Book Title: Krushna Gita
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNIVERSAL LIBRARY LIBRARY UNIVERSAL Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANIA UNIVERSITY LIBRARY 891 42 | Accession No 15 S 25K 24 27 difti lizalia kerblind का . s book should be returned on or before the date ked below Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.SE --- -- कृष्ण-गीता ...-:-500.-., लेखक---- दरबारीलाल सत्यभक्त संस्थापक-सत्यसमाज प्रकाशक---- मत्याश्रम वर्धा ( सी.पी) --00-00-0--- मार्च १९३९ ई. फाल्गुण १९९५ ई. मूल्य बारह आणे Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकसूरजचन्द सत्यप्रेमी मत्याश्रम वर्धा (सी. पी.] मुद्रक--- मैनजरसत्येश्वर प्रिंटिंग प्रेस वर्धा ( सी. पी.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-सूची पृ. ८ प्रस्तावना [ पृष्ठ १०] पहला अध्याय- (अजेन-मोह) मङ्गलगान, श्रीकृष्ण का दूतत्व, युद्धनिश्चय, अर्जुन का मोह, युद्ध बन्द करने की प्रार्थना । दूसरा अध्याय ---- (निर्मोह) श्रीकृष्ण का वक्तव्य--नातेदारी की व्यर्थता [गीत २] अन्याय का स्मरण | गीत ३] निर्मोह बनकर कर्म करने की प्रेरणा, अन्याय का प्रतिकार [गीत ४] स्वार्थी और अन्यायी की नातेदारी व्यर्थ [गीत ५] स्वार्थ के लिये नहीं किन्तु न्यायरक्षण के लिये ममभावी बनकर कर्म करने की प्रेरणा । तीसरा अध्याय .. [अनासक्ति ] पृ. १४ अर्जुन---युद्ध और समभाव एक साथ कैसे रहें ? श्रीकृष्ण-- सारा संसार विरोधों का समन्वय हे [गीत ६], समन्वय के दृष्टान्त [गीत ७], अर्जुन-निरर्थक युद्ध क्यों करूं ? [ गीत ८) श्रीकृष्णसंसार नाटक शाला हे नाटक के पात्र की तरह काम कर गीत ९], सच्चा खिलाड़ी बन (गीत १०), खिलाड़ी बालकों से योग सीख (गीत ११) । अर्जुन-एक मनको विभक्त कैमे करूं ! Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.. श्रीकृष्ण-पनिहारी की तरह मनको विभक्त कर (गीत १३) स्थितिप्रज्ञ बन और कर्मकर। चौथा अध्याय -- (स्थिति-प्रज्ञ) पृ. २० स्थितिप्रज्ञ का स्वरूप-सत्य अहिंसा पुत्र, धर्म-जातिवर्ण लिंग-कुल-समभावी, निःपक्ष, विचारक, इन्द्रियवशी, मनोजयी, अहिंसक और न्यायरक्षक, शीलवान्, अपरिग्रही, मदहीन, नीतिमान्, निःकषाय, पुरुषार्थी, कलाप्रेमी, कर्मठ, निर्द्वन्द, या अयश का जयी, सेवाके पारितोषक से लापर्वाह, उत्साही सन्चा साधु जो हो वही स्थितिप्रज्ञ है ऐसा स्थितिप्रज्ञ बनकर कर्मकर । पाँचवाँ अध्याय--(सर्व-जाति-समभाव ) पृष्ठ २७ अर्जुन के द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति और शंका-जाति-समभाव क्यों ? क्या विषमता आवश्यक नहीं है । श्रीकृष्ण का उत्तरविषमता आवश्यक है पर समताहीन नहीं (गीत १४) मनुष्य जाति एक है उसमें जाति भेद न बना (गीत १५) जातियाँ कर्म-प्रधान हैं (गीत १६) जाति-भेद बाजार की चीज है, देशकाल देखकर सुविधानुसार रखना चाहिये, मद न करना चाहिये [गीत १७] । अर्जुन-जातिभेद प्राकृत न हो पर निःसार क्यों ? वह कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल क्यों ? श्रीकृष्ण---जातिभेद जब बेकारी दूर करता था और वैवाहिक आदि स्वतंत्रता में बाधक न था तब अच्छा था अब वह विकृत है। भेद रहे पर जाति-भेद बनकर नहीं, जाति-मोह की बुराइयाँ, तू जाति-कुल कुटुम्ब आदि का मोह छोड और कर्म कर। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) छट्ठा अध्याय ( नर-नारी - समभाव ) पृ. ३७ अर्जुन -- नर नारी में वैषम्य है फिर सर्व-जाति-समभाव कैसे ? श्रीकृष्ण — दोनों में गुण दोष हैं वैषम्य परिस्थिति-जन्य है, पत्नी शब्द का अर्थ, शारीरिक विषमता पूरक है, दोनों के सम्मिलन मे पूर्णता है, घर और बाहर के भेद ने विषमता बनाई, नर नारी समभाव होता तो द्रौपदी का अपमान न होता उस समभाव के लिये कर्म कर । ( अहिंसा ) सातवाँ अध्याय पृष्ठ ४५ अर्जुन --में सब जगह समभाव रखने को तैयार हूं पर पुण्य पाप समभाव कैसे रक्वं ? तुम अहिंसा और हिंसा में समभाव रखने को क्यों कहते हो ? श्रीकृष्ण बाहिरी हिंसा को ही हिसा न समझ, कभी हिंसा अहिंसा हो जाती है कभी अहिंसा हिंसा | हिंसा के पांचभेद - स्वाभाविकी, आत्मरक्षिणी, पररक्षिणी, आरम्भजा, संकल्पजा, 'इन में पांचवां भेद त्याज्य है । अहिंसा के छः भेद-बंधुजा, अशक्तिका, निरपेक्षिणी, कापटिकी, स्वार्थजा, मोहजा । इनमें से बंधुत्वा अहिंसा ही वास्तविक अहिंसा है । तेरी अहिंसा मोहजा है उसका धर्म से सम्बन्ध नहीं और तेरी हिंसा आत्मरक्षिणी है । हिंसा अहिंसा निरपेक्ष नहीं सापेक्ष हैं | तू हिंसा अहिमा का निर्णय विश्व कल्याण की दृष्टि से करके कर्तव्य कर । -- आठवाँ अध्याय- [ सत्य ] पृष्ठ ५४ अर्जुन -- यदि हिंसा अहिंसा सापेक्ष है तो कुछ भी निश्चय नहीं हो सकता । सत्य तो निश्चित और एकसा होता है । सत्य के अभाव मे धर्म नहीं रह सकता | श्रीकृष्ण तु तथ्य और सत्य का भेद -- Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) समझ (गीत १८) सत्य कल्याण की अपेक्षा रखता है । तथ्य भी सत्य असत्य होता है अतथ्य भी सत्य असत्य होता है । तथ्य के चार भेद-विश्वास-वर्धक, शोधक, पापोत्तेजक, निंदक । अतथ्य के छः भेद-वंचक, निंदक, पुण्योत्तेजक, स्वरक्षक, पररक्षक, विनोदी । जहां न्यायरक्षण है वहां सत्य है जहां सत्य है वहां अहिंसा है इन्हें समझ और कर्तव्य मार्ग में आगे बढ़ । नवमाँ अध्याय--- ( यमत्रिक) पृष्ठ ६२ अर्जुन-सारा जगत चंचल है (गीत १९) पर अगर सत्य अहिंसा रूप धर्म-चंचल हों तो अपरिग्रह शील आदि सब चंचल होजायगे । जगत मे पाप की गर्जना होगी इसलिये पुण्य पाप के निश्रित भेद बताओ। श्रीकृष्ण का वक्तव्य-सत्य और अहिंसा मूल में अचंचल है, उनके विविध रूप चंचल हैं । ब्रह्म माया का दृष्टांत [गीत नं. २०] सत्य अहिंसा अचंचल है इसीलिये सभी अचंचल हैं, अचार्य शील और अपरिग्रह का निश्चित और सापेक्ष रूप । इसके लिये अंतर्दृष्टि की प्रेरणा । उससे कर्तव्य-निर्णय कर और आगे बढ़ । दसवाँ अध्याय (कर्तव्य-निकष ) ___ अर्जुन के द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति [ गीत २१ ] कर्तव्य-निर्णय की कसौटी का प्रश्न। श्रीकृष्ण-जगत सुख चाहता है, वही कसौटी है । अर्जुन--यदि सुख-वर्धन कसौटी है तो सुख के लिये किये जानेवाले सब पाप धर्म होजायेंगे । श्रीकृष्ण--पाप से अणु भर सुख मिलता है और दुःख पर्वत के समान । सुखवर्द्धन में अपना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) ही नहीं सब का विचार कर । अर्जुन-जब सुख ध्येय है तो पर की चिन्ता क्यों ? श्रीकृष्ण--जगत के कल्याण में ही व्यक्ति का कल्याण है [गीत २२] जितना ले उसस अधिक देने का प्रयत्न हो । अर्जुन-लेने देने के झगड़े में क्यों पडूं ? श्रीकृष्ण-हर एक व्यक्ति समाज का ऋणी है वह ऋण चुकाना ही चाहिये । अर्जुनजिससे लें उसी को दें सब को क्यों ? श्रीकृष्ण-सभी ऐसा सोचलें तो तुझे पहले कौन देगा ? व्यक्ति की चिन्ता न कर, समाज पर नज़र रख । सब से ले, सब को दे, इस प्रकार सुरखी बन । अर्जुनएक को सुखी करने से दूसरे को दुःख होता है क्या किया जाय ? श्रीकृष्ण-जिससे विश्व अधिक सुखी हो वहीं कर्तव्य समझ और आत्मौपम्य विचार से कर्तव्य का निर्णय कर । हर तरह बहुजन को सुखी बनाने की कोशिश कर । अर्जुन-बहुजन तो पापी हैं, रावण और दुर्योधन का ही दल बहुत है । क्या पाप की जय होने दूं ? श्रीकृष्ण-वर्तमान ही मत देख, सार्वकालिक और सार्वदशिक दृष्टि से विचार कर, उसमें बहुजन न्याय के ही पक्ष में है । इस तरह अपना कर्तव्य निर्णय कर, संमोह छोड़, नपुंसक न बन और कर्तव्य कर। ग्यारहवाँ अध्याय पुरुषार्थ] पृ. ८० अर्जुन--सुख की परिभाषा बताओ । सुख भीतर की वस्तु है या बाहर की ? क्या यही पुरुषार्थ है ? अथवा पुरुषार्थ क्या है ? श्रीकृष्ण-सुख दुःख के लक्षण | काम और मोक्ष दो मूल पुरुषार्थ । अर्थ और धर्म उनके साधन | काम और मोक्ष का स्वरूप । दोनों की आवश्यकता । अर्जुन-मोक्ष का यहाँ क्या उपयोग ? वह तो मरने के बाद की चीज़ है । श्रीकृष्ण-मोक्ष यहीं है | गीत २३] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) तू चारों पुरुषार्थ प्राप्त कर । अर्जुन-एक ही ता दुर्लभ है चार चार की क्या बात ? श्रीकृष्ण-चारों तेरे हाथ में है (गीत २४) अर्जुन-जब मोक्ष यहीं है तो और पुरुषार्थों का क्या उपयोग ? श्रीकृष्ण तीनों के बिना मोक्ष नहीं रह सकता। चारों का अलग २ वर्णन । काम के सात्विक, राजस तामस आदि भेद । काम और मोक्ष दोनों का समन्वय । यहां चारों पुरुषार्थ संकटापन्न हैं इसलिये उठ । अधर्म की माया को दूर कर । यही सब धर्मो का मर्म है । बारहवाँ अध्याय सर्व-धर्म-समभाव] पृ. ९१ अर्जन-सत्र धर्मों का अगर एक ही सार है तो उनमें अहिंसा हिंमा, प्रवृत्ति निवृत्ति, मूर्ति अमूर्ति, वर्ण अवर्ण, त्याग, भक्ति आदि का भेद क्यों ? श्रीकृष्ण-मूल मे सब एक है [गीत २५] हिंसा अहिंसा समन्वय, पशु यज्ञ, इन्द्रिय यज्ञ, कर्मयज्ञ, धनयज्ञ, श्रमयज्ञ, मानयज्ञ, तृष्णायज्ञ, क्रोधयज्ञ, विद्यायज्ञ, औपधयज्ञ, प्राणयज्ञ, कीर्तियज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, आदि सात्विकयज्ञ, राजसयज्ञ, तामसयज्ञ । प्रवृत्ति निवृत्ति समन्वय, मूर्ति अमूर्ति समन्वय, वर्ण-व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भक्ति, त्याग, सब धर्म निर्विरोध हैं और वे कर्मयोग का मंदेश देते हैं इसलिये तू न्याय रक्षण के लिये कर्म कर । तेरहवाँ अध्याय [धर्म शास्त्र] पृ. १०४ अर्जुन-के द्वारा कृष्ण-स्तुति गीत नं. २६] उसका प्रश्न-धर्म जब एक है तो उनक दर्शन भिन्न क्यों ? श्रीकृष्ण का वक्तव्य-धर्म शास्त्र का स्थान [गीत नं. २७ ] दर्शनादि शास्त्रों की जुदाई । अर्जुन-मुक्ति, ईश्वर, परलोक आदि धर्म में न रहें तो धर्म क्या रहे ? श्रीकृष्णविश्वहित ही धर्म है । मुक्ति की मान्यता पर विचार । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) ईश्वर मान्यता पर विचार । निरीश्वरवादी जगत् [गीत २८] अकर्मवादी जगत् [गीत २९] वास्तविक ईश्वरवाद और कर्मवाद । परलोकविचार । द्वैताद्वैताविचार । वास्तविक द्वैताद्वैत । किसी भी दर्शन में धर्म के प्राण डालकर विश्व-हित के लिये कर्तव्य कर । न्याय को विजयी बना, अन्याय को पराजित कर । चौदहवाँ अध्याय (विराट् दर्शन) पृ. ११९ ___ अर्जुन--विविध धर्म-ग्रन्थों का निर्णय कैसे करें ? श्रद्धा और तर्क की असफलता । श्रीकृष्ण-श्रद्धा और तर्क दोनों का मेल कर । श्रद्धा के सत्व रजस् तम भेद । तर्क का उपयोग । अर्जुन-तर्क कल्पना रूप है, उसका विचार व्यर्थ है । श्रीकृष्ण-तर्क अनुभवों का निचोड़ है, उसमें कल्पना का मिश्रण न कर । देव, शास्त्र, गुरु सब की परीक्षा कर । अर्जुन-देव, शास्त्र, गुरु बहुत हैं, मैं कैसे पहचान ? श्रीकृष्ण-देव वर्णन, गुणदेव, व्यक्तिदेव (गीत ३०) शास्त्र, विधिशास्त्र, दृष्टांत शास्त्र । गुरु, गुरु की असाम्प्रदायिकता, गुरु-कुगुरु का अंतर । तू विचारक बन और दुनिया को पढ़, (गीत ३१) तुझे भगवान सत्य का विराट्र दर्शन होगा । अर्जुन का विराट दर्शन, सत्येश्वर का विराट रूप, अर्जुन की निर्मोहता और कर्तव्य तत्परता । [ समाप्त) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) AMMMMMMMMM. WWW RRRRRR R RTERS . ... हजारों वर्ष बीत गये किन्तु योगेश्वर श्री कृष्ण का मन्देश जो महाभारत में गीता के नाम से विख्यात है वह आज भी मानवसमाज के लिये पथ-प्रदर्शक है । कृष्णार्जुन- संवादरूप वह संदेश घर घर में काफी आदर पूर्वक पढ़ा जाता है क्योंकि उसमें धर्म की व्यापकता है, वैदिक धर्म की संकुचितता गीता में नहीं दिग्वाई देती । उसमें तो हिन्दू-धर्म की उदारता है । वैदिक--धर्म में निरर्थक क्रिया-कांड हैं, वर्ण की कट्टरता है, वह एक संकुचित सम्प्रदाय है पर वेद नाम का आधार रहने पर भी हिन्दू-धर्म के नाम से जो चीज़ तैयार हुई उममें अमाधारण विशालता है। उसमें नाना देव, नाना रीति रिवाज, नाना विचार आदि का अद्भुत समन्वय हुआ है और उसका बीज हमें श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है । हिन्दू-धर्म को जो उदार रूप प्राप्त हुआ है उसमें गीता का ही सब से बड़ा हाथ है । निःसन्देह हिन्दू नाम पीछे का है पर चीज Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) पहिले की है । वैदिक-धर्म में जो विचारपूर्ण क्रान्ति शताब्दिया तक होती रही उसी का स्थिररूप हिन्दू-धर्म है । हिन्दू-धर्म ने श्रमण और ब्राह्मण, आय और अनार्य संस्कृतियों का मिश्रण करक धर्म का और समाज का एक सुन्दर रूप जगत के सामने रक्ग्वा था। गीता में उसी का बीज है । 'वंद वादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः " कह कर वैदिक-धर्म की संकुचितता का दृसंर अध्याय मे जोरदार विरोध किया गया है। ___ गीता की लोकप्रियता देख कर हरएक सम्प्रदाय के आचार्य ने इस महान ग्रंथ का मन-सम्मत अर्थ निकाला है किन्तु यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि गीता-ज्ञान का ध्यय कर्मयोग का प्रतिपादन ही है, अगर श्री कृष्ण का कोई अन्य योग्य इष्ट था तो युद्ध से विरक्त मोह--युक्त अर्जन उम मुन कर घोर संग्राम के लिये तय्यार न हो जाता "क्षुद्र हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप' के उत्तर में करिष्ये वचनं तव ' की प्रतिज्ञा कर्मयोग के सिवाय और क्या हो सकती है ! श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण ऐतिहासिक हों या न हो परन्तु भारतीय साहित्य में, धर्म में और समाज मे वे इस तरह बम गये है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। संस्थापक सत्य-समाज ने उन्हें ऐतिहासिक महात्मा माना है । उनका जीवन ऐसा सर्वांग पूर्ण था कि विद्वानों ने 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयं' कहकर उन्हें भगवान का पूर्णावतार कहा है । वे ऐसे परमयोगी, बीर, सदाचारी, जनसेवक, सुधारक विचारक, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) कलाप्रेमी, विनयी, त्यागी, चतुर और समय- दृष्टा थे कि उनको पूर्णावतार कहने में कुछ भी अनौचित्य नहीं है। हिन्दू-धर्म के संस्थापक रूप में अगर श्रीकृष्ण को माना जाय तो भी कोई अत्युक्ति न होगी । निःसन्देह वे इतने पुराने हैं कि उनके उपदेशों का विशेषरूप पाना कठिन है पर कुछ सामान्य बातें अवश्य मिल सकती हैं, जैसे कर्मयोग, दर्शन और धर्मो का समन्वय, सुधारकता आदि । इन्हीं सामान्य बातों के आधार पर उनके नाना विशेषरूप चित्रित किये जा सकते हैं । गीता का नूतन रूप इस जगह यह सब लिखने का प्रयोजन यह है कि सत्यसमाज के संस्थापक ने प्रस्तुत पुस्तक में उस कर्म-योग-संदेश को ऐसे नूतन रूप में प्रतिपादित किया है कि जो उस समय के लिये पूर्ण संगत होने के साथ साथ वर्तमान सामाजिक, धार्मिक और नैतिक समस्याओं के लिये भी सुन्दर हल बन गया है । पाँचवें अध्यायमें जाति-मोहका विरोध करतेहुये कहते हैं: "जब था जाति-भेद जीवन में समता देने वाला। बेकारी की जटिल समस्याएं हर लेने वाला ॥ जब इसके द्वारा धंधे की चिन्ता उड़ जाती थी । तभी श्रुति स्मृति जाति-भेद को हितकर बतलाती थी। इससे अच्छी तरह अर्थ का होता था बटवारा । देता था संतोष सभी को बनकर शांति--सहारा ॥ सुविधा की थी बात वर्ण का था न मनुज अभिमानी। विप्र शूद्र सब एक घाट पीते थे मिल कर पानी ॥ जातियां हमने बनाई कर्म करने के लिये । हैं नहीं ये दूसरों का मान हरने के लिये ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ईश की कृतियां नहीं ये प्रकृति की रचना नहीं । कल्पना बाजार की है पेट भरने के लिये ॥ जिस तरह सुविधा हमें हां, उस तरह रचना करें । जाति जीने के लिये है, है न मरने के लिये ॥ वित्रता की है जरूरत शद्रता की भी यहां । प्रेम से जग में मिलेंगे हम विचरने के लिये ॥ विप्रता का मद नहीं हो शूद्रता का दन्य भी। ही परस्पर प्रेम यह संसार तरने के लिये ॥ + + + भेद रहे वैषम्य रहे वह, जो सहयोग बढ़ाये । पर यह मानव-जाति न चिथड़े चिथड़े होने पाय ।। ठीक इसी प्रकार समन्वय के कुटार से साम्प्रदायिक माह पर आघात करते हुये बारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं : अर्जुन, सब की एक कहानी । पंथ जुदा है घाट जुद है, पर है सब में पानी ॥ अर्जुन सब की एक कहानी । जब तक मर्म न समझा तब तक होती खाचातानी । पर्दा हटा, हटा सब विभ्रम दुर हुई नादानी ॥ वर्ण-अवर्ण अहिंसा-हिंसा मूर्ति न मानी मानी । क्या प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति क्या है मब धर्म निशानी ।। यह विरोध कल्पना शब्द की होती है मनमानी । लड़ते और झगड़त मरख करें समन्वय सानी ॥ अर्जुन सब की एक कहानी ॥ श्रीमद्भगवद्गीता के "द्रव्य यज्ञास्तपो यज्ञा योग यज्ञा स्तथापरे, स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः " [४-२८ की तरह प्रस्तुत गीता के बारहवें अध्याय में विविध यज्ञों का वर्णन करते हुए अंत में कहा गया है:-- Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) 'जगहित रूपी ब्रह्म में किया व्यक्ति-हित लीन । यज्ञ-शिरोमणि है यही ब्रह्म-यज्ञ स्वाधीन ॥ आत्मवाद अनात्मवाद, प्रवृत्ति, निवृत्ति, मूर्ति, अमृति, द्वैत, अद्वैत आदि वादों का धार्मिक समन्वय करते हुए एक स्थान पर ईश्वर-अनीश्वर वाद का भी सुन्दर समन्वय किया गया है । कोई ईश्वर मानते, कोई माने कर्म । फल पर यदि विश्वास हो तो दोनों ही धर्म ।। पापों से बचकर न रहेंगे । ईश्वर ईश्वर सदा कहेंगे। लड़ लड़ कर सब कष्ट सहेंगे । ईश्वर-भक्ति न जान इसे तू है कोरा अभिमान ॥ जगत तो भूला है भगवान । ग्यारहवें अध्याय में पुरुषार्थो का मौलिक विवेचन करते हुए 'इहै। जिसः सर्गः येषां माम्ये स्थितं मनः' का पुष्टीकरण किया गया है:-- दुःख और सुख मन की माया । मन ने ही संसार बसाया । मनको जीता दुनिया जीती हुआ दुखोदधि पार । यहीं है मोक्ष और संसार ॥ जब अर्जुन पूछता है किःमाधव मोक्ष यहां कहाँ वह अत्यंत परोक्ष । जब तक यह जीवन रहे तब तक कैसा मोक्ष ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) नव कृष्ण कहते है:मरने पर पुरुषार्थ भला क्या ? मुर्दे की श्रृंगार कला क्या ? मोक्ष परम पुरुषार्थ यहीं का कर्मयोग-आधार । यही है मोक्ष और संसार ॥ जब अर्जुन अपना दैन्य प्रकट करके कहता है कि छोटी सी यह बुद्धि है, है सब शास्त्र अथाह । अगर थाह लेने चलूं हो जाऊँ गुमराह ।। तब श्रीकृष्ण अभय-दान देते हुए कहते है बुद्धि अगर छोटी रहे तो भी हा न हताश । छोटी सी ही आँग्व में भर जाता आकाश ॥ फिर कहते है--- पाक-शास्त्र जाने नहीं करें स्वाद-प्रत्यक्ष । निपट अपाचक लोग भी स्वाद परीक्षण दक्ष ॥ विषय की गहनता को देखते हुए इतना सुबोध विवेचन करने में श्री सत्यभक्तजी को आश्चर्यजनक सफलता मिली है। जगह जगह उदाहरण और दृष्टान्त इतने 'फिट' दिये गये है कि विषय एकदम हृदयंगम हो जाता है जैसः-- कठिन कर्तव्य है अर्जुन कटिन सत्पन्थ पाना है । विरोधा से भरी दुनिया समन्वय कर दिग्वाना है । अनल की ज्योति है बिजली चमकती जोकि बादलमें । बनाया नीर के घरमें अनलने आशियाना है ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) किसीके गौर मुखड़े पर सुहाते बाल हैं काले । मुहातीं नील आँखियाँ हैं तथा तिल का निशाना है | प्रकृति के नील अंगन में सुहाता चन्द्रमा कैसा । विविधता के समन्वय में खुदाई का खजाना है ॥ चमन में भी सदा दिखता विरोधों का समन्वय ही । कहीं है काटना डाली कहीं पौधे लगाना है ॥ अनुग्रह और निग्रह कर मगर समभाव रख मनमें | चमन का बागवाँ बन तू चमन तुझको बनाना है || जब अर्जुन को यह महान् शंका होती है कि : 1-1 सब धर्मों में मुख्य अहिंसा धर्म बताया । पर है हिंसा - काण्ड यहाँ पर सम्मुख आया || कैसे हिंसा करूं अहिंसा कैसे छोडूं ? क्यों हिंसा से विश्व-प्रेम के बंधन तोडूं ? तब श्रीकृष्ण हिंसा और अहिंसा के नाना भेद-प्रभेद बताते हुए कहते हैं:-- अन्याय हो फिर भी अहिंसा को लिये बैठे रहो, तो पाप का तांडव मचेगा शांति क्यों होगी कहो ! एकान्त हिंसा या अहिंसा का न करना चाहिये; सन्नीनि रक्षण के लिये भू भार हरना चाहिये || फिर कहते हैं : 11 यदि अल्प-हिंसा से अधिक हिंसा टले सुखशान्ति हो, तो अल्प हिंसा है अहिंसा क्यों यहाँ पर भ्रांति हो ? सुखशान्ति का जो मूल है वह ही अहिंसा धर्म है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) हो वह अहिंसा रूप हिंसा-रूप या सत्कर्म है ॥ निज देश-रक्षण के लिये यदि युद्ध भी करने पड़ें। यदि आक्रमणकारी दलों के प्राण भी हरने पड़ें | अधिकार रक्षण के लिये यदि शत्रुवध अनिवार्य है । नो है न हिंसा प्राणिबध में प्राणिवध भी कार्य है ॥ इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में हिंसा अहिंसा का मर्म समझाते हुए अन्त में कहते हैं: सचमुच अहिंसा ही कसौटी है सकल सत्कर्म की । रहती अहिंसा है जहाँ सत्ता वहीं है धर्म की ॥ पर बाहिरी हिंसा अहिंसा से न निर्णय कर कभी । होती अहिंसा बाह्य हिंसा रूप भी मत डर कभी ॥ कल्याण जिस में विश्व का हो और हो निःस्वार्थता | फिर हो अहिंसा या कि हिंसा पाप का न वहाँ पता ॥ मोहजा तेरी अहिंसा मूल मे न विवेक है । वह है नहीं सच्ची अहिंसा, मोह का अतिरेक है | इसी प्रकार 'होती जहाँ अहिंसा, सच भी वहीं समाया' कहते हुए सत्यके भी नाना भेद-प्रभेद बतलाये गये हैं जिसका सार हैं कि जो विश्व--कल्याणकारी है वही सत्य है चाहे वह तथ्य ( जैसा का तैसा ) हो या न हो । ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य आदि को सत्य अहिंसा में ही अन्तर्भाव करते हुए सुन्दर सूक्तियाँ लिखी गई हैं जो हृदय पर सीधा प्रभाव डालती हैं । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) बहुत तपस्याएँ हुईं कस कर बंधा लँगोट । सह न सका पर एक भी मकरध्वज की चोट । देह दिगंबर हो गई मन पर मन-भर सूत । बुनकर बन बैठा वहाँ मोह पाप का दूत ॥ तन का तो आसन जमा मन के कटे न पाँख । बगुला तो ध्यानी बना पर मछली पर आँख ॥ जबतक मन वश में नहीं तबतक कैसा त्याग। भीतर ही भीतर जले बिकट अवाकी आग ॥ चोरी करता चोर पर चोरी सहे न चोर । चोरों के घर चोर हों चोर मचावें शोर ॥ वहाँ विषमता है जहाँ प्रति-क्रिया है पार्थ । योगी के समरूप है चारों ही पुरुषार्थ ॥ कहाँ तक उद्धरण दिये जायँ । नाना शंकाओं का सरल से सरल भाषा में श्रृंखला-बद्ध समाधान दिया गया है जो सभी श्रेणी के पाठकों को अपूर्व विचार-गति प्रदान करता है । अन्तिम गीतमें निष्कर्ष-रूप में कैसा यथार्थ उपदेश दिया गया है:-- भाई पढ़ले यह संसार। खुला हुआ है महाशास्त्र यह जिस में वेद अपार ॥ भाई, पढ़ ले यह संसार । अनुभव और तर्क दो आँखें अंजन सारे वेद । देख सके सो देखे भाई, काला और सफ़ेद ॥ अद्भुत पुण्य-पाप भण्डार । भाई पढ़ले यह संसार ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) उक्त कतिपय उद्धरणों से आपको मालूम हो गया होगा कि प्रस्तुत गीता एक मौलिक धर्म-शास्त्र बन गया है । कृष्ण-गीता और भगवद्गीता इन दोनों गीताओं में दो बातों की समानता है---- १-दोनों में कृष्णार्जुन के संवादरूपमें विवेचन है । २.-दोनों में कर्मयोग को मुख्यता देकर धार्मिक और सामाजिक सुधार तथा समन्वयकारी क्रांति का समर्थन है । परन्तु दोनों में भेद भी हैं । प्रस्तुत ग्रंथ के साढ़े नवसौ पद्यों में साढ़े नव पद्य भी ऐसे नहीं हैं जिन में भगवद्गीता के किमी पद्य के अनुवाद की छाया हो । पूर्णानुवाद तो एक भी न मिलेगा । वर्णन-शैली और विषय का भी बहुत अन्तर है । इस प्रकार पर्याप्त अन्तर है पर निम्न लिखित अन्तर विशेष ध्यान देने योग्य हैं । १-भगवद्गीता में १८ अध्याय हैं, कृष्णगीता में १४ अध्याय हैं। २-भगवद्गीता में गीत नहीं हैं । प्राचीन संस्कृत साहित्य में साधारण पद्य के अतिरिक्त गीत लिखने का रिवाज़ ही नहीं था परन्तु आज तो गीतों का विशेष स्थान है, गीता नाम की पुस्तक में गीत न हों यह जरा अटपटा सा मालूम होता था । इसलिये इस ग्रंथ में इकत्तीस गीत रक्खे गये हैं। ३-भगवद्गीता में दर्शन-शास्त्र का काफी विवेचन है और इस ढंग से है मानों उन दर्शनों का परिचय देने के लिये किया गया है । पर धर्म-शास्त्र से दर्शन-शास्त्र अलग है इसलिये प्रस्तुत गीता में दर्शनों का परिचय नहीं दिया गया है । धर्म और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) दर्शन भिन्न क्यों हैं इसी बात को लेकर दर्शन-शास्त्र का उल्लेख हुआ है और दर्शन--शास्त्र के ईश, अनीश, आत्म, अनात्म वादों का धार्मिक उपयोग बताया गया है । ४ गीता युद्ध के समय जो बातचीत हुई थी उसकी रिपोर्ट है । वह बातचीत ग्रन्थ बनगई यह दूसरी बात है पर उसमें विषयवार अध्याय न होना चाहिये । युद्ध के उस अल्प समय में श्रीकृष्ण का काम जल्दी से जल्दी सत्यमार्ग दिखला कर अर्जुन को कर्तव्य-पथ पर खड़ा करना था । 'अब मैं इतना कह चुका इतना और सुनले' इस प्रकार सुना सुना कर अध्याय तैयार करने का वह अवसर नहीं था । इसलिये प्रस्तुत-गीता में हरएक अध्याय का अन्त वार्तालाप के उपसंहार रूप में किया गया है। सिर्फ पहिला अध्याय अर्जुनविषाद पर पूरा हुआ है। बाकी हरएक अध्याय में श्रीकृष्ण चर्चा पूरी कर देते हैं पर अर्जुन कोई न कोई शंका उपस्थित कर बैठते हैं इसलिये श्रीकृष्ण को चर्चा करना पड़ती है और अध्याय बन जाता है । इससे कुछ स्वाभाविकता भी आ गई है। __५-प्रस्तुत गीता में ऐसे विषय भी रक्खे गये हैं जो भगवद्गीता में नहीं हैं। जैसे नर-नारी-समभाव वहाँ संकेत रूप में है तो इस गीता में उसके लिये स्वतन्त्र अध्याय लिखा गया है जो आज कल के लिये ज़रूरी होकर के भी उस अवसर के बिलकुल अनुकूल बना दिया गया है । ज़रा नमूना देखिये: नारी को यदि पुरुष परिग्रह माना तुमने, उसको दासी तुल्य भूलकर जाना तुमने । तो समझो अंधेर मचाना ठाना तुमने, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) सत् शिव सुन्दर का न रूप पहचाना तुमने । तुम लोगों में अगर समझदारी यह आती, नरनारी में यदि समानता आने पाती। तो अनर्थ की परम्परा कैसे दिखलाती, क्यों देवी द्रौपदी दाव पर रक्खी जाती ? नरनारी वैषम्य वृक्ष है फलने आया । उसने कैसा आज महाभारत मचवाया ॥ इस तरह कृष्ण-गीता में बहुत से अनावश्यक विषय हटा कर आवश्यक जोड़ दिये गये हैं । अधिकांश विषयों का वर्णन इस समय की उपयोगिता के अनुसार किया गया है साथ ही उम अवसर के लिये भी वे अनुपयुक्त नहीं होने पाये हैं । भगवान सत्य के विराट् दर्शन हो जाने के बाद किसी को कोई शंका न रहना चाहिये इसीलिये इस गीता में विराट् दर्शन अंत में कराया गया है । यह कहा जा सकता है कि एक ऐतिहासिक वार्तालाप को किसी को मनमाने ढंगसे बदलने का क्या अधिकार है ! पर इसका उत्तर यही है कि श्रीकृष्ण का वह सन्देश सिर्फ इतिहास नहीं है न अपने ऐतिहासिक रूप में वह सुरक्षित है, वह धर्मशास्त्र है, कर्तव्य पथका ऐसा निर्देश है जिस में काफी स्थायी तत्त्व है। उस सन्देश के प्राण स्वरूप कर्मयोग को देशकाल के अनुसार भापा, भाव, युक्ति शैली आदि से सजाना अनुचित नहीं है । महाभारतकार ने अपने समय के लिये यही किया और यहाँ भी आज के युग के अनुसार यही किया गया है जो श्रेयस्कर है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) सत्य, प्रेम और सेवा के पक्षपाती सत्यसमाजियों के लिये तो यह धर्म-ग्रंथ के समान है ही पर उदार विचार के हरएक हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी, सिक्ख आदि के लिये भी यह कर्तव्य-शास्त्र का काम दे सकती है । कृष्णगीता करीब सवा दो वर्ष तक सत्यसन्देश में ( सन् १९३७-३८-३९) प्रकाशित होती रही । उसीके अनुसार हर मास थोड़ी थोडी बनती रही। अब उसे पुस्तकाकार प्रकाशित करते हुए हर्ष होता है। बहुत सावधान रहने पर भी 'प्रेस-पिशाचों' के शिकार से नहीं बचा जा सका इसके लिये शुद्धि-पत्र साथ में दे दिया गया है । आशा है हमारे गुण-ग्राही पाठक इस प्रयत्न की कद्र करेंगे। वसंतोत्सव १९९५ । सूरजचन्द सत्यप्रेमी [ डाँगी] सत्याश्रम वर्धा, [ सी. पी.] बड़ी सादड़ी (मेवाड़) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Į. ३ १५ १८ २० २१ २२ "" २८ x x x x w ३२ ४३ ४५ ४७ ५२ "" ५४ "" 39 ५६ ५७ "" ५८ ६५ ८८ ९८ १०० पंक्ति २२ १३ १० ९ १७ १० aw o v १.० १८ १० M २१ २२ ९ १५ १४ १ १९ २० ९ १० १९ ८ २ 29 १०२ ११६ १२४ "" १२५ ५-११ १२८ 1४ १३० I २० २१ * शुद्धयशुद्धि * अशुद्ध पाण्डवा सुहाता नील ताड़ प्रभ नतन की जलने न दे को फलने न दे ह शद्र का बनूंना हिंसा बताया मनज मर्त्ति हा हाता अभा रह द्यत षड़ा संयमता अचार्य प्रम वण सब अनागर हो गही सखको घटपट भाई असम्मव ससार शुद्ध पाण्डवों सुहाती नील तोड़ प्रभु नूतन जलजाने न दे फलजाने न दे है शूद्र की बनूंगा होती अहिंसा मनुज मूर्ति हो होता आभा रहे द्यूत पड़ा संगतता आचार्य प्रेम वर्ण सब ही अनगार हों ग्रही सुखको घटघट माई असम्भव संसार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEDARBGST - समर्पण WC 2065280062605 .. योगेश्वर श्रीकृष्ण के चरणों में, योगेश्वर ! साधारण दुनियाने तुम्हें बहुत कम समझा । इसमें लुम्हारा अपराध तो कैसे कहूँ ? पर दुनिया का भी बहुत कम अपराध है । अपराध है तुम्हारी विचित्रता का । तुम योगी हो या भोगी ? राजा हो या रंक ? ब्राम्हण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र ! कुछ समझ में नहीं आता, आखिर तुम, पूर्णावतार हो । सब रस और सब कर्म तुम्हारे जीवन में हैं जो तुम्हारे अनुचरों के मनमें प्रतिबिम्बित होते हैं । जब जब निराशाओं ने मुझे घेरा है, कार्य के बोझने दबाया है तब तब तुम्हारी मूर्ति उसी तरह मेरे सामने खड़ी हुई है जैसे अर्जुन के सामने हो गई थी और उससे A. मैंने बहुत कुछ पाया है । अर्जुन को दिव्योपदेश देकर तुमने दुनिया को जो अमर साहित्य दिया था वही अमर 5 साहित्य न जाने कैसे तुमने मुझे दिया और मैंने वह पद्यों में गॅथ डाला । जरा देखो तो कैसा गुंथा है ? तुम्हारा अनुचर बन्धु –दरबारीलाल सत्यभक्त । GUROLAPSEscorts, 2eDEORGEToGOS2005 GEORS Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Seaso88888888888888888888888RRREGNL योगेश्वर श्रीकृष्ण sparr sanskar A300SATHS.Papera 30: 05AGAL EAN 300 सन्याश्रम वर्धा के धर्मालय मे विराजमान मूर्ति । S earrow Panded 982300300 300 Pah SNRAJENNINGA Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता के लेखक SHARE | दरवारीलाल सत्यभक्त संस्थापक सत्य-समाज Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता पहिला अध्याय २२ गीत १ सुनादे कर्मयोग--सन्देश । भेज भेज श्रीकृष्ण सरीखा दूत, दृरकर क्लेश ॥ सुनादे कर्मयोग-सन्दश ॥ १ ॥ द विराट दर्शन इस जग को झाँकी सी दिखजाय । अन्तस्तल की पट्टीपर तब कर्मयोग लिखजाय । निशा में चमकादे राकेश । सुनादे कर्मयोग-सन्देश ॥२॥ अकर्मण्यता हटे, घटे मानवता का अज्ञान । घर घर में हो घट घट में हो कर्मयोग का गान । दिखाई दे नटनागर वेश । सुना दे कर्मयोग सन्देश ॥ ३ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] कृष्ण-गीता हरिगीतिका वनवास था पूरा हु आ अब सन्धि का सन्देश था । धृतराष्ट्र के दौर में वह सुलहनामा पेश था । श्राकृष्ण से थे दूत जिनने यत्न कुछ छोड़ा न था । पर हाय भारतवर्ष का दुर्भाग्य कुछ थोड़ा न था ॥ ४ ॥ दुर्धर्ष दुर्योधन न माना हट पकड़कर रह गया । सौजन्य सारा छोड़कर उद्गार अपने कह गया । है दूर आधा राज्य, ग्रामों की कथा भी दूर है । मुझको सुई की नोक भी देना नहीं मंजूर है ।। ५ ।। फिर भी नरोत्तम धीरता से मुसकराते ही रहे । योगेश अपनी युक्तियों से कुछ सिखाते ही रहे ॥ होगा भविष्य महाभयंकर यह दिग्वाते ही रहे । दुर्भाग्य पर सौभाग्य के अक्षर लिग्वाते ही रहे ॥ ६ ॥ अपमान सहकर शान्ति का संगीत गाते ही रहे । था दुष्ट दुर्योधन मगर कारुण्य लाते ही रहे ॥ बाहर न आँसू थे मगर भीतर बहाते ही रहे । माता अहिंसा के लिये आँसू गिराते ही रहे ॥ ७ ॥ आखिर न समझौता हुआ श्रीकृष्ण को आना पड़ा । अपने बचाने के लिये कौशल्य दिखलाना पड़ा ॥ आतिथ्य छोड़ा कौरवों का वे विदुर के घर गये । ___ भाजी मिली रूखी मगर कृतकृत्य उसको करगये ॥ ८ ॥ दिन रात तैयारी तभी दोनों जगह होने लगी। देवी दया तब आँसुओं से नयन मुख धोने लगी। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ पहिला अध्याय गेने लगी तब शान्ति देवी बन्धुना रोने लगा। सोने लगी मवृत्ति ब्रह्मा को व्यथा होने लगी ॥ ९ ॥ कुरुक्षेत्र में आकर डटे नरमेध करने के लिये। दीपक शिखा में शलभ वन बेमौत मरने के लिये ॥ यमराज के मुग्व में नरो का रक्त भरने के लिये । दौर्जन्यसे सौजन्यके सब प्राण हरने केलिये ॥ १० ॥ श्रीकृष्ण के आगे विकटतर यह समस्या थी वडी । 'नर-नाग या नय-नाश में से क्या चुनूँ मैं इस घड़ी ॥ ___ कर्तव्य मेरा है यहाँ क्या, धर्म की रक्षा कहाँ " सोचा ‘वहीं है धर्मरक्षा न्याय की रक्षा जहाँ ॥ ११ ॥ अन्यायियों के नाश में, न्यायी-जनों के त्राण में । रहती अहिंसा भगवती या विश्वके कल्याण में ॥ फिर भी लहँगा मैं नहीं, लोहा न लूंगा हाथ में । निःशस्त्र होकर मै रहूँगा पार्थ के बस साथ में ॥ १२ ॥ योगश ने यों पाण्डवों की प्रार्थना पर मन दिया । नटनागरी का कर प्रदर्शन सूत का बाना लिया । वे कर्म-योगेश्वर रहे कर्तव्य में फिर मान क्या ? योगी जगन्सेवक हुए फिर शूद्रता का ध्यान क्या ॥ १३ ॥ मानव-जगत का सारथं --रथ सारथी बन कर चला। निःशस्त्र था पर पापियों के सिर पड़ी मानों बला ॥ अन्यायियों का सूर्य तपकर, अस्त होने को ढला । रोते हुए से पाण्डवा का भाग्य से संकट टला ॥ १४ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] कृष्ण - गीता आग्विर उभय दल आ डटे, संहारमय तन मन किये, उत्साह से पूरित जयाशा की उमंगों को लिये । फुंकने लगे तब शंख, गोमुख नौबतं बजने लगीं; मानों हुई अतिभीत वे, भगवान को भजने लगीं ॥१५॥ जब शंक फूंका भीष्म ने, वनराज सा गर्जन किया; दी यो मलामी युद्ध को, पर-पक्ष का तर्जन किया; तव पांचजन्य वजा इधर भी, कृष्ण ने उत्तर दिया । उत्साह से पूरित किया मन पांडवों का हर लिया ॥१६॥ यो शंख बजकर जब धनुष पर डोरियाँ चढ़ने लगीं; जब तीक्ष्ण तलवारें बिजलियों सी वहां बढ़ने लगीं । बोला तभी अर्जुन, "सुहृद्वर; रथ बढ़ा तो लीजिए; दोनों दलों के बीच में, मुझको खड़ा कर दीजिए ||१७|| अब कौन कौन यहां पधारे युद्ध के मरदार हैं । अन्याय की भी हो विजय, इसके लिये तैयार हैं | श्रीकृष्ण ने स्पंदन बढ़ाकर, मध्य में तब ला दिया; चारो तरफ कर दृष्टि अर्जुन ने निरीक्षण सा किया || १८ || देखा पितामय हैं यहां, गुरुवर्य द्रोणाचार्य हैं; भाई यहां हैं सैंकड़ा, काका तथा आचार्य हैं । आये श्वसुर आये भतीजे, पौत्र आये हैं यहां, हैं मित्र भी आये यहाँ, अंधेर इतना है कहाँ ॥ १९ ॥ जिनने खिलाया है मुझे, दिन-रात आलिंगन किया; उत्पात सब मेरा सहा, मलमूत्र तक हाथों लिया । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिला अध्याय [ ५ जिनकी सुरक्षित गोद में, पलकर खड़ा मैं हो सका, जिनकी कृपा से नर बना, पशुरूप अपना धो सका ॥ २० ॥ उन पूज्य पुरुषों से करूं, सम्बन्ध यदि टूटा हुआ । फेकूँ उन्हीं पर बाण मैं, गांडीव से छूटा हुआ || तो नीति क्या रह जायगी, सौजन्य क्या रह जायगा । कैसे विधाता का हृदय रोये बिना रह पायगा ॥ २१ ॥ संसार में संतान का पालन करेंगे लोग क्यों ? संतान पालन का करेंगे, लोग फिर दुखभोग क्यों । ब्रह्मांड में होगा प्रलय, मानव न तब बच पायगा, बस मौत नाचेगी यहाँ, मरघट यहाँ रह जायगा ॥२२॥ धनु पकड़ने की भी कला, जिनने सिखाई थी मुझे । सब शस्त्र-विद्या की यहां, झाँकी दिखाई थी मुझे || उन पूज्य द्रोणाचार्य का, कैसे करूंगा घात मैं । भगवान के दरबार में, कैसे करूंगा बात मैं ॥२३॥ माता पिता से भी अधिक, गुरुदेव का उपकार है, कल्याण-कारक हैं वही, उनका अनोखा प्यार हैं । उपकार सारे भूलकर उनसे लहूँगा आज मैं । हा आज जोहुँगा यहाँ सारे नरक के साज मैं ||२४|| जिनको खिलाया गोद में था, प्रेम से चुंबन किया, सिर और कंधों पर किया, हाथों दिया हाथों लिया । उनपर चलेगा अब धनुष, धिक्कार है धिक्कार है; वात्सल्य का है खून यह, यह घोर अत्याचार है ॥२५॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता जिनका सखा बन कर रहा, जिनको सदा भाई कहा, दिन-रात खेला साथ में, जिनस सदा मिलकर रहा ।। उन बंधु मित्रों से लहूं उन पर चलाऊँ बाण में । ऐसा कसाई बन करूँगा क्या जगत्कल्याण मैं ॥२६।। -: दोहा :-- किंकर्तव्य-विमूढ़ हो, भर नयनों में नीर । केशव से बोले तभी, अर्जुन बन गंभीर ॥२७॥ इन स्वजनों को देवकर, लड़ने को तैयार । भरता है मेरा हृदय, होता खेद अपार ॥२८॥ छूट रहा गाण्डीव है, कँपते हैं सब अंग; अंग अंग काँटे खड़े, बदल रहा सब रंग ॥२९॥ क्या होगा तब राज्य का, बने बंधु जब धूल; कान कटे फिर क्या मिला ? कानों को कनफूल ॥३०॥ वैभव है जिनके लिये, यदि हो उनका नाश । भर जावेगा शोक से, तो जल थल आकाश ॥३१॥ भले करें ये दुष्टता, पर हम हों क्यों दुष्ट । जीवन देकर भी इन्हें, क्यों न करें हम तुष्ट ॥६२॥ होगा मेरी मौत से, वस मेरा ही अन्त । पर दुनिया बच जायगी, होगी शान्ति अनन्त ॥३३॥ देखेगी दुद्देश्य वह, कैसे मेरी दृष्टि । घर घर में होगी यहां, विधवाओं की मृष्टि ॥३४॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिला अध्याय लाखो आंखो से यहाँ निकलेगी जलधार । होगा जग में जल-प्रलय, भुवन भस्म हो जायगा, होगा आहो से भर जायगा, यह सारा ब्रह्मांड || ३६॥ भवन भ्रष्ट हो जायँगे, नगर नरक के धाम | क बनेंगे या यहाँ, निशिदिन आठों याम ॥ ३० ॥ क्षमा करो माधव मुझे, करदो युद्ध-विराम । प्राग जायँ होऊँ न पर मैं जगमें बदनाम ||३८|| द्रुतविलम्बित हृदय के सब भाव निचोड़ के 1 वेगा संसार || ३६॥ लंका-कांड । रख दिये ममतावश जोड़के | अति विपाद-भरा मुँह मोड़के | अनुप छोड़ दिया दिल तोड़के ॥३९॥ [ ७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता दूसरा अध्याय .. यों जब कल्पित पाप से हुई पार्थ को भीतिः । लगे सिखाने कृष्ण तब कर्मयोग की नीति ॥१॥ गीत २ अर्जुन झूठी नातेदारी । दुनिया है बाज़ार, स्वार्थ के हैं सब ही व्यापारी । अर्जुन झूठी नातेदारी ॥२॥ किसको कहता है भाई तू, किसको कहता तात । किसकी सुनता कौन ? यहाँ है अपनी अपनी बात ।। है झूठी नाते की यारी । ___ अर्जुन झूठी नांतदारी ॥३॥ वह क्या नातेदार, स्वार्थ के लिये हमें दे छोड़ । अन्यायी बन जाय प्रेम का भी बन्धन दे तोड़ ॥ है जो कोरा स्वार्थ-विहारी । ____ अर्जुन झूठी नातेदारी ॥४॥ जो है त्यागी गुण-अनुरागी है वह नातेदार । विश्व-मित्र जो गुण-पवित्र जो सेवा का अवतार ॥ दुखिया दुनिया जिसको प्यारी । अर्जुन झूठी नातेदारी ॥५॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दूसग अध्याय . ९ बोल बोल है कौन यहां पर तेरे नातेदार । कौन न्याय के लिये मरा है, छोड़ा है संसार ॥ तरा प्रेमी मत्य--पुजारी। अर्जुन झूठी नातेदारी ॥६॥ माह छोड़ दे, बन्ध तोड़ दे, रख मन्में ममभाव । कर कतव्य अभेट-बुद्धि से, रहे रंक या रात्र ।। मव का जीवन हो मुग्व-कारी । अर्जुन झूटी नाते--दारी ॥ ७ ॥ गीत ३ द्रौपदी के क्यो भला केश । ये तरे ही बन्धु वहाँ थे बने हुए न्यायेश ।। द्रौपदी के क्यो भूला केश ॥८॥ पुष्पवती थी वह बेचारी, तुम थे मृतक-ममान । पर ये कोई काम न आये ढोगी नीति-निधान । बने ये अर्थदाम असुरश । द्रौपदी के क्यों भला केश ॥९॥ दुःशामन ने केश ग्वींचकर, दिया उम झकझोर । चीग्ब उठी अबला बेचारी, देवा चारों ओर ॥ पुकारा ' लज्जा रग्वा रमेश'। द्रौपदी के क्यों भला केश ॥१०॥ फिर भी तेरा बन्धु न माना, मानवता दी छोड़ । भरी सभामें खींचा अंघल उमके हाथ मरोड़। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] कृष्ण-गीता न रहने पाई लज्जा लश । द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥११॥ अंतरीक्ष फट पडा, मचा दुनिया में भारी शोर । पर तेरे नातेदारों के फटे न हृदय कठोर ।। बने पत्थर की मूर्ति नगेश । द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥१२॥ भीष्म द्रोण कृप सभी वहाँ थे, तेर पिता समान । पर अपने अपने पेटों का रक्खा सबने व्यान । कहाते थे फिर भी वीरेश । द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥१३॥ कौन पुरुप होकर सह सकता, नारी का अपमान । अब भी खुली हुई है वेणी, रख त उस का ध्यान ॥ बन भारत आर्यों का देश । द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥१४॥ दोहा 'मेरा तेरा' मे पड़ा, डूब गया संसार । मोही, ममता छोड़ दे, कर तु शुद्ध विचार ॥१५॥ 'मेरा मेरा' कर रहा, पर तेरा है कान । जहां स्वार्थ बाधा पड़ी हुए सकल जन मौन ॥१६॥ अपना है तो धर्म है, पर है सदा अधर्म । 'मेरा तेरा' छोड़ कर, कर न्यायोचित कर्म ॥१७॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय [११ सजनता की जीत हो दुर्जनता की हार । पाप निकंदन कर सदा, कर हलका भू-भार ॥१८॥ मोह ममत्व न पास रख कर तू उचित विचार । वीतराग बन खोल दे शुद्ध न्याय का द्वार ॥१९॥ गीत ४ जग में रह न सके अन्याय । नातेका सम्बन्ध तोड़ कर । न्याय धर्म से प्रेम जोड़ कर । प्राणों का भी मोह छोड़ कर । वन तू न्याय-सहाय ॥ जगमें........॥२०॥ नातेकी हे झूठी माया । अपना हो या हो कि पराया । जिसपर गिरी पापकी छाया । कर उसका सदुपाय ॥ जगमें........॥२१॥ जीवन रोटी पर न बिकावे । पाप न जग पर राज्य जमावे । अबलाओं की लाज न जावे । धर्मराज आजाय ॥ जगमें........॥२२॥ गीत ५ भाई कर मत यह नादानी, भल रहा क्यों मोहित होकर अपनी कठिन कहानी । भाई. ॥ याद नहीं आता है तुझको । यह सब कहना पड़ता मुझ को॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] कृष्ण-गीता दोन बोला था " दूंगा नहीं सुई की नोक । दूंगा सार पांडव दल को मृत्यु -- कुंड में झोंक । निर्बल का है कौन सहाय । जिसकी लाठी उसका न्याय || अब कैम न भूल गया हैं उसकी यह शैतानी । भाई. ॥२३॥ भाई कर मत यह नादानी, जीवन मानी के समान हैं, मत उतार तू पानी | भाई | क्यों अपना गौरव खाता है । ममता का शिकार होता है || तुझ को नहीं विचार रहा है कहाँ न्याय अन्याय | तु मानव है भूल गया पर मानवता भी हाय ॥ देवा चमड़े का सम्बन्ध | नाते की माया में अन्ध ॥ कुल कुटुम्ब के झगड़े में पड़, भूला न्याय निशानी । माई. ||२४|| भाई कर मत यह नादानी, 1 न्याय तुला लेकर बैठा फिर कैसी आनाकानी | भाई. | कोई नातेदार कहाता । न्यायी का क्या आता जाता ॥ अपना काम | शुद्ध हृदय से करता रहता है वह दुनिया की पर्वाह न करता नाम हो कि बदनाम || कोई भी हो नातेदार 1 कर तू न्याय न वन बेकार | पक्षपात से न्याय -- तुला की कर मल खींचातानी | भाई. ॥ २५ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय हरि-गीतिका अन्याय का कर सामना, सब मोह ममता छोड़ दे। अपना पराया कौन है ? संबंध सारा तोड़ दे ॥ है द्रोपदी तेरी नहीं, तेरा न वह परिवार है। पर एक महिला पर हुआ यह घोर अत्याचार है ॥२६॥ अन्याय को विजयी कभी बनने न देना चाहिये । मवको सदा भूभार हरकर पुण्य लेना चाहिये । हो न्याय का रक्षण सदा अन्याय विजयी हो नहीं । शतान या शैतानियत जगमें न रह पाये कहीं ॥२७॥ हो शत्रु भी न्यायी अगर तो पात्र है वह प्यार का । हा पुत्र भी पापी अगर तो पात्र है संहार का ॥ है न्याय की रक्षा जहां अन्याय का अपमान है । रहना जहां इमान है रहता वहीं भगवान है ॥२८॥ पक्षान्धता मव छोड़ दे, कर न्याय की सेवा सदा । कर्तव्य करने के लिये तैयार रह तू सर्वदा ।। कहता नहीं हूँ कार्य कर तू स्वार्थ-रक्षण के लिये । कहता यही कर्तव्य कर, अन्याय-तक्षण के लिये ॥२९॥ यह मोह माया छोड़ दे, अपना पराया कौन है ॥ निज-कुल कहाया कौन है, पर-कुल कहाया कौन है ।। पर खेल सच्चा खेल जिस में न्याय का ही दाव हो । तृ क्षत्रियोचित कर्म कर जिस में सदा समभाव हो (६९) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] कृष्ण-गीता तीसरा अध्याय अर्जुन दोहा माधव मेरा प्रश्न यह, बना गूढ से गूढ । पथ न सूझता, में हुआ किंकतव्य-विमुढ ॥१॥ बात तुधारी ठीक है, पर मेरी भी ठीक । कैम मै निश्चय करूं, क्या है लीक अलीक ॥२॥ ममभावी बन युद्ध हो, मिले योग से भाग । करते हो जल अनल में, यह कैमा महयोग ॥३॥ ये दोनों कैसे बनें, युद्ध और समभाव । चतुर खिलाड़ी वालदा कैसा है यह दाव ॥४॥ चार महाभारत बना, यह मन का संग्राम । करूं समन्वय किस तरह, कैसे हो विश्राम ॥५॥ गीत ६ ___ भाई, समन्वयी संमार । विविध रसों का मेल नहीं हो, तो है जीवन भार ॥ भाई, समन्वयी संसार ॥६॥ मीठा ही मीठा भोजन हो, फिर क्या उसमे स्वाद । अम्ल तिक्त लवणादि रमों के बिना स्वाद बर्बाद ।। फिर तो भोजन है बंगार ।। भाई, समन्वयी संसार ॥ ७॥ सुन्दरता के लिये एक ही रंग नहीं तृ घोल । रंगों का है जहाँ समन्वय चित्र वहीं अनमाल ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीमरा अध्याय [ १५ दिग्वता है सौन्दर्य अपार । भाई, ममन्वयी संसार ॥८॥ युद्ध और समभाव अनलजल, जीवन का है मेल । है विरोध का पूर्ण समन्वय, जगका सारा ग्वल ॥ तब ही बहती जीवन --धार । भाई, ममन्वयी संमार ॥९॥ गीत ७ कटिन कर्तव्य हे अर्जुन, कठिन सत्पंथ पाना है । विराधों में भरी दुनिया समन्वय कर दिखाना है ॥ १० ॥ अनल की ज्योति है बिजली, चमकती जो कि बादल मे । बनाया नीर के घर को, अनल ने आशियाना है ॥ ११ ॥ किसी के गौर मुखड़े पर, मुहाते बाल है काल । सुहाता नील अँखियाँ है, सुहाता तिल निशाना है ॥ १२ ॥ प्रकृति के नील अङ्गण मे, सुहाता चन्द्रमा कैमा । विविधता के समन्वय मे, खुदाई का खजाना है ॥ १३ ॥ चमन में भी सदा दिग्वता, विरोधो का समन्वय ही। कही है काटना डाली, कही पौधे लगाना है ॥ १४ ॥ अनुग्रह और निग्रह कर, मगर समभाव रग्ब मनमे । चमन का बागवां वन तू, चमन तुझको बनाना है ॥ १५ ॥ अर्जन- गीत ८ विक्षोभ रहे मन में न ज़रा, सब काम करूं बोलो की ? मनमे थोड़ा भी वैर न हो फिर, प्राण हरूं वाली कैस ॥१६॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता रसरंग हृदय में हो सब ही, फिर भी मन चंचल हो न सके। पानी में भीजे पैर नही, फिर सिन्धु तरूं बोलो कैसे ॥ १७ ॥ 'जब चाह नहीं तब राह कहाँ' बे-मतलब कैसे राह चलूं । मदिरा का कुछ भी मोह न हो फिर चषक भरूं बोलो कैसे ॥१८॥ मनमोहन तुम मुसकाते हो, पर मेरी कठिन कहानी है। काँटों की सेज बिछी है जब, तब पैर धरूं बोलो कैसे ॥ १९ ॥ श्रीकृष्ण (गीत ९) भोले भाई मत भूल यहां, दुनिया यह नाटक-शाला है । सब भूल रहे असली स्वरूप, बन रहा जगत मतवाला है ॥२०॥ बनता है कोई बन्धु यहां, बनता है शत्रु यहां कोई । कोई घर का है अंधकार कोई जग का उजियाला है ॥ २१ ॥ ले वेष भिखारी का कोई, कण कण को भी मुँहताज बना। ऐयाश बना दिखता कोई, पीता मदिरा का प्याला है ॥२२॥ भिल्लिनी रूप रखकर कोई, गुजाओं में शृङ्गार करे। ले लिया किसी ने राज-वेष, पहिनी मणियों की माला है ॥२३॥ कोई नुकीट कहलाता है, जिसको न पूछता है कोई । कोई महिमा का सागर है, घर घर में जिमका चाला है ॥२४॥ अपने अपने में मस्त बने, सब खेल खेलते हैं अपना । तू भी अपना यह खेल खेल, जो सुंदर खेल निकाला है ॥२५॥ जैसा है तुझ को वेष मिला वैसा तु भी रंगढंग दिखा । सब बन्धु बन्धु हैं यहां किन्तु, नाटक का रंग निराला है ॥२६॥ रोले हँसले मिलले लड़ले, जैसा अवसर हो सब कर ले पर समभावी रह भूल नहीं, तू नाटक करनेवाला है ॥ २७ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय [ १७ गीत १० खेलना होगा तुझको खेल। दुनिया यह नाटकशाला है; तू नाटक करनेवाला है। तू न भाग सकता, जीवन है, पात्रों का ही मेल । खेलना होगा तुझको खेल ॥२८॥ बन जाना रागी वैरागी कहलाना भोगी या त्यागी। सभी खेल हैं चतुर खेलते मूर्ख बने उद्वेल । खेलना होगा तुझको खेल ॥२९॥ क्या है जीना क्या है मरना; यह है खेल सभी को करना । सब हँस हँस कर चोट झेलते तू भी हँसकर झेल । खेलना होगा तुझको खेल ॥३०॥ गीत ११ मत भूल मर्म की बात, खेल संसार है । तू समझ खल का मर्म जो सुखागार है ॥३१॥ सभी खिलाड़ी जुड़े हुए हैं, है न वैर का नाम । पर अपनी अपनी पाली का सब ही करते काम ॥ _____ मची भरमार है। मत भूल मर्म की बात, खेल संसार है ॥३२॥ भाई भाई बटे हुए हैं, है न वैर का लेश । प्रतिद्वन्दिता दिखती है, पर है न किसीको क्लेश ॥ हृदय में प्यार है। मत भूल मर्म की बात, खेल संसार है ॥३३॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] कृष्ण- गीता लेन देन का काम नहीं है, है न नफा नुकसान । पर सब का हिसाब है, सबको, उसी बातका ध्यान ॥ जीत है हार है । मत भूल मर्म की बात, खेल संसार है ॥ ३४ ॥ बालक सा निर्दोष हृदय कर. खेल जगत के खेल । हो न वासना वैर-भाव की, रहे प्रेम का मेल || प्रेम शृङ्गार है । मत भूल मर्म की बात खेल संसार है ||३५|| फल में है अधिकार न तेरा, फल की आशा छोड़ । करता रह कर्तव्य, स्वार्थ के सब दुर्बन्धन ताड़ ॥ यहीं अधिकार है । संसार है || ३६ || मर्म की बात, खेल अर्जुन -- गीत १२ दुनिया का सारा काम रहे, फिर भी भीतर का ध्यान रहे । माधव बोलो, यह कैसे हो दोनों का बोझ समान रहे ||३७|| मन तो है मुझको एक मिला, दो जगह इसे बाहूँ कैसे ? है कैसे इस मन में, रोकरके भी मुसकान रहे ||३८|| सम्भव श्रीकृष्ण- दोहा विज्ञान । मन बटता है किस तरह, सखि यही इसीलिये करले तनिक, पनिहारी का ध्यान ||३९|| मत भूल Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय [ १९ गीत १३ घर गागरिया का भार चली पनिहारियाँ । कर बतियन की भरमार चली पनिहारियाँ ॥४०॥ एक सम्वी चल ठुमक ठुमुक पर रख गगरी का ध्यान । बोली रम रम की सब बतियाँ, अधर धरी मुसकान ।। भरी रस झारियाँ । धर गागरिया का भार चलीं पनिहारियाँ ॥४१॥ फुलझडियों मी झड़ी मगर था मन गगरी की ओर । कुंजगलिन में बरमाया रस, नाचा मन का मोर ॥ सिंचगई क्यारियाँ । धर गागरिया का भार चली पाहारेयाँ ॥४२॥ मन था एक ध्यान घट का था बातें किंतु हज़ार; एक बात पर बात दूसरी होती थी तयार ॥ अजब तैयारियाँ । धर गागरिया का भार चलीं पनिहारियाँ ॥४३॥ मन है एक, बाटना कैसे, करले इस का ज्ञान । कर्मयोग की नीति सीग्व, कर पनिहारी का ध्यान । नीति-गुरु नारियाँ । धर गागरिया का भार चली पनिहारियाँ ॥४४॥ हरिगीतिका स्थिति-प्रज्ञ बनकर कर्मकर समभाव मन में रख सदा । बन कर्मयोगी नीति का रख ध्यान मन में सर्वदा ।। मत राग कर मत द्वेष कर अभिमान भी आने न दे । तू विश्व-हित में लीन रह कर्मण्यता जाने न दे ॥११४॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] कृष्ण-गीता चौथा अध्याय अर्जुन-- स्थिति-प्रज्ञ होऊं किस तरह योगेश समझाओ मुझे । आगे बढूँ बोलो किधर सत्पंथ दिखलाओ मुझे ॥ स्थिति-प्रज्ञ योगी के कहा क्या चिह्न क्या जीवन कथा ? कर दो कृपाकर दूर मेरे मूढ़ मानसकी व्यथा ॥ १ ॥ श्रीकृष्ण- स्थितिप्रज्ञ का रूप जो माँ अहिंसा का दुलारा बन्धु सब संसार का । जो सत्य प्रभका पुत्र है योगी सदा है प्यार का ।। जिसकी न कोई जाति है जिसकी न कोई पाँति है । जिसका न कोई ज्ञाति है जो विश्वका हर भाँति है ॥ २ ॥ संसार भरके सब मनुज हैं जाति-भाई से जिसे । हैं जाति नामक भेद खंदक और खाई से जिसे ।। जिसको न कुलका पक्ष है सब को बराबर मानता । कोई रहे, यदि हो सदाचारी कुटुम्बी जानता ॥ ३ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय संसार जिसको उच्च अथवा नीच शब्दों से कहे । उसके लिये जिसके हृदय में साम्य ही जागृत रहे । मद हे न जिसको जाति का या वर्ण का परिवार का । गौरव सदा जिसके हृदय मे है जगत के प्यार का ॥ ४ ॥ पुरुषत्व का अभिमान भी जिसको कभी आता नहीं । नर नारियों में जो विषमता-भाव है लाता नहीं । हैं देवियाँ सी नारियाँ जिमके लिये संसार में । स्वाधीन करता है उन्हें रखता न कारागार में ॥ ५ ॥ जो सर्वधर्मसमानता के तत्व में अनुरक्त है । मिलता जहाँ पर सत्य है बनता वहीं पर भक्त है ।। करता सदा गुण का ग्रहण दुर्गुण हटाता है सदा । सोर महात्मा-वृन्द में रखता विनय है सर्वदा ॥ ६ ॥ मत-मोह है जिस में नहीं बस सत्य में अनुराग है । पक्षान्धता की वासना का सर्वदा ही त्याग है ॥ जो है पुजारी सत्यका निष्पक्षता से युक्त है । पूरा विवेकी और ज्ञानी अन्धश्रद्धा -मुक्त है ॥ ७ ॥ हो रूढ़ि नतन या पुरानी पर गुलामी है नहीं । प्राचीनता का मोह सदसबुद्धि-स्वामी हैं नहीं ॥ कर्तव्य-निर्णयकी कसोटी विश्वका कल्याण है । होती सुधारकता जहाँ होता वहीं पर त्राण है ॥ ८ ॥ जो इन्द्रियों की वश्यता या दासता से दूर है । समभाव और सहिष्णुता जिसमें सदा भरपूर है ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] कृष्ण-गीता प्रतिकूल से प्रतिकूल विषयों की व्यथा जिसको नहीं । नीरस सरस कुछ भी रहे दुखकी कथा जिसको नहीं॥ ९॥ जो है मनोविजयी न जिसको मन नचा पाता कभी । दुर्वत्तियों को पीसता उनके न वश आता कभी ।। मनको बनाता देव-मन्दिर प्रेम--सिंहासन जहाँ । माता अहिंसा का तथा सत्येश का आसन जहाँ ॥ १० ॥ जिसका अहिंसा व्रत रहे ध्रुव मेरुमा निश्चल सदा । दुःस्वार्थ के कारण न जग पर डालता जो आपदा ।। हो पूर्ण करुणा-मूर्ति कायरता मगर आने न दे । जो न्याय को जलने न दे अन्याय को फलने न दे ॥११॥ जो वज्रसा भी हो कठिन पर फूलसा कोमल रहे । अन्यायियों पर हो अनल न्यायोजनों पर जल रहे || आपत्तियों की चोट सहने का हृदय में बल रहे । सत्प्रण किया तो कर लिया पालन करे निश्चल रहे ॥ १२ ॥ जिसकी तराज न्याय की कोई हिला सकता नहीं । अन्याय को अणुमात्र भी सुविधा दिला सकता नहीं ।। या लाँच रिश्वतकी कभी मदिरा पिला सकता नहीं । सम्बन्ध से पक्षान्धता का विप मिला सकता नहीं ॥१३॥ यदि एक पलड़े पर रखी संसार की सम्पत्ति हो । भय और विपदाएँ रहें सम्राट की भी शक्ति हो । पर दूसरे पर न्याय हो तो न्याय ही जय पायगा । गौरव मिलेगा न्याय को अन्याय लघु रह जायगा ॥१४॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैथा अध्याय [२३ माता बहिन अथवा सुता जिसको सदा परकामिनी । गाहस्थ्य जीवन में सदा है भामिनी ही स्वामिनी ॥ दाम्पत्य की अकलंकता जीवन रसायन है जिसे । निज प्राण से भी प्रिय अधिकतर शीलमय-मन है जिसे ।१५। ऐश्वर्य को जिसने न समझा श्रेष्ठता का माप है । समझा वृथा सम्पत्ति--संग्रह पाप का भी बाप है ॥ सम्पत्ति जिमको बोझ है बस दान की ही चाह है। आवे न आवे नष्ट हो जावे न कुछ पर्वाह है ॥१६॥ सम्पत्ति पाई पर समझता है कभी स्वामी नहीं । हैं भोग सारे हाथ में बनता मगर कामी नहीं । घर में भरा भंडार हो, फिर भी न अधिकारी बने । स्वामित्व की दुर्वासना से शन्य भंडारी वने ॥१७॥ धनका उचित उपयोग हो इसका सदा ही ध्यान है । होती ज़रूरत है जहाँ करता वहीं पर दान है ॥ पर दान को मनमें समझता भी नहीं अहसान है। करता सदा वह विश्व हित में स्वार्थ का अवसान है ॥१८॥ अधिकार कितना भी रहे मद है न पर अधिकार का । अधिकार में भी ध्यान है सब के विनय का प्यारका ॥ अधिकार के बदले कभी पाता न जो धिक्कार है। अधिकार के उपयोग में आता न पापाचार है ॥१९॥ पाये सफलता पूर्ण पर अभिमान है लाता नहीं । व्यक्तित्व ईश्वर-सम बने उन्माद पर आता नहीं ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] कृष्ण-गीता जिमकी महत्ता है विनय के रूप में परिणत सदा । गौरव शिग्वर पर भी चढ़ा हो किन्तु मस्तक नत सदा ॥२०॥ मुरव देवकर करता नहीं जो नीतिका निर्माण है । जिमकी कसौटी नीतिकी संमार का कल्याण है ॥ माने न माने यह जगत करता जगत का त्राण है । है प्राण आवश्यक जहाँ देता वहीं पर प्राण है ॥२१॥ मानी नही मायी नहीं लोभी नहीं क्रोधी नहीं । परमार्थ जिमका स्वार्थ है कल्याण-पथ रोधी नहीं ॥ संमार के उद्धार मे जो मानता उद्धार है । जिसको जगत के प्राणियों पर नित्य मच्चा प्यार है ॥२२॥ पालन करे पुरुषार्थ सब मवत्र मकमी रहे । अर्थी रहे त्यागी रहे कामी रहे धर्मी रहे ॥ सारी कलाओं में सुरुचि हो हो विकल जीवन नहीं । हो सब रसो मे एक रस रसहीन जिमका मन नहीं ॥२३॥ आलस्य हो जिसमें नहीं झूठा नहीं विश्राम हो । दिनरात हो कर्तव्यमय कर्मण्यता का धाम हो ॥ लकिन सदैव निवृत्ति का रखता हृदय में ध्यान हो । दुःस्वार्थ से बचता रहे परमार्थ का गुणगान हो ॥२४॥ हठ है न जिसको बातका कल्याण का ही ध्यान है । कर्तव्य में जिसको बराबर मान या अपमान है । कर्तव्य में जो लीन है फलकी न आशा भी जिसे । क्षणको अनुत्साही न कर सकती निराशा भी जिसे ॥२५॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय [२५ विपदा जिसे दुर्दैन्य की चोटे खिला सक्ती नहीं । जिसका अदम्यात्साह मिट्टी में मिला सकती नही । म-पत् जिसे अभिमान की मदिरा पिला सकती नहीं । कर्तव्य के मन्मार्ग से अणुभा हिला सकती नहीं ॥२६॥ कर्तव्य पथ मे मौत भी जिसका डरा सकती नहीं । संसार भर की शक्ति अनुचित कृति करा सकती नही ।। जो घूमता है, मौत को अपनी हथेली पर लिये । जीवन मरण की लालसा स दूर अपना मन किये ॥२७॥ जिमका अयशका डर नहीं यश की न अधी चाह है । हा नाम या टुर्नाम केवल मन्य की पर्वाह है ॥ जिसने निकाली कीर्ति की अपकीति मे से राह है । दुनिया उमे कुछ भी कहे अपने हृदय का शाह है ॥२८॥ संवा न पहिचाने जगत पृछे न कोई बात कोई मुनाव गालियां कोई लगावे लात भी। दी फिर स्थपर चढ़ यह धूल ही फाँका करे । सत्कार हो उनका वहाँ यह दूर ही झाँका कर ॥२०॥ फिर भी नही जिमकं हृदय मे चाटुकारी आ सके । खुश याकि नाखुश हा जगत जिमका न दिल पिघला सके । कर्तव्य करना है जिसे यश लूट लाना है नही । सेवा बजाना है जिसे जगको रिझाना है नही ॥३०॥ आदर अनादर या उपेक्षा एक सी जिमको सदा । जिसके बदन पर दे दिग्वाई मुस्कराहट सर्वदा ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] कृष्ण-गीता जिसको निराशा हो नहीं नौका अड़ी मँझधार हो । जीवन भले इसपार हो आशा मगर उस पार हो ॥३१॥ संसार को जो दे अधिक पर न्यून ही लेता रहे । जीवन लगादे, विश्व को सेवा सदा देता रहे ॥ परकार्यसाधक साधु हो जो साधुताकी मूर्ति हो । जिसका कुटुंबी हो न कोई वह उसी की पूर्ति हो ॥३२॥ स्थितिप्रज्ञ कहते हैं इसे अच्छी तरह तू जान ले । निर्लिप्त रहकर कर्म करने की कला पहिचान ले ॥ सदसद्विवेक मिला तुझे उसका कहा तृ मान ले । कर्तव्य प्रस्तुत है यहाँ तू पूर्ति का प्रण ठानले ॥३३॥ (१४७) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय [ २७ पाचवाँ अध्याय अजुन [पीयूषवर्ष] धन्य हे माधव तुम्हें ज्ञानी तुम्हीं । हो तृषातुर के लिये पानी तुम्हीं ॥ अन्ध--जनकी आँखके तारे तुम्हीं । दीन हीन अनाथके.प्यारे तुम्हीं ॥१॥ मोह से पीड़ित अखिल संसार है । गोक चिन्ता तापकी भरमार है ।। ___ बह रही है यह विषैली सी हवा । रोग बढ़ता ही गया ज्यों की दवा ॥२॥ है यहां कर्मण्यता मारी हुई। है श्रुति-स्मृति भी यहाँ हारी हुई ॥ यत्न हैं अब हो चुके सारे मुधा । पर पिलाई आज है तुमने सुधा ॥३॥ अब बनेगा स्वर्ग यह संसार भी। अब यहां निर्मोह होगा प्यार भी । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ । कृष्ण-गीता वर भी निर्वैर--सा होगा यहाँ । त्याग की जड़ता रहेगी अब कहाँ ॥४॥ है दवा अनुपम तुम्हारी हे सखे । युक्तियाँ कल्याणकारी हे मवे ॥ पर तुम्हे है एक कठिनाई यहां रोग ह शतान का भाई यहाँ ।.५।। पा रहा अनुपम तुम्हारा प्यार हूँ। और औषध के लिये तैयार हूँ ॥ पर कहूँ क्या मै कि माहागार हूं । जन्मजन्मो का विकट बीमार हूं ॥६॥ आ रहे सन्देह के चक्कर मुझे । कटुकमा है दूध गुड़ शक्कर मुझे ॥ बढ़ रहा चिन्ता अनल का ताप है । बोलना भी आज बात-प्रलाप है ॥७॥ पर मिला जब वैद्य है तुमसा मुझ । रोग की चिन्ता भला है क्या मुझे ॥ हो परेशानी तुम्हें मैं क्या करूं । क्यो न सब मन्दह में आगे धरूं ॥८॥ जो कही स्थिति-प्रज्ञकी तुमने कथा । वह करेगी दूर जगकी सब व्यथा ॥ मार्ग है अनुपम सुखों का गेह है। किन्तु पदपद पर मुझे सन्देह है ॥९॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय विश्व-प्रेमी हो न माने जाति क्यों ? और तोड़े कुल कुटुंबी ज्ञाति क्यों ? उस विधाताने किये ये भेद क्यों ? ईशकी कृति में मनुज को खेद क्यों ॥१०॥ विप्र क्षत्रिय वैश्य क्या सम हैं कहो। जन्म से द्विज शूद्र क्या हम हैं कहो ॥ ____एक द्विज भी. हाय शूद्र समान हो । क्यों न द्विजताका बड़ा अपमान हो ॥११॥ काच है तो काच ही कहलायगा । वह न हीरक हारसे तुल पायगा ॥ शक्ति की प्रति-मूर्ति है जो शेर है । श्वान से तुलना करो अन्धेर है ॥१२॥ हो न यदि वषम्य तो संमार क्या । हो न नर नारी विषम तो प्यार क्या ? हो प्रलय यदि साम्यका अतिरेक हो । ___ कौन किसका हो अगर जग एक हो ॥१३॥ एकसे हो सब ज़रूरत क्या रहे ? कौन किसका बोझ अपने पर सहे ॥ रह सके सहयोग का फिर नाम क्यों । काम क्यों ये धाम क्यों ये ग्राम क्यों ॥१४॥ है विषमता है तभी सहयोग भी। हैं विविध रस हैं तभी ये भोग भी ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] कृष्ण-गीता यदि सभी हों एक, क्या होगा भला ? रह न पायेगी कला घुट कर गला ॥१५॥ एक सज्जन एक दुर्जन कर हो । एक कायर एक दिखता शूर हो ॥ विविधता जब इस तरह भरपूर हो । क्यों न तब वह प्रकृति की मंजूर हो ॥१६॥ जातियों की है विविधता व्यर्थ क्या ? जातिके ममभाव का है अर्थ क्या । दूर कर संदेह ममझाओ मुझे । मत्यके पथपर मख लाओ मुझ ॥१७|| श्रीकृष्ण-- गीत १४ भोले भाई त भल रहा कुछ जाति भेद का ज्ञान नहीं । वैषम्य माम्य है योग्य कहाँ इसकी तुझको पहिचान नहीं ।। यदि हो समता का नाम नहीं जग में केवल वैषम्य रहे । नो पलभर में हो जाय प्रलय जगका हो नाम निशान नहीं ॥ यदि हो सत्ता का साम्य नहीं मारे जग में मुझ में तुझ में, नो शून्य रूप हो जगत रहे सत्ता का अणुभर भान नहीं ॥ यदि चेतन की समता न रह खगम, मृगमे, मुझमें तुझमें । जड़ता अखंड होगी ऐसी होगा जिस का अवसान नहीं ॥ मानवता भी यदि जाति न हो मानवकी क्या पहिचान रहे । फिर पशुता का आक्रन्दन हो मानवता की मुसकान नहीं ॥ वैषम्य, साम्यकी माया है यह साम्य ब्रह्म है व्याप्त यहां । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय यदि ब्रह्म नहीं, तो मायाका भी हो सकता है भान नहीं ॥ विषमों में यदि समता न रहे सहयोग बने कैसे उनमें । कैस उनमें पूरकता हो दोनों हों अगर समान नहीं ॥ पद पाणि वक्ष सिर पीठ उदर इन विषमों में समता न रहे। तो हो मुर्दो का ढेर जगत हो जीवन का कलगान नहीं । समता में आर विषमता में मयादा और समन्वय हो । तो ही जीवन की वृद्धि यहां जड़ता का हो उत्थान नह। ।। गीत १५ निरर्थक भेद भाव दे छोड़। ' एक जाति है मानव जगमें सब से नाता जोड़ । ____निरर्थक भेदभाव दे छोड़ ॥२७॥ मैं हूँ गोरा तू है काला । मत कर भेद, न बन मतवाला। एकाकार मनुष्य जाति है उससे मत मुँह मोड़। निरर्थक भेदभाव दे छोड़ ॥२८॥ पशु पक्षी नाना कृत्तिवाले । पर सब मानव एक निराले ॥ इसीलिये मानव मानव में जातिभेद दे ताड़ । निरर्थक भेदभाव दे छोड़ ॥२०॥ विप्र कहाओ शूद्र कहाओ। अथवा क्षत्र वैश्य बनजाओ ।। हैं केवल जीविका-भेद ये दे अभिमान मरोड़ । निरर्थक भेदभाव दे छोड़ ॥३०॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] कृष्ण-गीता गुण से ही मिलता साचा पद । उच्च नीच का है झूठा मद ॥ मदमय मन मत कर, विष हरकर, दे यह विष-घट फोड़ । निरर्थक भेदभाव दे छोड़ ॥३१॥ ___ गीत १६ जातियाँ हैं सब कर्म-प्रधान । जैसा कर्म करे जो मानव वैसा उसका मान । जातियाँ हैं सब कर्म-प्रधान ॥३२॥ ब्राह्मण कुलमें पैदा होकर दिया न जगको ज्ञान । विद्या में जीवन न दिया तो है वह शद्र--समान || जातियाँ ह सब कर्म-प्रधान ॥३३॥ अगर शूद्र कुल में पैदा हो लेकिन हो विद्वान । समझो विप्र, विप्रताकी । है सद्विद्या पहचान ॥ जातियाँ हैं सब कर्म प्रधान ॥३४॥ जन्म निमित्तरूप है केवल हे साधन सामान । साधन पाये कार्य न पाया व्यर्थ नामका गान ।। जातियाँ हैं सब कर्म-प्रधान ॥३५॥ कार्य-सिद्धि होगई मिला यदि गुणगण का सन्मान । कारण पूरे हों कि अधूरे फिर क्या खींचातान ॥ जातियाँ हैं सब कर्म-प्रधान ॥३६॥ सामाजिक सामयिक भेद ये सुविधा के सामान । सामञ्जस्य यहां जैसे हो कर वैसे आदान ॥ • जातियाँ हैं सब कर्म--प्रधान ॥३७|| Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय [ ३३ गीत १७ जातियाँ हमने बनाई कर्म करनेके लिये ॥ हैं नहीं ये दूसरों का मान हरने के लिये ॥३८॥ ईशकी कृतियाँ नहीं ये प्रकृति की रचना नहीं । कल्पना बाज़ार की है पेट भरने के लिये ॥३९॥ जिस तरह सुविधा हमें हो उस तरह रचना करें। जाति जीनके लिये है है न मरने के लिये ॥४०॥ विप्रता की है ज़रूरत शूद्रताकी भी यहां प्रेमसे जग में मिलेंगे हम विचरने के लिये ॥४१॥ विप्रता का मद नहीं हो शूद्रता का दैन्य भी। हो परस्पर प्रेम यह संसार तरने के लिये ॥४२॥ हरि-गीतिका उममें रहे आसक्ति क्यों जिसका न कुछ जड़ मूल है । प्रासाद था जो एक दिन पर बन गया अब धूल है । जो फलसा कोमल कभी था पर बना अब शल है । अनुकूल था जो मूल में अब हो गया प्रतिकूल है ॥४३॥ अर्जुन- (ललित पद) माधव मेरा जाति-मोह अब है मरने को आया । पर बुझते दीपक समान है इसने जोर जनाया ॥ जाति-भेद प्राकृत मत मानो ईश्वरकृति न बताओ। पर निःसार मानलूँ कैसे इसकी युक्ति सिखाओ ॥४४॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] कृष्ण-गीता था वह क्यों अनुकुल मलमें अब प्रतिकुल हुआ क्यों । कम था वह फूल किसी दिन फिर अब शूल हुआ क्यों ॥ था कसे प्रासाद रूप वह पर अब धृल हुआ क्यों । रोपा था किसलिये कभी वह अब गतमूल हुआ क्या ॥४५॥ श्रीकृष्ण --- जब था जाति-भेद जीवन में समता देनेवाला । बकारी की जटिल समस्याएँ हरलेनवाला ॥ जब इसके द्वारा धंधेकी चिन्ता उड़ जाती थी । तभी श्रुति-स्तुति जाति-भेदको हितकर बतलाती थी ॥४६॥ इससे अच्छी तरह अर्थ का होता था बटवारा । देता था मंताप सभी को बनकर शांति-महारा ॥ सुविधा की थी बात. वर्ण का था न मनुज अभिमानी । विप्र शूद्र मब एक घाट पीते थे मिलकर पानी ॥४७|| मब ही की सेवा समाज में, हितकर कहलाती थी। इमीलिये मानव पर मानवको न पूणा आती थी ।। था कुटुम्ब सा जगत मिले रहते थे चारों भाई । जुदा जुदा था कार्य मगर जीवन में न थी जुदाई ॥४८॥ रुचि योग्यता देखकर सबका योग्य विभाग बनाया । बना कर्म से जो विभाग, वह जाति-भेद कहलाया ।। न थी किसी को मिली गुणों की कोई ठेकेदारी । उच्च-नीचता-भेद-भावकी थी न कहीं बीमारी ॥४९॥ खान पान व्यवहार विवाहादिक का भेद नहीं था। विप्र शूद्र से मिले किसी को मन मे खेद नहीं था । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अध्याय वैवाहिक व्यवहार आदि में सब विचार आते थे । किन्तु जातिमद के विचार मुग्व भी न दिग्वा पति थे ॥५०॥ जाति-भेद तब मार-युक्त था अब निस्मार हुआ है। आया जब से दुभिमान तबसे यह भार हुआ है ॥ फैल गया है द्वेप आज दुर्लभतम प्यार हुआ है । दृमीलिये यह स्वग तुल्य जग, नरकागार हुआ है ॥५१॥ बदला कोमल हृदय इमांस अब यह गल हुआ है । अब न शांति छाया मिलता है, इसमे धूल हुआ है। लक्ष्य भ्रष्ट हो गया इससे अब गतमल हुआ है । बदल गया संसार इसीसे, अब प्रतिकूल हुआ है ॥५२॥ मूलरूप में रहें जातियाँ, कोई हानि नहीं है । किन्तु नष्ट हो जाय विकृति मब, फैली जहाँ कहीं है ॥ कार्य-विभाग अवश्य रह पर वह न अमिट हो पाव । निज निजके अनुरूप सभीका, कार्यभेद बन जावे ॥५३॥ जाति भले मिटजाय, विषमता मे न जगत है खाली । सदा रहेगी वह जगमें, सहयोग बढ़ानेवाली ॥ रुचि आदिक का भेद रहे, वह है न कभी दुग्वदाई । दुग्वदाई है जाति-भेद से बिछुड़े भाई भाई ॥५४॥ भेद रहेगा और जम्मरत होगी मबको मवकी । इन भेदों से मगर जाति की, नातेदारी कब की ? भेद रहे वैपम्य रहे वह, जो सहयोग बढ़ावे । पर यह मानव-जाति न चिथड़े चिथड़े होने पावे ॥१५॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] कृष्ण-गीता कर्म-भेदसे जाति-भेद है वह कुछ अमिट नहीं है । बाज़ारू बातों सिवाय फिर, रहता नहीं कहीं है | देश जाति वंशादि भेद से नहीं जाति का नाता । पक्षपात मदमोह आदि से मनुज तुच्छ बनजाता ॥५६॥ जाति-मोह से न्याय और अन्याय भूल जाता है । कार्य-क्षेत्र में तब पद पद पर पक्षपात आता है । प्रेम, न्याय का पक्ष छोड़ कर अंधा बन जाता है । द्वपी और उपेक्षक बनकर ताण्डव दिखलाता है ॥५७॥ वीर छन्द इसीलिये स्थितिप्रज्ञ जाति का मोह सदा रखता है दूर । सर्व-जाति-समभाव दिखाता, भेद-भाव कर चकनाचूर ॥ रहता है निष्पक्ष न्यायरत विश्व-प्रेम का पूर्णागार । बनता है निर्लिप्त और कर्तव्यशील वह परम उदार ॥५८॥ बन जा तू स्थितिप्रज्ञ जगत की झूठी माया से मुँह मोड़ । मानव मानव एक जाति हैं जातिपाँति के झगड़े छोड़ ॥ जो न्यायी है वहीं कुटुम्बी उससे ही तू नाता जोड़ । करले अब कर्तव्य कर्म तू कुल कुटुम्ब का बन्धन तोड़ ॥५९।। (२०६) HAR JVA Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टा अध्याय [३७ अजुन छठा अध्याय ...१४२२. [रोला] माधव मेरा जाति-मोह मर गया आज है । मानवता का आज मनोहर सजा साज है ।। अब न जाति का पक्षपात मुझमें आवेगा । वंश-मोह कुल-मोह दूर ही रह जावेगा ॥१॥ जो न्यायी है और जगत को है सुखदाई । प्रेममूर्ति निष्पक्ष वही है मेरा भाई ।। जन्म भेद से भेदभाव होना न चाहिये । सर्व-जाति समभाव कभी खोना न चाहिये ॥२॥ किन्तु यहां भी मुझे हो रहा है यह संशय । नरनारी का भेद करेगा समता का क्षय ॥ नरनारी की प्रकृति और आकृति विभिन्न है। इसीलिये सम-भाव-सूत्र हो रहा छिन्न है ॥३॥ नर है पौरुष-धाम सुधी कर्मठ बलशाली । दृढ़मन दृढ़तन निडर साहसी गुणगणमाली ॥ . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] कृष्ण-गीता नारीका है भीरु हृदय, है कोमल काया । है विलासिनी और सदा करती हैं माया ॥४॥ हो दोनों मे प्रेम, किन्तु हो ममता कैसे । समता यदि आ जाय रह फिर ममता कैसे ।। अधिकारों का द्वंद क्यों न तब हो घर घरमें । हा दुर्लभ तब शान्ति हमारे जीवन-भरमें ।।५।। श्रीकृष्ण--अर्जुन तुझस पक्षपात हो रहा यहां है । पक्षपात है जहां वहां पर न्याय कहां है । सब में है गुण दोप रहे नर अथवा नारी । किसी एक में है न गुणों का पलड़ा भारी ॥६॥ नारी भी धीमती और है पौरुपवाली । कर सकती है तभी कुटुम्बों की रखवाली । कर्मठता की मूर्ति नहीं होती यदि नारी । कैसे जीता पुरुष प्राण भी होते भारी ॥७॥ यदि नारी का हृदय न होता दृढ़ता का घर । रहता कैसे कुल कुटुम्ब का पता यहां पर । अंधड़के पत्ते समान उड़ते रहते सब । दृढ़ नारीके बिना कौन होता किसका कब ॥८॥ कोमल तन है किन्तु सहनशीला असीम है । कहलाती है भीरु अभय लीला असीम है । है विलासिनी किन्तु त्यागकी मूर्ति न कम है। है एकांगी दृष्टि इसीसे तुझको भ्रम है ॥९॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा अध्याय कैसा है वह कष्ट जिसे सह सके न नारी । कैसी वह दुर्दशा जहां रह सके सहन-शीलता कूटकूट कर भरी जहां है । न नारी । कह सकता है कौन न दृढ़ता भरी वहां है ||१०|| [ ३९ । -- त्याग-- वीरता -सहनशीलता - तप - चतुराई ब्रह्मचर्य - वात्सल्य आदि गुणगण सुखदाई | नरनारी में हैं समान कुछ भेद नहीं है । व्यक्ति-भेद से भेद जगत में सभी कहीं है ॥ ११ ॥ जातीं जो । पातीं जो । हैं ऐसी नारियाँ नरोंसे बढ़ गुणगण पारावार अधिक आदर हैं ऐसे भी पुरुष नारियों से बढ़ जाते । गुण के भंडार अधिक आदर जो पाते || १२॥ नारीमात्र न हीन नहीं नरमात्र हीन हैं । दोनों हैं स्वाधीन परस्पर या अधीन हैं ॥ एक शक्ति की मूर्त्ति एक है शिव की मूरति । दोनों हैं बेजोड़ परस्पर हैं पत्नी पति ॥ १३ ॥ पति स्वामी, यह अर्थ पकड़ कर अगर रहोगे । तो पत्नीका अर्थ स्वामिनी क्यों न कहोगे । है अद्भुत सम्बन्ध परस्पर दोनों स्वामी | या हैं दोनों दास परस्पर या अनुगामी ॥ १४ ॥ यद्यपि कुछ वैषम्य यहां हो रहा ज्ञात है किन्तु उच्चता और नीचता की न बात है | Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] कृष्ण-गीता दोनों ही निज निज विशेषता लिये हुए हैं । दोनों ही अबलम्ब परस्पर दिये हुए हैं ॥१५|| नरकी जो त्रुटि उस पूर्ण करती है नारी । नारी नरके लिये इमीसे है दुखहारी ॥ जो नारी की कमी उसे नर पूरित करता । इम प्रकार नर मकल दुःख नारीके हरता ॥१६॥ जब हैं दोनों जुदे जुदे तब निपट अवरे । जब दोनों अन्योन्य-सहायक तब हैं पूरे ॥ मानव के दो अंग समझलो हैं नरनारी । दोनों ही निज निज विशेषता में हैं भारी ॥१७॥ मामाजिक सुविधार्थ कार्य का भेद बनाया । उच्च नीच का भेद नहीं है इसमें आया ॥ कोई घरमें रहे रहे कोई घर बाहर । अपना अपना काम करें मिलकर नारीनर ॥१८॥ कार्य-भेद से जो स्वभाव का भेद दिखाता । सामाजिक संस्कार आदि से जो आजाता ॥ लगता है वह अचल किन्तु पर्याप्त चपल है। जहां परिस्थिति भिन्न वहांपर अदलबदल है ॥१९॥ कोमलता भीरुत्व अस्त्र-संचालन या रण । माया का बाहुल्य आदि के हैं जो कारण ॥ व स्वाभाविक नहीं, परिस्थिति से आते हैं। जहां परिस्थिति भिन्न वहांपर मिट जाते हैं ॥२०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा अध्याय [४१ 'घर' नारीको दिया दिया जब नरको 'बाहर' तब दोनों में भाव-भेद दिख पड़ा यहां पर ।। बाहर का संघर्ष नहीं नारीने पाया । कोमलता भीरुत्व इसीसे उसमें आया ॥२१॥ रणसज्जाका कार्य नहीं है घरके भीतर । इसीलिये है शस्त्रशून्य नारी जीवनभर ॥ फिर भी लड़ती वहां जहां है अवसर पाती । दिखलाती है शौर्य बिजलियाँ है चमकाती ॥२२॥ नर करता जो कार्य वही नारी कर सकती ।। नर हरता जो विपद वही नारी हर सकती ॥ गुण दुर्गुण के योग्य सभी हैं नर या नारी । नर 'बेचारा' कभी कभी नारी 'बेचारी' ॥२३॥ घर बाहर का भेद बना भेदों का कारण । दृर हुआ ईमान और टूटा नरका प्रण । अर्थ-मत्र का दुरुपयोग कर बैठा नर जब । नारी लुटसी गई न्यून अधिकार हुए. तब ॥२४॥ तब ही अबला बनी बढ़ी तब उसकी माया । निर्बलता है जहां वहां मायाकी छाया ॥ नर या नारी रहे जहां निर्बलता होगी । होगा मायाचार वहीं पर खलता होगी ॥२५॥ यदि नर घरमें रहे रहे यदि नारी बाहर । नर नारी सा बने बने नारी मानो नर ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] कृष्ण-गीता कामलांग नर बन बने अतिमायाचारी । भीरु सतत लज्जालु परमुखाकांक्षाधारी ॥२६॥ अर्थमत्र आजाय अगर नारीके करमें । उसका शासन चले नगर--भरमें घर-घरमें ॥ पुरुषों के गुण-दोप नारियों में आजावें । नारीके गुण दीप नरों में स्थान जमावें ॥२॥ नरनारीके दोष और गुण अमिट नहीं जब : है नरत्व का पक्षपात उन्माद व्यर्थ नव ।। दाना में समभाव समादर सदा चाहिये । दोनों समबल बन जगत् कल्याण के लिये ॥२८॥ पार्यभेद भी रहे हानि की बात नहीं है । सबकी मुविधा जहां न्यायकी बात वहीं है । जिसमें जो हो योग्य वहां वह हा अधिकारी । पर इसका यह अर्थ नहीं, हो अयाचारी ॥२९॥ अपना अपना काम सँभालें मिले रहे पर । जुदे रहे वादित्र मगर हो मिला हुआ स्वर ॥ नीच ऊँच का भेदभाव धरना न चाहिये । समझौते का दुरुपयोग करना न चाहिये ॥३०॥ 'नारी तो है भोग्य' नहीं यह समझो मनमें । और न गणना करो कभी नारी की धनमें ॥ नारी नर के तुल्य भोज्य या भोजक दोनों । विश्वरंग के हैं समर्थ ये योजक दोनों ॥३१॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टा अध्याय नारी को यदि पुरुष-परिग्रह जाना तुमने । उसको दासी-तुल्य भलकर माना तुमने ॥ तो समझो अंधेर मचाना ठाना तुमने । मत् शिव सुन्दरका न रूप पहिचाना तुमने ॥३२॥ नारी को धनरूप समझना अति अनर्थ है । यदि अनर्थ यह रहे मभ्यता आदि व्यर्थ है ॥ इ. अनर्थ के कुफल चग्वे है तुमने अर्जुन । तड़प रहा है हृदय लगा है जीवन में घुन ॥३॥ तुम लोगों में अगर समझदारी यह आती । नर नारी में यदि समानता आने पाती । तो अनर्थ की परम्परा कैमे दिग्वलाती । क्यों देवी द्रौपदी दावपर रक्खी जाती ॥३४॥ दुःशासन निर्लज्ज नीचता करता कैसे । भाभीकी भी लाज सभामें हरता कैसे ॥ मनुष्यत्व को छोड़ पाप-घट भरता कमे ॥ भीष्म द्रोणका मनुष्यत्व भी मरता कैसे ॥३५॥ क्यों अंधा धृतराष्ट्र हृदय का अन्धा होता । पुत्रवधू का लाज लुटाकर लज्जा खोता ॥ धर्मराज का धर्म लगाता धुंघट कैसे । पड़ता सब के मनुष्यत्व घटपर पट कैसे ॥३६॥ कैसा यह अंधेर अरे यह कैसी छलना । है पशुओं के तुल्य आज आर्यों में ललना ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] कृष्ण-गीता यह है गलना कोढ़ सभ्यता का हे गलना । मानवको रह गया आज जीते जी जलना ॥३७॥ नारी हो सम्पत्ति दाव पर रक्खी जावे । माता पुत्री बहिन क्यो न तब धन कहलांवे ।। फिर तो धनक तुल्य बने नर इन का भी पति । हो अतिपापाचार महाव्यभिचार अधोगति ॥३८॥ नर-नारी-समभाव अगर रख सके न मानत्र । तो मानवता दूर रहे है मानव दानव ॥ क्यो फिर नरवा परोक्ष रहे पंडित-प्रजल्पना । घर घरमें प्रत्यक्ष बने जब नरक-कल्पना ॥३९।। नर-नारी-वैषम्य वक्ष हे फलने आया । उसने कैसा आज महाभारत मचवाया ॥ गर्ज रहा है आज पाप, पीड़ित के सम्मुख । तड़प रहा है न्याय और पापी पाता सुरव ॥४०॥ पापों का भी पाप यहां संकलित हुआ है। सत्यासन भी आज यहां पर चलित हुआ है । नहीं समझ द्रौपदी मान ही गलित हुआ है । किन्तु आज नारीत्व यहां पद-दलित हुआ है ॥४१॥ दूर हटा अविवेक पापके खंड खंड कर । यह प्रचंड कोदंड उठा अत्याचारों पर ॥ गूंज उठे ब्रह्मांड जगे यह जगत चराचर । नरनारी समभाव जगत में फेले घर घर ॥४२॥ (२४८) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय [ ४५ सातवाँ अध्याय अजुन (रोला) माधव तुमन सर्व--जाति-समभाव सिग्वाकर । नरनारी के योग्य न्याय्य सम्बन्ध दिग्वाकर ।। जाति -पाँति का भूत भगाया मेरे सिरस । पक्षपात की जड़ उखाड़ दी तुमने फिरसे ॥१॥ नरनार्ग का पक्षपात अब क्या आवेगा । कुल कुटुम्ब का मोह यहां क्यों दिग्वलांवगा। पनपेगा समभाव बनेगा हृदय विरागी । बनकर मैं स्थितिप्रज्ञ बनूंना मच्चा त्यागी ॥२॥ पक्षपात को छोड़ दिया है मैंने माधव । नहीं रहा अब शेष किसी से मुझ मोह लव ।। लेकिन कहदो पाप-पुण्य-समभात्र करूँ क्या । समभावी बन कहो जगतकं प्राण हमें क्या ॥३॥ सब धर्मो में मुख्य अहिंसा धर्म बताया । पर है हिंसा-कांड यहां पर सन्मुग्व आया ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] कृष्ण- गीता कैसे हिंसा करूं अहिंसा कैसे छोडूं । बंधन तोडूं ॥४॥ क्यों हिंसा से विश्व-प्रेम का समझा मैं स्थितिप्रज्ञ नहीं है द्वेपी समभावी है पक्षपात का पूर्ण वह सारे कर्तव्य करेगा निर्भय रक्वेगा समभाव मोह ममता को रागी । त्यागी ॥ होकर | धोकर ||५|| क्यों न रहेगा । सहेगा । पर वह कार्याकार्य - विवेकी क्यों हिंसा के परम पाप का ताप अकर्तव्य कर्तव्य बनायेगा वह कैसे | कार्याकार्य विवेक न पायेगा वह कैसे || ६ || यद्यपि तुम हो बन्धु, मुझे इतना समझाते । पर संशय कल्लोल एक पर एक दिखाते || ये संशय कल्लोल शान्त तुम ही कर सकते | सारी विपदा मनोवेदना तुम हर सकते ||७|| बोलो प्यारे बन्धु मढ़से फिर भी बोलो । मुझ अन्धेके ज्ञान-न-न करुणाकर खोलो । रहूं अहिंसक छू न सके हिंसा की छाया । कर जाऊं कर्तव्य मोहकी लगे न माया ||८|| ( हरिगीतिका ) श्रीकृष्णअर्जुन तुझे संशय हुआ इसका न मुझको खेद है || ऋषि मुनि समाजाते यहां मिलता न इसका भेद है ॥ हिंसा अहिंसा है कहां, तुझको अभी अज्ञात है । 'होती अहिंसा किस जगह हिंसा, कठिन यह बात है ॥९॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय [ ४७ है प्राणियों का नाश हिंसा कोष का यह अर्थ है । पर कार्य के सुविचार में यह अर्थ होता व्यर्थ है । हिंमा अहिंसा को समझले मूलसे अब तू यहां तब समझमें आजायगा हिंसा अहिंसा है कहाँ ॥ १० ॥ पहिले समझले 'पाप हिंसा है' कहा यह किसलिये । हिंसा बताया धर्म क्यों ये भेद क्यों किसने किये ॥ उत्तर यही है शान्ति होती है अहिंसा से सदा । अधिकार का रक्षण तथा कल्याण होता सर्वदा ॥ १५ ॥ दुखमूल हिंसा है, अहिंसा शान्ति - सुखका मूल है | यह नियम है सच्चा मगर दिखता कभी प्रतिकूल है । दुग्ख- दासता - कारण अहिंसा देखते हैं हम कभी । हिंसा भयंकर भी दुःखों का बोझ करती कम कभी ॥ १२ ॥ अन्याय हो फिर भी अहिंसा को लिये बैठे रहो । तो पाप का तांडव मचेगा शांति क्यों होगी कही । एकान्त हिंसा या अहिंसा का न करना चाहिये । सन्नीति-रक्षण के लिये भूभार हरना चाहिये || १३ || अन्यायियों को दंड यदि मानव नहीं दे पायगा । तो न्याय की वह दुर्दशा होगी कि सब लुट जायगा ॥ होगी अहिंसा मृत्युसम कल्याण के प्रतिकूल ही । फिर धर्म क्यों होगा अहिंसा यदि बने. सुखशूल ही ||१४|| यदि अल्प हिंसा से अधिक हिंसा टले सुख शान्ति हो । तो 'अल्प हिंसा है अहिंसा' क्यों यहां पर भ्रान्ति हो ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] कृष्ण-गीता मुग्व शान्ति का जो मूल है वह ही अहिमा धर्म है । हा वह अहिमा म्प हिंसारूप या सत्कर्म है ॥१५॥ स्वाभाविकी हिंमा है पञ्चविध हिंसा प्रथम 'स्वाभाविकी यह नाम है | जो है न हिंसामपिणी जो प्रकृतिका परिणाम है ॥ अनिवार्य है, उसके लिये कोई इरादा है नहीं । वह स्वाम उवामादि में होती मदा है भव कह। ॥१६॥ जीवन मरण का काय प्राकृत रानिमे जो चल रहा । म्वाभाविकी हिंमा अवश्यम्भावि फल उमका कहा ॥ है प्राणिवध होता यहां हाता नहीं पर पाप है । इसम किमी का दोप क्या यह प्रकृतिका अनुताप है ॥१७॥ आत्मरक्षिणी हिंसा अन्याय अन्याचार अपने पर अगर कोई करे । बन आततायी मनुज या पशु प्राण भी अपन हरे । नो आत्मरक्षण के लिये संहार यदि अनिवार्य है। तो है न हिंसा प्राणिवध में प्राणिवध भी कार्य है ॥१८॥ औचित्य की सीमा रहे, इसमें नहीं फिर दोष है । जो आत्मरक्षक है, रहे हिंसक, मगर निर्दोष है ।। दोपी वही जिसने प्रथम अन्याय से समता हरी । निजरक्षिणी है यह अहिंसारूप हिंसा दूसरी ॥१९॥ पररक्षिणी हिंमा संसार का जो शत्रुसा है नीतिका नाशक तथा । निर्दोष लोगों के लिये देता मदा नवनव व्यथा ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय जो देशको या कुल कुटुम्बी मित्र दल को त्रास दे । निर्दोष का संहार कर जो नरकका आभास दे ॥२०॥ संहारमय जिसकी प्रकृति, जो शान्तिका मंजन करे । हो रौद्र, जन-संहार में जो हृदय का रंजन करे ॥ जो भार है संसार का है स्रोत अत्याचार का । जो आततायी विश्वका वह पात्र है संहारका ॥ २१॥ निज देश-रक्षण के लिये यदि युद्ध भी करने पड़े । यदि आक्रमणकारी दलों के प्राण भी हरने पड़े ॥ अधिकार रक्षण के लिये यदि शत्रु वध अनिवार्य है । तो है नहीं हिंसा यहां कर्तव्यका ही कार्य है | २२ ॥ यदि पापियों के पाप से अपनी न कोई हानि हो । पर दूसरों की हानि हो बनता जगत दुखग्वानि हो । इसके लिये हिंसा हुई वह जान ले करुणाभरी । 'पररक्षिणी' यह है अहिंसारूप हिंसा नीमरी ॥२३॥ आरम्भजा - हिंमा 'आरंभजा ' हिंसा यथा सम्भव न हिंसागार है । गृहकार्य में उद्योग में जो वृत्ति का आधार है । कृषिकार्य में हिंमा यही जिसमें न कोई दोष है । जो अन्न देकर मांस भक्षण रोकती, यह तोप है ||२४|| आरम्भजा हिंसा कही अनिवार्य जीवन के लिये । इससे न हिंसारूप है यह प्राण हैं इसने दिये ॥ आरम्भ यदि ये बन्द हों मानव वृथा मर जायगा | फिर साधुता होगी कहाँ बस पाप ही भर जायगा ||२५|| [ ४९ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] कृष्ण-गीता अनिवार्य जो आरम्भ हो उमको ममझ मत पाप तू । वह दूसरा करदे करे या कार्य अपनेआप तु ॥ है कार्य दोना एकसे अन्तर समझना व्यर्थ है । निर्दोष बनने के लिये आलस्य एक अनर्थ है ॥२६॥ उद्योग सारे एक ही नर है न कर सकता कभी । जितना बन जो काम जब उतना करे हम सब तभी ॥ जो बन सके वह जग करे जो बन सके वह हम करें । हां, बन सके जि.नी वहाँ तक प्राणि-हिसा कम करे ॥२॥ आरम्भ या उद्योग छोड़ा यह अहिमा है नहीं । होता जहां पर भोग है तजन्य हिंसा भी वहीं ॥ आरम्भका है त्याग अपरिग्रह बनाने के लिये । मितभोगता है विश्व की सेवा बजाने के लिये ॥२८॥ हाँ, जो अनावश्यक रहे उद्योग वह करना नहीं । या प्राणिवव को लक्ष्य करके पाप-घट भरना नही । जितना बने उतना अहिंसा के लिये ही यत्न हो । हिंसा अहिंसा के लिये करके मनुज नररत्न हा ॥२९॥ संकल्पजा हिमा संकल्पजा है पाँचवीं हिंसा यही है दुवकरी । निर्दोष का वध है जहां हिंसा वहीं है अघभरी ॥ दुःस्वार्थवश अपराध-हीनों को अगर कुछ दुख दिया । संकल्प जा हिंसा हुई जिसने जगत दुखमय किया ॥३०॥ मिलता अगर है अन्न तो है मांस-भक्षण में यही । हो यज्ञके भी नामपर पशु-वध, यही हिंसा कही । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय [५१ निर्दोष पशुके रक्तकी नदियाँ बहाना किसलिये ।। जब अन्न ईश्वरने दिया तब मांस खाना किसलिये ॥३१॥ संकल्पजा हिंसा किसी को भी न करना चाहिये। 'सत्वेषु मैत्री' का हृदयमें भाव धरना चाहिये । अनिवार्य हिंसा हो कभी तो न्यून से भी न्यून हो । यह पाप का भी पाप है नाहक किसीका खून हो ॥३२॥ है पंचविध हिंसा मगर संकल्पजा ही त्याज्य है । संकल्पना हिंसा जगत में पापका साम्राज्य है । अवशिष्ट हिंसाएँ अहिंसा--तुल्य या क्षतव्य है । यों बाह्य हिंसा के विषय में ये विविध मन्तव्य हैं ॥३३॥ हिंसा कही है पंचविध षड्विध अहिंसा की कथा । होती अहिंसा भी कभी हिंसा-जनक, देती व्यथा । हिंसा अहिंमा है नहीं निर्णीत बाह्याचार से । निर्णीत होगी भावना फल आदि नाना द्वार से ॥३४॥ बंधुत्वजा अहिंसा बन्धुत्वजा पहिली अहिंसा प्रेम की जो मूर्ति है । निःस्वार्थ है पर प्राणियों के स्वार्थ की परिपूर्ति है । जिससे हृदय की वृत्ति हो बन्धुत्वमय करुणावती । है विश्व-प्रेममयी वही सच्ची अहिंसा भगवती ॥३५॥ ___ अशक्तिका-अहिंसा हिंसा हृदय में है भरी पर शक्ति करने की नहीं । दिल जल रहा पर योग्यता है जलन हरनेकी नहीं ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] कृष्ण-गीता यद्यपि अहिंसा-रूपिणी है पर नितान्त अशक्तिका । इससे न मिल सकता कभी परिचय अहिंसा-भक्तिका ॥३६॥ निरपेक्षिणी-अहिंसा सम्पर्क में आते नहीं संसारके प्राणी सभी । रहती उपेक्षा हो इसीसे हो नहीं हिंसा कभी ॥ समझो निरर्थक है अहिंसा है न संयमरूपिणी । है प्रेम की सद्भावना से शून्य वह निरपेक्षिणी ॥३७॥ कापटिकी-अहिंसा होती अहिंसा घोर हिंसा--रूप कापटिकी यहां । बाहर अहिंसा है मगर भीतर भरी हिंसा जहां ॥ 'मर जाय' इस दुर्भाव से होता जहां रक्षण नहीं । बनते बहान सकड़ों छलपूर्ण कापटिकी वहीं ॥३८॥ स्वार्थजा--अहिंसा यह स्वार्थजा भी है अहिंसा स्वार्थ जिसका मूल है । पर-प्राण-रक्षण भी जहां पर स्वार्थ के अनुकूल है ।। जग पालतू पशु आदि की करता इसीसे है दया । कैसे चलेगा काम यदि धनरूप यह पशु मर गया ॥३९॥ मोहजा--अहिंसा होती अहिंसा मोहजा भी जो कि है स्वाभाविकी । घरघर भरी रहती यही जिस पर सभी दुनिया बिकी। है मनजकी तो बात क्या पशुपक्षियों में भी रही । सन्तान-वत्सलता इसी की मति है अनुपम कही ॥४०॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय [५३ मित्रत्व में भ्रातृत्व में दाम्पत्य में भी यह रहे । नाते यहां जितने बने सबमें यही धारा बह ॥ जितना रहे अविवेक उतनी ही रहे दुग्यकारिणी । यह मोहजा व्यापक अहिंसा है विवेक-निरिणी ॥४॥ मन में रहा अविवेक फिर इसके अगर पाले पड़े । कर्तव्य से चूके गिरे पथ में न रह पाये खड़े ।। जो है विवेकी मोह जा के पाश में न समायगा । कर्तव्य में तत्पर रहेगा कर्मयोग बतायगा ॥४२॥ सचमुच अहिंसा ही कसौटी है सकल सत्कर्म की । रहती अहिंसा है जहां सत्ता वहीं है धर्म की । पर बाहिरी हिंसा अहिंसा से न निर्णय कर कभी । होती अहिंसा बाह्य-हिमा-रूप भी मत डर कभी ॥४३॥ कल्याण जिस में विश्वका हो और हो निःस्वार्थता । फिर हो अहिंसा या कि हिंसा पापका न वहां पता ॥ है मोहना तेरी अहिंसा मूल में न विक है । वह है नहीं सच्ची अहिंसा मोहका अतिरेक है ॥४४॥ तू छोड़ यह जड़ता तथा यह मोह माया छोड़ दे। बन जा विवेकी रूढ़ि का जंजाल माग तोड़ दे । निर्णय सभी सापेक्ष हैं अन्याय हरने के लिय । अब त उठा गांडीव यह कर्तव्य करने के लिये ॥४५॥ [२९३) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] कृष्ण-गीता आठवाँ अध्याय . :-.".C-- - अर्जुन- (हरिगीतिका) कर्तव्य मैं कैसे करूं जब बढ़ रहा जंजाल है । ज्यो ज्यों सिखात हो मुझे त्यों त्यो बिगड़ता हाल है।। हिंसा अहिंसा मे अगर व्यतिकर यहां हो जायगा । माधव, कहो संसार में तब सत्य क्या रहपायगा ॥१॥ हिंसा अहिंसा भी अगर सापेक्ष हैं तब धर्म क्या । निश्रित बता दो बात मुझको सन्यमय है कर्म क्या ॥ हिंसा अहिंसा हो, अहिंसा ही अगर हिंसा यहां । सापेक्ष जब होगी अहिंसा सत्य तब होगा कहां ॥२॥ है सत्य ही निर्णय-निकष कर्तव्य की या धर्म की । जो सत्यसे निश्चित न हो फिर क्या कथा उस कर्मकी ।। सापेक्षता का हो जहां चाञ्चल्य निर्णय क्या वहां । निर्णय नहीं तो सत्यकी अ भा दिखा सकती कहां ॥३॥ है सत्य निश्चित एकसा हाता न डावाँडोल है। होता न डावाँडाल जो जग म उसीका मोल है ॥ हिंसा रहे हिंसा अहिंसा भी अहिंसा सब कहीं । निरपेक्ष निश्चय हो जहां बस सत्य भी होता वहीं ॥४॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्याय [५५ श्रीकृष्ण-- गीत १८ करके विचार तने सचका पता न पाया । होती जहां अहिंसा सच भी वहीं समाया ॥ कर....॥५॥ कल्याणरूप ही हैं सब धर्म कर्म जगके । कल्याण का विरोधी है सत्यकी न छाया । करके....॥६॥ कल्याण-कारणों मे सापेक्षता भरी जब ।। तब क्यों न धर्म भी हा सापेक्ष रूा गाया । करक.....||७|| सापेक्ष है अहिंसा सापेक्ष सत्य भी है । सापेक्ष सब जगत है निरपेक्ष भ्रम बताया।। करक....॥८॥ मत मान तथ्यको ही सर्वत्र सररूपी । होता असत्य भी वह सुग्वकर म जो कहाया । करके... ॥२॥ 'समझा अतथ्य को क्यों 'हरदम अमत्यरूपी । होता अतथ्य भी सच कल्याणकर बनाया । करके....॥१०॥ कल्याण की अपेक्षा निर्णय सभी करेंगे । निरपेक्ष व्यर्थ ही है वह है असत्य माया ॥ करक....॥११॥ दोहा जिस प्रकार सापेक्ष है परम अहिंसा धर्म । उस प्रकार हे सत्य भी समझ धर्म का मर्म ॥१२॥ तथ्य सत्य में भेद है सत्य करे कल्याण । तथ्य बताता वस्तु है हो कि न हो जन-त्राण ॥१३॥ अगर विश्वहित हो नहीं तो अपथ्य है तथ्य । विश्व-हितकर हो अगर तो अतथ्य भी पथ्य ॥१४॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता मन्य रह मापेक्ष यों तो क्या इससे हानि । जब निश्चित मापक्षता होती है सुख-खानि ॥१५॥ संशय वहां न रह मके हृदय न डावाँडोल । जहां रहे मापक्षता निश्चित और अलोल ॥१६॥ 'अमुक अपेक्षा मे अमुक दुखकर या सुख-खानि ' मे निश्चय मे मदा होती संशय-हानि ॥१७॥ निश्चय होना चाहिये हो कर्तव्य प्रकाश । कभी अपेक्षामे नही होता निश्चय-नाश ॥१८॥ यदि विवक हो तो मदा निश्चित होता कार्य । यदि विवेक मनमे न हो तो भ्रन है अनिवार्य ॥१९॥ रख विवेक मनमें सदा समझ अहिंमा सत्य । है विवेक के राज्य में अतिदुर्लभ दोगत्य ॥२०॥ सत्यामत्य-स्वरूप है तथ्य अनेक प्रकार । सदमरूप उसी तरह है अतथ्य-परिवार ॥२१॥ (ललितपद) तथ्य चारविध कहा, प्रथम विश्वास-प्रवर्धक भाई । शोधक पापोत्तेजक निंदक इनमें दो सुखदाई ।। पहिले सत्य-स्वरूप और अंतिम दो मिथ्या वाणी । जीवन की लहलही लतापर दोनों तीक्ष्ण कृपाणी ॥२२॥ विश्वास-वर्धक तथ्य जो हो जितना ज्ञात उसे उतना ही ज्ञात बताना । व्यर्थ कल्पनाओं से झूठी बातें नहीं सुनाना ।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्याय स्वार्थ रहे या जाय तथ्य का नाश न होने पावे । मुख से निकला वचन चित्र अन्तस्तल का बतलाव ॥२३॥ मन तन वाणी में न विविधता हा न जरा भी माया। हो अतथ्य का लश नहीं यह परम--सत्य बतलाया । प्रथम भेद विश्वास-प्रवर्धक जिम पर जग चलता है। है विश्वास-पिता अतिनिश्चल जो न कभी ढलता है ॥२४॥ शोधक तथ्य प्रमभाव से शुद्ध चित्त से पर के दोष दिग्वाना । 'हो सुधार इसका' ऐसे ही भाव हृदय में लाना । वाणी कोमल या कठोर हा पर न कठिन मन हावे । रहे पूर्ण वात्सल्य, हितैषी बन, सारा मल धोत्रे ॥२५॥ प्यारे जनका या समाज का यो मंशोधन करना । पर मनमें अभिमान न लाना भान न पर का हरना । विनयी हाकर दृढ़हृदयी जो परको सुपथ बताना । उसका तथ्य मधुर या कटु मब शोधक नथ्य कहाता ॥२६॥ पापोत्तेजक तथ्य घटना तथ्य-पूर्ण हो लेकिन दुराचार फैलाव । दिखलाती हो पाप-विजय दुष्पथ में मन ललचावे । जैसे द्यत आदि पापों से बना अमुक धनवाला । तो यह तथ्य असत्य रूप है पड़ा पाप से पाला ॥२७॥ वर्तमानमें ये घटनाएँ तथ्य रूप पाती हैं । पर त्रैकालिक परम तथ्य की वाधक बन जाती हैं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] कृष्ण-गीता इनको सत्य समझ कर मानव बनता स्वार्थी कामी । पापोत्तेजक तथ्य इसीसे है असत्य-अनुगामी ॥२८॥ निंदक तथ्य बात ठीक है किन्तु हमारा आशय हो पर-निंदा । अपनी शेखी मार दूसरों को करना शरमिंदा । गाली आदि कटुक वचनों के भीतर प्रेम न होवे । हो न सुधार भावना सच्ची, समता सीमा खोवे ॥२९॥ अविवेकी अति क्रोधी मानी स्वार्थी बनकर बकना । वाणी की संयमता खोकर नाना तरह थिरकना ।। कितना भी हो तथ्य किन्तु वह है जगको दुखकारी। निंदक तथ्य इससे कहलाता असत्य-सहचारी ॥३०॥ हो वैज्ञानिक खोज या कि संशोधन बात अलग है। प्रिय अप्रिय हो शुद्ध ज्ञान से बढ़ता सारा जग है । आज नहीं तो कल सुतथ्यका फल अच्छा दिखलाता। इसीलिये विज्ञान तथ्य के पथ में बढ़ता जाता ॥३१॥ वैज्ञानिक-विचारणाएँ जो तथ्य हमें बतलावें । उससे सत्य-पंथ निर्मित कर उस पर जगत चलावें । पर नय पथ में तथ्य नाम से वस्तु न बाधा डाले । तथ्य सत्य का अनुचर होकर जगका श्रेय सँभाले ॥३२॥ अतथ्य के छः मेद-(दोहा) है अतथ्य षड्विध कहा अन्तिम चारों सत्य । दोनों प्रथम असत्य हैं है जिन में दौर्गत्य ॥३३॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्याय [५९ वंचक निंदक युगल यह है असत्य भंडार । पर-पीड़क झूठे वचन दोनों दुखद अपार ॥३४॥ पुण्योत्तेजक स्त्र पर का रक्षक और विनोद । हैं अतथ्यमय किन्तु ये रहे सत्यकी गोद ॥३५॥ वंचक अतथ्य जहाँ वंचना जगत की नित झूठा व्यवहार । विश्वामों का घात हो फैला मायाचार ॥३६॥ स्वार्थ करें तांडव जहाँ ठगकर पर की हानि । है अतथ्य वंचक वहां परम पाप की ग्वानि ॥३७॥ निंदक अतथ्य तिरस्कार का भाव हो रहे क्रोध अभिमान । है अतथ्य निंदक जहां गाली आदि प्रदान ॥३८॥ पुण्योत्तेजक अतथ्य नीति सिखावे जगत को ऐसे कथा-प्रसंग । तथ्यहीन भी हा मगर कहे सत्य के अंग ॥३९॥ इसी तरह भवृत्त या स्वर्ग-नरक की बात । तथ्यहीन हो पर नहीं करे सत्य का घात ॥४०॥ वहीं सत्यका घात है जहां नीति का घात । नीति और समभाव की वर्धक सच्ची बात ॥४१॥ सत्पथ में जो दृढ़ करे दूर करे दौर्गत्य । तथ्यहीन हो पर कहा पुण्योत्तेजक सत्य ॥४२॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ) कृष्ण-गीता किन्तु कर विश्गम या श्रद्धा का जो चूर । बुद्धि-अमंगत बात कह रहे सर्वदा दूर ॥४३॥ पुण्यात्तेजक मन्य में जितना होगा तथ्य । उतना ही होगा अधिक वह जीवन को पथ्य ॥४४॥ पुण्योत्तेजक सत्य जो कहलाता है आज | कल असत्य होता वही विकसित अगर समाज ॥४५॥ इसीलिये इम मत्य में जाग्रत रह विवेक । किसी नम्ह होने न दे अतथ्य का अनिक ॥४६।। स्वरक्षक अतथ्य अपने पर करता अगर कोई अन्याचार । डाकू लम्पट आदि यदि देते कष्ट अपार ॥४७॥ या कि युद्ध में वंचना करता हो अरिपक्ष । तो तथ्य भी क्षम्य है निजरक्षण में दक्ष ॥१८॥ किंतु विपक्षी से अधिक हो अपना अपराध । फिर अतथ्य व्यवहार हो तो हे पाप अगाध ॥४९॥ निज-रक्षण के नाम में अनुचित कथा-प्रसंग । कभी क्षम्य होंगे नहीं वे असन्य कं अंग ॥५०॥ अपने न्याय्य रहस्य को यदि रखना हो गुप्त । तो अतथ्य व्यवहार से सत्य न होता लुप्त ॥५१॥ पर--रक्षक अतथ्य निज-रक्षक की तरह है पर-रक्षक का रूप । नाति सदा सुग्वरूप है है अनीति दुखरूप ॥५२॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवा अध्याय जग पर अत्याचार हो उनको करने नष्ट । हो अतथ्य व्यवहार वह है न सत्य से भ्रष्ट ॥५३॥ विनोदी अतथ्य वंचकता मन में न हो और न ईप्पीभाव । प्रेम भक्ति वात्सल्य हो हो न स्वार्थ का दाव ॥५४॥ प्रेम प्रकट हो और हो, प्राप्त सभी को माद । ना अतथ्य भी सत्य है जहां विशुद्ध विनोद ॥५५॥ [ललित पद ] सत्यासत्य अतथ्य-तथ्यका भेद समझ ले भाई । पूर्ण मत्य अज्ञय, ज्ञेय में विविध अपेक्षा आई । जहां अहिंसा वहीं सत्य भी आना मदन बनाता । जहां सत्य प्रभु हो विराजता वही अहिंमा माता ॥५६॥ जहां न्याय की रक्षा होती वहीं मन्य आता है। जहां मन्य है वहीं अहिंमा को मनुष्य पाता है । ये दोनो ही धर्म-मार है है घट घट के वासी । उन्हें समझ, कर्तव्य-पंथमें बढ़ चल छोड़ उदासी ॥५॥ (३५०) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] अर्जुन कृष्ण- गीता नक्माँ अध्याय 1 दोहा माधव क्या सापेक्ष है यह माग जंजाल " ध्रुव है મી अध्रुव यहां विकट काट की चाल ॥१॥ गीत १९ जगकी कैसी अजब कहानी | सब चचल है पर इसकी चंचलता किसने जानी ॥२॥ चंचल अनल अनिल भी चचल चचल है यल पानी । रवि आणि तारागण भी चंचल सत्र मे खीचातानी || जगकी कैसी अजब कहानी ||३|| निवल सबल निर्धन चचल है चचल राजा रानी | वैभव की थिरता तो जग मे कौडी मोल बिकानी || जगकी कैसी अजब कहानी ||४|| खाली आते खाली जाते कृपण धनेश्वर दानी | फिर भी खीचातानी दुनिया कैसी है दीवानी ॥ जगकी कैसी अजब कहानी ||५|| मिली अचंचल वस्तु न कोई कण कण दुनिया छानी । फिर भी यह धोखे की टड्डी किस किमने पहिचानी || जगकी कैसी अज़ब कहानी ||६|| Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाँ अध्याय [ ६३ रोला मुझको है स्वीकार जगत चंचल है सारा । आना जाता बहे यथा सरिता की धारा ॥ लेकिन धारा का न अगर हो अटल किनारा । तो धारा क्या बहे बहे जल मारा मारा ||७|| मह सकता हूँ अगर जगत चंचल है साग । किन्तु अटल हा धर्म दिशा-सूचक ध्रुवतारा । मन्य अहिसा रूप धर्म भी यदि चंचल है । अपरिग्रह गीलादि धर्म में फिर क्या वल है ॥८॥ यदि ये जगदाधार धर्म भी अटल न होंगे । तब सब जगमें पुण्यपाप भी मफल न होंगे । चोरी। या व्यभिचार करेगा मानव जब जब । कह देगा ‘मापक्ष धर्म यह पाप न ' तब तब ॥९॥ तब पापी को भीति गप की रह न सकेगी । बढ़ जावेगा पाप त्रिलोकी सह न सकेगी ॥ चारों को मापक्ष कहोगे माधव कसे । व्यभिचारी का छा महागे माधव कैम ॥१०॥ तब मन--चाह पाप जगत में रम्य बनेंगे । दुर्योधन के दुष्ट--चरित भी क्षम्य बनेंगे । दुःशासन निर्दोष बनेगा गर्ज गर्ज कर । पुण्य दबेगा और पाप गर्जेगा घर घर ॥११॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ । कृष्ण-गीता पुण्य पाप का भेद दिखाओ मार्ग सुझाओ । कर्तव्याकर्तव्य कसौटी कर दिखलाओ ॥ सत्य अहिंसा रहे रहें सब धर्म अचंचल । निःसंशय हो धर्म न्याय का बल ही हो बल |॥१२॥ श्रीकृष्ण-- गीत २० यह माह कहां से आया । साफ़ माफ़ बातें थीं मेरी तूने जाल बनाया । यह मोह कहां से आया ॥१३॥ सत्य अहिसा ब्रह्म अचंचल चंचल उसकी छाया । ब्रह्म अगम्य अगोचर भाई गोचर उसकी माया । यह मोह कहां से आया ॥१४॥ उसी ब्रह्म की छाया से ही धर्म विविध वन आया । इसीलिये सापेक्ष रूप में विविध धर्म बतलाया ।। यह मोह कहां से आया ॥१५॥ होता जो सापेक्ष, नहीं वह संशय रूप-कहाया । समझ, अगम्य ब्रह्मने अपना गम्यरूप दिखलाया । यह मोह कहां से आया ॥१६॥ [ ललितपद] जब हैं सत्य अहिंसा निश्चल सकल धर्म निश्चल हैं । शील अचौर्य असंग्रह आदिक इन दोनों के दल हैं । हिंसा और असत्य बिना चोरीका पाप न होता । इन दोनो के बिना जगत में कोई ताप न होता ॥१७॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाँ अध्याय चौर्य कार्य में परधन--रूपी प्राण हरे जाते हैं। बिना असत्य वचन के बोले चोर न बन पाते हैं । इसीलिये है चौर्यकार्य हिंसा असत्य की छाया । तभी इसे हिंसा असत्यके अन्तर्गत बतलाया ॥१८॥ जिसने झूठ बोलना छोड़ा उसने चोरी छोड़ी। हिंसा छोड़ चला जो कोई छोड़ी यह सिरफोड़ी ॥ मनमे दया बसी चोरीने रिश्तेदारी तोड़ी । कैसे रहे निगोड़ी जब हे सत्य अहिंसा जोड़ी ॥१९॥ दोहा यों अचौर्य व्रत है कहा सत्य-अहिंसा-अंश । है अचौर्य के भ्रंश में सत्य-अहिंसा-भ्रंश ॥२०॥ त्यों अपरिग्रह भी कहा सत्य-अहिंसा-अंश । जहां परिग्रह है वहां सत्य-अहिंसा-भ्रंश ॥२१॥ सामाजिक सम्पत्ति के हिस्से के अनुसार । अगर मिली सम्पत्ति तो हुआ न पापाचार ॥२२॥ जो जनसेवा के लिये हा उपकरण--कलाप । उसका यदि संग्रह किया तो न परिग्रह पाप ॥२३॥ पर मालिक बनना नहीं मालिक सकल समाज । तू सेवक ही है सदा भले मिला हो ताज ॥२४॥ जो सेवकता भूल कर जोड़े बहुविध अर्थ । करता विविध अनर्थ वह उसका जीवन व्यर्थ ॥२५॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] कृष्ण - गीता धन--संग्रह कर मत कभी कर प्रदान या भोग । किन्तु भोग सीमित रहें बसे न तन में रोग ॥२६॥ सेवा देकर कर सदा सेवा का आदान | धन लेकर संग्रह किया बनी पापकी खान ||२७|| अथवा बदला छोड़कर ले अक्षय भंडार | यश अनंत मिल जायगा होगा पुण्य अपार ॥ २८॥ धन वितरण के ध्येय में संग्रह है परिहार्य | फिर भी जो संग्रह किया तो असत्य अनिवार्य ॥२९॥ जितना ही संग्रह हुआ उतनी पर की हानि । कहा परिग्रह इसलिये हिंसामय दुख -- खानि ॥३०॥ एक तरह का चौर्य है नरनारी-व्यभिचार । हिंसा और असत्यमय है वह अगणित फैले हैं संसार में हिंसा और असत्य ही हैं सब के पापाचार ॥३१॥ पापाचार | आधार ||३२|| सबके निर्णय के लिये सच्चा शास्त्र विवेक । मध्यम पथ पर चल सदा हो न कहीं अतिरेक ॥३३॥ केवल बाह्याचार में, है न पुण्य या पाप । पुण्य पाप मनमें बसा दिखता अपने वैभव में भी योग है यदि न नीरज नीरज नीर में करें नीर का लाखोंकी सम्पत्ति हो फिर आप ||३४|| तन तो मन्दिर में रहे मन अन्ध- अनुराग । त्याग ||३५|| भी रहे न मोह | मन्दर की खोह ||३६|| Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नववाँ अध्याय [६७ हो विभूति मय सदन तन, तनपर हो न-विभूति । मन पर चढ़ी विभूति हो तो है योग--प्रसूति ॥३७॥ राख रमाई क्या हुआ मनपर चढ़ी न राख । तन पर रहा न एक पर मनपर सौ सौ लाख ॥३८॥ देह दिगंबर हो गई मनपर मनभर सूत । बुनकर बन बैठा वहां मोह पाप का दूत ॥३९॥ माला लेकर हाथ में वन वन छानी धूल । पर मन भवनों में रहा माला के मणि भूल ॥४०॥ तनका तो आसन जमा मन के कटे न पाँख । बगुला तो ध्यानी बना पर मछली पर आँग्ख ॥४१॥ रहे परिग्रह या रहे चोरी या व्यभिचार । बाहर ही को देखकर मत निकाल कुछ सार ॥४२॥ घर छोड़ा वनवन फिरा कर घिनावनी देह । मृगनयनी मनमें मगर मन मनोज का गेह ॥४३॥ पलक मीच करने चला मूढ़ योग की पूर्ति । चपलामी चमकी मगर मृगनयनी की मूर्ति ॥४४॥ तम में भी छिपछिप दिखे मन-मोहिनी शरीर । मानों दमके दामिनी अन्धकार को चीर ॥४५॥ बहुत तपस्याएँ हुई कसकर बँधा लँगोट | सह न सका पर एक भी मकर-ध्वज की चोट ॥४६॥ जब तक मन वश में नहीं तबतक कैसा त्याग । भीतर ही भीतर जले विकट अबा की आग ॥४७॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८) कृष्ण-गीता मन यदि का में हो गया तो घर में भी योग । मन यदि नचना ही रहा तो वनमें भी भोग ॥