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________________ सिरिवालचरिउ प्रकार प्राकृत पैंगलम्का 'घत्ता' वस्तुतः आचार्य हेमचन्द्रका छड्डुणिआ है । परिभाषा वही १०-८, १३ अन्तिम दो लघु । आचार्य हेमचन्द्रने 'छड्डणिआ' को दुवईका एक भेद माना है। उनका कहना है कि दुवईकी तरह षट्पदी और चतुष्पदीका भी प्रयोग होता है। अतः वे भी 'घत्ता' कहला सकते हैं। इस प्रकार 'छड्डणिआ' दुवईकी एक जाति है, जो कड़वकके अन्तमें आनेपर 'घत्ता' कहलाती है। स्वयम्भूने एक जगह कहा है कि चतुर्मुखने छर्दनिका, द्विपदी और ध्रुवकोंसे जड़ित पद्धड़िया दी । यहाँ छर्दनिकाका ही छडुणिआ है, जो कड़वकके अन्तमें प्रयुक्त होनेपर घत्ता कहलायी। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीने 'घत्ता' को ही एक स्वतन्त्र छन्द मान लिया है, जो कि गलत है। प्राकृत पैगल १९०२ की भूमिकामें टीकाकार लिखता है-'अथ द्विपदी घत्ता छन्द' प्रारम्भ होता हैं। इस प्रकार 'घत्ता' छन्दका प्रयोग विशेष है, न कि छन्द । 'सिरिवालचरिउ' में प्रयुक्त 'घत्ता' दुवई जातिका ही है, उसमें छड्डणिआका घत्ताके रूपमें प्रयोग सम्भवतः सबसे अधिक है। जैसे १० - ८; + १३ = ३१ १२ -८;+ १२ = ३२ १० -५;+१२ = २७ इत्यादि । दो-एक अपवादोंको छोड़कर 'कड़वक' की रचना चौपाईसे हुई है। पूरे काव्यमें चार जगह वस्तुबन्ध छन्द आया है। इस प्रकार छन्दके विचारसे आलोच्य कृति सरल है, उसमें छन्द-बहुलता या उनका जटिल प्रयोग नहीं है । १. अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य, पृ. २४२, २४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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