहं मिणु ? कम्में ण वि सायरे चल्लिउ मयणासुंदरि महु अइभत्ती M
भाव- सुद्धि-सह शिव अणुराऐ । चरु-दीवहिं धूवहिं फल-ओहें । दंसणु णाणु चरितु भणेविणु । कहि पहु परम-धम्मु जगवंदिउ । धम्मु सुसच्चें वय पुज्जिउ । पुणु परिगह पमाणु णिव किज्जइ । हु सायार-धम्मु सिरिवाल वि । कहि परमेसर अम्हहँ भवगइ | अतुल- मल्लु तिहुयण - विक्खायउ | पुणु के कम्मे कोटिउ णिग्घिणु । केण वि पावें डोमिउ बोलिउ । कहि परमेसर कारण - जुत्ती ।
घत्ता - आणिवि वयणइँ मुणिवरु पभणइ पुण्ण - पाव फलु अक्खमि । भो सुणि महिवाल णिव सिरिवाल तुव जम्मांतरु अक्खमि ||२७||
२६. १. ग संजोइ । २. गवंत । ३. ग वासपुज्ज । ४. ग गुरु णाविउ णरोम्ह विणइ तेण । ५. ग पुणु देवाविय आणंद तुरु, वंदण चल्लिउ भव कमल सूरु । ६. ग जयई ।
२७. १. ग. विधि । २. ग. भणेष्पिणु । ३. ग. हिंस विवज्जिउ । ४. ग. तिहुवणि । ५. ग. पयभत्ति । ६. ग. जम्मंतरु 1
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२. २७. १४]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-नयनोंके लिए आनन्ददायक अरिदमनका पुत्र श्रीपाल एक दिन सुखसे राज्यसभामें बैठा हुआ था, इतनेमें बहुतसे सुन्दर और नये फल, दल और फूल लेकर वनपाल वहाँ आया ।।२५ ॥
उसने कहा-“हे प्रियभाषी और शत्रुओंको सतानेवाले राजन्, बधाई है आपको । अशेष गुणगणवाले ज्योतिस्थानमें स्थित, नर, सुर और विद्याधरोंके द्वारा वन्दनीय, मलसे मलिन गात्र, परन्तु चारित्र्यसे पवित्र, तप और व्रतोंमें प्रमुख, प्रसन्नमुख, संजय नामक मुनि उपवनमें पधारे हैं । उन्होंने उपवनको शरद् और वसन्तकी भाँति बना दिया है। वह वासुपूज्य भगवान्के मन्दिरमें विराजमान हैं। अरिदमनका पुत्र वन्दनाके लिए वहाँ आया। आसनसे सात कदम धरती छोड़कर उसने नमन किया और परोक्षमें गुरुकी विनती की। फिर उसने आनन्द के नगाड़े बजवा दिये और भव्यरूपी कमलोंका सूर्य वह वन्दनाके लिए चल पड़ा। नर-नारियोंसे घिरा हुआ और अन्तःपुरके साथ ऐसा लगता था, जैसे इन्द्र हो। पैरोंके नूपुरोंसे रुनझुन शब्द करती हुई युवतियाँ मुनिगणकी स्तुति करती हुईं जा रही थीं। नगरके सभी लोग वन्दना भक्तिके लिए आये जो दूरभव्य और आसन्न भव्य थे वे सभी।
घत्ता-उन्होंने जिनमन्दिर देखा, जिसमें पिंडीद्रुमको छायाके नीचे शिलापर मुनिराज विराजमान हैं । तीन प्रदक्षिणा देकर और विनय पूर्वक राजाने मुनिराजकी वन्दना की ॥२६॥
मुनिराजने सद्भावसे उसे धर्मबुद्धि दी। अपनी मानशुद्धिके लिए राजाने प्रेमसे जल, चन्दन, अक्षत और कुसुम समूह, चरु, दीप, धूप और फलोंसे मुनिराजके चरणोंमें कुसुमांजलि अर्पित की। दर्शन, ज्ञान और चारित्र्यका नाम लेकर, पैरोंकी पूजा की एवं उनका अभिनन्दन किया और कहा- "हे प्रभु, विश्ववन्दनीय धर्मकी व्याख्या कीजिए। भट्टारकने कहना प्रारम्भ किया कि हिंसा रहित धर्म ही संसारमें श्रेष्ठ है, वह सत्यवचनसे पूजनीय है। दूसरेके धन और स्त्रीसे बचना चाहिए और परिग्रहका परिमाण करना चाहिए। तीन गणव्रत और f आचरण करना चाहिए। इस प्रकार इस गृहस्थधर्मका परिपालन करना चाहिए। तब राजा प्रणामपूर्वक पूछता है-“हे परमेश्वर, मेरी भवगति बताइए। किस पुण्यसे मैं इतने अतिशयवाला हुआ, अतुलनीय योद्धा तीनों लोकोंमें विख्यात । किस कर्मसे मैं राजाओंमें श्रेष्ठ हुआ ? किस कर्मसे कोढ़ी, निर्धन हुआ ? किस कर्मसे समुद्र में फेंक दिया गया ? किस पापसे मैं डोम कहलाया ? मदनासुन्दरी मेरी अत्यन्त भक्त क्यों है ? हे परमेश्वर, इसका कारण बताइए ।
घत्ता-ये वचन सुनकर मुनिवर बोले-“पुण्य और पापका फल कहता हूँ। हे राजा श्रीपाल, सुनो तुम्हारे जन्मान्तर कहता हूँ ॥२७॥
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सिरिवालचरिउ
[२. २८.१
२८
तं णिसुणि णरेसर कहमि पुरि इह भरह-खेत्ति वेयड्ढगिरि । तहिं रयण-संचु णामे णयरु । विजाहर-लोयहँ सुक्खयरु । सिरिकंतु णरेसरु तहिँ वसइ सिरिमइ घरिणि व णं कामरइ । सा जिण-सासणे अइ-णिउण-मइ जिण-ण्हवण-पुज्ज-मुणि-दाण-रइ । सिरिकंतु ण जाणइ धम्म-मग्गु भजई सिक्खाविउ सो समग्गु । तिणि लयउ धम्मु सावय-वयाई गुरुणा दिण्णइँ मणि-भावियाई । पालइ जिण-धम्मु सुहेण जाम हुउ मिच्छादिविहिं संगु ताम । छाडिय जिण-धम्मु वि भयउ वाउ ते पावें रायहो भट्ट जाउ । मुणि दिट्ठउ पई णग्गउ णियंतु अइ-गउर-वण्णु वय-सील-वंतु । पत्ता-मलहारि मुणीसरु जो अवहीसरु कोटि उ अइसउ भणिउ पई। सो गुरु दुग्गुछिउ पइँ णिभंछिउ अवरई पीडियउ सरई ।।२८||
२९ मिच्छा-इट्ठिय मरिवि अयाणा कोढि भए सत्त-सय-राणा । सरि-तडि आतावणे थिउ मुणिंदु पेखेविणु' पई णिदिउ अणिंदु । पई ठेल्लाविवि' णरवइ जलि पेल्लिउँ पावे तुहुँ सायरि छल्लिउ । उग्ग-दित्तु तव-चरण खीणउ काय-किलेसहिँ दीसइ रीणउ । हिम-पडलेहिं अंगु पच्छायउ ते दीसइ जइवरु विच्छायउ। पई चिरु पाणु भणिवि मुणि तासिउ तेण कुकम्में डोमु वि भासिउ । सिरिमइ-देविहि केण वि कहियउ तुम्ह णाहु भउ धम्में रहियउ । जिंदउ सिरिहि अवलोइ-विबोलई करे उरु ताडइ सिरिसर ठेलइ । पाविय-मिच्छा-इट्ठिहिँ मेलहिँ कोढिय पाण चुवहि जण-रोलहिँ। णड-भड पाणहिं गहि उ अयाणउ लोय भणहिँ णि णाहि सयाणउ । घत्ता-णिसुणेवि विरत्तिय छंडिय तत्तिय णिबिणी घरवारहो। कालि वि तउ लेसमि अजिय होसमि वज्जु पडउ भत्तारहो।।२९।।
३० एत्तहिं गउ णरिंदु णियकेयण दिट्ट देवि विच्छाय अचेयण । केण वि भिच्चे रायहो अक्खिउ पइँ जिण-धम्मु देउ उप्पेक्खिउ । तें दीसइ महएवि विदाणी जा अंतेउर सयल-पहाणी । जं भणियउ भिच्चे वयणुल्लउ लग्गउ कण्णे गरिंदहु भल्ल उ । जावि देविहि पायहिँ पडियउ खमहि देवि हउँ पावें जडियउ । जइ णवि पालउँ धम्मु जिणेसर तो मई लज्जिय सयल णरेसर । ता विणि वि लहु गय जिण-मंदिरु जिणु सुउ णविवि णविउ मुणि सुंदरु । आयण्णहु सामी वयणुल्लउ हउँ जु कुसंगहँ संगे भुल्लउ । दइ पायाछित्तु दंडु णिउ भासइ वउ उवएसहि पाउ जहिं णासइ ।
२८. १. गभरह खित्ति । २. ग घरिविय णं कामरइ। ३. ग सावय वयाइं। ४. ग संहण ।
५. ग. बय णियम गरुय सीलवंतु । ६. ग. उवराइ पीडियउ सई। २९. १. ग पिक्खेविण । २. ग ठेलिवि । ३. ग वोलिउ । ४. ग हिमपडलहिं तहु अंगु पछायउ ।
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२. ३०.९]
हिन्दी अनुवाद
२८ हे राजन्, सुनो कहता हूँ। इस भरत क्षेत्रके विजयाध पर्वतपर रत्नसंचय नामकी एक नगरी है जो विद्याधर लोकके लिए सुखकर है। उसमें श्रीकान्त नामका राजा निवास करता था। उसकी श्रीमती नामकी पत्नी वैसी ही थी जैसी कामकी रति । वह प्रतिदिन जिनशासनकी वन्दना करती थी। जिनका अभिषेक, पूजा और मुनियोंको दान देने में लीन रहती थी। श्रीकान्त धर्मका मार्ग नहीं जानता था। पत्नीने उसे समग्र धर्मका मार्ग सिखाया। उसने श्रावकके व्रत अंगीकार कर लिये। गुरु द्वारा प्रदत्त ये व्रत उसे बड़े अच्छे लगे। इस प्रकार वह सुखपूर्वक धर्मका पालन करने लगा। परन्तु उसकी संगति मिथ्यादृष्टियोंसे हो गयी। वह बावला हो गया। उसने धर्म ही छोड़ दिया। इसी पापसे वह अपने राज्यसे भ्रष्ट हुआ। तुमने एक नग्न साधुको आते हुए देखा, अत्यन्त गोरे और व्रतशील वाले। ___घत्ता-मलधारी वह मुनि अवधिज्ञानी थे, परन्तु तुमने उन्हें कोढ़ी कहा। तुमने मुनिकी निन्दा की। तुमने भर्त्सना की उसीसे तुम समानरूपसे पीड़ित हुए ॥२८॥
००
मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी तुम लोग मरकर सातसौ राना कोढ़ी हुए। नदी किनारे आतापिनी शिलापर मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर तुमने उन अनिन्द्य की निन्दा की। तुमने ढकेलकर मुनिको पानी में डाला । इसी पापसे तुम समुद्रमें फेंक दिये गये । उग्रदीप्त मुनिका शरीर कायक्लेशसे क्षीण हो गया था। हिमपटलसे उनका शरीर ढक गया था और वह मुनिवर कान्तिहीन हो गये थे। तुमने उन्हें 'डोम' कहकर सताया। इसी कारण तुम डोम कहलाये। किसीने श्रीमती देवी से कहा कि तुम्हारा स्वामी धर्मसे रहित हो गया है। मुनिको देखकर निन्दा करता है। अबोल बोल बोलता है । अपने हाथसे आतापिनी शिलासे मुनिको नदीमें ठेलता है। वह पापी मिथ्यादृष्टिसे मिल गया है। लोग बात करते हैं कि वह उन्हें कोढ़ी, डोम कहता वह अज्ञानी नट....और डोमोंकी संगतिमें रहता है। लोग कहते हैं कि राजा सयाना नहीं है।
घत्ता-यह सुनकर श्रीमती विरक्त हो उठी। उसने उदासीन होकर घर-द्वारमें अपनी आसक्ति छोड़ दी। उसने निश्चय किया कि मैं कल तप ग्रहण कर लूँगी। आर्यिका बन जाऊँगी। ऐसे पति पर वज्र पड़े ॥२९॥
इधर राजा भी अपने घर गया । उसने अपनी पत्नी श्रीकान्ता को कान्तिहीन और मूच्छित देखा। किसी अनुचरने राजासे कहा कि हे देव, आपने जैनधर्मकी उपेक्षा की है। महादेवी इसीसे दुःखी है । जो समूचे अन्तःपुरमें प्रमुख है। जब अनुचरने यह बात कही तो जैसे राजाके कानोंमें किसीने भाला मार दिया हो । जाकर वह देवी के पैरों पर पड़ गया। "हे देवि, मुझे क्षमा करो, मैं पापसे विजड़ित हूँ। यदि मैं जिनधर्मका पालन न करूँ, तो सब राजाओंमें लज्जित होऊँ ।" तब दोनों शीघ्र जिनमन्दिर गये। दोनोंने जिनश्रुतको नमनकर मुनिको नमस्कार किया। उ कहा कि मुनिराज, हमारे वचन सुनिए-मैं कुसंगके साथ लग गया, मुझे प्रायश्चित्तका दण्ड दीजिए, जिससे पापका नाश हो जाये।
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सिरिवालचरिउ
[२.३०.१०घत्ता-तउ भणइ तवोहणु णिज्जिय-मोहणु सिद्ध-चक्क-विहि जइ करहि । तो पाउ पणासइ तिहुवणु णासइ पाप-उवहि लीलण तरहि ।।३०।।
३१ सिद्ध-चक्क-विहि तिहुयण-सारा केण विहाणे करउँ भडारा। पुच्छइ रायवुत्तु मुणिणाहहो कहहि ति-णाणी पुहई-णाहहो। कत्तिय फग्गुण-साढ सुसोहहो सेय-पक्खि अट्ठमि कय-सोहहो । कासु उदऐ धुअ बाहिर-गंथइँ धोय-वत्थ गिण्हेवि पसत्थई। साकर-दुद्ध-दहिय-घिय-धारउ आणेवि जिणु ण्हविएहि भडारउ । जल-चंदण-अक्खय-कुसुमोहहिँ चरु-दीवहिं धूवहिं फल-ढोकहिं । जिण-णाहहो चरण. संपुज्जहि पुणु सुय देव-गुरुहिं णविज्जहि । णिय-भवियण-जण-विणउ पयासहि सिद्ध-चक्क विहि णियमणि भासहि। गुरुणा दिण्णउँ तई पडिवण्णउ अच्छहि णिय-मणि तुहुं पडिवण्णउ । अट्ठमि चउदसि उववासेवउ मेहुण-सण्णावउ रक्खेवउ । घत्ता-सिरिखंड-कपूरहिं परिमल-पूरहिं सिद्ध-चक्क-वउ उद्धरहि ।
अट्टोत्तर-सउ कलियहिँ वियसिय-ललियहिँ करहि जाउ मणे संभरहि ॥३१।।
बारह-फल-फुल्लेहिं सवंधहिँ बारह-दीवय-अक्खय पूजहिं । बारह अंगारिय इकवाणहिँ अट्ठ-दिवस पुज्जेहि रवण्णहिं। बंभचरिउ वसुदिण पालिव्वउ आइ-अंत जायरणु करेल्वउ । ण्हवण-पूज-बहु-गीय-विणोयहिं सिद्ध-चक्क-कह-फलु णिसुणेज्जहि । एण विहाणे अह-णिसु णिज्जइ जिम मण-इंछिउ फलु पाविज्जइ । पुणु पुण्णिम-दिणे एम करिज्जइ दाणु चउव्विह-संघहो दिज्जइ । जो पुणु करुणा-दागु वि किज्जइ । अंधहँ पंगुल-दीणहँ दिज्जइ । बरिस-बरिस सपुण्णई किज्जइ पुणु उज्जवणु ससत्तिए किज्जइ । जिणवर-विंबडं तिलउ दिवावहि बारह अज्जियाई पहिरावहि । बारह पोत्था-वडय विचित्तइँ। फुल्ली-डोरिएहिं संजुत्तइँ। घत्ता-सुय-दाणहिँ करहि पहाणहिँ सिद्ध-चक्क-आहासियउ ।
