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प्रस्तावना
३. श्रीपाल नाटकगत रसवती-( वर्णन वि. सं. १५३१ )
(इससे लगता है कि कोई श्रीपाल नाटक भी था ) ४. श्रीपाल कथा--लब्धसागर सूरि ( वृद्ध तपागच्छीय ) वि. सं. १५५७ ५. श्रीपाल चरित्र-ज्ञानविमल सूरि ( तपागच्छीय ) वि. सं. १७३८ ६. श्रीपाल चरित्र व्याख्या-क्षमा कल्याण ( खरतर गच्छीय-वि. सं. १८६९) ७. श्रीपाल चरित्र-जयकीर्ति । गुजरातीमें निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं-- सिद्धचक्र रासा अथवा श्रीपाल रास
ज्ञानसागर ( वि. सं. १५३१) श्रीपाल रास--विनयविचय यथो विजय (वि. सं. १७३८) श्रीपाल-रास--ज्ञानसागर ( वि. सं. १७२६)
जिनहर्ष--श्रीपालरास--जिनहर्ष ( वि. सं. १७४० ) २. श्रीपाल रास और श्रीपाल चरित्रकी कथाकी तुलना
नरसेनके 'सिरिवाल चरिउ' की कथाके तुलनात्मक अध्ययनके लिए जरूरी है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराकी दोनों प्रतिनिधि कथाओंका सार समझ लिया जाये। ये प्रतिनिधि कथाएँ-'श्रीपाल रास' और 'श्रीपाल चरित्र' के आधारपर यहाँ संक्षेपमें दी जा रही हैं।
'श्रीपाल रास' ( श्री विनयविजय ) के पहले खण्डमें राजा श्रेणिक पछता है कि पवित्र पण्य धारण करनेवाला श्रीपाल कौन था? उत्तरमें गौतम गणधर कहते हैं-मालवाके उज्जैनके राजा प्रजापालकी दो रानियाँ हैं, सौभाग्यसुन्दरी और रूपसुन्दरी । एक मिथ्यात्वको मानती है, दूसरी जैन है। उनकी दो कन्याएँ हैं-सुरसुन्दरी और मयनासुन्दरी । एक ब्राह्मण गुरुसे पढ़ती है दूसरी जैन गुरु से । एक दिन राजसभामें राजा पूछता है तुम्हारी सुख-सुविधाका श्रेय किसको है ? सुरसुन्दरीका उत्तर है-पिताको । मदनासुन्दरीका उत्तर है-कर्मफल को। राजा सुरसुन्दरीका विवाह, उसकी इच्छाके अनुसार शंखपुरीके राजा अरिदमनसे कर देता है । क्रुद्ध होकर, मयनासुन्दरीके लिए वर खोजने निकल पड़ता है। रास्तेमें कोढ़ियोंका समूह मिलता है, राजा उन्हें दान देना चाहता है। कोढ़ी अपने कोढ़ी राजा श्रीपालके लिए कन्या माँगते हैं । राजा उनकी माँग मानकर स्वजन और पुरजनों के विरोधके बावजूद मयनासुन्दरी, कोढ़ीराजको ब्याह देता है । मयनासुन्दरीको गुरु आगमोक्त नवपदविधि बताते हैं। वह सेवा और नवपदविधिके अनुष्ठानसे सात सौ कोढ़ियों सहित श्रीपालको भलाचंगा कर लेती है। इसी बीच श्रीपालकी माँ उज्जैन आती है। वह अपनी समधिन रूपसुन्दरीको बताती है कि किस प्रकार पतिके मरने के बाद, देवरने षड्यन्त्र किया और उसे अपने पाँच वर्षके बेटेको लेकर कोढ़ियोंमें शरण लेनी पड़ी। यह कोढ़ उन्हींके संसर्गसे उसे हुआ। श्रीपाल घरजवाईके रूपमें रहता है। दूसरे खण्डमें, घरजवाईके कलंकको धोनेके लिए विदेश जाता है। वत्सनगरमें वह एक धातुवादीकी सहायता कर, उससे दो विद्याएँ और सोना लेकर भड़ौच पहँचता है। यहाँ धवलसेठसे उसकी भेंट होती है । सेठके खाड़ी में फंसे ५०० जहाज चलाकर, वह १०० स्वर्ण दीनार किरायेपर उसके जहाजपर बैठकर चल देता है। वह धवलसेठकी नौकरी नहीं करता। चुंगी नहीं चुकानेपर, बब्बरकोटमें सेठ पकड़ लिया जाता है, परन्तु श्रीपाल अपनी वीरतासे उसे छुड़ा लेता है। सेठसे वह आधे जहाज तो लेता ही है, परन्तु बब्बरकोटका राजा भी उसे खूब धन और अपनी कन्या मदनसेना ब्याह देता है। एक दूतके कहनेपर वह रत्नसंचयनगर जाकर, विद्याधर कनककेतुकी कन्या मदनमंजूषासे विवाह करता है। तीसरे खण्डमें फिर वह सेठके साथ प्रवासपर जाता है। मदनमंजुषाको देखकर. सेठको नियत खराब हो जाती है। वह धोखेसे श्रीपालको मचानपर बुलाता है, जहाँसे श्रीपाल समुद्रमें गिरा दिया जाता है। वह तैरकर 'कोंकण द्वीप' पहँचता है। इधर जलदेवता मदनमंजूषाके शीलकी रक्षा करते हैं और सेठको कड़ी सजा देते हैं। सेठ कोंकण
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