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________________ २७ १. २५. १३] हिन्दी अनुवाद घत्ता-धीरे-धीरे वह माँके चरणोंकी वन्दना करता है और कहता है-“हे माँ ! मैं विदेश जाना चाहता हूँ। बहूसे स्नेह करना। जिन भगवान्को प्रणाम करना। विदेश जाता हूँ माँ, फिर वापस आऊँगा।" ॥२३॥ २४ करुण ( विलाप ) करती हुई माँने उसे मना किया। "हे पुत्र, तुम्हें देखनेसे हृदयको ढाढ़स मिलता है। जब मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देखती हूँ तब अपने ( पति ) अरिदमनके शोकको कुछ नहीं समझती। आशाके बलपर ही मैं अपने हृदयको धारण कर सकी। हे पुत्र, तुम मुझे निराश करके जाओ।" पुत्रने कहा-“हे स्वामिनी, धीरज धारण करो, कायर मत बनो। माँ आदेश दो जिससे मैं जाऊँ।" माँ कहती है- "हे पुत्र, विश्वास मत करना, विषैले दाँतवाले साँपों तथा आदेशका खण्डन करनेवालों का। हे पुत्र, विष और विषधरका विश्वास मत करना। कौल, पिशाच, आग और पानीका विश्वास नहीं करना। हे पुत्र, ठग और चोरोंका विश्वास मत करना । अट्ठ-वट्ट ? लवणकठोर ? लोगोंका विश्वास नहीं करना। दाँत, नख, सींग, दाढ़वालों (पशुओं ) का विश्वास नहीं करना। मदिरा पीनेवालों और अभक्ष्य भक्षण करनेवालों और व्यसनोंमें आसक्त लोगोंका विश्वास मत करना। झूठे युवक और गुण्डोंमें आसक्त नारीका विश्वास नहीं करना। हे पुत्र, परदेशीका विश्वास नहीं करना। साइन-डाइन, कुट्टनी और वेश्याका विश्वास नहीं करना। निद्रालसी सुजनका विश्वास मत करना । आसनके लोभी और क्रोधी मनुष्यका विश्वास मत करना। हे पुत्र, खल और दुष्टोंका विश्वास नहीं करना और अपने पापी चाचा वीरदवणका भी विश्वास मत करना । घत्ता-दण्डी, पाखण्डी और त्रिदण्डीका विश्वास नहीं करना। यह मेरी आज्ञा है । इनका विश्वास नहीं करना चाहिए। इनका कहा नहीं करना चाहिए। घाट पहाड़में बसनेवालोंका विश्वास नहीं करना चाहिए।" २५ श्रीपालको उसने सिद्ध आशीर्वाद दिया। उसके सुकुमार भालपर तिलक किया। माथेपर दूध और अक्षत देकर उसने फिर आरती उतारी और आशीर्वाद दिया- "हे पुत्र,तुम सब कछ पाना-चतरंग सेना लेकर आना। तब उसने मां और पत्नी दोनों नारियोंको सम्बोधित किया। सात सौ अंगरक्षकोंको भी समझाया। करोड़ योद्धाओंका साहस अपने में इकट्ठा कर सातों परकोटोंको लाँघता हुआ वह चला गया। वह योद्धा विशाल वत्सनगर पहुंचा, जहाँ अवगुणोंका घर धवलसेठ था। सार्थवाह धवलसेठ दूसरे द्वीपको जा रहा था। उसके पाँच सौ जहाज सम्मिलित थे। जहाज सागर तटपर जाम हो गये, जो बत्तीस लक्षणोंसे युक्त किसी मनुष्यके प्रेरित करनेपर ही चल सकते थे। वणिक्-समूह ( उस आदमीको ) देखनेके लिए दौड़ा। ढूँढ़ते हुए उन्होंने श्रीपालको पा लिया। छाया नहीं पड़नेसे उन्होंने उसे उत्तम समझ लिया। वे अपने आप कहने लगे कि उसे पकड़ो, पकड़ो! वे वणिक्वर उस कोटिभडको भी नहीं समझ सके । बाजारमें कोलाहल होने लगा। लोग क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने कहा कि कोई परदेशी पकड़ा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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