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________________ १. १५.३ ] हिन्दी अनुवाद १५ होने वाला गधा इसकी सवारी है। इसके पास राजशोभा दिखाई देती है। इसके हाथमें सुपात्र है। इसके सिर पर छत्र है। सभी इसका आदेश मानते हैं। इस पर छह चमर ढलते हैं। समहमें यह सबसे आगे है। इसके लिए घण्टे बजाये जाते हैं। इसके आगे गाया-नाचा जाता है। इसे लोग 'छैराना' कहते हैं। इसमें राजाके लक्षण दिखाई देते हैं। इसे छह भाषाएँ आती हैं। यह धीरे-धीरे चलता है। इसकी आँखें लाल हैं। इसके सिर पर सूक्ष्म केश दिखाई देते हैं। इसके साधन और मति महान् हैं। इसके सब कटारवाले श्रेष्ठ योद्धा हैं। यह निश्चय ही हरि, हर और ब्रह्मा है। इसका मठ और देवालयोंमें वास है। जिस प्रकार ब्राह्मणोंके अट्ठारह वर्ण राग होते हैं, इसके भी अट्ठारह उपराग हैं। इसके पास अधारी और अंगों पर धूल है। और सभाके सभी उपकरण इसे सोहते हैं। यह शूलपाणि ( शिव ) की तरह भिक्षा माँगता है और यह भैरवकी तरह दुनियाको सीख देता है। धत्ता-इस प्रकार सब लोग विलाप कर रहे थे, परन्तु उनकी चिन्ता न कर राजाने मण्डप बनवाया। उसमें मणिमय खम्भे लगाये गये और तरह-तरहके तोरण बाँध दिये गये ॥१३।। १४ मन्दल ( वाद्यविशेष ) बज रहा है । मंगल गीत गाये जा रहे हैं। परन्तु स्त्रियाँ ( रोकर ) अमंगल कर रही हैं। कोढ़ीको देखकर सारी नगरी रोती है परन्तु मदनासुन्दरी समझती है कि मानो वह देव है। गहने और दिव्य वस्त्रोंसे दोनोंका शृंगार कर दिया गया। सुन्दरीको ( उस समय ) मनमें धीरज ही अच्छा लग रहा था कि जैसे उसने कामदेवको प्राप्त कर लिया हो। वह रोती हुई अपनी माँ-बहनको समझाती है कि विधिके लिखेको कौन टाल सकता है ? ब्राह्मण वेद पढ़ रहे हैं। अत्यन्त उत्सव और मंगल हो रहे हैं। श्रीपालको मुकुट बाँध दिया जाता है, मानो एक छत्र राज दे दिया गया हो। उसके हाथमें कंगन और हृदयमें हारावली है। जैसे वह पहाड़ सहित धरतीका राज्य करेगा। उसकी अँगुलीमें मुदरी पहना दी गयी, जैसे समुद्रसे धरती शोभित हो। सिद्ध चक्रके फल और पुण्यके प्रभावसे उसने उत्साहपूर्वक कन्यारत्नसे विवाह कर लिया। पिता उसे पैरों पर गिरते हुए देखा। उसने कुमारीकी रूपश्रीका अवलोकन किया। घत्ता-तब राजा सोचता है कि मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी। मैंने राजमार्ग भी खो दिया जो मैंने अपनी कन्या कोढ़ीके लिए दे दी। मैंने वही किया जिसके लिए मन्त्रीने मना किया था ॥१४॥ "मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी, क्रोधने मुझे खा लिया कि जो मैंने कोढ़ीके लिए अपनी कन्या दे दी। कुलका क्षय करने वाला मैं राजपद पर प्रतिष्ठित हुआ। मैंने मन्त्रियोंका कहा नहीं माना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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