४८|| नारी उसे न कामिनी जिस का हृदय पवित्र । जीवन नौका के लिये है सहयोगी मित्र ॥४९|| वहां विषमता है जहां प्रति--क्रिया है पार्थ । योगी के समरूप हैं चारों ही पुरुषार्थ । ५०॥ भोग योग को समझ तू करले भीतर दृष्टि । छलनामय करदी यहां मानव ने सब सृष्टि ॥५१॥ चोरों की तो क्या कथा साहुकार भी चोर । 'मुंह में राम छुरी बगल' छलना चारों ओर ॥५२॥ क्या हिंसा करुणा यहां क्या सदसद्यवहार । क्या चोरी ईमान क्या शील और व्यभिचार ॥५३॥ कौन परिग्रह में फँसा कौन यहां निग्रंथ । अन्तर्दृष्टि बिना यहां उलझे सारे पंथ ॥५४॥ सब कुछ है सापेक्ष पर रख विवेक का साथ । संशय सब उड़ जायगा निश्चय तेरे हाथ ॥५५|| हरिगीतिका कर्तव्य निर्णय में विवेकी बन कुपंशय छोड़ दे । बाहर तथा भीतर निरख छलजाल सारा तोड़ दे ॥ कर्तव्य-पथ आगे पड़ा, बढ़, मोह का मुँह मोड़ दे । जो भर रहा चिरकाल से वह पाप का घट फोड़ दे॥५६॥ ho to 2: Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय अध्याय दसवाँ अर्जुन गीत २१ तुम्हारा अद्भुत अन्तर्ज्ञान । जगत है देख देख हैरान ॥ चक्र सुदर्शन छोड़ा तुमने आये खाली हाथ । ज्ञान चक्रसे बना दिया पर मुझको निर्भय नाथ ॥ किया कायरता का अवसान । तुम्हारा अद्भुत अन्तर्ज्ञान ॥१॥ मत्यासत्य अहिंसा हिंसा के बतलाये भेद । ऐसा रस दे दिया निचोड़े मानों सारे वेद ॥ बनाया धर्म विवेक-प्रधान । तुम्हारा अद्भुत अन्तर्ज्ञान ॥२॥ उलझी से उलझी भी सुलझी करदो करुणागार । जीवन नैया तुम्ही खिवैया पकड़ चलो पतवार ॥ पार पहुँचादो जीवन यान । तुम्हारा अद्भुत अन्तर्ज्ञान ॥३॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] संशय यद्यपि मर गया तो भी हो पाया नहीं नमझी है सापेक्षता सत्य अहिंसा ब्रह्म कृष्ण- गीता दोहा श्रीकृष्ण - श्रद्धा हुई जिज्ञासा समझा है समझा है हैं हैं ये का अनन्त | अन्त ॥४॥ एक दूसरे में जहां हो कंस निर्णय वहां परम उनके निर्णय के लिये तुमने कहा विवेक । पर विवेक कैसे करूं हो न कहीं अतिरेक || ६ || दीखे मुझे विरोध । सत्य की शोध ॥७॥ बने विवेकाधार । कहो निकप वह कौन है जिसको पाकर मैं करूं संशय- सागर - पार ||८|| आचार | जगदाधार ||५|| होते जितने कार्य है वे सब सुख के अर्थ | जिसमे मिल सकता न मुख, कहलाता वह व्यर्थ ||१९|| करता है संसार यह निशिदिन सुख की खोज । होता है सुखके मिले विकसित बदन सरोज ॥ १०॥ धन विद्या सौन्दर्य बल नाम और अधिकार | कुल कुटुम्ब सुख के लिये ढूंढ़ रहा संसार ॥ ११ ॥ चन नहीं है चैन बिन ज्यों ही हुआ प्रभात । त्यों ही भौंरा सा भ्रमें जब तक हुई न रात ॥ १२ ॥ जग चाहे सुखके लिये मज़ा और उसी आराम को जग का बने मौज़ आराम | गुलाम ॥१३॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय [ ७१ सुख की आशा में चले टेढ़ी टेढ़ी गैल | पराधीन घूमा करे ज्यों कोल्हू का बैल |॥१४॥ घर कुटुम्ब को छोड़कर चल जंगल की राह । त्यागी बनना है जगत है बस सुग्व की चाह ॥१५।। इसीलिये धन धर्म हैं इसीलिये हे स्वर्ग । इमीलिय ही काम है इसीलिये अपवर्ग ॥१६॥ है सुग्ख पानेके लिय देवों का गुणगान । इसीलिये जप तप बना इसीलिये भगवान ॥१७॥ आते हैं सुखके लिये तीर्थकर अवतार । दुनिया का उद्धार कर करत निज उद्धार ॥१८॥ जग सुखपावे या नहीं किन्तु वहीं है ध्येय । अप्रमेय संसार में मुग्व-पथ परम प्रमय ॥१९॥ सुख-पथ का प्रत्यक्ष कर कहलात सर्वज्ञ । सुख-पथ यदि जाना नहीं तो पंडित भी अज्ञ ॥२०॥ कहने का यह सार है सुख जीवन का सार । तार तार में रम रही सुख की चाह अपार ॥२१॥ जिससे जगको सुख मिले वही कहा है धर्म । जो सुखकर दुखहर तथा वही धर्म का मर्म ॥२२॥ परम निकष कर्तव्य की सुख-वर्धन है एक । सुखवर्धन कर विश्व का रखकर पूर्ण विवेक ॥२३॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] कृष्ण-गीता अर्जुन-- यदि सुख-वर्धन ही निकष सुख-वर्धन ही ध्येय । सुग्व-वर्धन ही सार हो सुख-वर्धन ही ज्ञेय ॥२४॥ तब तो जगमें स्वार्थ का होगा ताण्डव नृत्य । मानवता मर जायगी बनी स्वार्थ की भृत्य ॥२५॥ चोरी करके चोर जन व्यभिचारी व्यभिचार । बोलेंगे निर्भय बने 'पाया सुख का सार' ॥२६॥ हिंसक जन भी स्वार्थवश करके हिंसा कार्य । कह देंगे 'यह धर्म है है सुखार्थ अनिवार्य' ॥२७॥ झूठ बोलकर भी जगत करके मायाचार । बोलेगा 'यह धर्म है हम को सुख--दातार' ॥२८॥ जग में सुख के नामपर होते जितने पाप । सभी धर्म कहालायगे ठग अपने को आप ॥२९॥ होगा कैसे जगत में सुख--वर्धन का कार्य । है सुख-वर्धन के लिये दुख-वर्धन अनिवार्य ॥३०॥ सुलझ सुलझ कर उलझती गुत्थी दोनों ओर । ऐसी सुलझाओ सखे उलझे कभी न डोर ॥३१॥ श्रीकृष्ण तूने मेरी बात का किया न पूर्ण विचार । इसीलिये तू बन गया प्रबल संशयागार ॥३२॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय । ७३ यदि अणुभर सुख पा गया पर दुख मेरु समान । तो सुख-वर्धन क्या हुआ लाभ बना नुकसान ॥३३॥ मुझको अणुभर सुख मिला जगको मनभर कष्ट । तो सुखवर्धन क्या हुआ शान्ति हुई सब नष्ट ॥३४॥ हिंसा चोरी झूठ हो अथवा हो व्यभिचार । मुख से दुख अगणित-गुणा देता पापाचार ॥३५॥ इस सामूहिक दृष्टि से देख पाप के कार्य । है सुख-वर्धन के लिये पाप--त्याग अनिवार्य ॥३६॥ अपने में ही भूल मत रख सब जग पर दृष्टि । फिर यदि सुख-वर्धन हुआ हुई धर्म की सृष्टि ॥३७॥ अर्जुन माधव जब सुख ध्येय तब पर का कौन विचार । आप भला तो जग भला भले मरे संसार ॥३८॥ पर-हित पर क्यों दृष्टि हो अपने हित को भूल | वही देखना चाहिये जो अपने अनुकूल ॥३९॥ श्रीकृष्ण- गीत २२ जगत-हित में अपना कल्याण । यदि तू करता त्राण न जग का तरा कैसा त्राण । जगत-हित में अपना कल्याण ॥४०॥ 'पर' तुझको पर है पर तू भी 'पर' को है पररूप । सब 'पर' यदि भूलें पर को तो डूबें सब दुखकूप ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] कृष्ण-गीता प्राण कर दें पर-लोक-प्रयाण / जगत-हित में अपना कल्याण // 41 // अपना अपना स्वार्थ तके सब भलें पर का स्वार्थ / अपना डूबे पर का डूबे सकल स्वार्थ परमार्थ // अकेले तड़पें सबके प्राण / जगत-हित में अपना कल्याण // 42 // सब का स्वार्थ एक है जग में ब्रह्म भरा है एक / उसने पाई मुक्ति जिसे हो एक-अनेक-विवेक / / यही सब गाते वेद पुराण / जगत-हित में अपना कल्याण // 43 // जितना जग में कामसुख वह परके आधीन / क्षण भी पर को भूल मत बन मत प्रेम-विहीन // 44 // क्या देना है जगत को यदि है यही विचार / तो लेना भी छोड़ दे मत बन भू का भार // 45 // अर्जुन-- लेना देना छोड़ कर क्यों न लगाऊं ध्यान / क्यों जग की चिंता करूं चिन्ता चिता समान // 46 // श्रीकृष्ण यदि कुछ भी लेना नहीं, मत ले, पर कर दान / लिया आजतक बहुत ऋण कर उसका अवसान // 47 // लिया नहीं लेता नहीं और न लेगा कार्य / ऐसा मनुज अशक्य है लेना है अनिवार्य // 48 // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय [७५ अर्जुन-- जिससे लें उसके लिये करदें हम प्रतिदान । व्यर्थ मरें जगके लिये यह तो है अज्ञान ॥४९॥ श्रीकृष्ण-- जग भी यदि यों सोचले तुझको देगा कौन । घर घर लेने जायगा पर पायेगा मौन ॥५०॥ प्रथम दान का विश्व में यदि हो नहीं प्रचार । फले स्वार्थ भी किस जगह जब न मिले आधार ॥५१ लिया किसी से भी रहे कर जगको प्रतिदान । गौण व्यक्ति सम्बन्ध है रख समाज का ध्यान ॥५२॥ मात पिता से ऋण लिया है उनका उपकार । संतति के प्रतिदान से होता प्रत्युपकार ॥५३॥ सब से तु आदान कर सब ही को कर दान | होता प्राणि-समाज में सब का पर्यवसान ॥५४॥ भेदभाव को छोड़कर देख सभी का स्वार्थ । जो कुछ सब का स्वार्थ है तेरा है परमार्थ ॥५५|| कम से कम ले किन्तु कर अधिक-अधिक प्रतिदान । इसी साधुता में बसे, मुक्ति, भुक्ति, भगवान ॥५६॥ जहां साधुता है वहां होता सब का त्राण । सब जग का कल्याण हे तेरा भी कल्याण ॥५७॥ सब जगको सुखमय बना हट जायेंगे पाप । यही कसौटी धर्म की सत्कर्तव्य-कलाप ॥५८॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] कृष्ण-गीता अर्जुन कैसे मुलझंगा सखे सुख-दुख का जंजाल । जीवन है जो एक का वही अन्य का काल ॥५९।। चोरी करते चोर हैं उन्हें न दूं यदि दंड । तो पीड़ित हो जाय जग फैले पाप प्रचंड ॥६०il यदि चोरों को दंड दूं तो हो उनको कष्ट । सुखवर्धन कैसे हुआ धर्म हुआ तब नष्ट ॥६१॥ चोर जगत का अंग है हो यदि उसको कष्ट । तो जग सुखमय क्या हुआ यत्न हुए सब नष्ट ॥६२॥ सुख होता इस ओर जब दुःख दूसरी ओर । तब निर्णय कैसे बने, है .कर्तव्य कठोर ॥६३॥ श्रीकृष्ण--- जो दुख से सुख दे अधिक वही समझ सत्कार्य । इसके निर्णय के लिये है विवेक अनिवार्य ॥६४॥ दुख-सुख-निर्णय की तुला आत्मौपम्य विचार । पर को समझा आत्मसम मिला ज्ञान का सार ॥६५।। चोरी करता चोर पर चोरी सहे न चोर । चोरों के घर चोर हों चोर मचावें शोर ॥६६॥ पापी करते पाप हैं मगर न चाहें पाप । पापी पर यदि पाप हो तो उसको भी ताप ॥६॥ अपने को जो है बुरा पर को भी वह जान । थोड़े शब्दों में कहीं पुण्य-पाप-पहचान ॥६८|| Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय [ ७७ सुख भी हो यदि पाप से तो सुख पाता एक । किन्तु पापके ताप से जलते जीव अनेक ॥६९।। सुखी बनें जग में बहुत दुखी न्यून से न्यून । • काँटों के दुख से अधिक सुख दे सकें प्रसून ।।७०॥ ऐसा ही कर्तव्य कर हो बहुजन को इष्ट । इसकी चिन्ता कर नहीं पापी हो यदि क्लिष्ट ॥७१।। अर्जुन-- बहुजन का यदि हित करूं तो भी है अन्धेर । विजय पाप ही पायगा पापी जग में ढेर ॥७२।। रावण का दल था बहुत यद्यपि था दुष्कर्म । होती यदि उसकी विजय तो क्या होता धर्म ॥७३।। दुर्योधन--दल है बहुत पाण्डव--दल है अल्प । दुर्योधन की जीत में क्या है पुण्य अनल्प ||७४॥ श्रीकृष्ण--- एक जगह ही देख मत चारों आर निहार । अपरिमेय संसार है, अपनी दृष्टि पसार ॥७५|| वर्तमान ही देख मत जो क्षण हैं दो चार । कर तू निर्णय के लिये भूत-भविष्य-विचार ||७६।। सार्वत्रिक पर डाल त सार्वकालिकी दृष्टि । सत्य तुझे मिल जायगा होगी निर्णय-सृष्टि ॥७७/ रावण की यदि जीत हो रामचन्द्र · की हार । तो घर घर रावण बने डूब जाय संसार ॥७८॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] कृष्ण-गीता होती रावण की विजय तो घर-घर व्यभिचार । करता ताण्डव रात दिन मिट जाते घरबार ॥७९॥ परिमित रावण-दल मरा हुआ पाप का अन्त । अगणित सीताएँ बचीं फूला पुण्य--वसन्त ॥८॥ कौरव-दल यद्यपि बहुत पर उसकी जो नीति । वह यदि जीते जगत में फैले घर घर भीति ॥८१॥ कौरव से लाखों गुणा जनता को हो कष्ट । घर घर हाहाकार हो विश्व-शान्ति हो नष्ट ॥८२॥ कितनी द्रौपदियाँ पिसें खिंचे हजारों चीर । भाई को भाई न दे चुल्लूभर भी नीर ॥८३।। स्वार्थी नीच असभ्य--जन भर डालें संसार । घर घर में बैठे यहां पशुता पैर पसार ॥८४॥ पाण्डव की या राम की जय से जगदुद्धार । रक्षण हो संसार का पापों का संहार ॥८५॥ बचे सभ्यता का सदन साफ़ रहे घर द्वार । पापों का कचरा हटे स्वच्छ बने संसार ॥८६॥ रामविजय से हो सका अधिकों का कल्याण । सीताजी के त्राण में था नारीका त्राण ॥८॥ सीताजी के त्राण से बचा अर्ध-संसार । रावण के संहार से हुआ पाप-संहार ॥८८॥ दम्पति-धर्म रहा वहां रहा अकंटक प्यार । सब नाते फ्ले फले हुए मंगलाचार ॥८९॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय [ ७९ पाण्डव-दल की विजय में है नारी-सन्मान । नारी के सन्मान में पशुता का अवसान ॥९॥ पुत्र-मोह-तांडव मिटे सज्जन ठगा न जाय । धर्मराज की जीत से विजयवन्त हो न्याय ॥९॥ वर्तमान ही देख मत भूत--भविष्य--विचार । फिर अपना कर्तव्य कर कर सुखमय संसार ॥९२॥ [हरिगीतिका] कर्तव्य-निर्णय की निकष कसले तुझे जो मिल गई। श्रद्धा सुरक्षित कर यहां संदेह से जो हिल गई ॥ श्रद्धालु ज्ञानी दृढ़ मनस्वी बन, न बन पर क्लीव तू । कर्तव्य-पथ आगे पड़ा है चल उठा गांडीव तू ॥१३॥ [४९९] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० । कृष्ण-गीता ग्यारहवाँ अध्याय न....५१, .. अर्जुन (ललितपद) माधव जो कर्तव्य--कसौटी तुमने मुझ बताई । साथ माथ सदसद्विवेक की महिमा तुमने गाई ॥ यह अमूल्य सन्देश तुम्हारा पंडित-जनको प्यारा । प्यासे को पीयूष पिलाया ज्यों मरु को जलधारा ॥१॥ भरता पेट नहीं भरता मन 'जितना पीता जाऊंउतना और मिले' मन कहता जीवनभर न अघाऊं ॥ तृष्णातुर बोलो तुम मुझको अथवा मूर्व वताओ। पर मेरी प्रार्थना यही है अमृत पिलात जाओ ॥२॥ कर्तव्याकर्तव्य-कसोटी कसकर मुझे बताई । मुख को ध्येय बताया तुमने सुख की महिमा गाई ।। पर बोलो मुख की परिभाषा कैसे उस को पाऊं । दुःख-कण्टकाकीर्ण जगत में कैसे मार्ग बनाऊं ॥३॥ सुख भीतर की वस्तु कहूँ या बाह्य जगत की माया ।। दोनों सुख के रूप कौन तब उपादेय बतलाया । क्या जीवन का अर्थ किसे पुरुषार्थ कहूं बतलाओ । क्या सुख ही पुरुपार्थ कहा है ठीक ठीक समझाओ ॥४॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकृष्ण ग्यारहवाँ अध्याय [ ८१ अर्जुन, मैं कह चुका जगतका परम ध्येय सुख पाना | पर को दुखित न होने देना आप सुखी बन जाना ॥ मुख मनकी अनुकूल वेदना प्राणिमात्र को प्यारी । दुख मनकी प्रतिकूल वेदना जीवन की अँधियारी ||५|| दुख सुख बाहर की न वस्तु है, है वह मनकी माया । माया का रहस्य पहचाना सुख दुख वश में आया | सुखके साधन रहें जीव फिर भी न मुखी हो पाता । तुल-तल्प पर पड़ा पड़ा भी जगकर रात बिताता ||६|| नहीं भूल पर बाह्य जगत को सुख साधन न भुला तू । और अनावश्यक कष्टों को इच्छा से न बुला तू ॥ जग पर अत्याचार न करके सुख के साधन पाले । जहां नपा सकता सुख-साधन वहां मोक्ष अपनाले ॥७॥ दोहा काम मोक्ष पुरुषार्थ हैं सारे सुख के मूल । दोनों के संयोग से फूलें सुख के फूल ||८|| पुरुषार्थो में मुख्य ये सब के अंतिम ध्येय | अप्रमेय संसार में ये हैं परम प्रमेय ॥ ९ ॥ काम मोक्ष सुख-मूल हैं, धर्म मोक्ष का मूल । अर्थ काम का मूल है चारों हैं अनुकूल ॥ १० ॥ इन्द्रिय-सुख है काम-सुख भोग और उपभोग | परम अतीन्द्रिय मोक्ष मुख पूर्ण शुद्ध मन- योग ॥ ११ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] कृष्ण-गीता मोक्ष न आया हाथ में पाया केवल काम । प्यास बढ़ी आतुर वना मिल न सका आराम ॥१२॥ तृप्ति न केवल काम से बुझ न पूरी प्यास । पूर्ण तृप्ति है मोक्ष से हटते सारे त्रास ॥१३॥ आशा-पाश अनन्त है तोड़ न सकता काम । पाश तोड़ना मोक्ष है मुख स्वतन्त्रता-धाम ॥१४॥ कर प्रयन्न जिससे रहे काम मोक्ष का साथ । जीवन का साफल्य तब होगा तेरे हाथ ॥१५॥ अर्जुन-... माधव मोक्ष यहां कहां वह अन्यन्त परोक्ष । जबतक यह जीवन रहे तबतक कैसा मोक्ष ॥१६॥ जीवन छूट मोक्ष है जीवन रहते काम । तब जीवन कैसे बने काम मोक्ष का धाम ॥१७॥ एक हाथ में मोक्ष हो एक हाथ में काम । है अतथ्य यह कल्पना है यद्यपि अभिराम ॥१८॥ दो ऐसा संदेश तुम बने पूर्ण व्यवहार्य । केवल कवि की कल्पना पूरा करे न कार्य ॥१९॥ श्रीकृष्ण अर्जुन तूने मोक्ष का समझ न पाया सार । समझ रहा परलोक में बना मोक्ष--दर्बार ॥२०॥ पर यह तेरी कल्पना है बस मनका भार । ढंढ यहीं मिल जायगा तुझे मोक्ष का द्वार ॥२१॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ अध्याय गीत २३ समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ॥ दुःख और सुख मन की माया । मनने ही संसार बसाया 11 [ ८३ मन को जीता दुनिया जीती हुआ दुखोदधि पार । समझ मत दृर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ||२२|| विपदाएँ यदि सिर पर आवें । गर्ज गर्ज कर हमें डरावें 1 मिला शिकार । उन्हें देखकर मन प्रसन्न कर जैसे समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ||२३|| प्रलोभन । लुब्ध बनावें अगर फिर भी हो न सके चंचल मन । हुई पाप की हार 1 दुखके कारण दूर हुए तब समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ||२४|| जिनने विपत्प्रलोभन विपत्प्रलोभन जीत वे ही परम सुखामृत पीते 1 सार / उनका सुख उनके हाथों में यही मोक्ष का समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ||२५|| मरने पर पुरुषार्थ भला क्या । मुर्दे की श्रृंगार कला क्या ॥ मोक्ष परम पुरुषार्थ यहीं है कर्म - योग- आधार 11 समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ||२६|| Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] कृष्ण-गीता काम सुखों का अंग रहा है । मोक्ष सुखों का प्राण कहा है । निर्विरोध हैं मिल कर होते दोनों एकाकार ॥ समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ॥२७॥ मोक्ष सहज सौन्दर्य-धाम है । उसका ही शृंगार काम है । सहज द्विगुण होता है पाकर उचित सभ्य शृंगार । समझ मत दूर मोक्ष का द्वार । यहीं है मोक्ष और संसार ॥२८॥ दोहा जीवन तब होता सफल घनानन्दमय पार्थ । आ जाते जब हाथ में चारों ही पुरुषार्थ ॥२९॥ अर्जुन घबराता मेरा हृदय होता है आघात । एक एक मिलना कठिन चारों की क्या बात ॥३०॥ श्रीकृष्ण-- गीत २४ पुरुषार्थ सभी तेरे हाथों में भाई । तू भूल रहा क्यों जीवन की चतुराई ॥ धर्मार्थ काम के साथ मोक्ष का नाता । चारों का है सम्मिलन जगत का त्राता । यदि मोक्ष नहीं है तो न पूर्ण सुखसाता । है मोक्ष कवच वह दुःख से न छिदपाता । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ है एक एक से आत्मा की न भलाई । पुरुषार्थ सभी तेरे हाथों में भाई ॥३१॥ कोई धर्मी बन जीवन बोझ बनाता । कोई है अर्थ-पिशाच लूटता खाता । कोई कामुकता में ही जन्म गमाता । पर इनमें कोई सुखका पता न पाता ॥ दुख बनता पर्वततुल्य और सुख राई । पुरुपार्थ सभी तरे हाथों में भाई ॥३२॥ कोई पुरुषार्थो का न रूप भी जाने । कोई जाने तो तत्त्व नहीं पहिचाने । कोई पहिचाने किन्तु न मनमें ठाने । कोई ठाने तो फिरें बने दीवाने । आलस्य और उन्माद दिया दिखलाई । पुरुषार्थ सभी तरे हाथों में भाई ॥३३॥ यदि मोक्ष--तत्त्व का रूप न निर्मल दग्वा । धर्मार्थ काम का मिलित नहीं दल देवा । नकली पुरुषार्थो का न अगर छल देखा । सारे भेदों का यदि न फलाफल देखा । तो फिर क्या देखा करली कौन कमाई । पुरुषार्थ सभी तेरे हाथों में भाई ॥३४॥ अर्जुनमाधव मोक्ष यहीं मिला पूर्ण हुए सब काम । काम अर्थ फिर किसलिये छो. इनका नाम ॥३५॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] कृष्ण गीता पकहूं केवल मोक्ष को छोडूं सब जंजाल । धर्म जाय धन जाय सब जाये काम कराल ॥३६॥ मिला मोक्ष जब हाथ में तब क्या रहा परोक्ष । चिन्तामणि या कल्पतरु कामधेनु है मोक्ष ॥३७॥ चारों क्यों अनिवार्य हों मोक्ष रहे अनिवार्य । मोक्ष मिला सब सुख मिले हुए पूर्ण सब कार्य ॥३८॥ श्रीकृष्ण---- तेरा कहना सत्य है मोक्ष परम कल्याण । पर न तीन पुरुषार्थ हों तो न मोक्ष का त्राण ॥३९॥ धर्म नहीं धन भी नहीं और नहीं हो काम । निराधार कैस बने मोक्ष परम सुखधाम ॥४०॥ चारों ही का रूप जब तू समझेगा पार्थ । आवश्यक होंगे तुझे चारों ही पुरुषार्थ ॥४१॥ धर्म धर्म अहिंसा सत्यमय प्रेमरूप है धर्म । धर्म नियन्त्रण स्वार्थ पर धर्म विश्वहित-कर्म ॥४२॥ धर्म रहा सब कुछ रहा मिटे सकल दुख द्वंद । तब घर घर में छागया संयम का आनन्द ॥४३॥ मिली अहिंसा भगवती मिला सत्य भगवान । ब्रह्मचर्य निःसंगता मिले अचौर्य महान ॥४४॥ सज्जनता फूली फली दुर्जनता विध्वस्त । मिल कर आये यम नियम पाप हुए सब अस्त ॥४५॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ अध्याय [ ८७ साधन पाये काम के फैल गया संतोष । अर्थ अनर्थ न बन सका दूर हुए सब दोष ॥४६॥ धर्म प्रथम पुरुषार्थ है पुरुषार्थो का मूल । इसके बिना न हो सकें अर्थ-काम फल-फूल ॥४७॥ मोक्ष महल की नीव यह थोड़ी भी हिल जाय । बजे ईट से ईट सब मिट्टी में मिल जाय ॥४८॥ अर्थकाम अर्थ काम परिमित रहें दोनों से कल्याण । अनिमय यदि दोनों हुए समझो निकल प्राण ||४९॥ अर्थ मित भी अर्थ न हो अगर तो हो अमित अनर्थ । अर्थ बिना जीवन नहीं अर्थ बिना सब व्यर्थ ॥५०॥ भिक्षा माँगो श्रम करो बनो जगत के दाम । अन्न बराबर चाहिये कव तक हो उपवास ॥५१॥ खाना पीना बैठना अर्थ सभी का मूल । ये न रहें कब तक रहें काम मोक्ष अनुकूल ॥५२॥ काम मोक्ष प्रतिकूल जब तब दुखमय संसार । फिर जीवन हो किसलिये वसुन्धरा का भार ॥५३॥ गृही रहो या मुनि रहो तुम्हें चाहिये अर्थ । किसी रूप में क्यों न हो अर्थ नहीं है व्यर्थ ॥५४॥ काम काम न जीवन में रहा तो जीवन बेकाम । फूलीफली न बल्लरी व्यर्थ हुई बदनाम ॥५५॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] कृष्ण गीता काम न अतिसंभोग है काम नहीं व्यभिचार । सच्चा काम जहां रहे वहां न पापाचार ॥५६॥ परनिमित्त लेकर जहां इन्द्रिय--मन--संतोप । स्वपर-विरोधी हो नहीं वहीं काम निर्दोष ॥५७।। छीन लिये यदि जगत के स्वयं--सिद्ध अधिकार । इंद्रिय--मन--संतोप वह होग पापाचार ॥