SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरिवालचरिउ श्रीपाल घरजवाई बनकर प्रजापालके यहाँ रहना पसन्द नहीं करता है। वह बारह वर्षके लिए विदेश जाना चाहता है । कुन्दप्रभाका एकमात्र सहारा भी उससे छिन रहा है, इसलिए वह व्याकुल हो उठती है । वह श्रीपालको बार-बार समझाती है और विदेश जानेके लिए मना करती है। वह कहती है"हे पुत्र ! तुम ही मेरे एक सहारे हो । पतिकी मृत्युके पश्चात् मैं तुम्हारी आशासे अपने दुःखको भूली हूँ। तुम मुझे निराश करके मत जाओ।" कुन्दप्रभाके हृदयमें श्रीपालके प्रति अतिशय स्नेह है। परन्तु जब समझाने नानेपर भी श्रीपाल रुकनेके लिए तैयार नहीं होता तो वह विवश हो जाती है। माँ अपने पुत्रके लिए अनेक कष्ट सहती है। वह चाहती है कि उसका पुत्र सदैव उसकी आँखोंके सामने रहे ताकि वह उसके दुःखदर्दको दूर कर सके। श्रीपाल प्रवासपर जा रहा है इसलिए कुन्दप्रभा उसे सीख देती है। वह उसको उन सारी कठिनाइयोंसे सावधान कर देती है, जो बाहर कभी भी उसके सामने आ सकती है। वह श्रीपालको कुछ बुराइयोंसे दूर रहनेके लिए कहती है। उसका हृदय माँकी ममतासे ओत-प्रोत है । श्रीपालकी वापसीकी आशा न रहनेपर मैनासुन्दरी कुन्दप्रभासे कहती है-"आज भी तुम्हारा पुत्र नहीं लौटता है तो मैं दीक्षा ले लूंगी।" कुन्दप्रभा उसे एक दिनके लिए रुक जाने की सलाह देती है। उसके मन में दृढ़ विश्वास था कि श्रीपाल अवश्य लौट आयेगा । एक माँ यह कल्पना कैसे कर सकती है कि उसका पुत्र, प्रवाससे लौटकर नहीं आयेगा। इस प्रकार कुन्दप्रभाको पुत्र-वियोगमें दुःखी और उसके आगमनकी प्रतीक्षामें ही चित्रित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy