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________________ प्रस्तावना कवि नरसेन पण्डित नरसेनके समय और जीवनके बारेमें कोई जानकारी नहीं मिलती, सिवाय इसके कि पाण्डुलिपिकारोंने लिखा है--"इह सिद्धकहाए महाराय सिरिवालमदनासुन्दरिदेविचरिए पण्डित नरसेन देव-विरइए; इहलोय-परलोय सुहफल कराए।" अथवा कवि कहता है "सिद्ध-चक्क-विहि रइय मई णरसेणु णइ विय सत्तिए।" कवि 'दिगम्बर मत' का उल्लेख बार-बार करता है। वह अपनी काव्यकथाके स्रोतके विषयमें चुप है, लेकिन उसने 'सिद्धचक्र मन्त्र' की रचनामें जो दोनों परम्पराओंका समन्वय किया है, उससे लगता है कि वह विचारोंमें उदार था। सिद्धचक्र विधानकी पूजा और पूजा विधिमें कुछ बातें बीसपन्थी मतसे मिलतीजुलती हैं । अतः यह असम्भव नहीं कि वे बीसपन्थके माननेवाले रहे हों। उपलब्ध सामग्रीके आधारपर नरसेनके सम्बन्धमें इससे अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं। 'सिरिवाल चरिउ' की पहली प्रति वि. सं. १५७९ ( ईसवी १५२२) की है। इससे अनुमान है कि पण्डित नरसेन अधिकसे अधिक १६वीं सदीके प्रारम्भ में अपने काव्यकी रचना कर चुके थे, और उनका समय १५वीं और १६वीं सदियोंके मध्य माना जा सकता है । अभी तक नरसेनकी यही एक रचना मिली है। प्रति-परिचय [ 'क' प्रति ]-'सिरिवाल चरिउ' की कवि नरसेन द्वारा लिखित पाण्डुलिपि नहीं मिल सकी । प्रतिलिपिकारोंमेंसे भी किसीने यह उल्लेख नहीं किया कि उनकी आधारभूत पाण्डुलिपि क्या थी? तीनों प्रतियाँ मुझे डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल महावीर भवन, जयपुरसे प्राप्त हुई है । इनमें पहली 'क' प्रति है। इसका आकार (लम्बाई ११.३" और चौड़ाई ४.७" ) है । प्रतिकी लिखावट साफ सुथरी है । 'घत्ता' और 'कड़वककी संख्या लाल स्याही में है, जबकि शेष काव्य गहरी काली स्याहीमें। पन्नोंके बीच में चौकोर जगह खाली है। पन्नेके नीचे या ऊपर सिरेपर, संख्या बताकर कठिन शब्दोंके अर्थ या पर्यायवाची शब्द दिये हए हैं । 'वर्तनी' के सम्बन्धमें कोई निश्चित नियम नहीं है। एक प्रकारसे उसमें अराजकता है। ग्रन्थके अन्तमें प्रतिलिपिकारने इस प्रकार लिखा है "इति पण्डित श्रीनरसेन-कृत 'श्रीपाल' नाम शास्त्रं समाप्त । अथ संवत्सरे स्मिन् श्री विक्रमादित्य राज्ये संवत् १५९४ वर्ष भादौ वदि रविवासरे, मृगक्षिरनक्षत्रे, साके १४४९ गत पद्याद्वयो मध्य मन्मथ नाम संवत्सरे प्रवर्तते । सुलितान मीर बन्वर राज्य प्रवर्त्तमाने । श्री कालपी राज्य आलम साहि प्रवर्तनमाने, दौलतपुर शुभस्थाने श्रीमूलसंघे बलाकार गणे सरस्वती गच्छे, कुंदकुंदचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दि देव, तत्पदे श्री जिनचन्द्रदेव तदाम्नाये वलं वकंचुकान्वय जद से समद्भव, जिन चरणकमल चंचरीकान्, दानपूजासमुद्यतान् परोपकार विरतान, प्रशस्त चित्तान साधु श्री थेद्य तद्भार्या धर्मपत्नी सुशीला साध्वी-अमा । तस्योदर समुत्पन्न जिन चरणाराधन तत्परान् सम्यक्त्व-प्रतिपालकान् सर्वज्ञोक्त-धर्म रंजित चेतसान्, कुटुम्बभारधर धुरान्, साधु श्री नीकम तद्भार्जा सीलतोय-तरंगिनी हीरा, तयो पुत्र सर्वगुणालंकृत, देवशास्त्र गुरू विनयवंत, सर्वजीव दया प्रतिपालकान, उद्धरणधीरान, दान श्रेयांस औतारान् आभार-मेरान्, परमश्रावक महासाधु श्री महेश सुतेनेदं श्रीपालु नाम शास्त्रं कर्मक्षय-निमित्तं लिखाथितम् ।। शुभं भूयात् । मागल्यं ददातु। लिषितं पंडित वीरसिंधु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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