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________________ भाषा की दृष्टि से 'सिरिवालचरिउ' की स्थिति विचित्र है, क्योंकि १६वीं सदीका प्रारम्भ, आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्यका युग है न कि अपभ्रंश का । अत: उसकी भाषा में मिलावट अनिवार्य थी । उसकी भाषा जहाँ वर्णनात्मक है वहाँ अपभ्रंश है, लेकिन जहाँ संवाद या बातचीत है वहाँ भाषा लचीली है । उसमें भी मुख्य रूप परम्परागत अपभ्रंश का ही है । फिर भी उसमें मिश्रण और सरलीकरणकी प्रवृत्ति सक्रिय है । कारक, संज्ञा, सर्वनामों की स्थिति परम्परागत है । प्रायः सभी कारक मिलते हैं, परन्तु अधिकतर विभक्तियोंका लोप या विनिमय दिखाई देता है । विभक्ति लोप सहज ही प्रचुरतासे द्रष्टव्य है । विभक्ति विनिमयके कुछ उदाहरण उद्धृत हैं } १. उववण हैं वि सोहइ ( ग्रंथहं गरीय ) २. कवणहु दिज्जइ अन्हहं अवखरि देखइ सिरिपालहं ३. धरतहं सुरवरहं रयणहं णिवद्ध सहं चढ़इ कर्ता कर्म करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण भाषा उ० पु० म० पु० अ० पु० [ ६ ] कर्ता और कर्मके एक और बहुवचन में प्रायः विभक्तियोंका लोप है । केवल स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंगके बहुवचनकी विभक्तियाँ उपलब्ध हैं एकवचन o Jain Education International तृतीय स्थानपर षष्ठी । द्वितीयाके स्थानपर षष्ठी । एकवचन मि हि इ, हि, ति हि इं, हि, एं, एण, सेतिय, सिइ लगि, निमित्त आउ, होंतउ हो,हू,ह, रो पंचमी के स्थानपर षष्ठी । बहुवचन O o इ, ए चूँकि अपभ्रंशमें वृद्धि -स्वर नहीं होते अतः 'केरो' प्रयोग प्रमादजन्य माना जायेगा; या फिर समकालीन खड़ी बोलीका प्रभाव । क्रियाओंके निम्नलिखित प्रत्ययरूप और क्रियारूप उपलब्ध हैं वर्तमान ० ० हं ( 'ह' स्त्रीलिंग में ) ० बहुवचन o न्ति, हि, हि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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