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________________ १. ४५. १०] हिन्दी अनुवाद ४५ की अवधि दी है। माता कुन्दप्रभाका क्या होगा? चम्पापुर नगरीको कौन लेगा? उन अंगरक्षकों ( सात सौ ) की कौन रक्षा करेगा? इस प्रकार विलाप करते हुए उसे सखीजनोंने समझाया कि जो ऋण संचित किया है, उसे देना ही होगा। इसे कर्मोका अन्तराय समझना चाहिए। हे बहन, अपनेको सँभालो, चिल्लाओ और रोओ मत। पत्ता-करुणा छोड़ो, हृदयको ढाढ़स दो। उन्होंने उसे अंजुलीमें पानी दिया। श्रीपाल अब 'अतीत' हो चुका है । जो गया, वह जा चुका है। हे रत्नमंजूषा, अब क्यों रोती हो ? ॥४३।। तुम लोकाचारको देखो, भोजन करो, स्वयं स्नान विलेपन करो। हे आदरणीये, भोजन पान भी लो। हे महादेवी, श्रीपाल आयेगा। इस प्रकार वह महासती किसी प्रकार रह रही थी कि इतने में सेठने अपनी दूती भेजी। दूतीने आकर कहा कि तुम श्रीपालकी बाट मत जोहो । स्वामी धवलसेठकी ओर देखो। यह सुनकर उसने कहा-'हे नीच दूती, वह पापी हमारा ससुर होता है। कामी पुरुष उचित-अनुचितका विचार नहीं करता। निर्नाम वह, बहू और बहनका सेवन करता है। वह धूर्त बलपूर्वक उसे बुलाता है। उसके पैर पड़कर और हाथ जोड़कर उसे मनाता है। विह्वल रत्नमंजूषा उससे कहती है-हे स्त्रीलम्पट, दूर हट, दूर हट। ओ कुलनाशक कालमुखी पापी, तूने अपनी माँ-बहन किस प्रकार छोड़ दी। मैंने तुझे अपना ससुर और बाप समझा था। अब तू कुत्ता, गधा और सुअर है । ओ जलदेवताओ, अब तुम देखो, मुझे इस पापीके मोहपाशसे बचाओ।" घत्ता- "हे स्वामी, दूसरे जन्ममें मैंने ऐसा क्या किया जो जन्मान्तरमें मुझे निरन्तर दुःख झेलने पड़ रहे हैं।" परलोक मनाती हुई वह रो रही थी। उसके इस प्रकार रोनेपर जलदेवताओंका समूह स्वयं आया ॥४४॥ ४९ माणिभद्रने समुद्रको हिला दिया । जहाजको पकड़कर उलटा कर दिया। चक्रेश्वरी देवीने जैसे ही अपना चक्र चलाया, वणिक् व्याकुल होकर एक-दूसरेसे कहने लगे-अश्वोंके रथपर अम्बा देवी आयो । मुर्गों और साँपोंके रथपर पद्मादेवी आयी। क्षेत्रपाल कुत्तेकी सवारी करके आये। उन्होंने धवलसेठके मुखपर लूघर ( जलती हुई लकड़ी ) मारा। रोहिणीने सब ओर धुआँ फैला दिया। ज्वालामालिनीने सब दूर अग्नि ज्वाला प्रज्वलित कर दी। रत्नमंजूषाके शील गुणकी सेवा करनेवाली शासनदेवियोंने धवलसेठको खूब उत्पीडित किया । तब व्यन्तरेन्द्र अपने गरुड़ आसनपर आया। उसने दसमुखको झुका दिया और स्वयं आया। आकर उसने धवलसेठको वहाँ साधा। खूब मजबूतीसे कसकर उसके हाथ पीछे बाँध दिये। सिर नीचे और पैर ऊपर कर उसे चलाया गया और 'अमेह' चीज उस पापीके मुँहमें डाल दी। इस प्रकार बहुतसे दुःखोंको सहन करनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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