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________________ चरित्र-चित्रण है। उसके मनमें यह आशंका होगी कि कहीं धवलसेठ फिर कोई षड्यन्त्र न करे। वह जाकर राजाको ही सारी घटना सुनाती है। रत्नमंजूषा हमारे सामने एक वियोगिनीके रूपमें ही आती है। प्रजापाल राजा प्रजापाल ( पयपाल ) उज्जैनीका राजा है। उसकी नरसुन्दरी नामकी पत्नी है। उसकी दो कन्याएँ हैं-सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी । वह सुरसुन्दरीका विवाह तो उसके मनपसन्द वर-कौशाम्बीके राजा सिंगारसिंहसे कर देता है। मैनासुन्दरीसे भी वह कहता है, “तुम अपने पसन्दके वरसे विवाह कर लो।" परन्तु मैनासुन्दरी कहती है, “माँ-बापके द्वारा तय किये गये वरसे ही कुलीन कन्याएँ विवाह करती हैं। माँ-बाप विवाह करते हैं. आगे उसका भाग्य।" पयपाल अपनी बेटीके भाग्यवाद हो जाता है और उसका विवाह कोढीसे कर देता है। कोई भी पिता अपनी कन्याका विवाह जानते हए और बिना किसी मजबूरीसे कोढ़ीसे नहीं करता। वह अपनी जानकारी और समझमें अच्छेसे अच्छे वरकी तलाश करता है और उसीसे विवाह करनेका प्रयत्न करता है। बेटीके शब्दोंको असत्य सिद्ध करनेके लिए या उसको अपने भाग्यपर छोड़ देनेके लिए ही क्रोधमें आकर पयपाल कोढ़ीसे उसका विवाह कर देता है। भाग्यपर विश्वास करने का अर्थ यह नहीं कि जान-बूझकर कुएँ में गिर पड़ना । पयपाल जान-बूझकर उसको कोढ़ीके पल्ले बाँध देता है । सारा रनिवास इस बातसे दुःखी होता है। माँ और बहन भी रोती हैं । पयपालकी पत्नी व मन्त्री भी उसे समझाते हैं। मन्त्री उस कोढ़ी और मैनासुन्दरीको तुलना करके बतलाता है कि यह कन्यारत्न उस कोढ़ीसे विवाह करनेके योग्य नहीं है। पयपालने किसीकी भी चिन्ता नहीं की और उसने मैनासुन्दरीका विवाह कोढ़ीसे कर दिया। परन्तु बादमें वह अपने कियेपर पश्चात्ताप करता है। वह यह स्वीकार करता है कि उसने यह कार्य क्रोधमें आकर किया है। उसने अपनी पत्नी व मन्त्रीकी बात न मानकर गलती की है। वह यह मानता है कि उसने अपनी कन्याके जीवनको नष्ट कर दिया है। वह यह मानता है कि मौतके बिना अब कोई प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता है परन्तु वह यह भी मानता है कि इसमें उसका दोष नहीं है, क्यं और अशुभ कर्मोका फल है । मैनासुन्दरी 'सिद्धचक्र विधि' से श्रीपालका कोढ़ दूर कर देती है। पयपालके मनमें जो पश्चात्तापकी आग जल रही थी, वह अब शान्त हुई । वह श्रीपालके पास जाकर कहता है कि तुमने गुणोंसे युक्त कन्यारत्न प्राप्त किया है । वह मैनासुन्दरीके प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करता है । वह कहता है, "मेरा मुँह काला हो गया था, परन्तु हे बेटी ! तुमने उसे स्फटिक मणिके समान उज्ज्वल बना दिया।" श्रीपाल बारह वर्ष के बाद लौटता है। मैनासुन्दरी अपने पिता द्वारा किये गये दुर्व्यवहारका बदला लेना चाहती है। वह श्रीपालसे शिकायत करती है और दूत भेजकर प्रजापालको कम्बल ओढ़कर तथा गलेमें कूल्हाड़ी डालकर उनसे मिलनेके लिए कहती है। प्रजापाल दुतके समाचार सुनकर क्रुद्ध हो जाता है। परन्तु मन्त्रीके समझानेपर वह शान्त हो जाता है। इस प्रकार प्रजापालका चरित्र पहले एक सनकीके रूपमें, बादमें प्रायश्चित्तकी आगमें जलते हए और अन्त में समझौतावादीके रूपमें हमारे सामने आता है। कि शुभ कुन्दप्रभा कुन्दप्रभा श्रीपालकी माँ और अरिदमणकी पत्नी है। पतिके मर जाने के पश्चात, उसका एकमात्र सहारा श्रीपाल ही है। श्रीपाल पर्वजन्मोंके कर्मोंके फलस्वरूप कोढ़ी है। मनासुन्दरी 'सिद्धचक्र विधि' द्वारा उसका कोढ़ दूर कर देती है। कुन्दप्रभा यह जानकर बहुत प्रसन्न होती है। तब वह मैनासुन्दरीको बताती है कि श्रीपाल राजा है। [ ४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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