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________________ १. ३६.७] हिन्दी अनुवाद ३७ अनेकों स्वच्छ रत्नोंसे उसकी नीचेकी भूमि जड़ी हुई थी, जो ऐसी लगती थी मानो शुक्रके उदयमें मोती प्रतिबिम्बित हों । यह है वह सहस्रकूट जिनमन्दिर । जगसुन्दर श्रीपाल उसके भीतर गया। उसके सिंहद्वार पर वज्रके दरवाजे लगे हुए थे। श्रीपालने ( द्वारपालसे ) बार-बार पूछा-"जो पुण्यशाली सबसे ऊँचा शिखर है उसके पूरे किवाड बन्द क्यों है ?" द्वारपालने कहा"इसका द्वार अभी तक कोई खोल नहीं सका, उसी प्रकार जिस प्रकार कंजूसके हृदयरूपी किवाड़ कोई नहीं खोल सकता।" तब उस वीरके छूते ही किवाड़ खुल गये। उसने जिन भगवान्के हँसते हुए प्रतिबिम्बको देखा। उसने जयजयकार किया। "हे परमेश्वर, आपकी जय हो । हे जगदीश्वर और सर्वांग स्वामी, आपकी जय हो।" पत्ता-आपको नारायण नमस्कार करते हैं। इन्द्र जपता है। राम स्तुति करते हैं। श्रीकृष्ण प्रशंसा करते हैं । ब्रह्मा वन्दना करते हैं। विष्णु प्रसन्न होते हैं । इस प्रकार छह हरि आपको नमस्कार करते हैं ॥३४॥ ३५ त्रासका नाश करनेवाले हे सर्वेश्वर, आपकी जय हो। हे अनादि और आदि परमेश्वर (आदिनाथ), आपकी जय हो। हे आदिब्रह्म, आपकी जय हो। हे प्रशस्त तीन रत्नोंके आश्रय, आपकी जय हो। हे स्वामी, आपकी जय हो। हे प्रभु, ऐसी बात कहिए जिससे संसारमें आना रुक जाये और वहाँ स्थित हो जाऊँ, जिसे प्राप्त करनेके बाद इस संसारमें आना सम्भव न हो। हे प्रभु, आपकी जय हो । मैं चार गतियोंकी ऋद्धियोंसे विरत हो जाऊँ, जिसे प्राप्त कर मैं शिवसुखकी ऋद्धिमें स्थित हो जाऊँ। हे नाथ, जय, आपकी जय हो। आपने परमपद प्राप्त किया है। हे ज्ञानवान्, आपकी जय हो, आपने परमपद जाना है। इस प्रकार परमानन्दसे जिन भगवान्की वन्दना कर उसने घी, दूध, दहीकी अखण्ड धारा और सब औषधियोंसे उसी प्रकार उत्साहके साथ जिनप्रतिमाका अभिषेक किया, जिस प्रकार इन्द्र सुमेरु पर्वतपर जिन भगवान्का करता है। स्तुति कर उसने शुभ कर्म अर्जित किया। आठ प्रकारकी पूजा कर जब वह बैठा तब दोपहर हो चुकी थी। यहाँ दूत राजाके घर दौड़ा। पत्ता-दूतने वहाँ जाकर कहा-"जिस बातके लिए आपने मुझे वहाँ पहरेपर रखा था वह मनचाहा व्यक्ति वहाँ आ गया है। हे आकाशगामी, हंसद्वीपके स्वामी, रत्नमंजूषाका वर आ गया है ।॥३५॥ कनककेतु विद्याधर चल पड़ा। उसकी पत्नी कनकमाला भी उसके साथ चली। उसने आनन्दसे डुगडुगी पिटवा दी। लोगो सुनो और जिन वन्दनाके लिए चलो। राजाने अखण्ड जिन भगवान्के दर्शन किये, जो कि सुख और मोक्षके स्वामी एवं प्रभासे परिपूर्ण थे। फिर उसने अपनी समस्त इन्द्रियोंसे श्रीपालसे भेंट की और कहा-“हे प्रभु! मेरी कन्यासे विवाह करो। मेरी बेटी रत्नमंजूषा लक्षण वाली है। विचक्षण मुनिवरने जिसका विवाह तुमसे होना बताया है ।" श्रीपालने बड़े उत्साहके साथ नगरमें प्रवेश किया। नगाड़े, शंख और भेरी-वाद्य बजने लगे। रास्तेमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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