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________________ २. ३६.१५] हिन्दी अनुवाद करोड़ पैदल सेना। बारह लाख सेना कुमार । बारह हजार आठ सौ रथ । पृथ्वीपाल राजा कहता है कि फिर भी मुझे अचम्भा हो रहा है, ये सुन्दर बालाएँ, सात मंजूषा, पाँच गुणमाला इत्यादि अपने पुत्रों से सम्मानित हैं। कोई बाँझ नहीं है और न कोई दुःखसे क्षीण है । आठ हजार अन्तःपु वे अग्रणी थीं। मानो सर-सन्दरियाँ पण्यसे उत्पन्न हई हों। इस प्रकार बहतसे परिजनोंके साथ श्रीपाल स्वच्छन्दतासे राज करने लगा। उत्साहसे धर्म, अर्थ और कामको उसने ग्रहण किया। इससे बढ़कर संसार में दूसरा सुख नहीं है कि मनुष्य बचपन, यौवन और बुढ़ापेके सुखका भोग करे और फिर चौथे मोक्षका सुख । सिद्ध चक्र विधिके प्रभावसे उसने जीवनमें मनोवांछित फल प्राप्त किया। पत्ता-इस प्रकार राज्य करते-करते वह विरक्त हो उठा। सब कुछ अपने पुत्रको देकर वह संसारसे विरक्त हो उठा। फिर उसने दीक्षा ले ली मन्त्रियों और पुरोहितोंके साथ ।।३५॥ यशपालको उसने राज्य समर्पित कर दिया और अपने आपको उसने महाव्रती स्थापित किया। मदनासुन्दरीके साथ सभी अन्तःपुरने हार, डोर और नूपुर उतार दिये। वे सब संन्यासी बन गये। वे दो प्रकारके तपसे विभूषित थे। महा शुक्लध्यानसे कामको जलाकर वह देवी स्त्रीलिंगका हनन करके चली गयी स्वर्ग को। दूसरे अंगरक्षकोंको जो-जो व्रत अच्छे लगे, उन्होंने भी देवत्वके सुखको प्राप्त किया। सभी मनुष्योंके प्रति समताभाव धारण कर राजा श्रीपाल घोर तपश्चरण कर परम निर्वाणको प्राप्त हुआ। हे भव्य लोगो, सिद्धचक्रके फलको जान लो। और भी जो नर-नारी इस विधानको करेगा, वह भी इस ओर दूसरे फलोंको प्राप्त करेगा। स्वर्ग में देवताओंके अधिवासका सुख भोगेगा । सुर कन्याओंके साथ क्रीड़ा करेगा। कार्तिक, आषाढ़ और फागुनमें वे नन्दीश्वर द्वीप जायेंगे। बहुत प्रकारसे जिन भगवान्की पूजा करेंगे। सिद्धचक्रके फलको भोगेंगे। अकृत्रिम जिन भगवानोंकी वन्दना करेंगे। फिर धरतीपर चक्रवर्ती होंगे, राज्य करके मोक्ष प्राप्त करेंगे। घत्ता-नरसेन कवि कहता है कि मैं ने अपनी शक्तिसे इस सिद्धचक्र विधिका निर्माण किया है, जिनेश्वरकी भक्ति कर, भव्यजनोंके लिए आनन्ददायक यह रचना मैं ने की है ॥३६॥ इस प्रकार सिद्धचक्र कथामें महाराज चम्पाधिप श्रीपालदेव और मदनासुन्दरी देवीके चरितमें पण्डित नरदेव द्वारा रचित, इह लोकमें सुखकर घोर दुःख, कोढ़, व्याधि और भवके अज्ञानको नाश करनेवाली कथामें श्रीपाल मोक्षगमन नामका, मदनासुन्दरी दूसरे समस्त अन्तःपुर अंगरक्षक देवत्व नामका दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ। इस प्रकार पण्डित श्रीनरसेन कृत श्रीपाल नाम शास्त्र समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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