जिन पावहि णाणउ पुणु णिव्वाणउ गणहर-एव-पयासियउ ॥३२॥
संजमीहँ संजम-उवयरणइ . खुल्लय-अज्जिय-उत्तमसावहि' पुणु गोत्तहो आमंतणु किज्जइ
३३ सीय-णिवारणाई वय-धरणई। बहु-समाणु तिहुविणउ करावहि । सत्तिण भत्ति सम्माणिज्जइ ।
३२. १. ग सुयंधहि । २. ग में इसकी जगह पाठ है-"वारह विह णे व ज्जइ वण्णिय । ३. ग अह
णिसिजहि । ४. ग संघहिं । ५. ग पडइं। ३३. १. ग उत्तिम । २. ग प्रति में इसकी जगह पाठ इस प्रकार है-"सरसु भोउ चउ संघहु दिज्जइं"।
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२. ३३.३ ]
हिन्दी अनुवाद
८१
घत्ता - तब मोहका नाश करनेवाले तपोधनने कहा - " यदि तुम सिद्धचक विधिका विधान करो तो पाप नष्ट हो जायेगा । संसार भी नष्ट हो जायेगा और तुम पाप का यह समुद्र खेल-खेल में तर जाओगे ||३०||
३१
'सिद्धचक्र विधि' तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ है । राजपुत्र पूछता है - "हे मुनिवर, इसे किस प्रकार किया जाये ?" तब तीन ज्ञानके धारक परममुनि उन्हें बताते हैं -- शुभ आषाढ़ कार्तिक फागुन माह के शुक्लपक्षकी अनुमीको प्राशुक जलसे स्नान कर, वस्त्रोंको धोकर प्रशस्त वस्त्र धारण करे । शक्कर,... दूध, दही, घी लाकर जिनका अभिषेक करें। फिर जल, चन्दन, अक्षत और फूलों, सुन्दर-दीप-धूप और फलोंको धोये और जिनके चरणोंकी पूजा करे । देव शास्त्र गुरुकी वन्दनाकर अपने भव्य आत्मीय जनोंके साथ विनयसे बात करे । सिद्धचक्र विधिको अपने मनमें माने । गुरु जो ( उपदेश व्रतादि ) दे, उसे स्वीकार करे, तुम अपने मनमें यह अच्छी तरह समझ लो । अष्टमी और चतुर्दशीका उपवास करना चाहिए ।
घत्ता - श्रीखण्ड, कपूर, परिमलपूरसे सिद्ध चक्र व्रतका उद्धार करें । १०८ बार सुन्दर ललित गरियों से जाप करो, मनमें स्मरण करो ||३१||
३२
अच्छी तरह बँधे हुए बारह फल और फूल, बारह दीप और अक्षत से पूजा करनी चाहिए | एक रंगके बारह अंगारिकोंसे आठ दिन सुन्दर पूजा करनी चाहिए । रातके प्रारम्भ और अन्तमें जागरण करना चाहिए, स्नान, पूजा बहुतसे गीत विनोदों के साथ । अब सिद्धचक्र कथाका फल सुनो। सुना जाता है कि इसके विधानसे रात-दिन मनचाहा फल मिल जाता है । फिर पूर्णिमाके दिन यह करना चाहिए कि चार प्रकारके संघको दान देना चाहिए । फिर करुणा दान भी करना चाहिए । अन्धों, लूलों, लँगड़ोंको दान करना चाहिए । वर्षमें इसे एक बार पूर्ण करना चाहिए । यथाशक्ति इसका उद्यापन करना चाहिए । जिनवरकी प्रतिमाका तिलक करना चाहिए । बारह अर्जिकाओं का पहनावा पहनाना चाहिए । बारह विचित्र फुल्ली और डोरीसे संयुक्त पैंठन ( पोथीपट ) देना चाहिए ।
धत्ता - मुख्यरूप से शास्त्र दान करें । सिद्धचक्रका मैंने कथन किया इससे ज्ञान और फिर निर्वाणकी प्राप्ति होती है । गणधर देवने ऐसा प्रकाशित किया है ||३२||
३३
संयमी - जनों को संयम के और व्रतधारियोंको शीतनिवारणके उपकरण दे, क्षुल्लकों, आर्यिकाओं और श्रेष्ठ श्रावकोंको सम्मान दे उनकी तीन प्रकारसे विनय करायें ? फिर अपने
११
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सिरिवालचरिउ
[२. ३३. ४उज्जवणहो सत्तिय णउँ पुज्जइ ता विवि उण वउ भविय करिज्जइ । इय आयण्णिवि सिरिमइ-कंते सिद्ध-चक्क-विहि लइय तुरंत । वरिस चारि संपुण्णु करेप्पिणु सिरिमइ-सरिसु विहाणु चरेप्पिणु । अंतयालि सण्णासु चरेप्पिणु पंच णमोयारइं झाएविणु। सग्गई होएप्पिणु पुणु चइयउ सो सिरिवाल-राय तुहुँ जइयउँ । सिरिमइ पुणु सग्गे हवेइ चुअ मयणासुंदरि तुह भज्ज हुअ । घत्ता-इय जाणि गरेसर महि-परमेसर सिद्ध-चक्क-विहि जो करहि ।
जो मुणिवर-भासिउ विवुह-पयासिउ भवसायरु लीलई तरहि ॥३३॥
पुणु पाउ वि जं कियउ भवंतरि तं सयलु वि मुच्चइ इत्थंतरि । इय जाणेविणु करि दुह-हरणउ धम्मु अहिंसा-लक्खणु सरणउ । णिसणेवि' सयल-धम्मु जग-सारउ मुणि वंदिउ तिगुत्ति वय-धारउ । सिरिवालें पुणु वउ उववासिउ 'णयरी-णयरी जण पडिहासिउ । वणिवर रायउत्त बहुजाणिय सिद्ध-चक्क विहि करवि' पहाणिय । वउ किउ अट्ठ-सहस-अंतेउर मणहर-पिंडवास-पय-णेउर । सुंदरि मंजूसा गुणमाला' चित्तलेह सुविलासिणिबाला । तहि जि सुहागगोरि सिंगारी पउलोमी पोमामण-हारी। अट्ठई बहिणि अंतेउर-सहियउ सव्वहिं सिद्ध-चक्क-वउ गहियउ। वउ लउ चित्त-विचित्त-कुमार पुणु सुकंठ-सिरिकंठ-भडारें। विजयसेण-गंदणहिँ सुलक्खण लउ सुसील गंधव्व-वियक्खण । ट्ठाणा-कोकण-कुँवर-गुणालें तहि हिरण्ण-बंधव हालें। मयर-केय-तणयहिं सुपियार जीवंती सुंदर सुकुमार। अंग-रक्ख सिरिवाल-पहाणा पुणु वउ लयउ सात-सय-राणा । उज्जेणी-पयपालु णरेसरु
तहि तउ सिद्धचक्कु परमेसरु । घत्ता-गृजरे मरहठ्ठहँ तह सोरट्ठहँ खस बब्बर वउ भावियउ । णर-णारि णिसंकहि इसरक्खहिमणवंछिउ सुहु पावियउ॥३४॥
३५ सिरिवाल वि जिण-सासण-भत्तउ चंपा-णयरिहि रज्जु करतउ । गय-घडाई हुअ बारह-सहसइ तेत्तिय वेसरि करह पयासइ । वारह-लक्ख तुरग-सपूरह
बारह-कोडिय पाइक- सूरहूँ । बारह-लक्खई सेणाणंदण
बारह-सहस अट्ठ-सय-णंदण |
१५
३. ग सत्तिवउ। ४. ग विउणउ। ५.ग करेप्पिणु। ६. ग झाएप्पिणु । ७. ग भइयउ।
८. ग सग्गहु हुति चुव । ३४ १. ग णिसुणिवि । २. ग णयर णायरीयहिं पडिहासिउ। ३. ग करहि। ४. ग णेवर । ५ ग
गुणमालहिं । ६. ग बालहिं । ७. ग दंसण सुह लक्खण। ८. गतिवि। ९. ग गुज्जर । १०. ग णिसंकहं। ११. ग ईसरक्खह।
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२. ३५. ४]
हिन्दी अनुवाद कुटुम्बियोंका निमन्त्रण करें। उद्यापनमें सतीजनोंकी पूजा करे तथा विनयभाव धारणकर भव्यक्त करे। श्रीमतीके पतिने यह सुनकर तुरन्त सिद्धचक्र विधि अंगीकार कर ली। उसने चार वर्ष तक सम्पूर्ण रूपसे व्रत किया । श्रीमतीके ही समान आचरण कर अन्त समयमें संन्यास ग्रहणकर, पाँच णमोकार मन्त्र और जिन भगवानका ध्यान कर. स्वर्गसे होकर फिर वहाँसे च्यत होकर, वहीं तुम राजा श्रीपाल उत्पन्न हुए। श्रीमती भी स्वर्गमें जाकर वहाँसे च्युत होकर आयी है। वहीं मदनासुन्दरीके रूपमें तुम्हारी भार्या हुई है।
घत्ता-यह जान कर हे पृथ्वीके परमेश्वर, जो सिद्धचक्र विधान करता है वह मुनिवरों द्वारा कथित और पण्डितोंके द्वारा प्रकाशित भव समुद्रको खेल खेलमें तर लेता है ।।३३।।
३४
फिर तुमने जो पूर्व जन्ममें पाप किया, इसी बीच वह सब भी नष्ट हो जाता है। यह जानकर अपने दुःखोंका हरण कर लो। अहिंसामूलक धर्मकी शरण जाओ। इस प्रकार धर्मके समस्त विश्वसारको सुनकर उसने त्रिगुप्ति मुनिकी वन्दना की। श्रीपालने फिर व्रतका उपवास किया। जाकर नगरमें इसका प्रचार किया। श्रेष्ठ बनियों और राजपुत्रोंने इसे बहुत सम्मान दिया। उन्होंने सिद्धचक्र विधिको प्रधानता प्रदान की। आठ हजार अन्तःपुरने यह व्रत धारण किया, सुन्दर सहृदयजनोंने जिनके पैरोंमें नूपुर थे, ऐसी सुन्दरी मंजूषा और गुणमालाने भी, सुविलासिनी बाला चित्रलेखाने भी सौभाग्यगौरी, शृंगारगौरी, पद्मलोमा, सुन्दरी पद्मा आदि आठ हजार अन्तःपुरके साथ यह व्रत किया। सबने सिद्धचक्र व्रत ग्रहण किया। चित्र-विचित्रकुमारोंने भी सिद्धचक्र विधि ग्रहण की। आदरणीय कण्ठ और सुकण्ठने भी। विजयसेनके सुलक्षण पुत्रोंने। विचक्षण सुशील गन्धर्वने भी। ठाणा-कोंकणके गुणी कुमारने और स्नेही हिरण्य बन्धुओंने भी। मकरकेतुके प्रिय पुत्रोंने जीवन्ती सुन्दरके कुमारों ने। श्रीपालके प्रधान अंगरक्षकोंने और सातसौ राजाओंने व्रत लिये। उज्जैनके पयपाल राजाने वहाँ सिद्धचक्र व्रत लिया।
घत्ता-गूजर, मराठा, सौराष्ट्र, खस, बब्बरोंको भी व्रत पसन्द आये। जो नर-नारी निःशंकभावसे इसकी रक्षा करते हैं, वे मनोवांछित फल पाते हैं ॥३४॥
जिनशासनका भक्त श्रीपाल भी चम्पानगरीमें राज्य करने लगा। बारह हजार इसके पास गजसमूह था, उतने ही खच्चर और ऊँट भी थे। बारह लाख उसके पास घोड़े थे और बारह
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सिरिवालचरिउ
[२.३५. ५पुह विवालु भूवालु सुसारहि तुरिउ अचंभउ पुणु वि महारहि । ए जाए सुंदरि वरबाला
सत्त मॅजूस पंच गुणमाला। एवमाइ सह-पुत्त समाणिय णा तहि वाझण-दूहव राणिय । सहस-अट्ठ अंतेउरु गणियउ णं सुर-रमणिउ पुण्ण जणियउ। एवमाइ बहु-परियण-जुत्तउ करइ रजु सिरिवालु सइत्तउ । धम्म अत्थु कामु वि बहु सारई एयहु उतरि ण सुहु संसारई । बाल-जुवाण-बुड्ड-सुहु भुत्तउ | चउथी पयडी मोक्खु णिरुत्तउ । सिद्ध-चक्क-फल-पुण्ण-पहाइय मण-वंछियई भोय संपाइय । घत्ता-इय रज्जु करतउ पुणु वि विरत्तउ देवि सयलु णिय-पुत्तउ ।
संसारहो संकिउ पुणु दिक्खंकिउ मंति-पुरोहिय-जुत्तउ ।।३५।।
पुहवीवालहो रज्जु समप्पिउ अप्पउ राय-महत्वई थप्पिउ । मयणा सुंदरि-पमुह अंतेउर हार-डोर उत्तारिय णेउर। सयल वि संजइयउ संजायउ दुविहें तवयरणेहि विराइउ । महा-सुक्क सुरइंदु हवेप्पिणु गइय देवि तिय-लिंगु हणेप्पिणु । अंगरक्ख जहि जहि वउ भाविउ तहि तहि देवत्तण-सुहु पाविउ । सयल वि णर-णरवड खम देविण घोरु वीरु तवयरण करेविण । गउ सिरिवालु परम-णिव्वाणहो। सिद्ध-चक्क-फलु भवियहो जाणहो। अवरु वि णर-णारी जु करेसइ एवमाइ सो फल पावेसइ । सग्ग'सुराहिवासु मुंजेसइ सुर-कण्णहिं सिउ कील करेसइ । कत्तिय-साढहि फागुण मासहि ते गंदीसुर-दीउ गवेसहि । वह भत्तिहिं जिण पूज करेसहि सिद्ध-चक्क-फलु पुण भुंजेसहि । जिणई अकित्तिमाई वंदेसहि। पुणु महियलि चक्कवइ हवेसहि । करिवि रज्जु पुणु मोक्खु लहेसहि धत्ता-सिद्ध-चक्क-विहि रइय मई णरसेणु भणइ णिय-सत्तिए ।
भवियण-जण-आणंदयरु करिवि जिणेसर-भत्तिए ।।३६।। इय सिद्ध-चक्क-कहाए, महाराय-चंपाहिपे-सिरिवालदेव-मयणा-सुदरि-देविचरिए, पंडित-सिरि-णरदेव-विरइए। इहलोक-परलोक-सुह-फल-कराए, रोर-दुह-घोर-कोढ-वाहि-भवाणाण-णासणाए। सिरिवाल-णिव्वाण-गमणोमयणासुंदरि अवर-सयल अंतेउर-अंगरक्ख-देवत्तणो णाम वीओ परिच्छेओ समत्तो।
३५. १. ग. वंझण । २. ग. जणियउ । ३. ग. "धम्म अत्थु कामु वि वहु सहिउ एयहउ वहहु जइ
अहियउ"। ३६. १. ग. सेग्गि ।
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२. ३६.१५]
हिन्दी अनुवाद करोड़ पैदल सेना। बारह लाख सेना कुमार । बारह हजार आठ सौ रथ । पृथ्वीपाल राजा कहता है कि फिर भी मुझे अचम्भा हो रहा है, ये सुन्दर बालाएँ, सात मंजूषा, पाँच गुणमाला इत्यादि अपने पुत्रों से सम्मानित हैं। कोई बाँझ नहीं है और न कोई दुःखसे क्षीण है । आठ हजार अन्तःपु वे अग्रणी थीं। मानो सर-सन्दरियाँ पण्यसे उत्पन्न हई हों। इस प्रकार बहतसे परिजनोंके साथ श्रीपाल स्वच्छन्दतासे राज करने लगा। उत्साहसे धर्म, अर्थ और कामको उसने ग्रहण किया। इससे बढ़कर संसार में दूसरा सुख नहीं है कि मनुष्य बचपन, यौवन और बुढ़ापेके सुखका भोग करे और फिर चौथे मोक्षका सुख । सिद्ध चक्र विधिके प्रभावसे उसने जीवनमें मनोवांछित फल प्राप्त किया।
पत्ता-इस प्रकार राज्य करते-करते वह विरक्त हो उठा। सब कुछ अपने पुत्रको देकर वह संसारसे विरक्त हो उठा। फिर उसने दीक्षा ले ली मन्त्रियों और पुरोहितोंके साथ ।।३५॥
