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१. २१.८]
हिन्दी अनुवाद गया था, तुमने उसे स्फटिक मणिकी तरह स्वच्छ बना दिया। मेरा अपयश सारे भुवनतलमें फैला हुआ था, हे सुन्दरी, उसे तुमने चूर-चूर कर दिया। मैं मारा गया था। बड़ा विस्मय है, तुमने एकाएक मुझे जीवित कर लिया। हे पुत्री, मेरा नाम कोई नहीं लेता। मैं समस्त लोकमें निरीह दीन हो गया था। जिस व्रतके फलसे श्रीपाल इन्द्रके समान हो गया, वह सिद्धचक्र विधान मुझे भी करा दो। वह मुनि द्वारा कहा गया धर्म मुझे बताइए, मैं भी समाधिगुप्त मुनिकी शरणमें हूँ।" वह फिर बोला- "हे इन्द्र, यह राज्य लो और पर्वतसहित इस धरतीका पालन करो।" तब
श्रीपाल कहता है-'हे देव, आप मालवदेशके राजा हैं, मुझे देश मण्डलसे कोई काम नहीं है, फिर भी इसमेंसे आप जो नहीं रखना चाहते, वह मेरा राज्य है।"
पत्ता-राजा श्रीपालने जिनेश्वरकी स्तुति की और वह सुखपूर्वक धरतीका भोग करने लगा। समान रस और रूपवाला वह अच्छा था। उसका यश धरती मण्डलमें फैल गया।
भाट श्रीपालकी विरदावली पढ़ते। घर-घरमें उसके सम्बन्धमें गीत गाये जाते । “तुम राजा प्रजापालके दामाद हो।" यह कहकर श्रीपालकी प्रशंसा की जाती। यह सुनकर श्रीपाल खिन्न हो उठा। मयनासुन्दरीने राजा श्रीपालसे पूछा-"तुम दुर्बल क्यों हो? मैं तुम्हारी चिन्ता नहीं जानती। कोई मनचाही कामिनी हो तो उसे मान सकते हो।" तब कुमारने कहा-“हे देवी, तुम अजान हो । मैं अपने मनमें दूसरी स्त्रीको नहीं मानता। मेरे मनको वही कन्या अच्छी लगती है जिसे उसका पिता देता है। मैंने परस्त्रीके त्यागका व्रत साधा है।” ( मयनासुन्दरी पूछती) है- "हे स्वामी! फिर बताओ तुम्हारे मनमें क्या बात है ? अपनी गोपनीय बात मुझे क्यों नहीं बताते ?" कुमार कहता है-“हे सुन्दरी, यहाँ तुम्हारा कोई ( आदमी ) मुझे नहीं जानता। घरघरमें यही गीत गाया जाता है, यही बात मेरे मनमें है और मैं लज्जित हूँ कि मैं निर्लज्ज तुम्हारे पिताकी सेवा करता हूँ।" तब प्रिय मयनासुन्दरी कहतो है-“हे देव, ठीक है। मेरे मनमें भी निश्चय रूपसे यह बात थी।"
घत्ता-मनमें खिन्न श्रीपाल उससे पूछता है-"मैं विदेश जाता हूँ।" इसपर चन्द्रमुखी कहती है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।
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वह बोली-“यदि यह बात राजा सुन लेगा तो शंकित होकर क्रोधसे दोनोंको बन्दी बना लेगा।" इसपर कुमार कहता है कि मैं अवधि देकर जाऊँगा, मैं बारह वर्षके लिए जानेका इच्छुक हूँ। कुमारी कहती है-"मैं मोहका किस प्रकार निवारण करूँ ? तुम्हारे बिना मेरे लिए बारह दिनका भी सहारा नहीं है। हे प्रिय, तुम दूसरी बात मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूंगी।" ( यह सुनकर ) चम्पाधिप हँसकर बोला--"पत्नी (धन्या ) के साथ जानेमें सिद्धि नहीं होती।" स्त्रीव्रतमें आसक्त मयनासुन्दरी कहती है कि सीता रामके साथ क्यों गयी ? श्रीपाल बोला-"यह ठीक है। तुम ही सोचो कि उसका क्या परिणाम हुआ था ?" इस प्रकार सुन्दरी बालाको समझा
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