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________________ १० ५ १० ३४ सिरिवालचरिउ २. जग झंपर णिम्मल चित्त णामेण चित्तु बीउ विचित्तु तीजी रयणमँजूस धी हग्गल रूवग्गल सुतार एक्कहि दिणि णिउ लइ फुल्ल जाइ पुच्छिउ परमेसरु एह धुवा मुणि उत्तर जिणहरु सहसकूड लहि पवि-किवाड फेडइ जु कोइ मोतिउ कपासु णं साइचित्त । साहस होण छंडइ जाहँ चित्तु । सीलाहर जो गंभीर धीय । लोण उ गुरु-सुक्क-तार | गुरु-पय पुज्जिय जिण-भवणु जाइ । कहो " दिज्जइ सो पहु कहहु धुवा । जो फेडइ सहसा पाव- कूडु | सो परिणइ वि अण्णु जिण होइ । धत्ता-ता णरवइ जाणिवि मणि परियाणिवि वारवाल वइसारिय | after जो आवइ ए विहडावइ सो महु कहहु पुकारिय ||३२|| ३३ एम भणेविष्णु गउ घरि णरवइ एत्तहिं वणि गच्छहिँ पुरि भीतर उवहि-तरंग-भंग बेला उलु जहिं जइणी सोहहिं वेसाइँ जहिं मुणिग्गइ थणवट्टइ जहिँ दंड परदारा- पेक्खण जहिं बोलिज्जइ खज्जइ महुरउ जहिं असंख-सीमा- हालाहल कूव जहिं पुर करुण कूव - बहु वाटी "जहि णिव्भय वण कीलहि सावय मय-भुल्ला गय अलि महुमास हूँ वहार णिवसहि सिरिवालह दि तेहिं जिणहरु हु- लग्गउ 'अंड - दंडइक सोवण्ण- घडियउ सुद्ध-फलिह-विम-आवद्ध सूर-कंति-ससि - कँतिहिं सोहिउ गरुडायार-वद्ध सवणासह आवलसारु जडिउ गोमेयहिं चित्तु खपावेण रमई' | मणिरण हूँ जहिं आवणि भीतर । पिक्खहि विउ लच्छि वेला उलु । रुण कोइ गच्छइ वेसाड हूँ । 'परमेसरी वद्ध-ण- वट्टई | रण सहहिं परदारापेक्खण | विदिजइणवि छुइयइ महुरउ । रिद्धि तहिँ वि हालाहल | कई हु वाटी । देव-सत्थ- गुरु-भत्ता सावय । जणु विरतु निम्म महु-मासहँ । किं बहु व सिखमि सिरिवाल हूँ । घत्ता- - तहिँ अस्थि णेमु सिरिवालहँ अइ-सुकुमालहँ जहिं णयरहो चेयालउ | से विणु परसेवइँ भोयणु करइ बालउ ||३३|| Tea ३४ दंसण पाव-पडलु जसु भग्गउ । पोमराय - मरगय-मणि जडियउ । रावट्टे भीसम-मणिहिं णिवद्धउ | कडियल-गय-मुत्ताहलु खोहिउ । इंदणीलमणि पुणु उपासहँ । पुक्खर गवय- गवक्ख - अणेयहिं । [ १.३२.५ Jain Education International २. ग सीलाहारि । ३. ग लोयणरुह् गुरु णं सुक्कतार । ४. ग एक्कहिं । ५. ग कहि दिज्जइ सो पहु कहहि धूव । ४. क कइ । ३३. १. ग रमइ । २. ग परमेसरु व घण घण वट्टइ । ३ ग णासिज्जइ महुरउ । ५. क जेहि णिग्गसवाण कीलहि सावय । ६. ग कवमि । ७. ग देवखेवइ । ३४. १. ग अंड दंड इक सो वण्ण घडियउ । २. क रावट्टे भीसण मणिहि वद्धउ । ३. ग सुवणासहि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001843
Book TitleSiriwal Chariu
Original Sutra AuthorNarsendev
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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