यशपालको उसने राज्य समर्पित कर दिया और अपने आपको उसने महाव्रती स्थापित किया। मदनासुन्दरीके साथ सभी अन्तःपुरने हार, डोर और नूपुर उतार दिये। वे सब संन्यासी बन गये। वे दो प्रकारके तपसे विभूषित थे। महा शुक्लध्यानसे कामको जलाकर वह देवी स्त्रीलिंगका हनन करके चली गयी स्वर्ग को। दूसरे अंगरक्षकोंको जो-जो व्रत अच्छे लगे, उन्होंने भी देवत्वके सुखको प्राप्त किया। सभी मनुष्योंके प्रति समताभाव धारण कर राजा श्रीपाल घोर तपश्चरण कर परम निर्वाणको प्राप्त हुआ। हे भव्य लोगो, सिद्धचक्रके फलको जान लो। और भी जो नर-नारी इस विधानको करेगा, वह भी इस ओर दूसरे फलोंको प्राप्त करेगा। स्वर्ग में देवताओंके अधिवासका सुख भोगेगा । सुर कन्याओंके साथ क्रीड़ा करेगा। कार्तिक, आषाढ़ और फागुनमें वे नन्दीश्वर द्वीप जायेंगे। बहुत प्रकारसे जिन भगवान्की पूजा करेंगे। सिद्धचक्रके फलको भोगेंगे। अकृत्रिम जिन भगवानोंकी वन्दना करेंगे। फिर धरतीपर चक्रवर्ती होंगे, राज्य करके मोक्ष प्राप्त करेंगे।
घत्ता-नरसेन कवि कहता है कि मैं ने अपनी शक्तिसे इस सिद्धचक्र विधिका निर्माण किया है, जिनेश्वरकी भक्ति कर, भव्यजनोंके लिए आनन्ददायक यह रचना मैं ने की है ॥३६॥
इस प्रकार सिद्धचक्र कथामें महाराज चम्पाधिप श्रीपालदेव और मदनासुन्दरी देवीके चरितमें पण्डित नरदेव द्वारा रचित, इह लोकमें सुखकर घोर दुःख, कोढ़, व्याधि और भवके अज्ञानको नाश करनेवाली कथामें श्रीपाल मोक्षगमन नामका, मदनासुन्दरी दूसरे समस्त अन्तःपुर अंगरक्षक देवत्व नामका दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ।
इस प्रकार पण्डित श्रीनरसेन कृत श्रीपाल नाम शास्त्र समाप्त हुआ।
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संस्कृत प्राकृत-अवतरण
'श्रीपाल चरित'में धर्म काव्य और उपदेशका अद्भत मिश्रण है । कुछ बातोंमें उसे शास्त्रका रूप भी दिया गया है। चूंकि 'सिरिवाल चरिउ' एक संक्षिप्त काव्य है, अतः उसमें विस्तारका अभाव है, फिर भी बीच-बीचमें कुछ छन्द आते हैं, आलोच्य कृतिमें निम्नलिखित छन्द आये हैं, इनका कथानकसे कोई सम्बन्ध नहीं । प्रसंग सहित उनका संकलन यहाँ दिया जा रहा है। सन्धि १-कड़वक १४-मयनासुन्दरीके विवाहके समय ये पद्य आते हैं
उक्तं चजं चिय विहिणा लिहियं तं चिय परिणवइ सयल-लोयस्स इय जाणेविणु धीरा विहुरोवि ण कायरा हुंति ।। पाविज्जइ जत्थ सुखं पाविज्जइ मरण-वंधण जत्थ तत्थ तहं चिय जीवो णियकम्म-हव-थिओ जाइ ॥
कड़वक १५
उक्तं चसहियाण दुहं दुहियाण संपयाभणिया
अणचिंतियं पथट्टइ दुल्लहं दइव-वावारं कड़वक १७-मयनासुन्दरीको समझाते हुए मुनि कहते हैं
"धर्मे मतिर्भवतु किं बहुना कृतेन जीवे दया भवतु किं बहुभिः प्रदानैः। शान्तं मनो भवतु किं कुजनैश्च रुष्टैः आरोग्यमस्तु विभवेन फलेन किं वा ॥६॥ बुद्धेः फलं तत्त्व-विचारणं च देहस्य सारं व्रत-धारणं च ।
अर्थस्य सारं किमु पात्रदानं वाचाफलं प्रीतिकरं नराणाम् । कड़वक ४०-धवलसेठके रत्नमंजूषाके प्रति कुचेष्टा करनेपर यह उक्ति है।
कामलुब्धे कुतो लज्जा अर्थहीने कुतः क्रिया। मद्यपाने कुतः शौचं मांसहारी कुतो दया ।
कड़वक ४६-श्रीपाल समुद्र पार कर रहा है, उस समय कवि पुण्यके समर्थनमें यह
कहता हैवने रणे शत्रु-जलाग्नि-मध्ये महार्णवे पर्वत-संकटेषु च । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति कर्माणि पुरा कृतानि ।।
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सिरिवालचरिउ समस्यापूर्ति
'सिरिवाल चरिउ' में कुछ समस्याओंका उल्लेख है। श्रीपाल इनकी पूर्ति कर कई कन्याओंसे एक साथ विवाह करता है। ये समस्याएँ कवि की अपनी नहीं हैं। उत्तरकालीन अपभ्रंश चरित-काव्योंमें यह प्रवृत्ति अधिक थी। श्रीपाल; जैसे ही कंचनपुरसे कूच करता है, एक चर-पुरुष उसे बताता है कि ठाना-कोकणके राजा विजयकी १६ सौ कन्याएँ हैं। उनमें शृंगारगौरी आदि आठ कन्याएँ प्रमुख हैं। इनकी अपनी आठ वचन-गतियाँ ( शब्द-समस्याएँ ) हैं, जो इनका हल करेगा, कन्याएँ अपनी सहेलियोंके साथ, उसीसे विवाह करेंगी। कुमार पहुँचकर उनसे कहता है"अपनी-अपनी बात कहो।" सबसे पहले सौभाग्यगौरी की समस्या है :
"जिसके पास साहस है सिद्धि उसी की है।" .. श्रीपालका उत्तर है-शत्रु शरीरसे जीता जाता है, बुद्धि दैवके अधीन है। परन्तु इसमें
. जरा भी भ्रान्ति नहीं कि जहाँ साहस है वहाँ सिद्धि होगी ही। शृंगारगौरी का वचन है-"देखते-देखते सब चला गया।" श्रीपालका प्रतिवचन है-"कंजूसने धन न धर्ममें खर्च किया और न स्वयं खाया, केवल
संचय करता रहा। दरबारमें जुआ देखते-देखते उसका सब
धन चला गया।" पद्मलोमाका वचन-"उसे काचरा मीठा लगता है।'' श्रीपालका प्रतिवचन-"कुएँ में बैठकर मेंढक समुद्रको छोटा बताता है । जिसने कभी
नारियल नहीं खाया उसे काचरा ही मीठा लगता है।" रण्णादेवीका वचन-"वे पंचानन सिंह हैं।" श्रीपालका प्रतिवचन-"जो लोग शीलसे रहित हैं, उनके भाग्यकी रेखा काली है; जो
चरित्रसे पवित्र है वे ही पंचानन सिह हैं। सोमकलाका वचन-“दूध किसे पिलाऊँ।" । श्रीपालका प्रतिवचन-"रावणने दसमुख और एक शरीरवाली विद्या सिद्ध की। कैकशी
( रावणकी माँ ) चिन्तामें पड़ जाती है कि दूध किस मुँहको
पिलाऊँ।" सम्पदा देवोका वचन-“वह मैंने कहीं नहीं देखा।" प्रतिवचन-"मैं सातों समुद्रोंमें फिरा। जम्बूद्वीपमें मैंने प्रवेश किया जो दूसरोंको पीड़ा
नहीं पहुँचाता, ऐसा आदमी मैंने नहीं देखा।" पद्माका वचन-"उसने क्या कमाया ?" प्रतिवचन-“कुन्तीने पाँच पुत्रोंको जन्म दिया, वे पाँचों ही प्रिय हैं । गान्धारीने सौ पुत्रोंको
जन्म दिया, उसने क्या पाया? चन्द्ररेखा कहती है-"वह उसका क्या करे ?" प्रतिवचन-“सत्तर वर्षमें जिसकी आयु गल चुकी है फिर भी वह बालासे विवाह करता
है, वह उसके पास भी बैठा हो, तो भी वह करेगा क्या ?" स्पष्ट है कि ये समस्याएँ नयी नहीं हैं, कवि केवल समस्यापूर्तिके कुतूहलका अपने काव्यमें समावेश करनेके लिए इनका उल्लेख करता है। चन्द्ररेखाके वचनसे यह अवश्य हम जान सकते हैं कि उस समय (कविके समय) सत्तरसालके बूढ़े भी छोटी उम्रकी कन्यासे विवाह करते थे, और यह भारतीय समाजके लिए नयी बात नहीं।
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शब्दावली
आहरण १३१४, २।२ आभरण
गहना आगम १२२ आगम-शास्त्र आलउ ११२५ आलय = घर आलवनी २।४ = आलापिनी आगासण १।१३ = अग्रासन आयपत्त १११० आतपत्र = छाता आहंडल ११३२ आखंडल = इन्द्र आणणारि ११२० - अन्य नारी आयर ११२६ = आदर आसीवाउ १८ = आशीर्वाद आतावण २।२९ = आतापन आणा ११२२ = आज्ञा आइसु १११३ = आदेश आवणि ११३३ आपण = बाजार आमंतण २।३३ = आमन्त्रण
चार
अंतेउर २१३४ अन्तःपुर-रनिवास अपाउ २।३६ अपाय अकित्ति ११४ अकीर्ति = अपयश अंतरखसिय २।१३ नीचे खिसक
गयी असीस २।२२ आशीष =
आशीर्वाद अंबा १११७ अम्बा = मां अवसण १११७ अवसन अवजसु १।१९ अपयश अमियहलु १११५ अमृतफल असुमेह ११६ अश्वमेध अमरकोसु ११७ अमरकोष अखोह ११७ अक्षोभ क्षोभ
रहित अवलोय ११२५ = अवलोक? अलि १३३ = भ्रमर अंजुलि ११४३ = अञ्जलि अलिय ११२४ अलीक = झूठ अवचार १।३२ = अपचार अछरीय २१८ = अप्सरा असहण ११३१ = असहन असराल ११३६ अश्वशाला
>अससाल>असराल ? आणंदभेरि ११३६ = आनन्दभेरि अलावणि ११३८ आलापिनी
वीणा अयाण २।२ = अज्ञान
[अ] अमलमइ २१९ अमलमति =
निर्मल बुद्धिवाला अवही २।१२ अवधि =समय की
सीमा अवहि १४९, ३०, २०१४ -
अवधिज्ञान अगिवान २०१३ = अग्निबाण असिवर २।२३ असिवर-श्रेष्ठ
तलवार अरिखय २।२० अरिक्षय = शत्रु
का नाश अयजाण १।६ अजायज्ञ =
अज>अअ>अय ।
यज्ञ>जण्ण>जाण । अप्परिद्धि ११३२ आत्मऋद्धि अट्ठवट्ठ ११२४ = आठ रास्तों
वाले अट्ठकाम १८ अष्टकर्म = अष्टकर्म अणंगु १।३१ अनंग = कामदेव असिया उसा १११७ = मंत्र =
णमोकार का संक्षिप्तरूप अंगरक्ख २१२० अंगरक्ष अणुराय २।१७ अनुराग
(अतिभक्ति) अंगु २।२१ अंग = शरीर का
हिस्सा अज्जियाई १३२ आर्यिका =
जैन साध्वी अज्जिय २।३३ अजित प्राप्त
किया । अंतयाल २।३३ अंतकाल =
अन्तिम समय
[[]
इच्छु १।२१ = इच्छुक इसरू = ईश्वर ? इक्खा १३ - इच्छा इकतरउ% इकतरा इंद ११३४ - इन्द्र
[3] उक्खा ११११ इक्षु = ईख उरिण १।२९ = उऋण उवसे ११४३ - उपदेश उच्छाह ११३८ = उत्साह उच्छहु १।४७ = उत्सव उल ११२७ = कुल उचरु ११३६, २।३३ = उच्चार
[
आ]
आण २।३१ = आज्ञा आयण १११३ आगमन = आना
१२
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________________
९०
सिरिवालचरिउ
उदए २।३१ उदक = जल उवहि २।५ = उदधि उंदेस ११२ = उपदेश उत्ति १।९ उक्ति अंतेउर २०१५ अंतःपुर उत्तमंगु ११२ उत्तमांग उवराउ १११० - कोढ़का एक भेद उग्घाडणु ११३७ = उद्घाटन उज्जण २।३३ = उद्यापन । सडिडिम २।२२ = डुगडुगी
खानी २०११ - खदान खाण-पाण ११३७ = खान-पान खुल्लय १२,२॥३३ = क्षुल्लक खीर १।१५ क्षीर = दूध खेत्त २।१८ - क्षेत्र खेड १।३ = गांव (खेड़ा) खेयर १२ खेचर = विद्याधर
कील १११८ =कीलना,मन्त्रादिसे
किसीको जड़ कर देना उकुटु १।२८ % उत्कृष्ट कूड २।२,११३२ कूट = कपट कुलाहल १२४० = कोलाहल कुंजर २।१८ = हाथी। कुवरि ११६ = कुमारी कुंत २।२४ = कुन्तमाला कुसुमोह २।२७ = कुसुमोघ
(फूलों का समूह) कुडुव १९ कुतुप फुटवालिय ११११ (?) कुलभंडिय ११४४ = कुलभांड कुसवाल १।२९ (?) कुवलय २।१० = पृथ्वीमंडल,
कुमुद कुवलचन्दु २।१४ - कुवलयचन्द्र कूकर ११४४ - कुत्ता कूउ २।५ - कूप केउर २१९ = केयूर कोढिय १।१४ = कोढ़ी कोढ़ियण १।१५ = कोढ़ीजन कोडिवीरु श२५ कोटिवीर कोट ११२ = कोठा
एकंतगोठ २७ = एकान्तगोठ
गंधक २।२१ = गन्धक गवाख ११३४ गवाक्ष = झरोखा गव्व ११२२ = गर्व गंजण २१ गंजन = विनाश गंडय १।६ = गंडक, गैंडा गंधोवउ ११८,१८ = गन्धोदक गल २१९ = गला गयघड २।१०,१८,२१,२२;
२।२२ = गजघटा गण ११४०% समूह गत्त २२६ गात्र = शरीर ग्राह २।१२ = ग्राह गायण १।२६ = गायन गिद्धि ११६ = गृद्धि तियलिय-गुंज २।२२ = वाद्य
विशेष की गूंज गुसुव ११६ = गोसुत गुज्झवत्त १।२० = गुह्यवार्ता गेय ११२९ % गेय गोहिण ११२७ = पीछे (लगना) गोमेय ११३४ = गोमेध गोमुह ११:७ गोमुख
[क] कपूर २।३१ कपूर कडतल २।२४ कटितल कटारिय २।२४ कटारी करडह २।२२ करट - ऊँट ? करह २।१२ = करभ ? कणया २०१८ कनक = सोना करकंकण २।१७ = करकंगन कवाण २१३२ कपाट = किवाड़ कडय २।१४ कटक = सेना कप्पविडउ ११३१ कल्पविटप =
कल्पवृक्ष कण्णड २१९ = कन्नड़ कण्णउ २०११ = कन्या कयंतु २।२१ कृतान्त = यम कव्वड़ ११३ = खराब गांव कलोलु २।१२ कल्लोल = लहर काहल ११११,३६; २।१३, १८ ___ = वाद्य विशेष । काज्जु ११९ - कार्य, कज्ज>
काज्जु>काज काहलिय २।२२ कातर - कारंड ११८ = पक्षी विशेष किवण १।३४ = कृपण किसाणु १।३१ = किसान
[ख]
खवणय ११६% क्षपणक खयकालु २।१ - क्षयकाल खडरस २७ - षड्रस खय ११४१ = क्षय खर १११३,२।३,७ = गधा खम २।५ = क्षम खग्ग २।१८ = खङ्ग खण १२४१-क्षण खंभ ११२ = स्तम्भ खंडी १।३१ = खण्डित, खण्डित
किया खंधावार २।१८ = स्कन्धावार खाण ११४४ = खान, खदान
[घ]
घड १।४३ = घटा घिय २।३१ घृत = घी घरवार २।२९ = गृहद्वार घण-उंवरु १।३० (?)
