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१. ४३.८]
हिन्दी अनुवाद एक भी ग्रह पीड़ित नहीं करता। दुर्मति पिशाच भी हट जाता है। 'जिन'के नामसे पाप नष्ट हो जाते हैं और समस्त मनोरथ परिपूर्ण हो जाते हैं। 'जिन'के नामसे मोहजाल क्षीण हो जाता है और आदमी देवताओंका स्वामीश्रेष्ठ होता है। 'जिन'के नामसे समस्त व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। उसे घूमड़ ( फोड़ा), गंडव और कोढ़ नहीं होता। 'जिन'के नामसे कोई छल-माया नहीं होती। डायनी, सायनी और जोगिनी नहीं होती। 'जिन'के नामसे भयंकर ( रोर ) नरक नष्ट हो जाता है। चोर घर और शास्त्र और पन्थको चोर नहीं सकता। 'जिन'के नामसे ठक ठाकुर दुष्ट नहीं हो पाते । स्थावर-जंगम और कालका कष्ट नहीं होता। 'जिन'के नाम फूड़िया एक क्षणमें बिला जाती है। इकतरा ताप और तिजारी चली जाती है। जिनके नामसे कोई उच्चाटन नहीं कर सकता। स्तम्भन, मोहन और वशीकरण भी नहीं होते। 'जिन' के नाम से दिन-प्रतिदिन लाभ होता है और सुखसे सोते हुए दिन-रात बीत जाते हैं। 'जिन'के नामसे सज्जन अपनी लीक दे देता है और सर्पमुख दुर्जन अपनी जिह्वा छिपा लेता है।
पत्ता-'जिन'के गुण, चरित्र और दृढ़ सम्यक्त्वसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । मनमें जोजो इच्छा होती है, वह सुख पाता है । वह किसीसे भी दीन नहीं बोलता ॥४१॥
इधर शीघ्र ही 'हा-हा' की ध्वनि गूंज उठी । धवलसेठ भी तुरन्त कपटपूर्ण दौड़ा। दुबलीपतली देहवाली वह लम्बी साँसें छोड़ रही थी। हे स्वामी, तुम कहाँ गये, तुम कहाँ गये ? हे चम्पानरेशके पुत्र श्रीपाल, हे कनककेतु, हे कनकमाला, हे भाई चित्र और विचित्र वीर ! मैं यहाँ हूँ और समुद्रके किनारे मर रही हूँ। धवलसेठने कहा- "चलो अच्छा हुआ।" सबने कहा कि श्रीपाल मर गया। उस पापीका हृदय बधाइयोंसे भर गया, जबकि रत्नमंजूषा खूब रो रही थी। सभी वणिकपुत्र रो पड़े । ( यह कहते हुए ) कि रत्नमंजूषाके पतिने चोरोंसे बचाया। श्रीपाल यवनोंके पीछे लगा, नहीं तो लाखचोर जहाज छीन लेते। परन्तु श्रीपाल उसके पीछे-पीछे दौड़ा। धवलसेठको बन्धनसे किसने छुड़ाया ?
पत्ता-हे नाथ ! हे नाथ !!'' यह कहती हुई, करुणापूर्वक रोती हुई रत्नमंजूषा विलाप कर उठी । "धरतीके स्वामी, हे श्रीपाल, तुम्हारे बिना जीते हुए भी मैं मरी हुई हूँ" ॥४२।।।
इस प्रकार करुण विलाप करती हुई वह उठी और बोली-“हे स्वामी, वह दृष्टि छोड़कर तुम कहाँ चले गये ? चोर-समूहका नाश करनेवाले तुम कहाँ चले गये ? अपने पाँवसे जहाज चलानेवाले तुम कहाँ गये? हे लोगोंके और विश्वके प्रिय, तुम कहां चले गये ? सहस्रकूट मन्दिरका उद्घाटन करनेवाले तुम कहाँ चले गये ? जो कुछ मैं ने बोया है, खिन्न मैं उसे सहूँगी। लेकिन पिताने परदेशीसे मेरा विवाह क्यों किया?" उन्होंने कहा था, "किसी नैमित्तिकने बताया था उसीके अनुसार मैंने तुम्हारा विवाह किया था। हे पुत्री, सबका कर्मसे विवाह बलवान होता है।" मुनिवरका कहा कभी असत्य नहीं हो सकता। फिर रत्नमंजूषाने कहा कि मदनासुन्दरीका क्या होगा ? जो राजा प्रजापालकी बेटी है और गुणोंसे परिपूर्ण है, जिसे उसके प्रियने बारह बरस
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