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________________ २. ६. १२ ] हिन्दी अनुवाद घात कर लूंगी। प्रियजनसे तुम सच्ची बात कहो।" तब प्रियने गुणमालासे कहा कि "विडोंके पास एक सुन्दर सुलक्षण नारी है। तुम जाकर उस सती रत्नमंजूषासे पूछो। वह जो कहेगी, हे प्रिये ! मैं वही हूँ।" घत्ता-तब गुणमाला वहाँ गयी, अत्यन्त सुकुमार रत्नमंजूषा जहाँ थी। वह बोली-"हे बहन, मुझे कोटिभट श्रीपालके कुल और जातिकी बात बताओ'' ||४|| तब सखी रत्नमंजूषा पूछती है- "हे आदरणीय, यह बताओ कि यह श्रीपाल कौन है ?" गुणमाला बताती है कि समुद्र तैरकर वह हमारे नगरमें आकर रहने लगा है । उस परदेशीके लिए मैं (कन्या) दे दी गयी है। अब डोम दसरी हजारों बातें कर रहे हैं। उन्होंने भावपूर्ण प्रेक्षण और नृत्य किया है । डोमोंने दूसरी बात कही है। उनके वचनोंसे राजाको क्रोध आ गया। "श्रीपालको मार डालो" यह राजाका आदेश है। हमने आकर अपने प्रिय पतिसे पूछा । उसने हमें तुमसे पूछने के लिए भेजा है। तब पूर्णयुक्ति वाली रत्नमंजूषा बोली-"मैं राजाकी भ्रान्ति दूर करूंगी।" गुणमाला और रत्नमंजूषा दोनों वहाँ गयीं, जहाँ राजा था। विद्याधरी वहाँ बोली-“हे देव, सुनिए । श्रीपालका जन्म अच्छे और गुणी कुलमें हुआ है। श्रीपाल राजपुत्र है। मैं विद्याधरी हूँ, परन्तु वह मेरा पति है । हे राजन् ! इनका अंगदेश है। चम्पानरेश अरिदमन इनके पिता हैं। मैं राजा कनककेतुकी पुत्री हूँ। उनका स्थान हंसद्वीप है। मेरे लिए इस पापीने कूट साक्ष्य ( कपटाचरण ) किया है। उसने रस्सी कटवाकर उन्हें समुद्रमें गिरा दिया। हे राजन्, यह सब धवलसेठकी प्रवंचना है। अब आप जो ठीक समझें, हे तात, वह करें।" घत्ता-यह वचन सुनकर राजा क्रुद्ध होकर बोला। धनपाल तुरन्त गया और श्रीपालसे बोला-"मैंने बहुत अनुचित किया, हे दामाद, तुम मुझे क्षमा करो" ।।५।। तब श्रीपालने कहा-"यह तुम्हारा अतिवाद था। हे तात, आपने हमारा मन्त्र नहीं समझा। नैमित्तिकने जो कुछ कहा है वह असत्य कैसे हो सकता है ? हे देव, मेरी शक्तिकी बात मत पूछिए जो समुद्रको भी गोखुरके समान गिनता है। मैंने सुभट समूहको पकड़कर छोड़ दिया। हे राजन्, मैं अकेला कोटिभट हूँ।" धनपाल राजा उसके पैरोंपर गिर पड़ा और ब कुमार, आप विषाद न करें।" हाथ पकड़कर उसने उसे गजराजपर चढ़ाया। जो अनेक भ्रमरसमूहसे सेवित था। उसे लेकर राजा अपने महलमें गया, अनेक नगाड़े, भेरी और मंगल शब्दोंके साथ । उसे अपने सिंहासनपर बैठाया, और जय-जय शब्दके साथ तिलककर उसे राजपद दे दिया। गुणमालाका मन विशेषरूपसे रंजित हुआ, मानो किसी दरिद्रने खजाना पा लिया हो। मानो अन्धेने दो आँखें पा ली हों। मानो बाँझ स्त्रीने दो पुत्र पा लिये हों। मानो पापीने पवित्र दयाधर्म पा लिया हो । मानो वादीने धातुवाद सिद्ध कर लिया हो । गुणमालाको उससे इतना सन्तोष हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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