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चरित्र-चित्रण
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डालनेका षड्यन्त्र रचा और उसकी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार छोड़ देना, तर्कसंगत नहीं लगता है, बल्कि वह धनपाल
दिखाई नहीं देती है । जिसने उसे दो बार मार किया, उसे केवल धन लेकर ( पुत्रका हिस्सा ) कहता है कि "यह ( धवलसेठ ) नहीं होता तो मुझे गुणमाला नहीं मिलती ।"
श्रीपाल कुल आठ हजार कन्याओंसे विवाह करता है । यह संख्या चौंका देनेवाली है और इस प्रकार - की कल्पना भी करना इस युगमें कठिन है । परन्तु कविने श्रीपालको एक सिद्ध पुरुषके रूपमें उपस्थित किया है । इसलिए अधिक कन्याओंसे विवाह करना भी उसके वैभवको बतानेका एक साधन है ।
गुणमालासे विवाह करनेके बाद श्रीपाल चित्रलेखा और उसके साथ अन्य सौ कन्याओंसे विवाह करता है । विवाहकी यह शर्त थी कि नगाड़ा बजाकर उन कन्याओंको नचाना और उनको जीतना । इसके पश्चात् वह विलासवती और उसके साथ ९०० कुमारियोंसे विवाह करता है । कोंकणद्वीपमें वह यशोराशिविजयकी आठ कन्याओं की समस्याओंकी पूर्ति करके उनसे विवाह करता है । इसके बाद पंच पाण्ड्य, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, गुजरात, मेवाड़, अन्तर्वेद आदि देशोंमें अनेक कन्याओंसे विवाह करता है । कन्याओंसे विवाह के समय कहीं भी उसकी मनोदशाका वर्णन नहीं मिलता है । इन विवाहोंसे उसके मनमें क्या प्रतिक्रिया होती है, वह उन कन्याओंके प्रति क्या भाव रखता है, यह कहीं भी मालूम नहीं होता । जहाँ भी और जितनी भी कन्याओंसे विवाहकी बात होती है, वह तुरन्त तैयार हो जाता है और विवाह कर लेता है । केवल एक बार वह मनमें मैनासुन्दरी के लिए सोचता है - " अब यदि मैं उज्जैन नहीं जाता हूँ तो मेरी प्रिया मैनासुन्दरी, शाश्वत सुख देनेवाली दीक्षा ले लेगी ।" वैसे बारह वर्ष पूरे हो गये थे, इसलिए यह भी निश्चित है कि अब श्रीपालको वापस आना है, क्योंकि उसके सभी कार्य पूर्व निर्धारित हैं । इसके अतिरिक्त उसका वचन न टूटे इसलिए भी यह आवश्यक है कि वह समयपर लौट आये ।
मैनासुन्दरी अपने पिता के द्वारा किये गये दुर्व्यवहारकी शिकायत उससे करती है । वह पिताको कम्बल ओढ़कर तथा गलेमें कुल्हाड़ी डालकर दरबारमें उपस्थित होनेके लिए दूत भेजती है । इसमें कवि श्रीपालकी उदारता व महानता दिखानेका प्रयत्न किया है । वह अपने चाचा वीरदमणको भी हराता है । इस प्रकार श्रीपाल कहीं भी असफलताका मुँह नहीं देखता । वह जहाँ भी रहता है और जिन परिस्थितियों में रहता है, वे सब उसके अनुकूल रहती हैं ।
वह मुनिराज से अपनी सफलताओं तथा यशस्वी होनेका कारण पूछता है । वह यह भी पूछता है कि किन कारणों से वह कोढ़ी हुआ, समुद्रमें फेंका गया और डोम सिद्ध किया गया ? तब मुनि महाराज उसके पूर्वजन्मको कथा सुनाकर उसे बतलाते हैं कि पूर्वजन्मोंके कर्मोंके कारण ही श्रीपालपर विपत्तियाँ आयीं तथा पुण्यों के प्रभावसे ही उसने जीवन में सफलता, यश आदि अर्जित किये । स्पष्ट है कि वह जो कुछ है, वह पूर्वजन्म के कर्मों का फल है । पूर्वजन्मके संचित कर्मोंको वह इस जन्ममें सुख और दुःखके रूपोंमें भोग रहा है । परम्पराके अनुसार अन्तमें वह अपनी रानियों सहित संन्यास ले लेता है ।
धवलसेठ
धवलसेठका चरित्र, खलनायकका चरित्र है । कथानकमें उत्तेजना व मोड़ देनेका काम खलनायक ही करता है । धवलसेठ एक धूर्त, कपटी, कामान्ध और धोखेबाज है | स्वार्थ सिद्धिके लिए वह नीचतम हरकतें भी करता है ।
श्रीपाल उसके जहाज चलाता है, तब वह खुश होकर उसे अपना धर्म - पुत्र मान लेता है । श्रीपाल उससे दसवाँ हिस्सा माँगता है । जलदस्युओंसे भी श्रीपाल उसकी रक्षा करता है । परन्तु कामान्ध धवलसेठ, रत्नमंजूषापर आसक्त हो जाता । वह यह भूल जाता है कि उसने श्रीपालको धर्मपुत्र माना है । धवलसेठको उसका मन्त्री समझाता भी है कि यह पाप है । परन्तु सेठकी आँखोंपर वासनाका चश्मा चढ़ा हुआ होनेसे उसे और कुछ नहीं दिखाई देता । वह मन्त्रीसे रत्नमंजूषाको प्राप्त करनेके षड्यन्त्र में सहायता के लिए कहता है और एक लाख रुपया देनेका लालच भी देता है । श्रीपाल मच्छ देखनेके लिए मस्तूलपर चढ़ता है,
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