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ग्रन्थ ई० १५९४ में लिखा गया
सिरिवालचरिउ
तास कुल मण्डन परिमल्ल | आगरा में
बस
अरिसल्ल |
ता सम बुद्धिहीन नहि आन । तिन सुनियो श्रीपाल पुरान ॥ ताकी ई मति कछु भई ।
यह श्रीपाल कथा वरनई ॥
नव-रस-मिश्रित गुणह निधान ।
ताकौ चौपाई किया बखान ।। " ( २२९९ - २३०२ ) इस समय अकबरका शासनकाल था
"बाबर बादशाह हो
गयो । ता सुत हुमायूँ भयो ।
प्रमान ।
ता सुत अकबर साह सो तप तप दूसरो मान ॥ ताकै राज न होय अनीत । वसुधा सकल करी बस जीत || केतर देस तास की आण । जो और न ताहि समान ॥ ताकै राज कथा यह करी । कवि परमल्ल प्रकट विस्तरी ॥ "
दिगम्बर समाजमें इस समय जिस श्रीपाल चरित्रका वाचन होता है वह कवि परमल्ल कृत श्रीपाल चरित्रपर ही आधारित है। इनमें एक अनुवाद पं. दीपचन्द्र वर्णीका है और दूसरा सिंघई परमानन्दका । प्रकाशक क्रमशः 'दिगम्बर जैन पुस्तकालय' गाँधी चौक, सूरत; और 'जैन पुस्तकालय भवन' १६ १, हरिसन रोड, कलकत्ता-७ ।
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कवि परमल्ल अपनी रचनाके मूल स्रोतके विषयमें इतना ही कहते हैं कि मैंने 'श्रीपाल पुरान' सुना था उसकी छायापर मैंने श्रीपाल कथाका वर्णन किया है। अनुमान यही है कि किसी संस्कृत श्रीपाल चरितके आधारपर ही कवि परमल्लने अपने काव्यकी रचना की होगी । यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि वि. सं. १६५१ में पं. परमल्ल और भट्टारक वादिचन्द्र दोनों अपनी रचनाएँ एक साथ समाप्त करते हैं। हो सकता है। दोनोंने ब्रह्मचारी नेमिदत्त द्वारा रचित काव्यसे सहायता ली हो ।
मूल 'श्रीपाल चरित्र' से तुलनाके बिना इस सम्बन्ध में निश्चय पूर्वक कुछ कहना कठिन है । 'श्रीपाल आख्यान' बम्बई में ‘पन्नालाल सरस्वती भवन में ( सन्दर्भ २१८२ / १४८ ) सुरक्षित है ।
हिन्दी भाषा कथा – चौपाई बन्ध हेमराज इटावा ( वि. सं. १७३८ ) ।
हिन्दी भाषा - वचनिका, पं. नाथूलाल दोशी खण्डेलवाल |
'अढाईव्रत' — खरौआ जातिके भट्टारकके शिष्य विश्वभूषण द्वारा रचित है |
अष्टका सर्वतोभद्र - ' कनककीर्ति भट्टारक' ।
श्वेताम्बर परम्परामें श्रीपाल चरितपर आधारित निम्नलिखित रचनाओंका उल्लेख डॉ. राजाराम जैनने किया है—
१. श्रीपाल चरित ( प्राकृत ) रत्नशेखर सूरि ( वि. सं. १४२८ )
२. श्रीपाल चरित्र - सत्यराज गवि ( पूर्णिमा गच्छीय गुणसागर सूरि के शिष्य ) सं. १५१४ ।
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४१० ।
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