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________________
शब्दावली
[ट]
[च] चउगली २०१२ (?) चक्क ११४५ = चक्र चित्तसाल १२२२ = चित्रशाला चिंधण २।२२ = चिह्न चोज्जु २।३ = आश्चर्य
टापू ११४५ = टापू ट्ठग ११२४ = ठग ट्ठाउ ११५ % ठांव ट्ठाणा २१११ - स्थान
[ ] ठाण २।२६ =स्थान ठाकुर ११४१ 1. ठोक्कर ॥२४ ठाकुर
णिव्वाण २।३६ = निर्वाण णिहय ११४ = निहत णिग्घंटु १७ = निघंटु णिवेय १११६ = नैवेद्य णिग्गहण २।४ - निर्गहन णियविणी ११७ = नितम्बिनी णियरुइ १।३१ = निजरुचि णिमत्तिय २।१० = नैमित्तिक णिवसुत १११० = नृपसुत णीरु ११३ = नीर णीलोप्पल १३ = नीलोत्पल
[छ] छहि ११३७ = छह छंद ११४६ = स्वभाव-कपट छण १।१६ = क्षण छत्त २।१८,२२ = छत्र छहहरि १२३४ = छह हरि छार १११३ = क्षार छीदु ११४१ छिद्र>छिद्द>छीदु
= छेद छोहु १।२१ = क्षोभ
[3] डाइणि ११२४ डासणि २।४५ डिडिम २०१८ डोमु २।३ % चंडाल डोमणिय २।३ = डोमिनी
[थ] थण ११४,३३ = स्तन थत्ति १११ = स्थिरता थंभण १।४१ = स्तंभन थाल ११३६ = स्थाल थट्ट २१६,१९ = समूह थुवा १११६=स्तुति (स्तवन) थणि २।१४ = स्यान थुई १।१२ = स्तुति थेर २१३ = स्थविर
[ज]
जलण १।२४ ज्वलन - जलना जंपाय १११५ = वाहन विशेष जलहर ११२४ = जलधर जंमायउ ११३जामाता जम्मतरु २।२७ = जन्मान्तर जक्खेसर १११७ = यक्षेश्वर जंतु ११५ - यन्त्र जण्ण २।३ = यज्ञ जाला १।१७ ज्वाला जाण ११५ = यज्ञ जार ११४५ = विट जिणाहिय १११ - जिनाधिप जीह २।२३ जिह्वा = जीभ जुव २।१२ = युवा जुवाण २।३५ युवान = युवा जुवइण १।३२ % युवतीजन
[ण] णउ २१७,२९ - नृप णंचु २।२ = नृत्य णंण १२ = ज्ञान णाडि २१९ = नाड़ी णरय २१७ = नरक णवराउ १।१३ = नवराग णयल १।२६ = नभतल णाभि ११ = नाभि णाउ १६१९ - नाम णाणु १।१७ = ज्ञान णाय २।२१ = नाग णाडउ १११७नाटक णामिउ ११४५ = नाम णरियणु ११३६ - नारीजन णातियउ २।३ = नाती णारियर श२ = नारियल णिसाण २।१२ % चिह्न णियड २।१९ निकट णिहाण २१६ - निधान णिरति १११७ = निरति णिग्गइ ११३३ = निर्गति
[द] दहि ११२५ = दधि दक्ख ११३ द्राक्षा = दाख दप्पु ११४४ = दर्प दतीणहि ॥२४ = दतीनख दहिय २१३१=दही दइव ११७ = दैव दब २।१२ = द्रव्य दवणु = द्रवण दहमि १११७ = दशमी दहलक्खणु ११३० = दशलक्षण दारा ११३३ = स्त्री दाउ २।२१-दाय दाइज्ज २।१२ = दहेज दिसंतर १११७ = दिशान्तर दोवय २।३२ = दीपक दुद्ध २।३१ = दुग्ध
[झ]
झाण ११३५ = ध्यान
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________________
९२
दुरि १४१ दुरित = पाप दुम्मइ १।१ = दुर्मति दुहियण १।१० = दुःखीजन दूवक्खय १।२५ = दूर्वाक्षत दुवा १।२९ • दूर्वा
=
देवाह १।४१ = देवस्थान
देवर १।१२ = देवर
देवंग १।१४ = देवांग
देवरइ २।१० = देवरति देवत्तण २।३६ = देवत्व दोह ११७ = दोहा दोसु १।१५ = दोष
[ ध
धम्म २।१६ = धर्म घरिणी १।२५ = धरती धणय १।४६ धनद = = कुबेर धत्तीहल २।१४ = धात्रीफल धम्मयवारु २।१९ = धर्म द्वार धीय १।३२ = बेटी
धीवर १।३ = ढीमर
धुंधुमारि १।१५ = धूलधक्कड़, या कोलाहल
धूव २।१५ = धूप
धूमायरु = धूम्राकार धोवी २३ = धोबी
[ प ]
पट्टणु १।२५ पत्तन = नगर पडह १।२९ पटह = नगाड़ा पट्टराणि २।११ = पट्टरानी पत्त्थान २।१० प्रस्थान = कूच पइजा २।१ = प्रतिज्ञा
पयहण २।१ = पयोधन पडिहारिय २२ = प्रतिहारी परिगह २।६ - परिग्रह
पडलु १।३४ = पटल परोहण ११२७ = = प्ररोहण पसाउ ११४० = प्रसाद
सिरिवालचरिउ
= पाताल
पयालि १४० पाण २।२९,५,१५ = डोम पडिहार १।११ = = प्रतिहार पाय १।१३, १४ = पाया
पाव १८ = पाप पिसाउ १७ पिउ १।३७
पिता
पित्त १।११ = पित्त
= पिशाच
-
=
पिंडवास २।१३ = अन्तःपुर पित्ति २।२१ पितृव्य : चाचा पिंडीय २१२६ पिंडीद्रुम पियाण १।२४ = प्रयाण
=
पुट्ट १।२८ - पृष्ठ पुक्खर १।३३ = पुष्कर
पुराण ११७ = पुरान पुहई २।३१ = पृथ्वी पुण्णिम २।३२ = पूर्णिमा पुंसमार ११५ = कोयल ( नर ) पुत्तिय २३ = पुत्री पुप्फुयंत १११ = पुष्पदंत पुहवि १।१४ = पृथ्वी पेक्खण १।३३ = प्रेक्षण पेसणु १।२९ = प्रेषण पोत्था २।३२ = पोथा, पुस्तक पोहणु १।३० = प्रोहण पोमासणु २।२ = पद्मासन
[ फ]
फलिह १५, १९, ३०, ३४ = स्फटिक
फोड़ी ११४१ = फूड़िया
[भ]
भट्ट १।४७ = भाट
भडाल २१४ = भटालय भद्धगमे १।६ =
भद्रागमे
भडारउ २।२७ = भट्टारक भवियण २।३१ = भव्यजन भत्तिय २।३६ भक्ति भतीजउ २।२९ = भतीजा भवकमल २।२६ = भव्य कमल
भाण १।१३ एक निम्न जाति भँवरि १।३६ फेरे
=
भिच्च २।३० भृत्य = अनुचर भील २।१३ = जंगली जाति भुवंग २२१ = भुजंग
भूरुह १।३२ = वृक्ष भेंट २।१२, १८ = भेंट भेय १७ = भेद (रहस्य) भोज्ज २३ भोज्य भोयण २|७ =
भोजन
[म]
मत्थ १।३७ = मस्तक > मत्थअ
> मत्थ
=
मय-मद
मच्छउ=मत्स्य
मउडु_१।१४ = मुकुट
मउण ११८ =
मौन
मयर २।९ = मकर
मछर २।१३ = मत्सर, मच्छर मथवाहि १।३१ = मस्तक-व्याधि मालव णिव १।१७ = मालव- नृप मुग्गर १।२७
मुद्गर
मायर १।२२ = माता
मोलु १।११ = मूल्य
मोद्दी १११४ = मुद्रिका
[र]
रय २१७ = रज
रण्ण २।११ = अरण्य रतपित्त १।११ रक्तपित्त रहरेहा २१८ = रथरेखा रयणि २।१२ = रजनी
|रायंगु १।३१ = राज्यांग रासु २1११, १२ = रास राजू २१५ रज्जु = रस्सी रावत्त २।२१ = राजपुत्र रायवत्त २।३१ = राजपुत्र रायहर १।३० = राज्यगृह रायसोह १।१३ राजशोभा रिउ ११३७ = रिपु
=
C
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________________
[ल ]
लट्ठे २६ (?)
लगुण १।१२, ३६ = लगन लहरि ११४१ = लहर, तरंग लोहटोपरी १।२७ = लोहे का टोप लोई १।१९ (?)
[ व ]
बर्बर
वव्त्रर १।२७ = वट्टणु २।१०
वर्तन
वयआणा १।२४ = व्रत आज्ञा वय १।२ = व्रत
वड-छाह १।४७ = वटछाया
वहुवारी १।३३ = बहुवाटिका
वग्गु १।१२ = वल्गा
घण्ण १।३४ = वर्ण
वावल्ल २।२२ = वावला
वायाइ २।२८ (?) वाहियाल ११० = अश्वशाला वाएसरी २।१७ = वागेश्वरी वाहि १।१३ = व्याधि वाक्खरु १।३० = बाखर विज्जु १७ - विद्या विडउ १।३१ विटप = वृक्ष विहाण १।१ = विधान विव्वान २१८ = विज्ञान विसहलु १।१५ = विषफल विरिंद ११४५ = व्यन्तरेन्द्र विडहर १।३५ = विडगृह वियारु १।२६ विकार वीरराउ ३।१९ = वीरराजा वेयण १।३१ = वेदन वेसा १।१२ = वेश्या वेहु १।५ = छेद
=
वेसरि १।१३ = खज्जर वेसाटइ १।३३ वेश्याटवी वेगिरि २।२८ = विजयार्थं गिरि वेहियर ११२५ वोहित्य = जहाज
= जहाज
शब्दावली
[ स ]
सप्पु १।४१ = सर्प सग्ग ११४५ = सर्ग, स्वर्ग सहा २।२ = सभा
सहू ११४३ = सहा सही २०११ ( ? )
सल्ली १।४६ (?)
सद्द १।३८ = शब्द
सक्कु १।१९ = शक्र, इन्द्र सत्तु २।१२ = शत्रु साहुंकार २।२४ = साधुकार संत २।२६ = ( होते हुए )
सत्त ११५, ३०, ३६ = सत्य सच्च २।२७ = सत्य
सति १।२६ = सती
सत्थु १।७ = शास्त्र
सहि १।११ = सखी
सहस २०३८ = हजार सणह २।१८ = सन्नद्ध कवच संकउ २।३ = शंका सइय १३२ = स्वयं सनिवाय २२१ = शनिवात सत्त - परोहण १।२९ = सप्तप्ररोहण
सणासु २३३, २।२४ = सन्यास
सत्यगुरु २।१ = शास्त्र गुरु सहियणु ११४३ = सखीजन संवच्छर २।१३ = संवत्सर
सरसा १।१६ = सरस सरील्लइ १।३८ = कामदेव की
पीड़ा
संखला १।४१ = श्रृंखला सप्परह १।४५ = सर्परथ
सत्तगरज्ज २१४५ = सप्तांग राज्य सासण १।१६ = शासन सावय १।२ = श्रावक सार १।४५ = सम्हाल सायउ १।१० = श्रावक
सिंगी १।२४ = श्रृंगी
सिह ११०, ११, १६ सिंह सिहरि १।३१ = शिखर सिगरि १।३६ = ध्वजचिह्न सिल २।२६ = शिला
सीर १।१७ = हल
सीहणाहु २।२८ = सिंहनाद
सुक्क १।११ =
शुक्र
९३
सुण्हा ११२३ = वधू
सुहाग २१३४ = सौभाग्य सुयण १।२४ = स्वजन सुवा १।६ = सुता
सुक्क २१३६ = सुख
सुव १।१७= सुत
सुय ११८ = सुता
सुहण १।३६ = सुधन सुणहा ११४२ = वधू सुव्वय १।१ = सुव्रत ( मुनिसुव्रत ) सुकइ ११२ = सुकवि सुपत्तु १।१३ = सुपात्र सुहड २१४ = सुभट सुहउ ११२८ = सुभग सुंसुमार १।४६ = एक जलचर सुणह १।१२ = कुत्ता सुक्कझाण १।१ = शुक्ल ध्यान से विहि १०४५ = सेवा करनेवाली सोहु १1७ = सौख्य सोवण १।१ = सौवर्ण सोरट्ट २२० = सौराष्ट्र सोहलउ १।३१ = सोहरा सोवण २२१ = सोना
[ह]
शिव
हर १।३० = हयरवु २०१८ = अश्व शब्द हयवर २।९ = उत्तम घोड़ा हरिसंदण १०४५ = हरिस्यन्दन
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________________
अम्हारउ २।१६
अप्पउ २१४
अम २६
अम्ह १ १०, १२, १९, २०,
१।२२,३०,२९,४४; २/३,
[ अ ]
६,१०,१७
अयहि ११३४
अवर | हं २६
अण्क्क २३
अण्णउं १९
अण्ण ११४४, ४५ २1१,५
अण्णु १।१५, ३२, २४ अम्हारे १२२; २५ अप्पणि १।३१
अप्पणी ११३१
अप्पणउ २७
आप २।११
[ अ ]
[इ]
इहु १५, १०, १२, २०, २४, ५, २०,२५; ३।१५,४५ इयर १३, २५, २०१५, २।२०, २५ इस २३४
[ ए ]
ए १२, ७, ९,२६, ३२, २।१५, ३५
एण २१३१,३२
एहु २।१, १६, १६, १८, २०१९, १११३,२०
सर्वनाम
एह १८, २१, ३२; २०१६
एहि १।१७
एहउ १।१२,३४
एयं १।१३
एहु २०३५
एयहं १।१३,१३,१३, १३,१३,१३, १।१३, १३,
१1१३,
१७,२४
[क]
कवणु २।१३,१६ कासु१।४१,४४;२॥११,१२,२।१९ काई ११८; २।४,४,१२,१२,१२ कुवि १।२३
केउ २।१५
केण १।१८, २।२७, ३०, ३१ केय २०३४
केम १४६, १३, २१, २५
केवि १३
केवि २।१,२९ कोवि ११२०, २२४
[ ज ]
जसु ११, १३, १५, १९, ३१, ३४, २५
जासु २९, १२, १/३३ जाह १४, ३२; २।१२
जाए १।३२; २।१२,, १२,३५ जे १।१३; २।१२, १२, १७, १९
२।२६
जेण २९ जेणा १।११
जेही १ २१, ३०; २।२६ जेवि २।१२
[ ण ]
णिया १।१७
नियय २।२५
[ प ]
पइ २१, ५
पई १९२९, २३, ४
महे १।३१
[म]
महारऊ १।२९, ३६; २०७ महू १२०, २०, २०, २६;
१।२३, ३०, ३३, ३६; २४, २३, ३०
मई १२०, २१, २४, ४०; २।१७,१२,३३,२६
मज्झ १।१२, २६, २७
माहि २१२
महो २०१५
मज्झ १।१६; २२, ३ मज्झे ११४६
मह ११३८, २०७, १५
मामु २।१७
मेरिय १२४
मेरउ २।१६
मोहि १४४, २४
[य]
यह १|१३
यहु २३१, ३, १६, १६, १९; १।४६ १।१३, २२७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दावली
हम ११६,२९; २१३,३,२३ हम्भारउ २।३
सो १११,५,६,११,१२,१५; २।४,
३,९,११,१२,१७ सोइ ११४१ सोउ ११२४ सावि ११५,१५ सोज्जु १७
[स] स ११७ सब्वह २।२,२,१०,१७; २।३४,
