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________________ ११ १. ११.२] हिन्दी अनुवाद करती है तो यह उसी प्रकार है, जिस प्रकार वेश्या लम्पटको चाहती है। जहाँ पिता परिवार और कुटुम्बकी मन्त्रणा लेकर और पाँव पखारकर कन्याको दे देता है, पाँच आदमियोंको इकट्ठा कर विवाह रचता है। इस प्रकार पिता जिसको दे देता है वह उसका पति है। हे पिता ! माँ-बाप केवल विवाह करते हैं उसके बाद तो कन्याका अपना कर्म ही काम आता है। बेटियोंके लिए सौभाग्य वीरता पूत्र दुःख और सुख कौन करता है ? हे स्वामी! जिनागममें कही गयी बात सुनिए कि शुभाशुभ कर्म सभीको भोगने होते हैं। त्रिगुप्ति मुनीश्वरने कहा है कि जीव कर्मसे इश्वर होता है और कर्मसे रंक होता है। अपने ललाटमें जो कर्म लिखा है उसे कौन मेट सकता है । वह विधिका विधान है। इन वचनोंमें विकल्प मत करिए। हे पिता, वही होगा जो कर्ममें लिखा है ।" यह सुनकर राजा कुपित हो उठा और सोचने लगा कि मैं तुम्हारी कर्मबुद्धिको देखूगा। घत्ता-तब राजा क्रुद्ध हो उठा और विरुद्ध होकर बोला-'हे देवी, अपने घर जाओ।" जनमनका रमण करनेवाली वरगामिनी वह चल दी तथा जिनदेवकी शरणमें जा पहुँची ।।९।। १० राजा अपने मनमें क्रोध करता हुआ तत्काल चला। अश्व, गज, वाहन और पालकी तथा अनगिनत छत्र और ध्वजदण्डोंके साथ नगरके बाहर मैदानकी ओर चल पड़ा। उस ने देखा कि रोग, शोक और तरह-तरहके दुःखोंको प्राप्त एक कोढ़ी सामने आ रहा है। गधेपर बैठा। विगलित शरीर। सिरपर पलाशके पत्तोंका छाता। मनिनिन्दक और पर्वजन्मके कर्मों ( गणो ) से । हुआ। विशेष प्रकारके कुष्ठरोग ( उपराँव ) के पापसे पीड़ित। बहुतसे घण्टोंकी ध्वनियोंके साथ उसपर चँवर ढल रहे हैं। सिंगी-बाजोंसे जो कोलाहल कर रहे हैं; दोनों पार्श्व भाग हाथ और पैर, जिसके गल चुके हैं। दूसरे कोढ़ी उससे लगातार मिल रहे हैं। वे कहते हैं कि यह हमारा स्वामी है और यह गोस्वामी अवन्ती प्रदेशमें आया है। यद्यपि वह कोढ़ी और अत्यन्त नीच है फिर भी उनका स्नेह उसके प्रति कम नहीं होता। वह आडम्बरके साथ चलता है, व्याधि देखकर वह अपने परिजनोंको छोड़ चुका है। घत्ता-दुःखी जनोंसे युक्त राजपुत्रोंके साथ चलता है, देश-विदेशमें घूमता है। कन्था और गूडर (गूदड़ी) ही उसका घर है। उत्तम कम्बल उसके पास है। वह राजाका पद ठुकरा चुका है ।।१०।। मण्डलपति होकर भी वह दूसरेके मण्डलमें घूमता है, वह रक्त, पित्त और रणके पापसे लिप्त नहीं होता। जिसे मधुमेह है, वह राजाका भण्डारी है, उसकी जितनी पनहारिनें हैं उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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