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________________ संस्कृत प्राकृत-अवतरण 'श्रीपाल चरित'में धर्म काव्य और उपदेशका अद्भत मिश्रण है । कुछ बातोंमें उसे शास्त्रका रूप भी दिया गया है। चूंकि 'सिरिवाल चरिउ' एक संक्षिप्त काव्य है, अतः उसमें विस्तारका अभाव है, फिर भी बीच-बीचमें कुछ छन्द आते हैं, आलोच्य कृतिमें निम्नलिखित छन्द आये हैं, इनका कथानकसे कोई सम्बन्ध नहीं । प्रसंग सहित उनका संकलन यहाँ दिया जा रहा है। सन्धि १-कड़वक १४-मयनासुन्दरीके विवाहके समय ये पद्य आते हैं उक्तं चजं चिय विहिणा लिहियं तं चिय परिणवइ सयल-लोयस्स इय जाणेविणु धीरा विहुरोवि ण कायरा हुंति ।। पाविज्जइ जत्थ सुखं पाविज्जइ मरण-वंधण जत्थ तत्थ तहं चिय जीवो णियकम्म-हव-थिओ जाइ ॥ कड़वक १५ उक्तं चसहियाण दुहं दुहियाण संपयाभणिया अणचिंतियं पथट्टइ दुल्लहं दइव-वावारं कड़वक १७-मयनासुन्दरीको समझाते हुए मुनि कहते हैं "धर्मे मतिर्भवतु किं बहुना कृतेन जीवे दया भवतु किं बहुभिः प्रदानैः। शान्तं मनो भवतु किं कुजनैश्च रुष्टैः आरोग्यमस्तु विभवेन फलेन किं वा ॥६॥ बुद्धेः फलं तत्त्व-विचारणं च देहस्य सारं व्रत-धारणं च । अर्थस्य सारं किमु पात्रदानं वाचाफलं प्रीतिकरं नराणाम् । कड़वक ४०-धवलसेठके रत्नमंजूषाके प्रति कुचेष्टा करनेपर यह उक्ति है। कामलुब्धे कुतो लज्जा अर्थहीने कुतः क्रिया। मद्यपाने कुतः शौचं मांसहारी कुतो दया । कड़वक ४६-श्रीपाल समुद्र पार कर रहा है, उस समय कवि पुण्यके समर्थनमें यह कहता हैवने रणे शत्रु-जलाग्नि-मध्ये महार्णवे पर्वत-संकटेषु च । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति कर्माणि पुरा कृतानि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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