१२४३ सव्व ११७,२९; २१८, २।२६ सव ११८,१८, २०१६ सग्गु ११६ सवु २।२,७,११,१२ सा ११२, ५, ६, ७, ९; २१७,
१,२८,३१, साउ ११३ साहु १।१६ साच्छ २।५ साह २०३५
संबोधन
[व]
वह ११६
[ह]
णाह णाह ११४२ पिय-पिय ११३२,४३ भो ११९, २।२७ री-री २०२० रे १।१५,२८ हे ११४४
हउं १३१५,१५,२०,२१,४२,४४
२।१,३,४,५,६,१२,
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________________
[ अ ]
अच्छिय २९
अक्खहु १४६
अच्छमि ११४२
अच्छहि १११, २७, ७
अछि १।१५
अंजहि २४
अत्थि ११९, ३३, २०१०, २०१६ अत्थिय २।१६
अच्छइ १।२७,४७, २१४, ४, ८, १२ अच्छहि १०७, ३७, २।१९,२०,
३१
अक्खमि ११, २१, २२७, २७ अत्थु २२५, ३५
अक्खर २।१५
अछइ १।१९, २०, ४४, २१५, १२,
१८, ९
अवलेहि ११७
अछिउ ११८
अफहि २०१ अवलोयहि १३४४
अछिउ १।२२
अक्खहि १२० अवलोवइ ११३१
[ आ ]
आवहि १।२५
आवेसइ २११४
आपणहि १।१५ आहि १।१०, १२४ आराहि १।१७ आलहि २।१९ आय २१, ३०
क्रिया
आवज्जइ १।३० आगच्छमि १।२३
आसंघइ १९४६
आराहहि १।१७ आरंभहि १।१७
आसि १।१५
आवइ ११४, ११, ११, ११२,४०
२१, १३२, १८, २।१४ आलवहि २४
[इ]
इच्छइ १।१२
[ 3 ]
उच्च १४२
उघज्जइ १४१
उच्चारइ १।४१
उघाडइ १।३४
उलाइ १।१५
उछवहि २२५
उद्धरहि २।३१ उहि २०१४
मिज्जहि १४६
[ ए ]
एसरूरे ११४४ एसरइ १।४१
एसरु ११४४
एलग्गइ २।१
[क]
करावहि २।३३
करिज्जइ २३२, २०१७, २।१७,
२।३३
कहिहह २०१७ कल-मलइ ११३८
करउ २।१४, १६, १७
कहाय १।१७
कहउं १।२,३९ करिय १।३४
किज्जइ २०१६, १७, ३२, २३२,
१।१७,३०
किज्जे १।१९
किहु १९
कीलाइ २०७
कीलहि १।३३
कोकइ २०११
कुहि १४४
[ख]
खमकरि २६
खज्जइ ११३, ३३; २/३
यहि २ १७, २३०
खलहि २१२४
खणहि २३२ खवेहि २२५
खंचहि १।११
[ग]
गहाइ १।२७
गहियउ २।१४
गच्छहि २ १९, २०, १।३३
जहि २२२
गणेइ २।२०
गहइ ११४ गिज्जइ १।१४ गमणु १।१६
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________________
शब्दावली
२१
ढलंति १।१३ ।
गछहि ११११ गज्जई ११३० गच्छामि ११२३ गच्छइ १२२७,३३,४७ गलियइं ११० गहिज्जइ ११२५ गह ११२७ गावहि ११२० गावइ ११३८ गाइज्जइ १४२० गिणिहु १५८ गिण्हमि १३१६ गिज्जहि १११८ गिज्जई १९४७ गेण्हहि १११७, १६१८ गोवहि ११४१
[ण] णयइ २०२८ णउइ २।२५ णच्चइ १११८, ११३८ णजेसइ २१९ णत्थि ११३७ णासइ १।११,४१,४१, २।३०,
[ज] जंपहि १।१०,१२,१३, १४३४,
२।२१, २०१२ जंपंइ ११८,१९,१९, ११२१,२१,
२६, ११२९,४०, २१७,
१५, १९ जंपय १२१ जयहि १।१,३५ जुंजइ २०१६ जय-जय १११,१७,३८, २१६,
२।१७ जंति ११३८,४१,४१ जामि ११२१, ११२१, ११२०,
२३,२४ जाहु ११९ जाणहि १।१०,१७,२५, २१५ जाणिहि १।४६ जाणमि ११२० जारे ११२९ जाएवउ १२०, ११२१ जाइज्जइ २०१६
(कर्मणि प्रयोगः) जिण हि १।२६, २।१५,२० जित्तइ २०२२ जिणेह १७ जीवहि ११४४ जीवहु २३ जीवंतु २१८ जुज्जइ २०१८ जुज्झइ २।२२
णाच्चिय २१९ णमंसिउ ११३४ णाडियउ ११४५ णाच्चियाहु २२९ णिवण उं २०३२ णिइ २१ णिभंछी २०१५ णिहालु २१३,८ णिसुणि २।२८ णिज्जइ २।३२ णिविदुम ११३५
[घ] घल्लइ १११० घरेइ १२१ घोसइ ११४३
[च] चिंतइ १११४,८,३१
[छ]
[थ] थई २१ थक्कइ ११३५,३५, २०१८ थक्कहि ११३०, ४६ थणवहइ ११३३ थुवइ १।१७, १११९ थुणंति २।२६
छइ १११३,१३, २११,२६ छंडि २।४ छड ११८ छंडइ १६३२ छडहमि २।२२ छरियहि १।४५ छाडि २४३ छिदे २७ छिउ २।२९ छिज्जइ ११४१ छूटहिं २०२० छोड़तु १९४२
[स] शंखहि ११२० झाडे २१६ झावइ ११४६ झुणंति २।२६
[व] दक्खालहि १।३ दरसय ११३१ दाढालहं १२४ दावइ १।११,३८ दिति १११६ दिहि १।२८ दिज्जइ १४८,३२,३३, २१३२
[3]
डसइ ११४१ डहइ ११४१
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________________
९८.
सिरिवालचरिउ
दिण्णहं १११५ दिण्णई १११७,१७,२।९,२।१० दिणंति १११७ दीसइ १११३, २।१९, २।२९,
२९,३० देखइ २११ देख २७ देमि ११८, २१ दोहिमि ११८ दोहिमि १११८ दीसहि १११३,१३ दीज्जहि १२६ दिवावहि २१३२ देखिवउ ११९ देइ १२२,९,११,१३; १११५,
१११८, ११६, २।२, २।२ देवखण उं २२
पुज्जइ २।३३ पयासइ २।३५ पावसइ २।३६ पाल २।२१, ३० पालइ २।२८, ११३ पायहि २।३० पाव १।११,२५,३९ २।३२,३२ पाविय १११५,४३, २२६ पाल १।१७,१९,२० १२१७,१९ पावइ ११४,५,४१ पीडइ ११४१ पीटती २।४ पीयंति २।४
भणंतई ११३८ भण्णइ ११४६ भागि २।१६ भावइ ११८,११, ११४१,४६ भासहि १।११, २।३१ भातिउ १११४ भागहि १८ भासहं ११३३ भासइ २।३० भावेसइ ११
[म]
पिज्जइ
[ध] धरइ ११११ धोवहि २०३१
[न] निकंदइ १११७
[प] पयट्टइ २।१ पयासहि २।४ परणेसइ २९ पवालहि १२२९ पभणई २।५, २१५ परेइ १।३१ पभणेइ २।३,३ पयंपमि ॥२६ परिणइ ११३२ परसेवइ ११३३ पयट्टहि १४५ पलोवइ ११३९,३९ परणहि ११३६, २०१०
पुज्जेहि २०३२ पूजहि २।३२,३२ पूजइ १।१७,१७,१७,१७ पूजितु १।१७
छहि २०२,४ पुच्छइ २।१ पुंछइ ११२,२०,२०; २।५,२७,
३१ पुकारि १११५ पुण्णिय ११४३ पुज्जइ २०१८ पुछइ २।३१ पेछमि २४
[फ] फलीय १३१७ फिहइ १।१० फिट्टइ ११६ फुरइ १७,८,२६ फेडमि १११६ फेडइ ११३२,३२
[ब] बोलि २०१६
[भ] भणावइ ११४४ भरियइं १३०
मरति ११४२ मरहि २।२४ मरु-मरु १२७ मरावइ २७ मारु २८ मारहु २॥३, २२७ मा-मारि २७ मारइ १११५ मारंति ११२७ मारहो १२२ मारउ ११४७ मारि-मारि १११५ मारिज्जइ १११५ मारिज्जतउ १११९ मरु १११७ मेली २।२० मेल्लिय ११४२ मेटहि २०२० मेलहि २।२९ मेटइ २।४, १९ मेलइ ११४०, १११० मिलइ ११४५ मिलहि २।२ मोहइ १३१२, ११४६ मुय ११४२ मुंच १२३ मूसइ ११४१
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दावलो
मुवति २।२३ मुच्चइ २।३४ मुणहि २६ मुच्छहि २२२ मुणइ १।३१, १७,७,११६ मुणिहि ११५ मुणेइ ११७ मुवइ १६४१ मुक्कमि ११२३
[
]
रमंति ११५ रमण १।२६ रसंत १२६, २०१२ रक्खे ११४२ रच्चाइ ११३८ रक्खहिं श११,३४ रसंति २।२२ रसिय २।२३ रक्खहु ११४४,४५ रसइ ११४,७,१५,३१ रुच्चइ १६ रुवंती ११४२,४२ रुवहि ११४३ रोलहि २०२९ रोवइ ११४२,१४ रोवहि ११४३, २।२ रोपहि ११९ रोवंति १११४
लवमि ११३३ लवंति लईयउ ११३६ ललिहहि २।३१ लेहि १४१७,१७,१९; २०१८ लेइ १११९, २१२, २०१२ लेविण १।१६,२५,३०; २१६,२० लेसमि २।२९ लेसइ ११४३ लेखमि १२४ लद्धे २१६ सइय १३१३,१६; २१३३ लहइ १११ सवइ २।४ लाइ ११२८ लवहि २।१८ लावति १७ लावइ ११३८ लायंतहं २०२२ लिमहि १३१७ लिंतु १।१६,४२ लिहहि १।१७, १७ लिज्जइ ११३०, २।४ लिहियहि ११७ लोलहि ११३७ लिहाइ २।३
वंदय २६ वंदइ १।२३,३२ वहइ ११४१,३,३ वसइ ११४६,५,५ २।२८ वज्जहि १।२८ वज्जइ १११४ वइसि ११९ वसहि २।११,३,४ वलइ ११३८ वलहि २।२४ विणोयहि २।३२ विफरइ १६ विभासइ १४१ विणासइ ११४१ विवारहि ११४३ विसारहो १।२२ वियारहि १।२१ विहडावण ११४३ विटिहि १११५ विलाइ ११४१ विहाइ ११४१ वीचलइ १२३ विछोडइ १२९ विहसइ ११३८ विलसइ १।१४ विजाणहि २०१० वोलइ २,४,७,२४ वोल्लइ ११८ वोल्लिजइ ११३३ वुच्चइ २।१२, २०२२ वुज्झइ १७ वुलावइ ११८,१२,१२,४४ वीसरइ १।१५,२२,२२ वीसरह ११२२,२२, ११२२,२२ बीसरहु ११२२ वीससहि १।२४,२४, ११२४,२४ वियारी १२१७ विग्गहि ११३१ विसुणि ११३६
[व]
[ल]
लग्गउ १।११,११,२८,३४
१२४६, २०६ लवइ २।४ लसइ ११२९ लहेसहि २।३६ लग्गइ ११३०,३८ लग्गइं ११३०, २०१ लब्भइ १४१ लग्गय ११४२
वट्टइ १६६ वइट्ठहि २०१२ वज्जरेहि ११४० वंदेसहि २०३६ वज्जिज्जइ २।२७ वारसि ११७ वारह १४ वालउ ११३३ वायंतइ ११२९ वट्ठइ ११२०,३३ वज्झहो २१६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
सिरिवालचरिउ
[स] समपाहि २०११ समप्पहि ११३ सम्मपहि १।११ संघट्टहि ११४५ संचालिहि ११४५ सलहहि ११२०,४६ सरसहि ११२० सहारहि ११४३ सइच्छइ २१ संहतई १११८ सल्लावइ ११३८ समंदइ ११२३ संकरइ ११२१ सामीसिमि १११७ संघाणई २।२४, ११२७ सलहंति २।२५ समाणइं ११२६ सहारहो १२२ सलवलियई २०१३ सम्माणिज्जइ २।३३ संचहि १।११ सरंति ११९ सट्टहि १।१०,३६ संकहि ११४६ सरेहि ११३८ संपुण्णी ११३७ संवरि ११३७ समरि ११२८, २।१९,२१,२२,
२।२३, २४ सज्जहि २०२१ सहंति ११२६
सरंति श२६ सम्माहि ११७ सवंति २।२२ सरेइ ११९ सहइ १११३ समइ १७ सक्कइ ११३० संघइ १६४६ संसारहो २१३५ संतु १।३९, १११७ संति ११,१११ सुणि ११२०,२६, २।५,२२,२६ सुणे २।२८ सुमरी २०१८ सुणेइ १२१ सुच्छइ २।१ सुसारहि २।३५ सुतारहि २०१२ सुणिज्जइ २०१६ सुमरंतु ११४० सुणावइ ११४६ सोहहि १।३३, १।३६, १॥३,
१५ सोहिउ ११३४ सोवत ११४१ सोवणु २०२० सोहइ १२४६, १११२, १४१५ सोइंति ११५ सिकवमि ११३३
हइ ११ हय १११,१११०, २।२ हव २०१४, २।२५ हउ १११७,१७,४०,४२, २।१ हरु ११४०, ११४४ हवेइ २०३३ हवंति ११४१ हवेसहि २०३६ हरिसहि २।२४ हणुवहो २१२३ हक्कारह १२८ हक्कदिति ११२७ हल्लोलिय ११४५ हरेसिय १११२ हकरावहु १११२ हारी २।३४ हारि १।११ हारीय २०१७ हावकदिंतु १।२८ हिंडइ ११२१ होइ ११४,९,९,४०, ११४३,४४
४१,४१, ११४१, ३२,
२।६,१६ होहि ११२४,२९, १।१५,१७ होतु १।१५ होति १०१५ होसमि २।१९ होसइ ११३७,४३, २।१२,१४ होसहि ११३७ होतइ २१७ होतउ २।१, २०१४
[ह]
हण ११३७
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________________
सामान्य भूत
[अ] अप्पालिय १११८,३६ अक्खिय ११६ अणंदिउ १२३४ अतीतउ १४३ अवहिय ११२१ अहिणंदउ १२९ अवलोइय ११४, २।२ अवसियउ २०१५ अन्भिडिय २।२३,२३,२३ अप्पेक्खिउ २०३० अभग्गउ २।२१, २०२८ अक्खियउ २।२१, १११२, २।१,
२।२ अगणिय २६ अणुरंजिउ १११८ अ-भडिउ १२७ अलियउ ११४३ अप्पिय २०१७
आरज्झिउ २१४,२।४ आवद्धउ ११३४ आवज्जिउ ११३५ आएसिउ १११२ आउलिय ११४५ आसतउ ११३८,३९ आलिंगिउ ११३७ आसत्तिय १।२४,२१ आरत्तिउ १२५ आराहिउ १२२६ आएसिय १२५ आलविउ ११५ आइयउ ११३५, २।१२, २।१३,
उछलिउ १२४० उछलिय श२ उग्घाडिउ २०१४ उम्माहिउ ११३८ उकिट्ठउ ११२७ उज्जोयउ १२१९ उत्तारिय २१३६ उवएसिउ २०३० उम्मोहियउ २।२ उपरोहिय ११११ उच्छलियउ ११४० उववासेवउ २०३१ उवहासिउ २०१६ उट्टहाई १३१७ उक्किट्ठउ १११३
१३
[क]
आसढउ २।२२,२१,१८ आए २०१९ आऊ २१११, २०११ आउ ११४४, १५, २।१९,
२।२०,२११४,२६,२,२,
७,२।१ आणिउ १२६
इच्छिय १८, १।९, १।२०,
२।३२ इट्ठिय १२
[आ] आरहिउ ११२६ आयउ ११२,३६,३७,४७,
११४५,४७,४६,४७, २।३६,४,१,८,११,
२।१६,१,१ आइय ११४५,१५, २।१, २।५,
२।२६ आणिय १२२९, २९ आहासियउ २।३२ आरंभिउ २१२ आरंभियउ २।२ आलिंगिय २।७, २०१४
कहियउ २।२९, २।१४, २०१७ कराविय २।१९ कारिउ २०१६ कामिउ ११४४ किण्णउ ११३ कीय ११४४ कीस श२३ कीयउ ११२८ कुप्पियं १२३ कुचिलउ ११३९ कोकविय २२ कोपिउ ११९, २१५,१९ कोपिय ११४३
