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________________ १. १६.५] हिन्दी अनुवाद मैं नीच राजाओंके साथ मिल गया। इसलिए पक्षी जटायुकी तरह मैं पापी हूँ। मुझे अमृतफल लाकर दिया गया, परन्तु वह भी मुझे विषफल दिखाई दिया। जिसकी दृष्टिसे अन्धे भी आँखवाले हो जाते हैं, मैं इतना अन्धा हो गया कि मैं उसे भी मारना चाहता हूँ। मैं नकुल ( नेवला) साँपके समान हो गया। मैं चक्रवर्ती सुभौमके समान हो गया । मैं राजा वसुके समान झूठा हुआ। मैंने रावणके समान अपयश प्राप्त किया। राजा जसवइने मुनिको सारा आकाश दिखाया था और अपने मनमें पछताया था, वैसे ही मैं भी पछता रहा हूँ।" हे बेटी! मैंने तुझे व्यर्थ मार डाला। मैं अत्यन्त गँवार हूँ। खोटी बुद्धिवाले, मैंने अपने ही दूधमें राख डाल दी। अथवा इसमें हमारा क्या दोष है ? क्योंकि किया गया शुभ-अशुभ कर्म ही विशेष रूपसे परिणमन करता है। यह विचार कर राजा प्रजापालने सुखकर भण्डार और सम्पत्ति श्रीपालको दे दी। दिव्य भूषण और वस्त्र भी दिये। रथ, घोड़े और सिंहासन भी दिये । अश्व, गज, वाहन और जंपाण यान दिये। उसे प्रचुर चिह्न, चमर, करभ, किकाण तथा धनधान्यसे भरे दो हजार गाँवोंके साथ मालवा दे दिया और भी दासी-दास तथा स्वर्ण दिया। मन्त्रियोंने उज्जैनके पास श्रीपालको जनवासा दिया। अंगराज श्रीपाल वहाँ आकर रहने लगा। वहाँ जो साढ़े सात सौ मन्दिर थे, उनमें सभी कोढ़ी रहने लगे। वहाँ वे दोनों अति विचित्र स्नेह परम्परासे सुखका अनुभव करने लगे। ( इधर ) मन्त्रीने देखा कि राजा प्रजापालकी विह्वलता नहीं जाती, वह इस विषमताको चित्तसे नहीं भुला सकता। अत्यन्त मोहित और शोकातुर होकर राजा कहता है कि "मरे बिना मेरा पश्चात्ताप नहीं जा सकता," तब मन्त्रीने कपट मन्त्र किया। वह बोला कि "अपने नगरको कोई खतरा पैदा हुआ है। हे राजन्, सुनिए, बाहरसे पुकार आ रही है। सीमान्त प्रदेशमें (धुन्धुमारि) हलचल मची हुई है। निर्दय जो मरहठा राजा है, वह आपको शोकसे व्याकुल समझकर आ गया है।" तब प्रजापाल राजा "मारोमारो" कहकर उठा। युद्धके विचारसे अपने हाथीपर बैठकर वह निकला। अंगदेशमें चम्पापुर नामका नगर है, उसमें धाड़ीवाहन कुलका एक निपुण राजा था, जो देव, शास्त्र और गुरुका भक्त था। उसी राजा अरिदमनकी पत्नी और श्रीपालकी माँ कुन्दप्रभा वहाँसे आयीं।। घत्ता-वे दोनों (श्रीपाल और मदनासुन्दरी) विनयपूर्वक उठे, उसके चरणकमलोंमें गिर पड़े। माँने आशीर्वाद दिया "हे त्रिभुवनईश श्रीपाल, यह तुम्हारी पटरानी बने।" १६ यह सुनकर मदनासुन्दरीका सन्देह दूर हो गया। वह समझ गयी कि यह राजकुमार है। यह अच्छा ही हुआ कि मैंने गुप्त बात नहीं पूछी, नहीं तो स्वामी मेरा अपराध मानता। जिनमन्दिरमें जाकर मैं व्रत ग्रहण करूँगी। जिनशासनमें प्रधान मुनिसे पूछकर मैं सिद्धचक्र-विधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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