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________________ सिरिवालचरिउ श्रीपाल-"स्त्रोके साथ जानेसे काम सिद्ध नहीं होता।" मैनासुन्दरी-"पतिव्रता सीता देवी रामके साथ क्यों गयीं?" श्रीपाल-"तुम्हीं सोचो कि उसका क्या हुआ ?" ( सीताको राग ले गया था इस ओर संकेत है) (१।२१) (५) श्रोपाल जब जाने लगता है तब मैनासुन्दरी उसका आँचल पकड़ लेती है । श्रीपाल इसे अपशकुन मानकर कुपित हो जाता है। उस समयकी बातचीत हृदयको छू लेती है। पतिके बिना स्त्रीका रहना कठिन है। श्रीपाल - 'हे प्रिय ! छोड़ो मुझे, यह मेरे लिए अपशकुन है।'' मैनासुन्दरी-ओ प्रवास पर जानेवाले, तुम मुझपर क्रुद्ध क्यों हो? पहले मैं किसे छो’-अपने प्राणोंको या तुम्हारे आँचल को?" ( ११२३ ) (६) जाते समय श्रीपाल माँके पैर छूने जाता है। उस समयके संवाद माँकी ममतासे भरे हुए हैं। माँ अपने पुत्रके बिना १२ वर्ष तक कैसे रहेगी। जब वह नहीं मानता है तो उसे प्रवासमें काम आनेवाली बातोंके बारेमें बतलाती है। माँके कथनमें स्वाभाविकता है और उसका मनोवैज्ञानिक आधार है-- श्रीपाल-माँ ! मैं विदेश जाता हूँ। इस बहूसे प्रेम करना । हे माँ ! मैं जाता हूँ, वापस आऊँगा ! माँ ( कुन्दप्रभा)- "हे पुत्र ! तुम्हें देखकर मुझे सहारा था । हे वत्स ! जबतक मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देखती हूँ, तबतक मैं अपने पति अरिदमनके. शोकको कुछ भी नहीं समझती। मैंने आशा करके ही अपने हृदयको धारण किया है।" श्रीपाल-“हे स्वामिनी ! आप धैर्य धारण करें, कायर न बनें। हे माँ ! आदेश दो जिससे मैं जा सकूँ ।” तब कुन्दप्रभा लाचार हो उसे बिदा करती है और अनेक शिक्षाप्रद बातें कहती है । ( १।२३-२४ ) (७) श्रीपाल सहस्रकूट जिनमन्दिरके द्वारपालसे पूछता हैश्रीपाल-"जो पुण्यशाली सबसे ऊँचा शिखर है, उसके पूरे दरवाजे क्यों बन्द हैं ?' द्वारपाल-"इसका द्वार अभी तक कोई खोल नहीं सका, उसी प्रकार जिस प्रकार कंजसके हृदयरूपी किवाड़को कोई नहीं खोल सका।" (१९३४) (८) रत्नमंजूषापर आसक्त धवलसेठसे उसका मन्त्री पूछता है मन्त्री-“तुम अचेतनकी भाँति क्यों हो ? क्या तुम्हारे पेटमें सूल है या सिरमें दर्द या सन्निपात हो गया है।" धवलसेठ-"मैं तुम्हें ढाढ़स देनेके लिए कहता हूँ कि ना तो मुझे सिरमें पीड़ा है, ना पेटमें सूल । मेरा हीन मन रत्नमंजूषाके रूपमें सन्तप्त और आसक्त है ।' मन्त्री-"तुम अनुचित कार्य मत करो। वह तुम्हारे पुत्रकी पत्नी है।" धवलसेठ- "हे कूटमन्त्री ! तुम सहायक हो, तुम्हें मैं प्रसादमें एक लाख रुपया दूंगा। मैं तुम्हारे गुणोंको हृदयसे मानूँगा, जिससे मैं इस स्त्रीका हृदयसे भोग कर सकूँ।" ( ११४० ) (९) गुणमालाको जब यह समाचार मिलता है कि श्रीपाल डोम है और जाति छिपानेके कारण राजाने उसे बन्दी बना लिया है। वह तुरन्त श्रीपालके पास सचाई जाननेके लिए दौड़ती है। वह श्रीपालसे पूछती है गुणमाला-"तुम्हारी कौन-सी जाति है ? तुम अपना कुल बताओ।" श्रीपाल-“यही मेरा सब कुछ है।" गुणमाला-"मैं अपना घात कर लूंगी। प्रियजनसे तुम सच्ची बात कहो।" श्रीपाल-"विडोंके पास एक सुन्दर सुलक्षण नारी है, तुम उस मती रत्नमंजूषासे पूछो। वह जो कहेगी, हे प्रिये, मैं वही हूँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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