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________________ प्रस्तावना पन्ने ४८ हैं। घत्ता, कड़वक संख्या और समाप्ति बतानेके लिए लाल स्याहीका प्रयोग है। लिखावट स्वच्छ और स्पष्ट । सम्पादकके लिए उपलब्ध प्रतियों में यह सबसे बादकी प्रति है। श्रीपालचरित कथाकी परम्परा 'श्रीपाल' की कथा 'सिद्धचक्र विधान' या 'नवपद मण्डल'की पूजाविधिकी फलश्रुतिसे सम्बद्ध है। 'श्रीपाल'पर आधारित पहली रचना प्राकृतमें 'श्रीपाल चरित्र'है । डॉ. हीरालाल जैनने लिखा है-“रत्नशेखर सूरि कृत 'श्रीपाल चरित्र' में १३४२ गाथाएँ हैं, जिसका प्रथम संकलन वज्रसेनके पट्टशिष्य प्रभु हेमतिलक सूरिने किया और उनके शिष्य हेमचन्द्र साधने वि. सं. १४२८ ( ई. १३१७ ) में इसे लिपिबद्ध किया। यह कथा 'सिद्धचक्र विधान' का माहात्म्य प्रकट करनेके लिए लिखी गयी है । उज्जैनकी राजकूमारीने अपने पिताकी दी हुई समस्याकी पूर्तिमें अपना यह भाव प्रकट किया कि प्रत्येकको अपने पुण्य-पापके अनुसार सुख-दुख प्राप्त होता है। पिताने इसे अपने प्रति कृतघ्नताका भाव समझा और क्रुद्ध होकर मयनासुन्दरीका विवाह श्रीपाल नामके कुष्ट रोगीसे कर दिया। मयनासुन्दरीने अपनी पतिभक्ति और सिद्धपूजाके प्रभावसे उसे अच्छा कर लिया। श्रीपालने नाना देशोंका भ्रमण किया तथा खूब धन और यश कमाया।' ग्रन्थके बीच-बीचमें अनेक अपभ्रंश पद्य भी आये हैं और नाना छन्दोंमें स्तुतियाँ निबद्ध हैं। रचना आदिसे अन्त तक रोचक है। इसके बाद अपभ्रंशमें दो 'सिरिवाल चरिउ' उपलब्ध है। एक कवि रइधू कृत, जिसका सम्पादन डॉ. राजाराम जन, आरा कर चुके हैं और जो शीघ्र प्रकाश्य है। दूसरा पं. नरसेनका। रइधका समय वि. सं. १४५०-१५३६ ( ई. १३९३-१४७९ ) है । निश्चित ही नरसेन उसके बादके हैं । 'श्रीपाल रास' गुजराती भाषामें है । प्रारम्भमें लिखा है '-"श्रीपालराजानः रासः । इसकी चौथी आवृत्ति अक्तूबर १९१० में हुई थी। प्रकाशक हैं भीमसिंह माणक - - -- माण्डवी शाकगली मध्ये। इसमें कुल चार खण्ड और ४१ ढालें हैं। पहलेमें ११, दूसरेमें ८, तीसरेमें ८ और चौथेमें १४। इसके मल रचयिता हैं महोपाध्याय श्री कीर्तिविजय गणिके शिष्य श्री विनय विजय गणि उपाध्याय । उसीके आधारपर यह 'श्रीपाल रास' रचा गया। यह वस्तुतः श्री विनय विजय कविके 'प्राकृतप्रबन्ध'का गुजराती अनुवाद है। प्रारम्भमें लिखा है--"श्री नवपद महिमा वर्णने श्रीपाल राजानो रासः ॥" स्व० नाथूराम जी प्रेमीने दो श्रीपाल चरित्रोंका उल्लेख किया है । भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य ब. नेमिदत्तने वि. सं. १५८५ में श्रीपाल चरित्रकी रचना की थी। दूसरे, भट्टारक वादिचन्द्रने वि. सं. १६५१ 'श्रीपाल आख्यान' लिखा था। भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है। पण्डित परिमल्लने हिन्दीमें 'श्रीपाल चरित्र' लिखा था, जिसे बाबू ज्ञानचन्द्र जी लाहोरवालोंने १९०४ ई. में प्रकाशित किया। बादमें 'दिगम्बर जैन भवन' सूरतने ई. १९६८ में पुनः प्रकाशित किया । अन्तिम प्रशस्तिमें कवि कहता है "गोप गिरगढ़ उत्तम थान । शूरवीर जहाँ राजा 'मान' ।। ता आगे चन्दन चौधरी। कीरति सब जगमें विस्तरी ।। जाति वैश्य गुनह गंभीर । अति प्रताप कुल रंजन धीर ।। ता सुत रामदास परवान । ता सुत अस्ति महा सुर ज्ञान ।। १. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, पृ. १४२ २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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