[ख] खचिय २०१७ खद्धउ ११२७, २०१२
[उ]
उतु २।३, २०१८ उट्ठिय १११५ उट्ठिउ २०११ उत्तउ १२८,१७,३२,४६, २।५,
२।२४ उच्छलिउ १४६
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________________
१०२
सिरिवालचरिउ
खंचिय २०१८ खलिय २०१२ खदु २०१२ खाइय ११५ खुहियउ ११५
गउ १।२५,३३,३४,४६ ११४२,
२।१८,६, २।५,९,१०,७,
जणिय जडिय १४ जण २१४ जइउ १३३ जवियउ ११३४ जडियउ २।२४,३० जायउ २।४,५,२७ जाणिउ १११६,२५,३९ जाणिय ११,७,३५, २१३४ जाइयउं २०१३ जाइयउ २।१२ जइयउ २।३३ जाणियउ २।३५ जिणिय ११५,३७, २०१५ जित्तिय २।९, २०१० जियउ २१८ जुहारिउ २११४
[घ] चित्त १११५ घडियउ १२३४, २।२४ घडिउ १३४,३४ घडउ २६ घालिउ १११९ घालिय २।२४ पल्लिउ २।२९ घल्लिय १२२९ घाहिय २२२२
[व] द१ ११११ दसिउ १२६ दावियउ १११५ दिट्ठउ २।२६, ११४७ दिट्ठ १११०,३४,३६, २०१,
२।६, २१८, २०३० दिट्टिय १२४३ दिण्णिय ११४३, २।२७ दोणी १११४ दिण्णाई २।२८,३० दित्ता २।२४ दित्त २।२९ दिण २।३२ दिणे २।३२ दिण्णे ११६ दिठ्ठ २।११,१२ दिण्णु ११८,१५,१५, ११३०,३७,
२।१२,१६,१९ दिण्ण ११२५,२५,३७,४३,
११६,१४,३६, २।५,१०,
२१ दिठु १।१७ दिण्णउं ११०,१३,१५,१५
११२०,२९,३४, २।३१ दिण्णउ १११२,३४, २।७,११
[झ]
[च]
झाड़िय २१, २०१३ झावहु २।१४ झाइय २।१, ११
चालिउ २।१० चिंताविउ २०१२ चिंतावियउ २।१२
[छ] छित्तु २।३० छत्त ११५ छत्तु १।११,१४,३० छरिय २०१५ छंडिय ११४४ छत्तउ १११० छाइयाइं २।२२ छुत्तउ ११३४ छुइयइ १३३
[अ] जडिउ ११३०,३४ जंपिउ ११२०
[2] दृवियउ १।३६
[6] ठोइय १।२९
[ण] पट्ठि १।१४,१५ णविउ २१३० णंदिय २१२७ णंदिउ ।२२ णंदउ २९ णच्चिउ २।५ णडिउ १२ णियाउ २१९
[2] थई १११३
[] धरिउ १२८, २।९ धरियउ १।२४,४६ धाइय १।२७,२८, २१२,२१ धारउ २॥३१,३४ धावउ ११२५
[प] पडियउ ११४५, २६४ परियाणिउ ११३९ परिदृविमउ ११३६ पयासिउ ११३७, २।३३ पावियउ २।३४
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________________
शब्दावली
१०३
पेसियउ २३६ पेरियाउ २।२२
[फ]
फरिय १।२७
बुज्झिउ ११६,६,६
[भ] भत्तउ ११२५, २०३५ भासिउ ११२, ११९,४३,
२।२९,३३ भासिय २०१२ भिण्ण ११३८ भीडिउ १११० भुत्तु १७ भुत्तउ २।३५
[म]
[ल] लयउ १२८,१५,३८, २२,७,
१३, २०२८,३४ लद्धउ ११३७, २७, २२६, २१६ लागउ २।३० लायउ ११४५ लाज्जिय २।३० लिय १७ लियउ २७ लिहिय १७ लिहियउ १९,९, २०१६ लिहिल्लिउ २०१८ लोटीय २७
[व]
पडिहासिउ २०३४ परिणाविय ११३६ पसंसिउ ११३४ परायिउ २।१० परिणिय २०१० परिण २।१० पट्टइ २१५ पराययउ २११ पडिउ २१३, २०२८ परिउ १२७ पायउ २।२६ पवेसिउ २०१७ पयट्ठउ २०१७ परि-वोलिउ ११४५ पाविउ १२१४, २११ पायउ ११२५ पाइयउ २०१६ पाविट्टिय ११४४ पालि २१३२ पियउ २०११ पीठत्तु २।११,१२ पीडियउ १४१८, २०२८ पीडिउ १६१० पीइ १११७ पुकारिय ११३२ पुछिउ १११६,३९,४६,३२,
२११८, २१५, २०१६ पुज्जिय १२२६, १२३२ पुंछिय ११३४, २१७, २०१६ पूजिउ १११७ पूरिय २।१४ पेसिउ ११२ पेक्खिउ १।१४ पेल्लिय ११३८ पेल्लिउ २१२९ पेसियउ ११३६ पेरियाउ २।२२ पेरिउ २।२६ पेसिउ ११२ पेक्खिउ १११४
मंडउ ११३,३६ मण्णई १११४, २०१६ मग्गिउ ११६ मणिसं २०३० माणियउ ११२६ मुहं चुविउ २७ मिलिउ ११३७, २०१९ मिलियउ ११२, ११५, १२५,
२०१२ मिलियई १२६, २०१८ मोहिउ १।१५,१९ मोक्कलाई ११४१ मुक्कु १२४६, २०१३ मुखाडिय २१ मुणिज्जऊ १६
वइट्ठउ १२२७,४७ वद्धउ ११३४, २।४ वरिसउ १।२१ वंधाविय २२८ वंधी १३१२ वण्णसं २।३१ वहिउ श२८, १११५ वसिय ११४१ वहिय १२४ वंदिउ १।३४, २।२२,२६ वलिउ श२० वलिय ११८ वंधिउ १२४२ वइठ्ठ २०२५ वइट्ठ २ वंधिय श२७ वज्जिय १२६, २०१८, २।२२,
१२ वंच्छिउ ११८ वासिउ १११३,१७,१८,
२।१६,४ वाहउ ११२५, २०२० वाठिउ १११७ वाजियाई २।९ वालियउ २।१०
[र]
रहय १४६ रंजिउ १४१८, २।६ रायउ ११३ रोपियउ १२२७ रेल्लिय ११३८
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
सिरिवाल वरिउ
वंचिउ २०१२ वोलिउ २१७,१४,२७
संधिउ २०१२ सारिउ २०१६,१८ सालहिय ११५ साहिउ ११२०, २०२५ साधिउ १६४५ साहिय ११ सिंगारय १।१४ सिठ्ठ २।११ सिट्ठउ ११३७ सिद्धउ.२१६,९ सिक्खावय १६१७ सिक्खाणिउ २०२८ सुज्झिउ १६ सुत्तउ १२५ सुक्कई ११३८ सेवमाणु २०१९ सेव कराविय २०१३
विणिदिउ २०१५ विवाहिय २०१३ विसज्जिउ २०१७ विण्णविउ २।१२, १२४३ विह २।३२ विहाइय २०१२ विसूरिय २।१४ विरत्तय २२२९ विल्लई ११३८ विग्गुच्चिम २०१९ विहाउ ११६ विक्खायउ २।२७ विभयउ २।२८ विछायउ २।२९ विवीहिय १२५ विरमउ ११३५ विधायउ ११४२,४३ विहायउ ११४३ विद्धणउ १२० विचारिय १।२१ विसूरियउ १३१२ विल-वियउ ११८ विज्झउ १७ वित्तउ १२१ विण्णिमिउ १३६ विणिगाय २ विभियउ २१२ विराइउ २३६ विहिउ १११४ विहिय १११ विट्ठउ ११२ वीतउ ११४३ वुत्तु ११४२ वुल्लिय १४५ वुत्तउ २११ वुल्लाविउ २०१७
[स] समप्पिय १२५, २०१७ संतोसिउ १११९,४७, २।९ सहारिउ ११२४ संभरिउ १११२ समुट्टिउ ११५ समुद्धिय ११४३,१ ससासिय १।२२ सम्माणिय १२९ संपत्तउ २।१२,१३ समायउ २०१७ सम्माणिउ २०१७ सहियउ २०१२ सज्जियउ २०१४ संसकिउ २।२४ संवोहिउ २०१७ सण्णद्धउ १२७ संचारिय १२७ समाइय २३५ संचाइउ २१९ संसिद्धउ ११४७ संजइयउ २०३६ सरसियाउ २।२१ संपाइयउ ११३५ संजायउ ।२६ सण्णद्धउ ११२७ समुद्धरिया १११३ समण्णियाउ २।९ समाणियउ २०१० समाणिय २।३५ सयप्पिउ २०३६ संजायउ २।३६ संचालियउ २०१०
[
]
हव १११९,४१, २।१३,३५,३५ हुई ११३७, २०२८
सा. भू. कृ. जुत्तउ ११८,२०,२१, २१४,९,
२४, ३५ भग्गउ ११३४ भमिउ ११९ भणियउं १९
कृ. विशेषण पेखतहं २।११,१२
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________________
पूर्वकालिक क्रिया
[थ] थुणेपिणु ११३५
गिण्हेविण ११६ गेण्हेयि ११२९
[घ] घालि १५२१
[च] चढि ११४५ चिंतिवि १।१५
[छ ] छंडवि २।४,११७ छंडिवि २।११,२।३,४७,११४७
[अ] अप्फालिवि २२४ . अवलोइवि ११८ अवधारि २।९ अवगण्णिवि १११३
[ आ] आइवि १२४५,४५,२१५,११ आणिवि १६,१५,१।२६ आपूरि ११६,२०१२ आलिंगि २०१७ आइ १११,२,१५,४४,१॥३५,
२।१,१५,२।२०,३२ आणि १।१२,२।२१ आसंघिवि १२५ आरोहेवि १११७ आयढेवि २।२२
[उ] उत्तारेप्पिणु १२२५
[क] करिवि ११२७ करेपिणु ११२,२।२६,३३ कारिवि २१५
[ख] खंचिवि ११३० खहवि ११३१ खोहूवि २०१३
[ग] गंपि ११३६,२।१४ गिण्हेवि २।३१ गिहिवि ११६
१४
जंपि २०१२ जाणि १७,१६,२,३३ जाइवि १६१६,१६,२६,१३२८,
२८ जाणिवि ११३२ जाएवि २।३० जाएप्पिणु १।२७ जाएविणु ११६ जाणेविणु २१३४
[ ] झाएविणु २१३३ झेलिय १२५
[ ] ठेल्लाविवि २।२९
[6] ढेल्लाविवि २।२१
[ण] णविवि २।३० णवेप्पिणु २।१,९
दहवेप्पिणु २।३६ दविणुवि २।२७ दिवाविय ११३६ दिण-दिण १।१७,१८ दिक्खिरेवि १२८ देवि ११८,२।१४,१७,१७,१८,
२।२४,३०,३०,३६ देक्खि ११५,१८ देखिवि २।२२,११२५,३८,३९ देप्पिणु २०२७ देवाविउ २०१२ देविण १।२५ देखेविण २७
[ध] धरि श२५,४५,२।७,७ धरिय ११२८,२।२३ धरेविण ११२९
[प] पणवेप्पिणु २।९ पडिवि २६ परिणिवि २।१ परियाणिवि ११३२ पालि २।२४ पुंछेप्पिणु ११२ पुंछिवि १।१६, २।२ पुज्जिवि २।२७ पूठि १६४२ पेक्खि ११५,१० पेक्खिवि १११२,२४,४६
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________________
१०६
सिरिवालचरिउ
पेक्खेवि ११६ पेखेविण ११११,२।२९
[फ] फुट्टिवि २७
[ब] बंधिवि २।२४
[भ] भणेविण १।८,३३,२।२७ भणेवि ११९
मण्णाविय २।१० मारि २।१९ मुंडि २७ मेल्लि २१ मोकल्लि १६
[ल] लंधिवि २।१४ लएप्पिणु ११८,१९,१९ लाउवि २७ लेवि ११३,१६,३६,२।१६
[व] वहसिवि २११ वासिवि २ वंधिवि ११२८,२८,२९,२।२१ वंदिवि ११३५, २।२७ विरएप्पिणु ११३५
विहिाव २१
[स] सरेप्पिणु ११२ संभरिवि १२४३ सहारिवि ११३९ समरवि ११२८ संपोहिवि ११३१ सरेवि २५ सुणेवि १२३ सुणिवि २।२,१० सुणेप्पिणु २०११
[ह ] हणेप्पिणु २।३६ हवेप्पिणु हारिवि ०३९ होएप्पिणु २।३३
[म] महिवि २०१६ मंडवि १२ मरिवि २।२९ मण्णइवि ११४५
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________________
अव्यय
इय ११९,११,१२,३९, २२७,
१०,२।१०,१२,१२,१२,
[उ]
[अ] अव ११२९,४४, २०२२ अहवा १११५ अग्गई ११९,१३,३०, २०१४ अंत २१७,३२ अहि २०२६,२७ अहणिसु १।३१, २।३२ अवरु २१८, १४, ३६, ८,
- १११२, २९ अंतरि ११७ अवरई २।११,१३,२८ अइ १।३,१४,१५,१५,१९,३३,
२२६,८,१५,१९,२०,२८, अद्ध-रत्ति २०१२ अज्जवि ११४७ अहो ११४४ अरु ११० आपुणु १।११ आयई १२४४ आसण्ण २१२६ आपणी २०११ आपु-आपु १३२५ आइयाइं २०२२ आमु २१७,१४
उल ११३,२८ उद्ध ११४५ उहु ११३८ उण ११३९ उवरि १२२७, २०३५ उपरा-उपरि १२८ उप्परि २।२५ उवरू श२७
[ए]
एयहो १११३ एयहि ११२० एउ ११६,२१,२५, २।३ एसहु २।१७ एव ११५,१४,१८, २।१२,३२,
(सर्वनाम अव्यय)
[क] कलियहि २।३१ कहि ११४३ कमेण १।१७ कारणु १११६ कि (प्र.वा.) १४,१३,१७,२९,
४४,४०, २।२,४,४,१४,
२०, २९, किय (प्र. वा.) १।११,११,२६,
२।१७,१७ किर १।१०,१४,४४, २१५,
१२,१८ किउ ११२५,२६, २।२,७,
२।१२,१५,१८,२४,२४ की ११११, २।४,९, २०१४ कुवा २०१२ केवल ११२२
[ख] खणेण २०१२ खणु १।३३, २०१८ खलु १।१५
[घ] घोर १।१८,४०,४१, २०३६
[च] चिरु २।३, २९
[ज] जइ-बइ १।४६ . जवण ११४२,४२ जहि-जहि १११८, २०३६
[इ] इहि १।१३, २०२८ इम १।१५,३४,३५,२०,४३,
२।१४,१४ इउ ११४३ इत्र २।१४,१४ इत्थतरि २१३४
एम ११८,९,९,२०,२३,३३,
२१४,१६,१६,३२,३५ एहि २।३१ एत्थु २०१२ एवि २०११ एत्तहि ॥३३,३५,४२,४५
२११,२,३० एवमाइ १४५, २।२४ एकमेक्क २।२३ एकम्मकि १९ एय ११३०, २।३७,
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________________
१०८
सिरिवालचरित
[] ठकु ११४१ ठक्क २१२२
[ण]
ण २।१२,१२,१२,१४, २०१७,
१८,२२,२८,३१ णवि १११५,३७,३७, ११३८,
३९, २१६, २।१०,१४,
जं ११८,११,१५,१६,२१,
२।१,५,६,७,१२,१६ जइ ११२१,२२,२२,२२,२२,
२।१,१४,१६,१७,२०, जहिं २।२,५,१९ जविहिय ११४७ जव ११३१, २०१२ जह १।२६, २०१७,१ जणु १३१३,२८, ३८,४६,
२११,१,२,९,२,२ जहा २१८ जाम ११४६,२६, २।१,१२,२८ जा ११९,१२,४६,४७, २।९,
२१,१७,३०, जाउ १११७, २।५,६,१२,
२।१२,२८,३१, जाहि ११२१,३१,३३, २०१९,
१९,२४, जावहि ११३८,४४, २०१८ जि १११३,२६,२९,३२, २।१०,
३४, ३४ जिम १११३,१३,१४,१४,
१११४,१४,४०,४५ जिह ३,३,५,७,१९,२८
२।३,१८,२३, जीण ११२२ जु ११९,९,९,१३,३२,४३,४४.
