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________________ १. १७. २१ ] हिन्दी अनुवाद करूँगी। स्नानके लिए विविध फूल लेकर तथा केशर, कपूर आदि लेकर वह चली। वह हाथोंमें कंगन पहन कर चली। सरस्वती-लक्ष्मी और पूर्णिमाके समान वह हाथमें चन्दन लेकर चली। अत्यन्त सुन्दरी वह सरस फूल देती हुई; मुनिके योग्य फूल-नैवेद्य लेकर चली। शुभकर्मके लिए शास्त्रोंको जानकर वह सरस नैवेद्य लेकर चली। अपने स्वामीके प्रेममें पगी हुई वह आरती लेकर चली । प्रजापाल राजाकी पुत्री बहुत भली थी। वह दस प्रकारकी धूप लेकर चली। जहाँ देनेसे उत्तम फल होता है, वह वहाँ उत्तम फल लेकर चली। उसने अपनी करांजलि भालतलपर रख ली फिर भी उसकी करांजलिमें फूल थे। घत्ता-जिनमन्दिरमें जाकर जिनभगवान्की पूजाकर फिर उसने आगम-प्रवरकी पूजा की। फिर जाकर उसने मुनिके दर्शन किये और मुनिवर गुरुके पैर छुए। गुरुभक्तिसे भी भावशुद्धि नहीं होती। भावबुद्धि परमेश्वरकी दी हुई होती है। उसने दिगम्बरोंकी स्तुति की कि "हे स्वामी, आप दिगम्बरोंमें पवित्र हैं। व्रतके बलपर आपने इन्द्रियों और मनको अपने वशमें कर लिया है। अवशको अपने वशमें कर लिया है। जो रति कामिनियोंके हृदयमें शल्य करती है उस रतिका आप भेदन करनेवाले हैं। तपश्रीका पालन करनेवाले आपकी जय हो । हे स्वामी, श्रीपालको भीखमें दे दीजिए । जिस प्रकार किसान तृणोंको नष्ट करता है उसी प्रकार कोढ़-रोगको नष्ट करनेवाला सिद्ध चक्र विधान मुझे दो।" यह सुनकर मुनि बोले- "हे पुत्री, तुम सम्यग्दर्शन ग्रहण करो, अणुव्रत और ये तीन गुणवत। फिर चार शिक्षाव्रत ग्रहण करो।" पापका हरण करनेवाले मुनिवर बोले-हे पुत्री, शुभ-सिद्धचक्र विधान सद्भावसे लो। अष्टाह्निका और नन्दीश्वरकी पूजा करो। आठ दिन सिद्धचक्र विधान करो। हे पुत्री ! आठ दिन जिनमन्दिरमें रहो । आठदलवाले सिद्धचक्र मन्त्रकी आराधना करो। उसमें भी 'असिया उसाइ' परम मन्त्रका ध्यान करो। उसके पास सकूट तीन वलय खींचो। ओंकार मन्त्रको कौन छोड़ता है ? चार कोनोंमें आठ त्रिशूल लिखो, पाँच परमेष्ठियोंको लिखो। चार मंगलोत्तमकी शरणमें जाना चाहिए। जिनधर्मका विचारकर पूजा करनी चाहिए। फिर एक-एक दलको समग्र भावसे देखना चाहिए। आठ वर्गों में अ क च ट त प और स लिखना चाहिए। प्रत्येक दलमें सुन्दर दर्शन, ज्ञान और चरित लिखना चाहिए, उसीमें श्रेष्ठ सुन्दर पंक्तियाँ लिखनी चाहिए। फिर चक्रेश्वरी ज्वालामालिनी अम्बा परमेश्वरी और पद्मिनी। फिर दश दिग्पाल लिखे जायें और मालसहित गोमुख और यक्षेश्वर लिखे जायें, फिर बाहर मण्डलमें मणिभद्र लिखे जायें, फिर दसमुख और माणिक व्यन्तरेन्द्र लिखे जायें। आठों दिन ब्रह्मचर्यका पालन किया जाये । हे कुमारी, इन्द्रिय-प्रसारको भी रोका जाये, आठों ही दिन एकचित्त जाप करो। निश्चिन्त होकर अपने भावको दृढ़ करो। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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