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________________ ३१ १. २९. १५] हिन्दी अनुवाद पत्ता-धवलसेठ भी जाकर धुरन्धर बब्बरोंसे युद्ध में भिड़ गया। दूसरी जगह भी संग्राम हो रहा था। युद्धका आडम्बर करनेवाला वह शत्रुके बीच कूद पड़ा ॥२७॥ युद्ध में लड़नेवाले चोर-कुलको सेठने अपनी दृष्टिसे जीत लिया। हर्षसे भरा हुआ वह उनका पीछा करने लगा। बादमें चोरोंने उसे साबत पकड़ लिया। सेठके पकड़े जानेपर पैदल सिपाही भाग खड़े हुए। गूजर और मराठा नष्ट हो गये। उन्होंने जाकर श्रीपालसे कहा कि धवलसेठको चोरोंने पकड़ लिया है। यह सुनकर वह क्रोधसे भर उठा और युद्धवीर वह, हकारा देकर दौड़ा। बायें हाथमें उसने ढाल ले ली और दायें हाथसे उसने अपनी श्रेष्ठ तलवार चलायी। जाकर उसने लाखचोरको हाँक दी। जिस प्रकार बड़े-बड़े हाथी सिंहसे डरते हैं, उसी प्रकार भटकुमारने सिंहनाद किया। उससे सवर-समूह मानो डरकर भाग खड़ा हुआ। सब चोरोंमें भगदड़ मच गयी। [ इस पंक्तिका अर्थ स्पष्ट नहीं है ] कोटिभड बहुत पौरुषसे दौड़ा और तटके ऊपर सबको बँधवा दिया। घत्ता-बव्वर युद्ध में थक गये। रणमें वे चौंक गये। एक क्षणमें सुभटोंको बाँधकर रख लिया गया। कुमार बोला- "हे युद्ध में पराजित पापियो, तुम मेरे स्वामीको युद्ध में बन्दी बनाकर ले जाना चाहते हो?" ||२८|| २९ कुमारने सेठके बन्धन खोल दिये । उसी प्रकार जिस प्रकार जिन भगवान् कर्म प्रकृतियोंको तोड़ देते हैं। बन्दी चोरोंका गिरोह डरसे काँप उठा। विडजन सन्तुष्ट होकर खुशीमें कहते हैं कि जिसने अष्टाह्निका की है वह फले फूले । पुत्र-कलत्र सहित उसका अभिनन्दन किया। चोरों सहित उन्हें वे पकड़कर ले आये और उनकी वस्तुएँ लेकर उन्हें अपमानित किया। एक दूसरेको सिरसे भरते हुए वणिक् अत्यन्त उत्सव और सुन्दर मंगल करने लगे। घर-घर तोरण और वन्दनवार सजा दिये गये। स्वर्णकलश और मालतीकी मालाएँ वहाँ थीं। नव नृत्य और गीत होने लगे। मृदंग, नगाड़ा और शंख बज उठे। धवलसेठ और श्रीपाल धन्य हैं। पुण्यवान् और गुणगणसे परिपूर्ण है। समर्थ वरके साथ उसे लाये । बहुत भोजन और वस्त्रोंसे उसका सम्मान किया। तिलककर सिरपर दूब रखी। फिर श्रीपालने सबको छोड़ दिया। उस (बव्वर ) ने भी कहा"आप हमारे स्वामी हैं। हे देव, कोई बड़ी आज्ञा दीजिए। जिस माता-पिताने आपको जन्म दिया वे धन्य हैं। आपने हमें जीवन-दान दिया। हे स्वामी, हम आपसे कैसे उऋण हो सकते हैं। हे कल्याणगामी, हमें ऋणसे मुक्त कीजिए। घत्ता-गज, अश्व आदि और शोभायुक्त मणि-माणिक्यों और मूंगोंसे भरे सात जहाज और भी जो द्वीप-द्वीपान्तरोंके रत्न थे वे उन्होंने श्रीपालको अर्पित कर दिये ॥२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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