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चरित्र-चित्रण
'सिरिवाल चरिउ' एक मध्ययुगीन चरित्र काव्य है जिसका नायक और कथानक दोनों ही पौराणिक परम्परासे सम्बद्ध हैं, जहाँ कथा और उसके पात्र परम्परागत होते हैं तथा उनका चरित्र भी बहुत कुछ रूढ़ और परम्परागत होता है | अनुभूति-युगीन यथार्थको उसमें खोजना व्यर्थ है । अतः ऐसे काव्यों में चरित्रचित्रणका अर्थ यह देखना है कि उसमें कितनी नवीनता और परिस्थितिके अनुकूल कितना स्पन्दन हमें मिलता है । इस दृष्टि से, यद्यपि मैनासुन्दरीको प्रमुख चरित्र माना जाना चाहिए था, क्योंकि श्रीपाल पूर्वजन्ममें और इस जन्ममें जो कुछ है, उसके इस होने में मैनासुन्दरीका बहुत कुछ योगदान है । लेकिन मध्ययुगीन काव्यों में नायक अधिकतर पुरुष ही होता है, अतः श्रीपाल ही उसका नायक है ।
मैना सुन्दरी
मैनासुन्दरी उज्जैन के राजा प्रजापालकी छोटी कन्या । उसकी बड़ी बहन, सुरसुन्दरीका कोई चरित्र नहीं है । वह अपने मनपसन्द विवाह के बाद सन्तुष्ट है । मैनासुन्दरीकी समस्या यह है कि वह जैनधर्म में दीक्षित है, जैनमुनियोंसे उसने दीक्षा ग्रहण की है। सभी आगम विद्याओं और कलाओंमें वह निपुण है । गीत और नृत्य में भी उसकी असाधारण गति है । उसने जैनधर्म भी पूरा पढ़ा है । राजा उससे अपनी पसन्दका वर माँगने के लिए कहता है । लेकिन उसका कहना है कि विवाह एक सामाजिक बन्धन है, यह माँ-बापका का हैं कि वे विवाह करें, लेकिन उसके बाद लड़कीका भाग्य । पिता उसके भाग्यवादी दर्शनसे चिढ़ जाता है । और क्रोधमें आकर, कोढ़ी - श्रीपालसे उसका विवाह कर देता है । मैनासुन्दरी उसे सहर्ष स्वीकार कर लेती है । रनिवास और माँके करुण क्रन्दनके बावजूद, मैनासुन्दरी विवाह कर लेती हैं और उसे यह अच्छा नहीं लगता कि उसके पतिको कोई कोढ़ी कहे । वह उसे कामदेव के समान सुन्दर मानती है । कवि यह तो कहता है कि श्रीपालने 'सिद्धचक्र विधि' के प्रभावसे मैनासुन्दरी जैसी पत्नी पा ली, पर मैनासुन्दरीके लिए क्या कहा जाये ? वह इसे विधाताका अमिट लेख मानकर स्वीकार कर लेती है । यही उसका भाग्यवाद है । लेकिन अपने सारे भाग्यवादी दर्शनके बावजूद मैनासुन्दरीके मनमें यह पीड़ा अवश्य है कि वह एक साधारण पुरुषको ब्याह दी गयी, क्योंकि जब उसकी सास कुन्दप्रभा आती है और उससे मालूम होता है कि श्रीपाल राजपुत्र है, तब वह प्रसन्न हो उठती है और उसका सन्देह दूर हो जाता है । तब 'सिद्धचक्र विधि' से अपने प्रियकी कोढ़ दूर करनेका निश्चय करती है और वह इसमें सफल भी होती है । श्रीपाल घरजँवाई बनकर रहता है । उसे यह अच्छा नहीं लगता कि वह घरजवाई बनकर वहाँ रहे । इस बात से वह खिन्न रहता है । मैनासुन्दरी समझती है कि श्रीपाल किसी सुन्दरीपर आसक्त है । वह श्रीपालकी खुशीके लिए मनचाही स्त्रीको अपनानेकी स्वीकृति उसे दे देती है । मैनासुन्दरीको भी यह अच्छा नहीं लगता कि उसका पति घरजवाई बनकर रहे।
पत्नी सब कष्ट सहन कर सकती है, परन्तु पतिका विछोह उसके लिए असहनीय है । श्रीपाल बारह वर्ष के लिए प्रवासपर जाता है । मैनासुन्दरी भी उसके साथ जाना चाहती है । बहुत कहने-सुनने के बाद भी जब नहीं ले जाता तो वह कहती है- “ बारह वर्ष में यदि तुम नहीं आये तो मैं महान् तप करूँगी ।” पतिके बिना वह संन्यास ही लेगी, इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है । विदाईके समय वह श्रीपालको कुछ शिक्षाप्रद और अपने कर्तव्य सम्बन्धी बातोंका स्मरण दिलाती है जिससे उसे प्रवास में कठिनाइयोंका सामना न करना पड़े । वह श्रीपालको याद दिलाती है कि जिनभगवान्, माता कुन्दप्रभा, अंगरक्षकों, स्वाभिमान तथा कर्तव्योंको मत भूलना। पहले वह साथमें जानेके लिए श्रीपाल से अनुनय-विनय करती है परन्तु
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