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कथावस्तु
पहली सन्धि
सन्धिका प्रारम्भ मंगलाचरणसे किया गया है। मंगलाचरणके बाद विपुलाचलपर महावीरके समवसरणका उल्लेख आता है। राजा श्रेणिक परिवार सहित समवसरणमें जाकर पद-वन्दना करके 'सिद्धचक्र विधान'का फल पूछता है। उत्तरमें गौतम गणधर कहते हैं
अत्यन्त प्रसिद्ध और सुन्दर नगरी उज्जैनीमें पयपाल ( प्रजापाल ) नामका राजा रहता है । उसकी दो कन्याएँ हैं-बड़ी सुरसुन्दरी और छोटी मैनासुन्दरी । बड़ी कन्या ब्राह्मण गुरुसे और छोटी जैन मुनिसे पढ़ती है। सुरसुन्दरीका विवाह उसकी इच्छानुसार कौशाम्बी पुरके राजा सिंगारसिंहसे कर दिया जाता है।
मैनासुन्दरी अनेक विद्याओं और कलाओमें दक्षता प्राप्त कर लेती है तथा अनेक भाषाएँ भी सीख लेती है । जब वह सयानी होती है तब उससे भी पयपाल अपनी इच्छानुसार वर चुननेके लिए कहता है । परन्तु मैनासुन्दरी कहती है--"कुलीन कन्याका वर तो उसके मां-बाप निश्चित करते हैं। माथेपर लिखे कर्मको कोई मेट नहीं सकता।" यह उत्तर सुनकर राजा क्रोधित हो जाता है। वह मैनासुन्दरीका विवाह एक कोढ़ीसे कर देता है । कोढ़ीसे मैनासुन्दरीका विवाह होनेसे सभी अप्रसन्न हैं। उसको देखकर सारा कुटुम्ब और नगर दुःखी होता है, परन्तु मैनासून्दीको सन्तोष है। वह उसे कामदेवसे भी अधिक सुन्दर समझती है। रोती हुई माँ और बहनको समझाती है--"विधाताका लिखा कौन टाल सकता है ?" कोढ़ी अंगदेशका राजा श्रीपाल है, जो पूर्वजन्मकी मुनिनिन्दाके फलस्वरूप कोढ़ी है और आत्मनिर्वासनका जीवन व्यतीत कर रहा है। उसके साथ सात सौ सामन्त भी कोढ़की यातना सह रहे हैं। उन सबको उज्जैन नगरीके बाहर स्थान दिया जाता है। कुछ दिन पश्चात् श्रीपालकी माँ कुन्दप्रभा आती है। उससे मैनासुन्दरीको मालूम होता है कि श्रीपाल राजा है और कोटिभट वीर है। मैनासुन्दरी जिनशासनके प्रमुख मुनिसे 'सिद्धचक्र विधि' पूरी करती है। 'सिद्धचक्र विधि' से राजा और उसके साथियोंका कोढ़ दूर हो जाता है। राजा पयपालको यह जानकर खुशी होती है। वह श्रीपालको अपने यहाँ घरजवाई बनाकर रख लेता है। परन्तु श्रीपालको इस प्रकार रहना पसन्द नहीं है। जगहँसाईके कारण श्रीपाल बारह वर्ष के लिए विदेश चला जाता है। मैनासुन्दरी जाते समय कहती है-“यदि तुम बारह वर्षमें नहीं आये तो मैं महान् तप करूँगी।" मैनासुन्दरी और श्रीपालको माँ-कुन्दप्रभा उसे अनेक उपदेशात्मक बातें कहती हैं और विदा देती हैं।
अनेक योद्धाओंको साथ लेकर श्रीपाल देश-देशान्तरकी सैर करता हुआ वत्सनगरमें आता है जहाँ अवगुणोंका घर धवलसेठ रहता है। धवलसेठके पाँच सौ जहाज समुद्रमें रुक जाते हैं। लोग कहने लगे कि बत्तीस लक्षणोंवाला मनुष्य जब इसे चलायेगा तब ये चलेंगे। वणिक-समूह श्रीपालको पकड़कर ले आता है। श्रीपाल उन पाँच सौ जहाजोंको पैरसे चला देता है। धवलसेठ श्रीपालको अपना पुत्र मान लेता है। वह श्रीपालको अपनी आयका दसवाँ हिस्सा देनेका वचन भी देता है।
पाँच सौ जहाज समुद्रमें चलने लगते हैं। रास्तेमें जलदस्यु ( लाखचोर ) आक्रमण करते हैं और धवलसेठको बन्दी बना लेते हैं । श्रीपाल धवलसेठको छुड़ा लेता है । सभी दस्यु श्रीपालको अपना स्वामी मान लेते हैं। जहाज हंसद्वीपमें जा लगते हैं । हंसद्वीपके राजा विद्याधर कनककेतुकी एक कन्या और दो पुत्र हैं । एक दिन राजा गुरु महाराजसे पूछता है--"मेरी कन्या रत्नमंजूषा किसे दी जाये ?" गुरु महाराजने कहा"सहस्रकूट जिनमन्दिरके वज्रके समान किवाड़ोंको जो खोल देगा, उसीके साथ कन्याका विवाह कर देना।" श्रीपाल जिनमन्दिरके किवाडोंको खोल देता है और रत्नमंजषाका विवाह श्रीपालसे हो जाता है ।
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