२१२,१५,१५,१९,३० जुत्तु २।५,७,८ जी १६३६ जेम ११६,८,१०,१५,२६,
२।१०,१२,१२, २३, जेत्तहि १७, २११, १५, जे-काल १११ जेमहि १०३
णत ११३,१३,२७,२७, णवर २।९,९ णइ ११११ णउ १११६,३७,३८,३९, २।६,
१०,१६ णवि श३१ णाइ १।१७, २०१६ णावइ १४६ णाइउ २।९ णिक्क २०१३ णिरु १।१५,१५,१६,
१११३,२२ णित्तु ११३० णिरुत्तु २२२,८, ११२१ णिमित्ता ११५ णु १११९,२७,४१, २०१२
[त] तिम २०५३ तुरंउ २०१३
[प] पडियउ २४० पच्छाण ११३७ पण २।११ पर ११३३, २०७,९ परंपर २७ परोप्परु ११२७ पाछिउ ११२२ पार ११२२ पाछ २।२ पासु १७,७,६, २।३१ पास ११,१,१,७, २१४,१२,
१३,१ पासि २१,१ पाछे ११४५ पुणु १।१,२,७,८,१९, २।१४,
१८, २२, ३२ ( दस से
अधिक बार) पुणि १११९ पुण १२६ पुष १११०, २।४ पुरउ १।१५, २।४
[फ] फुणि १७ फुडु १।११ फूडु १।३७ फेरि १११७
[य]
[भ] भीतरि २१२ भीतर ११३३,३३
थोरउ २।१२
[द] दइ १।१७,२४,३७,४६ दुविहें २।२६
[ध] धिय १३९
[म] मणि ११४६ म १।१८,४३,४४,४४, २१६,
१२,१७ मा ११९,२४,३७,३९, २१७
झत्ति २०१४
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________________
शब्दावली
१०९
विह १।१७,१८,१९,४२ विषु १।२१,२६,३३,३३,११४२
[ल] लहु ११७,१०,२८ लउ २७,३४,३४,३४ लए २०१३ लुहूँ २१३३
विहिणा १३१४,३०,११
सहु ११४ संग ११ समु १।१७ सहो २११५ सहूं २०११ सारु १।१७ सुट्ट ११५,३०,३२,३४. सु ११२९,२।२७ सुठ्ठ २।२५ सुहु २।३४ सुपास ११ सुपास १११ सिहु १२२१ सीस उवरि १११०
[स] सहिय ११३,२७ सवडम्मुहु १।१८ सम्मुहुँ ११४७ समाणु २।६,३३ सहिउ ११६,२।९,१० संभव १११ सधर १११४ सरिस १३७ सह ११११,११,१२,१३,१३,
११३०,३०,२८,२।२ सइ १११,१२,१३,१६,२२
२।१३,१५,१५, ११४३,४४ समेउ ११२०,२१,२७ सवि १३०
[व] वहू-पयारु २।१२ व ११३३,४५, २०२८ वहिर ११११ वरु ११६,६,८,८,२९,११३५,३७,
२।२९ वसेण १११७,२७ वाहुडि १११२ वाहिर १११५,२।३१ वार-वार १११९,३४,२७ विभित्तिय ११४३ विहउप्फउ १४४ वि ११३,५,७,१६,१९,२७,९,
१०,१४,१५
[ह] हा ११४५ हि १७,३४,२।२७,२।३६ हू ११२६ हो १११३
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________________
संख्या
एकल्लु २।१४ एक्केण २।३,९ एक्कहि ११३२ एयारासे १११७
[क] कोडिय १।१८ क्खडतीस ११५
[छ ] छजणु १११३ छट्ठी २०११ छट्ट १११३ छहं १।१३,७ छठ्ठउ २०१२ छत्तीस १७ छत्तीसउ १२२
अट्ठहं २।३४ अट्ठसहस २०१९,२५,३४ अट्ठसय २१३५ अट्ठ-सह-सउ २०१५ अट्ठहमि २।१२ अट्ठम १।१७,१७ अठसठि १११८,१८ अट्ठमि २।३१,३१ अट्ठ १।१७,१७,१७,२।३२ अट्ठोत्तरु २।३१ अट्ठारह १७,१३,३० अट्ठाणवइ ११७ अट्ठमी २।११ अट्ठाई १०२९ अडदह १०१३
[ आ] आठ्ठहु ११११,२०११
[इ] इक १।१७,३४
[उ] उभे २०२५ उभय २।२२,२२ उभउ ११४, १२५ उब्भउ ११३९
[ए] एक्क १११७,२।३,३,३,२१ एक्कु १२२२, २१३,१४, २१८,
९,१२ एक्को २१०,१० एक १११७,२१६
[] ट्ठरह-लक्ख २०२०
[ण] णवमि १११७
दोउ श२७ दोइ ११२१ दोण्णिय २।२२,११११ दोण्णिवि १।१४,१८,२।२२ दोणि २।१५,२३,२३
[प] पंच २१३३,३५. पंचमी २०११ पंचह १।२५ पणतीसक्खर ११४०
[ल] लक्खइं १११८ लाक्खु १२७ लाख ११३० ।
[व] वहत्तरि ११७ वारह ११२१,३७,२।३२,२।३२,
३२,३२,३४,३५ वाणवइ ११४,२।२० वारह लक्ख २१३५ वारह सहस २।३५ वारह-वरिसहं २।१४ वतीस ११२५ विण्ण २।९ विउ ११३०,३५, २।२३ विय २।२४,२६ विवु २०३३ विण्णिवि १११५,२१,२५,२।५,
८,२४,३० वे ११११,१२, २।१२,२५ वेवि १६१५,१५,२०६ वोवि ११४, २१२३
[द] दस सहस्र १११७ दइसइ ११६ दइहउं २०१२ दह-लक्ख ११४,१७ दस-पंच २।१ दह-सहस १२२६ दस सहसहि ११२७
दुए २०१६
दुई ११४४,४४,४४ दुइजी २८
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________________
[स]
सउ २१८, ९, १२, ३१
सत्तमिय २।११
सतरि २।२२
सय २०१७
सयपंच १।१५,२६
सातसइ २।१२ सातसय २२०, ३४
शब्दावली
सयसत्त १२५
सहस अट्ठ २।३५
सयसत्तय १।३७
सत्तरी १७
सहसु २।१२
सहस १।१७, ३२, ३४, ३७
सयई १३०,२११०, १० सातउ २।१२, १७
सुद्ध २।१०
सोलह-सइ २।१२ सोलह-सय २।११
परसग
सेत्तिय १।२१ केरि १।१७,२९
१११
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________________
अत्तेहि १२२
[ अ ]
१६,६,४६
अट्ठ पयार १।३५
अग्गे १४, ४, ६
आगे २७
[ आ ]
क्रिया विशेषण
[ क ]
करंतर (क्रिया से बना ) २।३५
[ घ ] घरि-घरि ११८, २०, १२९, ३६, २।१७
[ ल ]
लइ १।१५,२८,१६,३२, १।३५, ३५, ३६, २।१२
लहू ११२८, २२० वहंत ११० बियंतु २२८
सलु २।१७ ससत्तिए २१३२,३२
समास २।१
सइछई १३
सरिस १।१९ सायर २।२९ सातु २।१९
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Bharatiya Jnanapitha Mürtidevī Jaina Granthamala
General Editors :
Dr. H. L. JAIN, Balaghat : Dr. A. N. UPADHYE, Mysore.
The Bharatiya Jñānapitha, is an Academy of Letters for the advancement of Indological Learning. In pursuance of one of its objects to bring out the forgotten, rare unpublished works of knowledge, the following works are critically or authentically edited by learned scholars who have, in most of the cases, equipped them with learned Introductions, etc. and published by the Jñānapitha.
Mahābandha or the Mahadhavala :
This is the 6th Khanda of the great Siddhanta work Şatkhanda gama of Bhūtabali : The subject matter of this work is of a highly technical nature which could be interesting only to those adepts in Jaina Philosophy who desire to probe into the minutest details of the Karma Siddhānta. The entire work is published in 7 volumes. The Prākrit Text which is based on a single Ms. is edited along with the Hindi Translation. Vol. I is edited by Pt. S. C. DIWAKAR and Vols. II to VII by Pt. PHOOLACHANDRA. Prākrit Grantha Nos. 1, 4 to 9. Super Royal Vol. I: pp. 20 + 80 + 350; Vol. II : pp. 4 + 40 + 440; Vol. III : pp. 10 + 496; Vol. IV: pp. 16 + 4.28; Vol. V: pp. 4 + 460; Vol. VI : pp. 22 + 370; Vol. VII : pp. 8 + 320. First edition 1947 to 1958. Vol. I Second edition 1966. Price Rs. 15/ - for each vol.
Karalakkhana :
This is a small Prākrit Grantha dealing with palmistry just in 61 gāthas. The Text is edited a long with a Sanskrit Chāyā and Hindi Translation by Prof. P. K. Modi. Prākrit Grantha No. 2. Third edition, Crown pp. 48. Third edition 1964. Price Rs. 1/50.
Madanaparājaya :
An allegorical Sanskrit Campū by Nágadeva ( of the Sarnvat 14th century or so ) depicting the subjugation of Cupid. Critically edited by Pt. RAJKUMAR JAIN with a Hindi Introduction, Translation, etc. Sanskrit Grantha No. 1. Super Royal pp. 14 +58 + 144. Second edition 1964. Price Rs. 8/-.
Kannada Prāntiya Tādapatriya Grantha-sūci:
A descriptive catalogue of Palmleaf Mss. in the Jaina Bhandaras of Moodbidri, Karkal, Aliyoor, etc. Edited with a Hindi Introduction, etc. by Pt. K. BHUJABALI SHASTRI. Sanskrit Grantha No. 2. Super Royal pp. 32 + 324. First edition 1948, Price Rs. 13/-.
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(
2
)
Ratna-Mañjūşă with Bhāșya :
An anonymous treatise on Sanskrit prosody. Edited with a critical Introduction and Notes by Prof. H. D. VELANKAR. Sanskrit Grantha No. 5. Super Royal pp. 8 +4 + 72. First edition 1949. Price Rs. 3/
Nyāya viniscaya-vivarana :
The Nyāyaviniscaya of Akalaika (about 8th century A. D. ) with an elaborate Sanskrit commentary of Vadiraja (c. 11th century A. D.) is a repository of traditional knowledge of Indian Nyāya in general and of Jaina Nyaya in particular. Edited with Appendices, etc. by Pt. MAHENDRAKUMAR JAIN. Sanskrit Grantha Nos. 3 and 12. Super Royal Vol. I: pp. 68 + 546; Vol. II : pp. 66 + 468. First edition 1949. and 1954. Price Rs. 18/-each.
Kevalajñāna-Praśna-cūdamani :
A treatise on astrology, etc. Edited with Hindi Translation, Introduction, Appendices, Comparative Notes etc. by Pt. NEMICHANDRA JAIN. Sanskrit Grantha No. 7. Second edition 1969. Price Rs. 5/ --
Namamālā :
This is an authentic edition of the Nāma māla, a concise Sanskrit Lexicon of Dhanamjaya (c. 8th century A. D.) with an unpublished Sanskrit commentary of Amarkīrti ( c. 15th century A. D. ). The Editor has added almost a critical Sanskrit commentary in the form of his learned and intelligent foot-notes. Edited by Pt. SHAMBHUNATH TRIPATHI, with a Foreword by Dr. P. L. VAIDYA and a Hindi Prastāvana by Pt. MAHENDRAKUMAR. The Appendix gives Anekārtha nighantu and Ekākşarī-kośa. Sanskrit Grantha No. 6. Super Royal pp. 16 + 140. First edition 1950. Price Rs. 4/50.
Samayasāra :
An authoritative work of Kundakunda on Jaina spiritualism. Prākrit Text, Sanskrit Chāyā. Edited with an Introduction, Translation and Commentary in English by Prof. A. CHAKRAVARTI. The Introduction is a masterly dissertation and brings out the essential features of the Indian and Western thought on the all important topic of the Self. English Grantha No. 1. Super Royal pp. 10 + 162 +244. Second cdition 1971. Price Rs. 15/
Jatakatthakatha :
This is the first Devanā garī edition of the Pāli Jātaka Tales which are a storehouse of information on the cultural and social aspects of ancient India. Edited by Bhikshu DHARMARAKSHITA. Pāli Grantha No. 1, Vol. 1. Super Royal pp. 16 + 384. First edition 1951. Price Rs. 9/-.
Mahāpurāna :
It is an important Sanskrit work of Jinasena-Guņabhadra, full of encyclopaedic information about the 63 great personalities of Jainism and about Jaina lore in general and composed in a literary style. Jinasena (837 A. D.) is an outstanding scholar, poet and teacher; and he occupies a unique
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place in Sanskrit Literature. This work was completed by his pupil Guņabhadra. Critically edited with Hindi Translation, Introduction, Verse Index, etc. by Pr. PANNALAL JAIN. Sanskrit Grantha Nos. 8, 9 and 14. Super Royal : Vol. 1: pp. 8 + 68 + 746, Vol. II : pp. 8 + 555; Vol. III :
pp. 24 + 708; Second edition 1963–68. Price Rs. 20/- each. Vasunandi Śrāva kācāra :
A Prākrit Text of Vasunandi ( c. Samvat first half of 12th century ) in 546 găthās dealing with the duties of a householder, critically edited along with a Hindt Translation by Pr. HIRALAL JAIN. The Introduction deals with a number of important topics about the author and the pattern and the sources of the contents of this Śrăvakācāra. There is a table of contents. There are some Appendices giving important explanations, extracts about Pratişthā vidhana, Sallekhanā and Vratas. There are 2 Indices giving the Prākrit roots and words with their Sanskrit equivalents and an Index of the gāthās as well. Praktit Grantha N). 3. Super Royal pp. 230. First
edition 1952. Price Rs. 6-. Tattvārtha vārttikam or Rāja vārttikam :
This is an inportant commentary composed by the great logician Akala aka on the Tattvärtha sätra of Umnisváti. The text of the commentary is critically edited giving variant readings from different Mss. by Prof. MAHENDRAKUMAR JAIN. Sanskrit Grantha Nos. 10 and 20. Super Royal Vol. 1: pp. 16 + 130; Vol. II : pp. 18 + 135. First edition 1953 and 1957. Price Rs. 12/- for each Vol.
Jinasahasranama:
It has the Svopajña commentary of Panlita Asidhara (V. S. 13th century). In this edition brought out by Pr. HIRALAL a number of texts of the type of Jinasa hasranama composed by Aśādhara, Jinasena, Sakalakirti and Hemacandra are given. Asadhara's text is accompanied by Hindi Translation. Śruta săgara's commentary of the same is also given here. There is a Hindi Introduction giving information about Asādhara, etc. There are some useful Indices. Sanskrit Grantha No. 11. Super Royal pp. 288. First edition 1954. Price Rs. 61-.
Purāṇasāra-Samgraha :
This is a Purāna in Sanskrit by Damanandi giving in a nutshell the lives of Tirthamkaras and other great persons. The Sanskrit text is edited with a Hindi Translation and a short Introduction by Dr. G. C. JAIN. Sanskrit Grantha Nos. 15 and 16. Crown Part 1: pp. 20+ 198; Part II : pp. 16 + 206. First edition 1954 and 1955. Price Rs. 5/- each. ( out of print)
Sarvārtha-Siddhi :
The Sarvärtha-Siddhi of Pajyapāda is a lucid commentary on the Tattvārtha sūtra of Umāsvāti called here by the name Gệdhrapiccha. It is edited here by PT. PHOOLCHANDRA with a Hindi Translation, Introduction, a table of contents and three Appendices giving the Sätras, quotations in the commentary and a list of technical terms. Sanskrit Grantha No. 13. Double Crown pp. 116 +506, Second edition 1971, Price Rs. 18/-.
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Jainendra Mahāvștti :
This is an exhaustive commentary of Abhayanandi on the Jainendra V yakarana, a Sanskrit Grammar of Devanandi alias Pajya pada of cir ca 5th-6th century A. D. Edited by Pts. S. N. TRIPATHI and M. CHATURVEDI. There are a Bhūmikä by Dr. V. S. AGRAWALA, Devanandika Jainendra Vyakarana by Premi and Khilapatha by MIMĀNSAKA and some useful Indices at the end. Sanskrit Grantha No. 17. Super Royal pp. 56 + 506. First edition 1956. Price Rs. 18/
Vratatit hinirnaya :
The Sanskrit Text of Sinhanandi edited with a Hindi Translation and detailed exposition and also an exhaustive Introduction dealing with various Vratas and rituals by Pt. NEMICHANDRA SHASTRI. Sanskrit Grantha No. 19. Crown pp. 80 + 200. First edition 1956. Price Rs. 5-.
Pau ma-cariu :
An Apabhraíba work of the great poet Svayambhū ( 677 A. D. ). It deals with the story of Räma. The Apab hramsa text with Hindi Translation and Introduction of Dr. DEVENDRAKUMAR JAIN, is published in 5 Volumes. Apabhraíśa Grantha. Nos. 1, 2, 3, 8 & 9. Crown Vol. I: pp. 28 + 333; Vol. II: pp. 12 + 377; Vol. III: pp. 6 + 253, Vol. IV : pp. 12 + 342, Vol. V: pp. 18 + 354. First edition 1957 to 1970. Price Rs. 5/- for each vol.
Jivamdhara-Campū :
This is an elaborate prose Romance by Haricandra written in Kavya style dealing with the story of Jivarndhara and his romantic adventures. It has both the features of a folk-ta le and a religious romance and is intended to serve also as a medium of preaching the doctrines of Jainism. The Sanskrit Text is edited by PT. PANNAL AL JAIN along with his Sanskrit Commentary, Hindi Translation and Pra stāvanā. There is a Foreword by PROF. K. K. HANDIQUI and a detailed En glish Introduction covering important aspects of Jivardhara tale by Drs. A. N. UPADHYE and H. L. JAIN. Sanskrit Grantha No. 18. Super Royal pp. 4 + 24 + 20 + 344. First edition 1958. Price Rs. 15/-
Padma-purāņa :
This is an elaborate Purāņa composed by Ravişeņa ( V. S. 734 ) in stylistic Sanskrit dealing with the Rāma tale. It is edited by PT. PANNALAL JAIN with Hindi Translation, Table of contents, Index of verses and Introduction in Hindi dealing with the author and some aspects of this Purāņa. Sanskrit Grantha Nɔs. 21, 24, 26. Super Royal Vol. I: pp. 44+ 548; Vol. II : pp. 16 + 460; Vol. III : pp. 16 + 472. First edition 1958-1959. Price Vol. I Rs. 16/-, Vol. II Rs. 16/-, Vol. III Rs. 13/-.
Siddhi-viniscaya :
This work of Akalaukadeva with Svopajňavrtti along with the commentary of Ananta virya is edited by Dr. MAHENDRAKUMAR JAIN. This is a new find and has great importance in the history of Indian Nyāya literature. It is a feat of editorial ingenuity and scholarship. The edition is equipped with
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exhaustive, learned Introductions both in English and Hindi, and they shed abundant light on doctrinal and chronological problems connected with this work and its author. There are some 12 u seful Indices. Sanskrit Grantha Nos. 22, 23. Super Royal Vol. I: pp. 16 + 174 + 370; Vol II : pp. 8 + 808. First edition 1959. Price Rs. 20/ -and Rs. 16).
Bhadrabahu Samhita :
A Sanskrit text by Bhadrabāhu dealing with astrology, omens, portents, etc. Edited with a Hindi Translation and occasional Vivecana by PT. NEMICHANDRA SHASTRI. There is an exhaustive Introduction in Hindi dealing with Jain Jyotişa and the contents, authorship and age of the present work. Sanskrit Grantha No. 25. Super Royal pp. 72 + 4:16. First edition 1959. Price Rs. 14/-.
Pañcasamgraha :
This is a collective name of 5 Treatises in Prakrit dealing with the Karma doctrine the topics of discussion being quite alike with those in the Gommaļa sāra, etc. The Text is edited with a Sanskrit Commentary, Prākrit Vịtti by PT. HIRALAL who has added a Hindi Translation as well. A Sanskrit Text of the same name by one Śrīpāla is included in this volume. There are a Hindi Introduction discussing some aspects of this work, a Table of contents and some useful Indices. Prākrit Grantha No. 10. Super Royal pp. 60 + 804. First edition 1960. Price Rs. 21/-.
Mayaņa-parāja ya-cariu :
This Apabhramsa Text of Harideva is critically edited along with a Hindi Translation by Prof. Dr. HIRALAL JAIN. It is an allegorical poem dealing with the defeat of the god of love by Jina. This edition is equipped with a learned Introduction both in English and Hindi. T'he Appendices give important passages from Vedic, Pali and Sanskrit Texts. There are a few explanatory Notes, and there is an Index of difficult words. Apabhraíśa Grantha No. 5. Super Royal pp. 88 + 90. First edition 1962. Price Rs. 81
Harivamsa Purāņa :
This is an elaborate Purāņa by Jinasena ( Saka 705) in stylistic Sanskrit dealing with the Harivamsa in which are included the cycle of legends about Krsna and Pandavas. The text is edited along with the Hindi Translation and Introduction giving in formation about the author and this work, a detailed Table of contents and Appendices giving the verse Index and an Index of significant words by PT. PANNAL AL JAIN. Sanskrit Grantha No. 27. Super Royal pp. 12 + 16 + 812 + 160. Fitst edition 1962. Price Rs. 25/--
Karmapraksti :
A Prākrit text by Nemicandra dealing with Karma doctrine, its contents being allied with those of Gommata sāra. Edited by PT. HIRALAL JAIN with the Sanskrit commentary of Sumatikīrti and Hindi Tikā of Pandita Hemarāja, as well as translation into Hindi with Višeşārtha. Prakrit Grantha No. 11. Super Royal pp. 32 + 160. First edition 1964. Price Rs. 8/-.
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Upāsa kādhyayana :
It is a portion of the Yaśastilaka-campū of Somadeva Sûri. It deals with the duties of a householder. Edited with Hindi Translation, Introduction and Appendices, etc. by Pt. KAILASHCHANDRA SHASTRI. Sanskrit Grantha No. 28. Super Royal pp. 116 + 539. First edition 1964. Price Rs. 16/
Bhoja caritra :
A Sanskrit work presenting the traditional biography of the Para māra Bhoja by Rājavallabha ( 15th century A. D.). Critically edited by Dr. B. CH. CHHABRA, Jt. Director General of Archaeology in India and S. SANKARNARAYANA with a Historical Introduction and Explanatory Notes in English and Indices of Proper names. Sanskrit Grantha No. 29. Super Royal pp. 24+ 192. First edition 1964. Price Rs. 8/-.
Satyaśāsana-parskṣā :
A Sanskrit text on Jain logic by Acārya Vidyananda critically edited for the first time by Dr. GOKULCHANDRA JAIN. It is a critique of selected issues upheld by a number of philosophical schools of Indian Philosophy. There is an English compendium of the text, by Dr. NATHMAL TATIA. Sanskrit Grantha No. 30. Super Royal pp. 56 + 34 + 62. First edition 1964. Price Rs. 5/
Karakanda-cariu :
An Apabhramsa text dealing with the life story of king Karakanda, famous as 'Pratyeka Buddha' in Jaina & Buddhist literature. Critically edited with Hindi & English Translations, Introductions, Explanatory Notes and Appendices, etc. by Dr. HIRALAL JAIN. Apabhramsa Grantha No 4. Super Royal pp. 64 + 278. 1964. Price Rs. 15/-.
Sugandha-daśami-katha :
This edition contains Sugandha-daśami-katha in five languages, viz. Apabhramsa, Sanskrit, Gujarātī, Marāthi and Hindi, critically edited by Dr, HIRAL AL JAIN. Apabhramsa Grantha No. 6. Super Royal pp. 20 + 26 + 100+ 16 and 48 Plates. First edition 1966. Price Rs. 11).
Kalyāņakalpadruma :
It is a Stotra in twenty five Sanskrit verses Edited with Hindi Bhāşya and Prastāvanā, etc. by Pt. JUCALK ISHORE MUKHTAR, Sanskrit Grantha No. 32. Crown pp. 76. First edition 1967. Price Rs. 1/50.
Jambū sāmi cariu :
This Apabhramsa text of Vira Kai deals with the life story of Jambu Svāmi a historical Jaina Acārya who passed in 463 A. D. The text is critically edited by Dr. VIMAL PRAKASH JAIN with Hindi translation, exhaustive introduction and indices, etc. Apabhramsa Grantha No. 7. Super Royal pp. 16 + 152 + 402. First edition 1968. Price Rs. 15/-.
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Gadyacintā mani:
This is an elaborate prose romance by Vadibha Singh Sari, written in Kavya style dealing with the story of Jivandhara and his romantic adventures. The Sanskrit text is edited by PT. PANNALAL JAIN along with his Sanskrit Commentary, Hindi Translation, Prastāvanā and indices, etc. Sanskrit Grantha No. 31. Super Royal pp. 8 + 40 + 258. First edition 1968. Price Rs. 12/
Yoga sāra Prābhịta :
A Sanskrit text of Amita gati Ācārya dealing with Jaina Yoga vidyā. Critically edited by Pt. JUGALKISHORE MUKHTAR with Hindi Bhāşya, Prastāvanā, etc. Sanskrit Grantha No. 33. Super Royal pp. 44 +236. First edition 1968, Price Rs. 8/
Karma-Prakrti :
It is a small Sanskrit text by Abhaya candra Siddhāntacakravarti dealing with the Karma doctrine. Edited with Hindi translation, etc. by Dr. GOKUL CHANDRA JAIN. Sanskrit Grantha No. 34. Crown pp. 92. First edition 1968. Price Rs. 2/
Dvisardhāna Mahākavya :
The Dvisaṁdhāna Mahākávya also called Rāghava-Pānda viya of Dhanamjaya is perhaps one of the oldest if not the only oldest available Dvisamdhāna Kávya. Edited with Sanskrit commentary of Nemicandra and Hindi translation by Prof. KHUSHALCHANDRA GORAWALA. There is a learned General Editorial by Dr. H. L. Jain and Dr. A. N. Upadhye. Sanskrit Grantha No. 35. Super Royal pp. 32 + 401, First edition 1970. Price Rs. 15 -
Saddarśanasamuccaya :
The earliest known compendium giving authentic details about six Darśanas, i. e. six systems of Indian Philosophy by Acārya Haribhadra Sūri, Edited with the commentaries of Gunaratna Sūri and Somatilaka and with Hindi translation, Appendices, etc. by Pt. Dr. MAHENDRA KUMAR JAINA NYÁYĀCĀRYA. There is a Hindi Introduction by Pt. D. D. MALVANIA. Sanskrit Grantha No. 36. Super Royal pp. 22 + 536. First edition 1970. Price Rs. 22/
Sakatāyana Vyakarana with Amoghavrtti :
An authentic Sanskrit Grammar with exhaustive auto-commentary. Edited by PT. SAMBHU NATHA TRIPATHI. There is a learned English Introduction by PROF. Dr. R. BIRWE of Germany, and some very useful Indices, etc. Sanskrit Grantha No. 37. Super Royal pp. 14 + 127 + 488. First edition 1971. Price Rs. 32/-.
Jainendra-Siddhanta Kośa :
It is an Encyclopaedic work of Jaina technical terms and a. source book of topics drawn from a large number of Jaina Texts. Extracts from the basic sources and their translations in Hindi with necessary references are given.
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Some Twenty-one thousand subjects are dealt in four vols. Compiled and edited by Sri Jinendra Varni. All the four volumes are published and as Sanskrit Grantha No. 38, 40, 42, and 44. Super Royal py. Vol. I pp. 516, Vol. II pp. 642, Vol. III pp. 637, Vol.IV pp. 544. First edition 1970-73. Price Vol. I Rs. 50/-, Vol. II Rs. 55/-, Vol. III Rs. 55/-, and Vol. IV Rs. 50/-.
Advance Price for full set Rs. 150/-. Dharmaśarmābhyudaya :
This is a Sanskrit Mahākāvya of very high standard by Mahāka vi Haricandra. Edited with Sanskrit commentary, Hindi translation, Introduction and Appendices, etc. by PT. PANNALAL JAIN. Sanskrit Grantha No. 39.
Super Royal pp. 30 + 397. First edition 1971. Price Rs. 20/-. Nayacakra ( Dravyasvabhāva prakāśaka ):
This is a Prakrit text by Sri Māilla Dhava la dealing with the Jaina Theory of Naya covering all the other topic dealt in 'e Aläpapaddhati, Edited with Hindi translation and useful indices, etc. by PT. KAILASH CHANDRA SHASTRI. In this edition Alá papaddhati of Devasena and Nayavivarana from Tattvārtha vārtika are also included with Hindi translations. Prakrit
Grantha No. 12. Super Royal pp. 50+ 276. First edition 1971. Price Rs. 15/Purudeva campū :
It is a stylistic Campūkāvya in Sanskrit composed by Arhadda sa of the 13-14th century of the Vikrama era. Edited with a Sanskrit Commentary, Vasanti, and Hindi Translation by Pt. Pannalal Jaina. Sanskrit Grantha
No. 41. Super Royal pp. 36 + 428. Delhi 1972. Price Rs. 21/- Ņāyakumāracaria
An Apabhraíśa Poem of Puşpadanta (10th century A.D.), critically edited from old Mss. with an Exhaustive Introduction, Hindi Translation, Glossary and Indices, Old Tippaņa and English Notes by Dr. Hiralal Jaina. This is a Second Revised edition. Apabhraísa Grantha No. 10. Super Royal
pp. 32 +48 + 276. Delhi 1972. Price Rs. 18/-. Jasaharacariú :
It was first edited by Dr. P. L. Vaidya. Here is a Second edition of the same with the addition of Hindi Translation and Hindi Introduction by Dr. Hiralal Jaina. This is the famous Apabhraíba Poem of Puşpadanta (10th century A.D.), so well-known for its story. Apabhransa Granth No.
11. Super Royal pp. 64 + 246. Delhi 1972. Price Rs. 18/-. Dakşiņa Bhārata Men Jaina Dharma :
A study in the South Indian Jainism by PT. KAILASH CHANDRA SHASTRI.
Hindi Grantha No. 12. Demy pp. 209. First edition 1967. Price Rs. 7/-- Sanskrit Kävya ke Vikā sa men Jaina Kaviyon kā Yogadana :
A study of the contribution of Jaina Poets to the Development of Sanskrit Kavya literature by Dr. NEMI CHANDRA SHASTRI. Hindi Grantha No. 14. Demy pp. 32 + 684. First edition 1971. Price Rs. 30/For Copies Please write to :
BHARATIYA JÑANAPITHA, B/45-47, Connaught Place, New Delhi-1
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