५८॥ अद्भुत यह संसार है यहां परस्पर भोग । जीवन यह कैसे टिके हा न अगर सहयोग ।।५९।। जहां परस्पर योग है वहां परस्पर भोग । जहां परस्पर भोग है वहां काम का योग ॥६०॥ वह सारा सुख काम है जो 'पर' से मिल जाय । 'पर' अपने से यों मिले हृत्तंत्री हिलजाय ॥६१॥ काम न कोई पाप है उसकी अति है पाप । काम-हीनता प्राण पर है जड़ता की छाप ॥६२॥ सकल कलाएँ जगत की सारे हास्य तरंग । अंगअंग श्रृङ्गार तक सकल काम के अंग ६३ क्रीड़ाएँ नानातरह नानातरह विनोद । सभी काम के रूप है जितने हैं मन-मोद ॥६४॥ भक्ति प्रेम आदर लिये फैले घर घर नाम । इस का भी आनन्द है एक मानसिक काम ॥६५॥ तीन भेद हैं काम के सत्त्व-रजस्तम-रूप । सत्व भला, मध्यम रजस तम पापो का कूप ॥६६॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ अध्याय साविक काम पर को दुःख न दे कभी कर न नीति का भंग । इतने भोग न भोग तू बिगड़े तेरा अंग ॥६७|| जिससे फट जावे हृदय ऐसा कर न विनोद । कर ऐसा ही हास्य तू छाये मन मन माद ॥६८|| लूट कीर्ति की कर नहीं चल मत ग्वोटी राह । जितना दे उससे अधिक रख न कीर्ति की चाह ॥६९॥ अन्न पान परिजन शयन वस्त्र धरा धन धाम । स्वपरविनाशक हां नहीं है यह सात्त्विक काम ॥७०॥ राजस काम लोकनीति रक्षित रहे रक्षित रहे शरीर । पर न जगत का ध्यान हो कैसी पर की पीर ॥७१॥ रहे अन्धस्वार्थी सदा लूटे झूठा नाम । पर को पीड़ा हो जहाँ वह है राजस काम ॥७२॥ तामस काम नामस काम जघन्य है प्राण-विनाशक पाश । स्वास्थ्यनाश धननाश हे कुल कुटुम्ब का नाश ॥७३ निपट करता है वहां विकट मोह का राज्य । हम भोगे जाते जहां वह तामस-साम्राज्य |७४॥ तामस राजस छोड़ कर भोग सत्त्वमय काम | साथ मोक्ष लेकर सदा बनजा तू सुखधाम ||७५|| Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.] कृष्ण गीता सात्त्विक काम जहां जहां दे न सके आनन्द । वहां वहां पर मोक्ष ले दूर हटा दुग्वद्वंद ॥७६॥ काम मोक्ष मिल कर करें यह संसार समार । जड़ता-पूजक बन न तू सार-असार विचार || मोक्ष न जड़ता रूप हे मोक्ष नहीं आलस्य । मोक्ष न है कोई नशा यह कल्याणरहस्य ॥७॥ कवच धनुप रथ ज्या मिले तब तेरा उद्धार । चारों के महचार में तेरा जयजयकार ॥७९॥ पद्मावती ल धर्मधनुष बन अर्थरथी ज्या काममयी चढ़ जाने । तू निर्भय रह है कवच मोक्ष दुग्ख डरवाते डग्याने दे। कर्तव्य निरंतर करता रह शंका को जगह न पान दे। यह सब धी का मर्म यहां कर्तव्य रूप में आने दे ॥८॥ रो रही यहां पर धर्म नीति है अर्थ संकटापन्न यहां । धन धर्म संकटापन्न देख हो रहा काम अवमन्न यहां ॥ हो रह सकल पुरुपार्थ व्यर्थ छाई है जड़ता की छाया । टंकार बजा जगपड़े विश्व उड़ जाय अधर्मों की माया ॥८१॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय [ ९१ कारहवाँ अध्याय .. अर्जुन---- __ [हरिगीतिका] माधव, दयाकर मार तुमने सर्व धर्मा का कहा । सुखका बताया मार्ग तुमने फिर भला क्या बच रहा। फिर भी न जाने हो रहा है हृदय में यह ग्वद क्यों । 'सब धर्म सुख-पथ-रूप हैं फिर है सभी में भेद क्यों ॥१॥ कोई अहिंसा का प्रचारक है दया अवतार सा । कोई बना हिंसा-विधायक कर भ का भार सा । कोई निवृत्ति लिये रहे वन को बनाता धाम है । कोई प्रवृत्ति लिये रहे करता सदा सब काम है ॥२॥ कोई न माने मूर्तियाँ केवल बताता ज्ञान है । कोई बताता मूर्तियों में ही वसा भगवान है । कोई यहां है कह रहा सब वर्ण--आश्रम व्यर्थ हैं । कोई समझता वर्ण आश्रम के बिना हम व्यर्थ हैं ॥३॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] कृष्ण-गीता कोई यहां है भक्ति का सन्देश जग को दे रहा। कोई न माने भक्ति भी बस त्याग का रस ले रहा । हैं पंथ नाना दिख रहे समझू भला क्यों. एक हैं ? यदि एक हैं तो सर्वदा रखते वृथा क्यों टेक हैं ॥४॥ किस का करूं मैं अनुसरण किसकी न मानूं बात मैं । निर्णय कहो कसे करूं करुणा करूं या घात मैं । जब धर्म सब ही सत्य हैं तब कौन से पथमें चलूं ? कर्तव्य-पथ में किस तरह आगे बढू फूलू फलूं ॥५॥ श्रीकृष्ण---- गीत २ अर्जुन, सब की एक कहानी। पंथ जुदा है घाट जुदे हैं पर है सब में पानी ॥ अर्जुन सब की एक कहानी ॥६॥ जब तक मर्म न समझा तबतक होती खीचातानी । पर्दा हटा हटा सब विभ्रम दूर हुई नादानी ॥ अर्जुन सब की एक कहानी ॥७॥ वर्ण अवर्ण, अहिंसा हिंसा, मूर्ति न मानी मानी । क्या प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति क्या सब है धर्म निशानी । अर्जुन सब की एक कहानी ॥८॥ यह विरोध कल्पना शब्द की होती है मनमानी। लड़ते और झगड़ते मूरख करें समन्वय ज्ञानी । अर्जुन सबकी एक कहानी ॥९॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय [१३ दोहा (हिंसा--अहिंमा) धर्म अहिंसा रूप है गर्हित हिंसा कार्य । है विधेय हिंसा वहीं जहां रहे अनिवार्य ॥१०॥ मैंने बतलाय तुझे हिंसा के बहु भेद । उन पर पूर्ण विचार कर मिट जायेगा खेद ॥११॥ समझ अहिंसा है वहां जहां हृदय हो शुद्ध । कण भर हिंसा क्षम्य हे मन भर हो यदि रुद्ध ॥१२॥ सर्वनाश होता जहां वहां अर्ध कर दान । दुनिया यह बाज़ार हैं देख नफा नुकसान ॥१३॥ नर-बलि होती है जहां पशुवध वहां विधेय | क्रम से पशुवध रोकना यही वेद का ध्येय ॥१४॥ नित्य जहां था गॅजता 'मार मार फिर मार' । वहां रहे हिंसाथ बस केवल तिथि त्यौहार ॥१५॥ उतना धर्म यहां हुआ जितना हिंसा-रोध । धीरे धीरे पा रहा मनुज अहिंसा-बोध ॥१६॥ नित्य न हिंसाकांड हो इसीलिये हैं यज्ञ । पशु-यज्ञों को छोड़कर करें यज्ञ आत्मज्ञ ॥१७॥ पशु-यज्ञ वहीं सत्य पशु-यज्ञ है जहां सभ्यतोद्धार । मानवता की अग्नि में पशुता का संहार ॥१८॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] कृष्ण-गीता इन्द्रिय-यज्ञ विषय-दासता नष्ट कर बने विषय-मर्मज्ञ । संयम रूपी अग्नि में है यह इन्द्रिय-यज्ञ ॥१९॥ कम-यज्ञ फल की आशा का किया कर्म-कुंड में होम । कर्मयज्ञ यह हो गया तम में ज्योतिष्टोम ॥२०॥ धन-यज्ञ जन-समाज के कुंड में धन का आहुति दान । धन वैभव जिससे सफल है धनयज्ञ महान ॥२१॥ श्रम यज्ञ तन के मन के वचन के श्रम का करना दान । हो न स्वार्थ की लालसा है श्रमयज्ञ महान ॥२२॥ मानयज्ञ विनय कुंड में कर दिया अहंकार का होम । मानयज्ञ में मन गला पिघला जैसे मोम ॥२३॥ तृष्णायज्ञ दुश्चिंताएँ दूर हों तृष्णा का हो अन्त । तृष्णायज्ञ महान यह जो करता वह सन्त ॥२४॥ क्रोधयज्ञ विनय बुद्धि सुख शान्ति सब हरता क्रोध पिशाच । क्रोधयज्ञ से बन्द हो इस पिशाच का नाच ॥२५॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय [ ९५ विद्यायज्ञ दग्ध जहां हो मूढ़ता वह है विद्या यज्ञ । ज्ञान कुंड में होम हो रहे न कोई अज्ञ ॥२६॥ औषधयज्ञ उचित चिकित्सा से किया रोगो का अवसान । सामूहिक उपकार यह ओषध यज्ञ महान ॥२७॥ प्राण-यज्ञ जनता के हित के लिये करना जीवन दान । प्राणयज्ञ यह विश्व का करता है उत्थान ॥२८॥ कीर्तियज्ञ नाम रह या जाय पर हो ममाज-उद्धार । कीर्तियज्ञ यह विश्व में अनुपम व्यागागार ॥२०॥ ब्रह्मयज्ञ जग हित रूपी ब्रह्म में किया व्यक्ति--हित लीन । यज्ञ-शिरोमणि है यही ब्रह्मयज्ञ स्वाधीन ॥३०॥ अगणित इनके भेद हैं अगणित इनके रूप । यदि न यज्ञ हो विश्व में तो घर घर दुखकूप ॥३१॥ अगर न हम पर के लिये करें स्वार्थ-बलिदान । मिट जाये सब जगत का पल में नाम-निशान ॥३२॥ यज्ञ परम आधार है यज्ञ परम कल्याण । यज्ञ न हो संसार में तो न किसी का त्राण ॥३३॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] कृष्ण गीता ही मावि यज्ञ हैं मत्र जग के आधार इन से ही सब तर गये ऋषि मुनि साधु अपार ||३४|| राजसयज्ञ कहा वहां जहां स्वार्थ का राज्य । राजस यज्ञों का बना घर घर में साम्राज्य ||३५|| निपट मूढ़ता रूप जो पशुवध आदिक यज्ञ । तामस - यज्ञ कहा इसे करते केवल अज्ञ ||३६|| जितना झेल सके जगत उतना ही उपदेश | करते हैं ऋषि मुनि सदा हटते हैं सब क्लेश || ३७॥ देश काल के भेद से है धर्मों में भेद | किन्तु अहिंसा की तरफ हैं सब कर मत ग्वेद ||३८|| प्रवृत्ति निवृत्ति हूँ न प्रवृत्ति निवृत्ति में कोई ध्येय-विरोध । है प्रवृत्ति रस-वर्धनी है निवृत्ति मलशोध ||३९|| हो निवृत्ति दुःस्वार्थ की कट जाये सब पाप । हो प्रवृत्ति कल्याण में बरसे पुण्य-कलाप ॥४०॥ स्वार्थ वासनाएँ घटीं चढ़ा प्रेम का का रंग 1 उचित प्रवृत्ति निवृत्ति का अपने आप प्रसंग ॥४१॥ न प्रवृत्ति निवृत्ति से बद्ध सराग विराग । वन में भी संसार है घर में भी है त्याग ॥४२॥ जहां साधु-संस्था बनी देशकाल अनुसार । वहां प्रवृत्ति निवृत्ति के दिखते विविध प्रकार ||४३|| Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय [ ९७ देश काल के भेद से हैं जो नाना भेद । उनमें है न विरोध कुछ है न सत्य-विच्छेद ॥४४॥ कभी प्रवृत्ति प्रधान है कभी निवृत्ति प्रधान । अवसर के अनुसार हैं दोनों सुख-सामान ॥४५॥ सब प्रवृत्तिमय धर्म हैं सब निवृत्तिमय धर्म । अतिवादी कोई नहीं सब में हैं सत्कर्म ॥४६॥ मूर्ति अमूर्ति मर्ति अमर्ति विरोध क्या दोनों एक समान । मूर्ति पूजता कौन है सब पूजें भगवान ॥४७॥ उन्हें मूर्तियाँ व्यर्थ हैं जिनने पाया ज्ञान । देखें अन्तर्दृष्टि से अणु अणु में भगवान ॥४८॥ मित्र शत्रु के चित्र भी जिनको एक समान । अणु भर क्षुब्ध न कर सकें जिनको ध्वजा निशान ॥४९॥ घूरा हो या तीर्थ हो जिनके हृदय न भेद । मन्दिर और मसान का जिनको हर्ष न खेद ॥५०॥ मन जिनके वश में हुआ छूटा जगजंजाल । शुद्ध बुद्धि जगती रहे निशिवासर सब काल ॥५१॥ घृणा न मूरति से रही रहा नहीं अनुराग । उचित रहा उनके लिये मूरति-पूजा-त्याग ॥५२॥ जिनका है भावुक हृदय अबलम्बन की चाह । मूर्ति सहारा है उन्हें प्रभु पाने की राह ॥५३॥ मूर्ति की न है प्रार्थना है प्रभु का गुणगान । प्रभुको पढने के लिये है वह ग्रंथ-समान ॥५४॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] कृष्ण-गीता समझ रहे. जो भुल से पत्थर को भगवान | उनकी पूजा व्यर्थ है हैं वे मूढ़ अजान ||५५ || अपनी अपनी योग्यता रुचि रुचि के अनुसार । मत मदान्धता छोडकर मूर्त्ति अमति विचार ||५६|| सब धर्मो में मूर्त्तियाँ दिखलातीं सत्कर्म । पर पत्थर-पूजा नहीं यही मूर्त्तिका मर्म ॥५७॥ वर्ण व्यवस्था इसका गान | विधान ॥ ६१ ॥ ऋण व्यवस्था का कहा मैंने तुमसे मर्म । अर्थ-व्यवस्था रूप वह है बाजारू कर्म ||१८|| अपनी अपनी जीविका मति गति के अनुसार । सबको मिल जाये यही वर्ण व्यवस्था सार ॥५९॥ जहां और जब यह करे बेकारी का नाश | हां और तब ही इसे मिल सकता अवकाश ॥ ६० ॥ ऐसे युग में धर्म भी गाता देश काल जैसा रहे वैसा बने जब न व्यवस्था रह सके केवल रहे लकीर कर्म हटे कुलमद बढ़े हो निर्जीव शरीर ॥६२॥ तब यह मुर्दा दूर कर साफ़ बना घरद्वार । उचित यही कर्तव्य है यही सुयोग्य विचार || ६३॥ मानव जब उत्पन्न हो कर तब ही सन्मान | प्राणहीन हो जाय जब उसको भेज मसान ॥६४॥ दोनों में औचित्य है दोनों सद्व्यवहार | यदि विवेक इतना न हो तो हो हाहाकार ॥६५॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय 1 1 मुर्दों की दुर्गंध से भरजांव संसार रोगों का ताण्डव मंचे घर घर नर-संहार ॥ ६६ ॥ जीवितको दे अन्न तू मुर्दे को दे आग । मानव हो या रीति हो मरने पर कर त्याग || ६७ || वर्ण-व्यवस्था नष्ट हो या हो उसका त्राण | देश काल अनुमार है दोनो से कल्याण ॥६८॥ वर्ण अवर्ण न कर सके कोई धर्म-विरोध सब धर्मो में सर्वदा कर समता की गांव ॥ ६९ ॥ आश्रम व्यवस्था T [ ९३ जीवन आश्रम सब ही मानते है उससे कल्याण | जीवन में कुछ शान्ति है है पापो से त्राण ॥७०॥ कर्म सदा करते रहो निज वय के अनुसार । चारों ही पुरुषार्थ तब आ जायेगे द्वार ॥७१॥ ब्रह्मचर्य आश्रम प्रथम जीवन भर का मूल । वैसा सब जीवन बने जैमा यह अनुकूल ॥७२॥ सकल शिल्प विद्या कला सार ही संस्कार । आते दृढ़ बनते यहीं पहिला आश्रम हो नहीं तो मानव का आकार हो पर मन पशुतागार ||७४ || गार्हस्थ्याश्रम दूसरा जो सत्र का आधार । दुनिया इस पर चल रही यह सच्चा संसार || ७५|| यदि गृहस्थ आश्रम न हो हो सब सन्तति-हीन । जीते मर जाये सभी पैदा हों न नवीन ॥७६॥ - मुलाधार ॥७३॥ न पड़े संस्कार | Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] कृष्ण-गीता उत्पादन सारा मिटे मिटजाये व्यापार । अर्थ काम का नाश हो हो सब अनागर ॥७७॥ मुनि भिक्षा पावें कहाँ बने वचन मन दीन । कणकण को तरसे सभी जैसे जल विन मीन ||७८।। सारे आश्रम नष्ट हो मिट जाये घर द्वार । महामृत्यु नाचे यहाँ रह न सके संसार ||७९।। वानप्रस्थ है तीसरा कहा अर्ध-संन्यास । धंधे की चिन्ता नहीं और न जग का त्रास ॥८०॥ अगर न वान-प्रस्थ हो कब पावे नर चन । ज्यों कोल्हू का बेल त्यों चकरावे दिन रैन ।।८१॥ होता है संन्यास में गृह-कुटुम्ब-संन्यास । मुक्ति सुलभ होती यहीं हटते सारे त्रास ॥८२॥ मुक्त मूर्त कैसे बने अगर न हो संन्यास । मिल न सके निर्द्वद सुख हटे न मन का त्रास ॥८३।। चारों आश्रम व्यर्थ हैं चारों से कल्याण । पर इनका एकान्त हो तो न जगत का त्राण ॥८४॥ यदि जन-सेवा के लिये यौवन में संन्यासलिया गया अपवाद से तो न धर्म का ह्रास ॥८५॥ आवश्यक अपवाद यह इस में कौन विरोध । जहां समन्वय शक्ति है वहीं सत्य की शोध ॥८६॥ भक्ति सब धर्मो में भक्ति है सब में है भगवान । सब धर्मों में त्याग है सब धर्मों में ज्ञान ।।८७॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय ईश्वर की है कल्पना निज निज मन अनुसार । मन में जो बस जाय वह जीवन का आधार ||८८|| सब ही प्राणी हैं यहां निर्बल क्षुद्र अनीश | इसीलिये हैं चाहते 'हो कोई जगदीश ' ॥८९॥ जगकर्ता हो या न हो लेकिन हो आदर्श | मनको सान्त्वन दे सदा जिसका ध्यान विमर्श || ९० ॥ अगम अगोचर शक्ति हो या लोकोत्तर व्यक्ति । या सुखकर सिद्धान्त हो मन करता है भक्ति || युग्म || विपदाएँ जब हों विकट कोई हो न सहाय । लेकिन जिसके ध्यान से मनमें बल आ जाय ॥ ९२ ॥ मन विपदाएँ सहसके होकर वज्र समान । व्यक्ति शक्ति सिद्धान्त या वही कहा भगवान || ( युग्म ) || सत्य, शक्ति, कर्ता, नियति सब ऐश्वर्य - निधान ॥ करते हैं संसार का क्षेम सभी भगवान ॥ ९४ ॥ नाम रूप कोई रहे सब की भक्ति समान । सत्य-भक्ति होती जहां वहीं वसा भगवान || ९५|| मसक तेरे जलसिन्धु को पाकर वायु सहाय । भक्ति पा जाय ॥९६॥ करता इच्छित काम | जीव तेरे संसार को अगर मन प्रचंड है अश्वसम वशमें आ जाता तभी जब हो भक्ति लगाम ॥९७॥ मुर्दे मन भी भक्ति दुष्ट हृदय भी भक्ति से [ १०१ सं से हो जाते हैं शक्त 1 हो जाते अनुरक्त || ९८ || Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] कृष्ण गीता सब धर्मो में हो रहा भक्ति--योग का गान । भक्ति - विरोध वहीं हुआ जहां रहा अज्ञान ॥ ९९ ॥ कोरा भक्त अगर बना स्वकर्तव्य को भूल । भक्ति निकम्मी हो गई ढोंग - रूप सुख - शूल ॥१००॥ सत्पथ पर हम दृढ़ रहें इसीलिये है भक्ति | भावना - शक्ति ॥ १०१ ॥ वह मन का आधार है और ज्ञान कर्म भी हैं वहां जहां भक्ति निर्दोष । पूर्ण संतोष ॥ १०२ ॥ तीनों सहयोगी बनें तभी होते सम्यग्ज्ञान के भक्ति कर्म भी साथ | प्रेम और कृति के बिना क्या आ सकता हाथ ॥ १०३ ॥ ऋषि मुनि ज्ञानी तीर्थकृत् अर्हत जिन अवतार । सत्य- भक्ति रखकर किया सबने कर्म अपार ॥ १०४॥ ज्ञानी बन बनबैठते अगर कर्म से हीन । देते कैसे जगत को सत्सन्देश नवीन ॥ १०५ ॥ त्याग जहां त्याग है है वहां भक्ति ज्ञान सत्कर्म । अविवेकी का त्याग क्या ज्ञान-हीन क्या धर्म ॥ १०६॥ छूट गया यदि मोह तो छूट गया दु:स्वार्थ । मगर छूटना चाहिये क्यों जनहित परमार्थ ॥ १०७॥ वनवासी अथवा गही अम्बर--धर या नग्न | कैसा भी हो रह मगर सेवा में संलग्न || १०८॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्याय [१०३ भक्ति ज्ञान या कर्म से सेवा का न विरोध । जहां न ये तीनों वहां व्यर्थ त्याग की शोध ॥१०९॥ अगर किसी को मुख्यता मिले काल अनुसार । तो न शेप का नाश है यह है धर्म-विचार ॥११०॥ सब धी में कर्म है एक सभी का मार । मत्य न्याय की हो विजय हो सुखशान्ति अपार ॥१११॥ पद्मावती सब धर्म परस्पर निर्विरोध सब में भगवान समाया है । मवने इन नाना रूपों में बम कर्मयोग ही गाया है। मन्नीति रहे जगमें जिससे वह ही सद्धर्म बताया है । त कर अपना कर्तव्य-कर्म जो तेरे मन्मुख आया है ।।११२।। (६९२) मातरम Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] कृष्ण-गीता तेरहकाँ अध्याय 10 अर्जुन- गीत २६ माधव तुम हो सच्चे ज्ञानी । तुम ही दूर करोगे मेरी भव-भव की नादानी ॥ माधव तुम हो सच्चे ज्ञानी ॥१॥ मर्म धर्म का नहीं समझती यह दुनिया दीवानी । धौम द्वेपाग्नि लगी है मानों जलता पानी ॥ ___ माधव तुम हो सच्चे ज्ञानी ॥२॥ दुनिया भूली प्रेम-धर्म की मुग्वकर मत्य कहानी । दीवानी दुनिया ने माधव कैसी शठता ठानी ॥ माधव तुम हो सच्चे ज्ञानी ॥३॥ घटघट के पट खोले तुमने अन्तज्योति दिखानी । इस चतन प्रकाश में सबने धर्म-मूर्ति पहिचानी ।। माधव तुम हो सच्चे ज्ञानी ॥४॥ दोहा सर्व-धर्म-मम-भाव के ज्ञान-मंत्र का दान । तुमने माधव कर दिया किया बड़ा अहसान ॥५॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय फिर भी शंका हो रही चित्त हुआ है खिन्न | सब के दर्शन भिन्न क्यों तत्त्व विवेचन भिन्न ||६|| धर्म धर्म जब एक हैं दर्शन में क्यों टेक | मंत्र-सिद्धि में हो रहा विकट विघ्न यह एक ||७|| गीत २७ धर्म-शास्त्र का मर्म समझले भाई । दर्शन-शास्त्रों को देदे तनिक विदाई || । तुझको अपना कर्तव्य कर्म करना है अपनी परकी जग की विपत्ति हरना है । पुरुषार्थ दिखाकर दुःख - सिन्धु तरना है । विपदाओं में भी अटल धैर्य धरना है || यह कर्म सिखाता धर्म परम सुखदाई | तू धर्मशास्त्र का मर्म समझले भाई ॥ ८॥ ईश्वर है कोई या कि वचन का छल है । वह कर्ता है या नहीं अचल या चल है । क्यों करता यह अफसोस बना निर्बल है । तृ समझ मर्म की बात 'कर्मका फल है ' ॥ जिस तरह बने तू मान 'कर्म फलदाई' । , भाई ||९|| श्रीकृष्ण [ १०५ धर्म-शास्त्र का मर्म समझले जग मूल रूप में एक विविधता माया । या प्रकृति पुरुष ने मिलकर खेल बनाया । या पंचभूत ने नाटक है दिखलाया । इन बातों में क्या धर्म-तत्र है गाया ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता कर्तव्य यहां क्या देता है दिखलाई । तृ धर्म-शास्त्र का मर्म समझले भाई ॥१०॥ है क्षणिकवाद ही सत्य जगत चंचल है । या नित्यवाद में युक्ति तर्क का बल है । या कुछ अनित्य कुछ नित्य वस्तुका दल है। यह धर्म विषय में सब विवाद निष्फल है। इसमें किसने क्या आत्मशान्ति है पाई । तृ धर्म-शास्त्र का मर्म समझले भाई ॥११॥ तूने जग परिमित या कि अपरिमित जाना । या ठाना तूने द्वीप-समुद्र बनाना । उनमें फिर कोई मुक्ति-धाम भी माना । फिर अन्य किसीने भिन्नरूप मत ठाना । इन मत-भेदों ने धर्म-कथा क्या गाई । तृ धर्म-शास्त्र का मर्म समझले भाई ॥१२॥ दर्शन खगोल भूगोल गणित पढ़ जाओ । नाना शास्त्रों में अपनी बुद्धि लगाओ । पांडित्य बढ़ाओ कला-प्रेम दिखलाओ । पर धर्मशास्त्र का अंग न उन्हें बनाओ। वह धर्म-शास्त्र जिसने सन्नीति सिखाई । तू धर्म-शास्त्र का मर्म समझले भाई ॥१३॥ अर्जुन-- दोहा दर्शन का यदि धर्म से रहे नहीं सम्बन्ध । ध्येय रहे प्रत्यक्ष क्या धर्म बने तब अन्ध ॥१४॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवा अध्याय [ १०७ मुक्ति न हो ईश्वर न हो और न हो परलोक । धर्म करे जग किस लिये वृथा पापकी रोक ॥१५॥ श्रीकृष्ण--- धर्म कहा सुख के लिये रख तृ उस पर ध्यान । मुक्ति ईश परलोक को मतकर ध्येय प्रधान ॥१६॥ मुक्ति मान नहीं या मान तू परम मुक्ति का धाम । बहु-जनका कल्याणकर हुए पूर्ण सब काम ॥१७॥ मुक्ति मानकर यदि किया निज पर का कल्याण | मुक्ति रहे अथवा नहीं हुआ दुःख से त्राण ॥१८॥ 'सदाचार फल सुख सदा' मानी इतनी बात । मुक्ति न मानी क्या गया रहा धर्म दिनरात ॥१९॥ दुख में भी सुख दे सके यही मोक्ष का कार्य । सिद्धशिला वैकुण्ठ या है न इसे अनिवार्य ॥२०॥ मैं तुझ से हूँ कह चुका यहीं मोक्ष संसार । किधर ढूँढता मोक्ष तू अपनी ओर निहार ॥२१॥ मनको मोक्ष तभी मिले जब हो मन में धर्म । धर्म तभी मिल पायगा, जब हों दूर कुकर्म ॥२२॥ नित्य मुक्ति हो या न हो सुख चाहें सब लोक । इसीलिये मत बोल तू वृथा पाप की रोक ॥२३॥ अर्जुन नित्य मुक्ति यदि हो नहीं व्यर्थ हुए सत्कर्म । थोड़े से सुख के लिये कौन करेगा धर्म ॥२४॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] श्रीकृष्ण कृष्ण-गीता तेरी शंका है वृथा जगकी ओर निहार । थोड़े से सुख के लिये नाच रहा संसार ||२५|| ज्यों कोल्हू का बैल त्यों दिन भर फिरते लोग । दिनभर जीने के लिये करते तामस योग || २६॥ सुबह लिया पर शाम को फिर है खाली पेट । इतने से सुख के लिये है जग का आखेट ||२७|| जब कणकण सुख के लिये करते नित्य कुकर्म । तब मन भर सुखके लिये क्यों न करेंगे धर्म||२८|| पारिलौकिकी मुक्ति की सारी चिन्ता छोड़ । मिले मुक्ति-सुख इसलिये पाप - जाल दे तोड़ ||२९|| ईश्वर ईश्वर की चिन्ता न कर घटघट मे भगवान | मत्य-ज्ञान-आनन्द-मय जगत्पिता गुणखान ॥ ३०॥ 'पुण्यपाप जो कुछ करो उसका फल अनिवार्य' । इस प्रकार विश्वास हो यह ईश्वर का कार्य ॥ ३१ ॥ जिसको यह विश्वास है मिला उसे भगवान । आस्तिक नास्तिककी यही है सच्ची पहिचान ||३|| ईश्वरवादी हैं बहूत करें नाम का जाप । पर भीतर ईश्वर नहीं वहाँ भरा है पाप ॥३३॥ ईश्वर ईश्वर सब कहे पर न करें विश्वास | यदि ईश्वर-विश्वास हो रहे न जग में त्रास ॥ ३४॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय पर की आँखों में जगत तब क्यों डाले धूल । जब ईश्वर है देखता दंड-अनुग्रह-मूल ॥३५॥ श्रद्धा ईश्वर पर रहे रहे परस्पर प्यार । दिख न पड़ें तब जगत में चोरी या व्यभिचार ॥३६॥ श्रद्धा ईश्वर पर नहीं और न उसका ज्ञान । इसीलिये है पापमय यह संसार महान ॥३७॥ गीत २८ जगत तो भूला है भगवान । हुआ है छलनामय गुणगान ॥ जगत अगर जगदीश मानता । यदि अमोघ फलदान जानता । तो क्यों फिर विद्रोह ठानता । क्यों होता इस धरणीतल पर पापों का सन्मान । जगत तो भूला है भगवान । हुआ है छलनामय गुणगान ॥३८॥ यदि होता विश्वास हमारा । ईश्वर-व्याप्त जगत है सारा । तो असत्य क्यों लगता प्यारा ॥ धूल झोंकते क्यों पर की आँखों में हम नादान । जगत तो भूला है भगवान । हुआ है छलनामय गुणगान ॥३९॥ 'दुनिया को क्या अन्ध बनाया । जब जगदीश्वर भूल न पाया । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ] कृष्ण-गीता हमने ही तब धोखा खाया । पर इम सीधी मरल बात का है किस किस को ध्यान । जगत तो भला है भगवान । हुआ हैं छलनामय गुणगान ॥४०॥ पापों से बचकर न रहेंगे । ईश्वर ईश्वर सदा कहेंगे । लड़ लड़कर सब कष्ट सहेंगे ॥ ईश्वर-भक्ति न जान इसे तू है कोरा अभिमान । जगत तो भला है भगवान । हुआ है छलनामय गुणगान ॥४१॥ पापों से जो रहता न्यारा । उसको ही है ईश्वर प्यारा । है मत्कृति में ईश्वर-धारा ॥ ईश अनीशवाद का रहने दे कोरा व्याख्यान । जगत तो भूला है भगवान । हुआ है छलनामय गुणगान ॥४२॥ दोहा कोई ईश्वर मानते कोई माने कर्म ।। फल पर यदि विश्वास हो तो दोनों ही धर्म ॥४३॥ सदसत् कमी की नहीं यदि मन में पर्वाह । सारे वाद वृथा गये मिली न सुख की राह ॥४४॥ कर्मवाद भी व्यर्थ है यदि न कर्म का ध्यान । पुण्य पाप का ध्यान हो तो सब बाद महान ॥४५॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय [११.. __ गीत २९ वथा है कमवाद का गान । नहीं यदि मकर्मों का ध्यान ॥ यदि ईश्वर को दूर हटाया । युक्ति तर्कका खेल दिखाया । कर्मवाद का शंख बजाया । नथ्य मन्य फिर भी न बना र्याद हुआ न कृतिका भान । वृथा है कर्मवाद का गान । नहीं यदि सत्कर्मों का ध्यान ॥४६॥ कर्म क्षमा न करेगा भाई । वह न सुनेगा कभी दुर्हाई । लेलेगा वह पाई पाई । जैसी करनी वैसी भरनी कर्मवाद पहिचान । वृथा है कर्मवाद का गान । नहीं यदि सत्कर्मों का ध्यान ॥४७॥ अँधियारा हो या उजियाला । हो या नहीं देखनेवाला । पिया किसीने विष का प्याला । होगी मौत, भले ही विषका हो गुणगान महान । वृथा है कर्मवाद का गान । नहीं यदि सत्कर्मों का ध्यान ॥४८॥ दोहा कर्म मानकर यदि रहा पुण्य पाप का ध्यान । ईश्वर माना या नहीं है आस्तिक्य महान ॥४९॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता दर्शन - शास्त्र - विवाद ये समझ न धर्माधार । धर्म यही हैं सकल जग पावे तेरा प्यार || ५०|| ईश्वरवादी मानले ईश्वर का संसार । ईश्वर के संसार पर क्यों हो अत्याचार ॥ ५१ ॥ * कोई देखे या नहीं देखे ईश्वर- दृष्टि । इसीलिये छिपकर कभी कर न पाप की सृष्टि ॥५२॥ सम्राटों से भी बड़ा है वह न्यायाधीश । उससे छिप सकता न कुछ व्यापक वह जगदीश । ५३ अगर छिपाया जगत से तो भी है निःसार । ईश्वर से क्या छिप सके जिसकी दृष्टि अपार ॥ ५४ ॥ छलसे यदि पाया नहीं यहां पाप का दंड | पापी पायेगा वहां ईश्वर - दंड प्रचंड ॥ ५५ ॥ ऐसी श्रद्धा है जहां वहां न रहता पाप । पापहीन पर ईश की करुणा अपने आप || ५६ ॥ कर्मवाद जिसने लिया उसका है यह कार्य । जगको धोखा दे नहीं फल मिलना अनिवार्य ॥ ५७॥ दुनिया फल दे या न दे अटल कर्म का दंड | कर्म शक्ति करती सदा खंड खंड पाखंड ॥५८॥ है गवाह अथवा नहीं कर्म को न पर्वाह । भला कभी क्या देखता विष गवाह की राह ॥ ५९ दोनों बाद सिखा रहे हमें एक ही बात । सदसत् कर्मों का यहां फल मिलता दिनसत || ६०॥ . १२] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय दोनों का दर्शन जुदा किन्तु धर्म है एक । 'घड् दर्शन के भेद से धर्मे में न कुटेक ॥ ६१ ॥ परलोक आत्मतत्त्व ध्रुव सत्य है है उसका परलोक । इसीलिये ही मौत का करें न बुध-जन शोक || ६२॥ फटे पुराने वस्त्र सा छोड़ा एक शरीर । तभी दूसरा मिल गया क्यों होना दिलगीर ॥ ६३॥ आत्मसिद्धि हैं कर रहे अनुभव और विवेक | फिर भी दर्शन - शास्त्र की यह है गुत्थी एक ॥६४॥ है निःसार विवाद यह इसका कभी न अन्त । इसीलिये पडते नहीं इस झगड़े में मन्त || ६५|| अपने अनुभव से करें वे आत्माका ध्यान । अजर अमर चैतन्यमय आत्मा शक्ति - निधान ॥६६॥ आत्मतत्त्व जब नित्य है तब परलोक अरोक | मृत्यु - अनन्तर जो मिले वही कहा परलोक ॥६७॥ है न कहीं परलोक की कोई जगह विशेष | जगह जगह परलोक है आत्मा का नववे ॥६८॥ पाया है परलोक यह पूर्व जन्म के बाद -- हम सब हैं परलोक मे भले नहीं हो याद ॥ ६९ ॥ यह छोटी सी जिंदगी है छोटा सा खेल | यह पूरा जीवन नहीं कुछ घड़ियोंका मेल यह जीवन दुखमय रहे फिर भी हों न निराश । आत्माका जीवन बहुत कभी न उसका नाश ॥ ७१ ॥ ॥७०॥ [ ११३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] कृष्ण-गीता स्वकर्तव्य करते रहें भले सहें फिर पीर । यहां नहीं तो है वहां बने रहें कुछ धीर ॥७२॥ अजब काई धर्म की कभी न मारी जाय । यह हुंडी ऐसी नहीं जो न सिकारी जाय ॥७३॥ इस जीवन का कष्ट सब है क्षणभर का कष्ट । क्षणभर के सुख के लिये समता करें न नष्ट ।।७४॥ कालचक्र है अवनि-सम जीवन रेणु-समान । एक रेणुकण के लिये क्यों हों चिन्तावान ||७५|| यही व्यापिका दृष्टि है आत्म-तत्व का अर्थ । बाकी वादविवाद सब शक्ति-क्षीणकर व्यर्थ ॥७६॥ अगर न पाई दृष्टि यह व्यर्थ आत्म-गुण-गान | जो थोड़े में फँस रहा वही बना नादान ॥७७॥ जीवन बलि हो जाय यह कर मत कुछ पर्वाह । बस अपना कर्तव्यकर चल जनहितकी राह ॥७८॥ जिसने पाया अर्थ यह उसे मिला परलोक । रहा कर्म में लीन पर हुआ न अणुभर शोक ||७९|| आत्मा माने या नहीं है उसका कल्याण । उसने पाया धर्म से आत्मवाद का प्राण ॥८०॥ आत्म-अनात्म-विवाद है दर्शन का ही अंग । इस विवाद को कर नहीं धर्मशास्त्र के संग ॥८१॥ नाम लिया परलोक का किये ओट में पाप । 'मत' अनात्मवादी तभी बनत अपने आप ॥८२॥ आत्मवाद के साथ में रह न सकेगा पाप । अगर पाप है तो लगी बस अनात्मकी छाप ॥८३॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय . [ ११५ आत्मा माने या नहीं अगर नहीं है पाप । आत्म-ज्ञान वह पागया दूर हुए सब ताप ॥८४॥ पारलौकिकी सृष्टि की सारी चिन्ता छोड़ । जा अपना कर्तव्य है उससे नाता जोड़ ॥८५॥ कहां बसा परलोक है इसका कर न ख़याल । तुझे फँसा ले जायगा दुष्ट वितंडा-जाल ॥८६॥ यदि यह जीवन धर्ममय ता पर-जाम महान । होता है सद्धर्भ का सुख में पर्यवसान ॥८७॥ इतना ही विश्वासकर ले यह जन्म सुधार । सब धर्मीका ध्येय है हो सुखशान्ति अपार ॥८८॥ जब समाज के बीचमें छा जाते हैं पाप । सत्य-अहिंसा-पुत्र तब आते अपनेआप ॥८९॥ दूर हटावें जगत के जो नर अत्याचार । वे कहलाते हैं यहां तीर्थंकर अवतार ॥२०॥ चलकर दिखलाते सुपथ बतलाते सदुपाय । मिट जाते हैं अन्त में अन्यायी। अन्याय ॥९१।। कष्ट यहां के नष्ट हो सब धर्मों का ध्येय । इसी ध्येय की पूर्ति को चर्चा चले अमेय ॥१२॥ दुनिया का उद्धार कर पाप-प्रगति दे रोक । बिना कहे आजायगा मुठी में पर-लोक ॥९३।। अर्जुन- द्वैताद्वैत मुक्ति ईश परलोक की चिन्ता कर दी दूर । एक बात पर कर रही मनको चकनाचूर ॥९४॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] कृष्ण-गीता द्वत और अद्वत म हृदय रहा है झूल ।। बतलादो मुझको सख, कौन यहां अनुकूल ॥१५॥ ब्रह्म एक ही सत्य है कहते ऋषि मुनि आर्य । मायामय संसार यह करूं वृथा क्यों कार्य ॥९६॥ सुलझ सुलझकर उलझती ज्ञात बनी अज्ञात । डाल डाल से जारही पातपात पर बात ॥९॥ श्रीकृष्ण-~ तूने दर्शन-शास्त्र का पिंड न छोड़ा पार्थ । इसीलिये भ्रम में पड़ा भूल गया परमार्थ ॥९८॥ 'जगत मूल में एक है अथवा हैं दो तत्त्व' धर्म मिलेगा क्या यहां क्या है इसमें सत्त्व ॥९.९॥ मिट्टी के हैं दस घड़े उनकी दशा न एक । अगर एक मिट जाय तो फिर भी बचें अनेक ॥१००il दुग्ध रक्त पर है लगी एक तत्व की छाप । रक्तपान में पाप पर दुग्धपान निष्पाप ॥१०१॥ उपादान यदि एक है जुदे जुदे हैं कार्य । तो सुखदुख या नाशका ऐक्य नहीं अनिवार्य ।१०२ एक ब्रह्म ही बन रहा वध्य-वधक का मूल । तो भी हिंसकता नहीं जीवन के अनुकूल ॥१०३॥ है सुख दुख के मूल में एक चेतना तत्त्व । तो भी सुखको छोड़कर दुःख न चाहें सत्त्व ॥१०४॥ एक तत्त्व की बात है जीवन में निःसार । धर्मशास्त्र में व्यर्थ यह द्वैताद्वैत विचार ॥१०५॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्याय [११५ अंगी अंग जुदे जुदे यही भेद-विज्ञान । धर्मशास्त्रका द्वैत है रख तू इसका ध्यान ॥१०६॥ जहां भेद-विज्ञान है वहां न रहता पाप । आत्मा क्यों तन के लिये सहने बैठे ताप ॥१०७॥ धर्म कहे अद्वैत को विश्व-प्रेम का रंग । स्वार्थ मिले परमार्थ में दोनों का हो संग ॥१०८॥ मान द्वत--अद्वैत या दोनो हैं निर्दोष । किन्तु अर्थ करते समय धर्म-शास्त्र कर कोप ॥१०९।। माया है या सत्य जग इसकी चिन्ता छोड़ । तेरा जो कर्तव्य है उसके मुँह मत मोड़ ॥११०॥ यदि माया है विश्व तो माया तेरा कार्य । माया के दर्वार में माया है अनिवार्य ॥१११॥ माया ही सब दुःख है माया सकल उपाय । माया देने में भला तेरा क्या लुटजाय ॥११२॥ तुझ पर अत्याचार में था माया का मेल । तो उसका प्रतिकार भी है माया का खेल ॥११३॥ मायामय खींचा गया अगर द्रौपदी चीर । दुःशासन की मौत भी माया, फिर क्या पीर ॥११॥ भागा बारह वर्ष तक मायामय वनवाम । अब मायामय राज्य कर इसमें कसा त्रास ॥११५॥ सब माया का खेल है पर न अधुरा खेल । जब तक खेल मिटे नहीं तब तक चोटे झल ॥११६॥ अब तक खेला खेल तु अब क्यों करता त्याग । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] कृष्ण-गीता माया के संसार में माया राग विराग ॥११७॥ राजा बन या रंक बन ले घर या संन्यास । मायामय संसार सब कहाँ करेगा वास ॥११८॥ माया ब्रह्म अभिन्न हैं भीतर तनिक टटोल । ब्रह्म सिन्धु जल तुल्य है माया जल-कल्लोल ॥११९॥ ब्रह्महीन माया नहीं ब्रह्म न मायाहीन । नित्य अनित्य भले रहें किन्तु परस्पर लीन ॥१२०॥ एक छोड़कर दूसरा मिल न सकेगा पार्थ । जहां समन्वय उभय का वहीं रहा परमार्थ ॥१२१॥ बाहर माया दिख रही कर बाहर सब काम । ब्रह्म तुल्य निर्लिप्त रह भीतर तेजो-धाम ॥१२२॥ दर्शन के पार्थक्य से हृदय नहीं कर खिन्न । धर्म-शास्त्र से भिन्न है दर्शन का नय भिन्न ॥१२३॥ दर्शन कोई ले मगर पूर धर्म के प्राण । धर्म-शास्त्र की दृष्टि कर देख स्वपर-कल्याण ॥१२४॥ धर्म धर्म सब एक हैं सब में जनहित सार । सब में सत्येश्वर विजय और पाप की हार ॥१२५॥ सद्धर्मसार ले समझ सत्यका ज्ञान ध्यान में आने दे । दर्शन शास्त्रोंमें झगड़ झगड़ अपनी मति व्यर्थ न जानेदे । कर्तव्य पंथ का दर्शन कर सद्विजय न्याय को पाने दे। मरने को है अन्याय खड़ा तेरे हाथों मर जाने दे ॥१२६। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय [११९ चौदहवाँ अध्याय अर्जुन- दोहा माधव तुमने कह दिया धर्म-शास्त्र-सन्देश । मैं अपना कर्तव्य कर दूर करूंगा क्लेश ॥१॥ दर्शन के झगड़े मिटे मिटाः 'निरर्थक शोर । बुद्धि हृदय खिंचने लगे धर्म-शास्त्र की ओर ॥२॥ धर्म-शास्त्र ही श्रेष्ठ है सब शास्त्रों का शास्त्र । पाप-प्रताड़न के लिये देता यह परमास्त्र ॥३॥ फिर भी मोहित कर रहे विविध-धर्म के ग्रंथ । कैसे मैं निर्णय करूं कैसे पकडू पंथ ॥४॥ श्रद्धा लूं या तर्क लूँ खोजू सारे धर्म । किसका अवलम्बन करूं समझू अपना कर्म ।।५।। अगर बनूं श्रद्धालु मैं करूं अन्ध-विश्वास । तो मानवता नष्ट हो पशुता करे निवास ।।६।। धर्म--परीक्षण क्या करूं चलूं रूढ़ि की गैल । एक जगह नचता रहूँ ज्यों कोल्हू का बैल ||७|| Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १२० ] कृष्ण-गीता देशकाल प्रतिकूल जो करें रूढ़ियाँ वास । उनको दूर न कर सके कभी अन्ध-विश्वास ॥८॥ छाई श्रद्धा इमलिये तर्क रस्त्र लूं हाथ । काट छाँट करने चलूं कर संशय का साथ ॥९॥ करूं परीक्षा बुद्धि से छान सारे धर्म । जीवन भर खोजा करूं सत्य--धर्म का मर्म ॥१०॥ लेकिन क्या हो पायगा कभी खोज का अन्त । बुद्धि तर्क मितशक्ति है जगमें खोज अनन्त ॥११॥ जीवन भर खोजा करूं पा न सकू विश्राम । करने बडूं कब सग्वे मैं जीवन के काम ॥१२॥ छोटी सी यह बुद्धि है है सब शास्त्र अथाह । अगर थाह लेने चलूं हो जाऊँ गुमराह ॥१३॥ ऋषि मुनि तीर्थ कर कहां कहां मन्दमति पार्थ । करूं परीक्षण किस तरह व्यर्थ यहां पुरुषार्थ ॥१४॥ सैन्धव--कण लेने चले यदि समुद्र की थाह । घुले विचारा बीच मे पा न मके अवगह ॥१५॥ बिना परीक्षण के अगर मिल न सके सद्धर्म । मन्दबुद्धि संसार यह कैसे करे मुकर्म ॥१६॥ श्रद्धा से गति है नहीं तर्क से न विश्राम । करुणा कर बोलो सखे कर्म कौनसा काम ॥१७॥ मन कहता कुछ बात है बुद्धि दूसरी बात । करूं समन्वय किस तरह हो न परस्पर घात ॥१८॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय [१२१ श्रीकृष्ण बुद्धि हृदय दोनों मिले दोनों हों अनुकूल | सत्येश्वर-दर्शन तभी सकल सुखों का मूल ॥१९॥ श्रद्धाहीन न तर्क हो श्रद्धा हो न अतर्क । वर्तमान दोनों रहें तो हो सुखद उदर्क ॥२०॥ श्रद्धा श्रद्धा यदि पाई नहीं व्यर्थ बुद्धि का खेल । सुख-प्रसूति होती तभी जब दोनों का मेल ॥२१॥ सात्त्विक राजस तामसी श्रद्धा तीन प्रकार । निश्चय होना चाहिये सात्विक के अनुसार ॥२२॥ साविक श्रद्धा है वही जो न कभी छलरूप । बुद्धि-तर्क-अविरुद्ध जो सत्यभक्ति--फलरूप ॥२३॥ स्वार्थवासनाशून्य जो, जिसमें रहे. विवेक । जिसमें रहे न मूदता रहे सत्य की टेक ॥२४॥ राजस श्रद्धा है वही जहां स्वार्थ की चाह । गुणों की न पर्वाह है सत्य की न पर्वाह ॥२५॥ तामस श्रद्धा है वहां जहां घोर अविवेक । बुद्धि बहिष्कृत है जहां जड़ता का अतिरेक ॥२६॥ रूढ़ि करे तांडव जहां पदपद पर दिन रात । सही न जाये सत्य भी नये रूप की बात ॥२७॥ तामस श्रद्धा छोड़ दे राजस से मुँह मोड़ । सात्त्विक श्रद्धा साथ ले कर सुकार्य जीतोड़ ॥२८॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] कृष्ण गीता मात्त्विक श्रद्धा के बिना बने न कोई काम । मंशय में डोला कर मिले न सुग्व का धाम ॥२९॥ जब तक श्रद्धा हो नहीं तबतक व्यर्थ विचार । श्रद्धा-हीन विचार का हो न सके व्यवहार ॥३०॥ वल तर्क के ग्वल सब पर श्रद्धा के अर्थ । देव शास्त्र गुरु धर्मका हो न परीक्षण व्यर्थ ॥३१॥ तर्क अगर न श्रद्धा आ मकी हुआ परीक्षण व्यर्थ । किन्तु परीक्षण के बिना श्रद्धा एक अनर्थ ॥३२॥ वुद्धि अगर छाटी रहे तो भी हो न हताश । छोटीसी ही आँख में भर जाता आकाश ॥३३॥ मोच न कर पांडित्य यदि हो न सका है प्राप्त । गहज बुद्धि निष्पक्षता दोनों हैं पर्याप्त ॥३४॥ गान भल जाने नहीं जाँच सकें पर गान । मृग अहि आदिक जाँचते बंशी की मृदु तान ॥३५॥ पाकशास्त्र जाने नहीं करे स्वाद प्रत्यक्ष । निपट अपाचक लोग भी स्वाद-परीक्षण-दक्ष ॥३६॥ वैद्यक शास्त्र न जानता पर फल के अनुसार । धंद्य-परीक्षण में चतुर बनना है संसार ॥३७॥ हित अनहित की बात का समझ सकें सब मर्म । मरल परीक्षा धर्म की-क्या है हितकर कर्म ॥३८॥ प्रायः सब जन कर सकें सदसत् की पहिचान । भले बुरे की बात का कठिन नहीं है ज्ञान ॥३९॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय ऋषि मुनि आदिक दे गये अपन युग का ज्ञान । आज ज़रूरी क्या यहां कर इसकी पहिचान ॥४०॥ धर्म-परीक्षण है यही यही शास्त्र का बोध । यह विवेक का कार्य है यही वेद की शोध ॥४१॥ यदि विवेक आया नहीं व्यर्थ शास्त्र का ज्ञान । सब शास्त्रों का मर्म है हित-अनहित पहिचान ॥४२॥ सहज तर्क सब को मिला कर उसका उपयोग । धर्म परीक्षण कर सदा मिटे मूढ़ता रोग ॥४३॥ पक्षपात को छोड़ दे करले शुद्ध विचार । तर्क-सुसंगत बात कर श्रद्धा का आधार ॥४४॥ धर्म निकष बतला चुका रख तु उसका ध्यान । थोड़े में हो जायगा हित-अनहित का ज्ञान ॥४५॥ अर्जुन तर्क कल्पनारूप है उसका व्यर्थ विचार । दे न सकेगा वह कभी परम सत्यका मार ॥४६॥ श्रीकृष्ण-- तर्क न कोरी कल्पना वह अनुभव का सार । अनुभव विविध निचोड़ कर हुआ तर्क तैयार ॥४७॥ नियत साध्य-साधन रहे अनुभव के अनुकूल । सदा अबाधित व्याप्ति हो वही तर्क का मूल ॥४८॥ जितनी मन की कल्पना उतना भ्रम सन्दह । शुद्ध तर्क तो है सदा सत्य ज्ञान का गह ॥४॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] कृष्ण-गीता मिली तर्क में कल्पना सत्य हुआ प्रच्छन्न । सत्य जहां प्रच्छन्न है जीवन वहां विपन्न ॥५०॥ तर्कशास्त्र ले हाथ में कर असत्य को चूर्ण । जो जो सत्य अँचे वहां रख तू श्रद्धा पूर्ण ॥५१॥ देव शास्त्र गुरु जाँचले कर न अन्ध-विश्वास । फिर अविचल श्रद्धालु बन बन जा उनका दास ॥५२॥ श्रद्धा और विवेक से ऐसा नाता जोड़ । सत्यामृत बहता रहे हृदय निचोड़ निचोड़ ॥५३॥ अर्जन देव शास्त्र गुरु हैं बहुत दूँ किन किन को मान । कैसे पहिचानूं उन्हें क्या उनकी पहिचान ॥५४॥ देव कहां है विश्व में कहां देव का धाम । गुरु रहते किस वेष में उनको करूं प्रणाम ॥५५॥ श्रीकृष्ण जीवन के आदर्श जो समझ उन्हें तू देव । झुक जाता उनकी तरफ़ सब का मन स्वयमेव ॥५६॥ पूर्णदेव गुण-देव हैं व्यक्ति देव हैं अंश । व्यक्तिदेव नरदेव हैं करें पाप का भ्रंश ॥५॥ नित्यदेव गुणदेव हैं पाकर उनका सार । बने महात्मा जगत में वे नर-देव अपार ॥५८॥ सभी जगह गुणदेव हैं घटपट में है वास । देख चुका गुणदेव जो हटा उसी का त्रास ॥५९॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय [ १२५ परम भक्त गुणदेव के व्यक्तिदेव गुणखानि । तारे जो संसार को कर पापों की हानि ॥६०॥ गीत ३० सब देवों का दार भरा है भाई । है सत्य सभी का पिता अहिंसा भाई ॥ ये मात-पिता शिव-शिवा ब्रह्म सह माया । परमेश्वर परमेश्वरी गुणों की काया ॥ श्री ी धृति लक्ष्मी बुद्धि इन्हीं की छाया । सब ही शास्त्रों ने गान इन्हीं का गाया ॥ सदसद्विवेक सत्प्रेम-रूप सुखदाई । है सत्य सभी का पिता अहिंसा भाई ॥६१॥ सब सम्प्रदाय हैं स्थान जमाये इन में । सब शास्त्र खड़े हैं शीस नमाये इन में ॥ सारे योगी हैं योग रमाये इनमें । जगके सारे गुणदेव समाये इनमें ॥ है लीन इन्हीं में शक्ति न्याय चतुराई । है सत्य सभी का पिता अहिंसा माई ॥६२॥ इनके जो सच्चे भक्त जगत में आते । वे ऋषि तीर्थकर या अवतार कहाते । इनकी पूजा कर जग-सेवा कर जाते । इनके अनुपम सन्देश जगत में लाते ॥ उनमें भी इनसे देवरूपता आई । सब देवों का दर्बार भरा है भाई ॥६॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता गुणदेव विराज यहाँ सभी के मनमें । जो करें उन्हें प्रत्यक्ष वचन तन जन में । गुण-देव-भक्त वे देव बने नरतन में । नर से नारायण बने इसी जीवन में ॥ उन नरदेवों की अद्भुत पुण्य कमाई । सब देवों का दर्बार भरा है भाई ॥६॥ वे सत्य अहिंसा--पुत्र जगत के भ्राता । जो थे जीवनभर रहे दुखित-जन-त्राता ॥ दुख सहे स्वयं पर जगको दी सुख साता । थे तो मनुष्य पर जगके भाग्य-विधाता ॥ वे पार हुए दुनिया ने महिमा गाई । सब देवों का दौर भरा है भाई ॥६५॥ जिसने गुण-देवों का शुभ दर्शन पाया । जिसने नर--देवों में समभाव दिखाया । बन सत्य-अहिंसा-भक्त जगत में आया । जिसने सेवा कर घर घर रस बरसाया ॥ है धन्य उसी का पिता उसी की माई । सब देवों का दर्वार भरा है भाई ॥६६॥ नरदेवों के वचन या जीवन का इतिहास । सत्पथ-दर्शक शास्त्र है सत्येश्वर का दास ॥६७॥ देशकाल को देखकर व्यक्ति-शक्ति अनुसार । सब शास्त्रों का सार ले जो हो तारणहार ॥६८॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय [ १२७ एक बात अच्छी यहाँ वहाँ बुरी हो जाय । देशकाल अनुकूल जो वही समझ सदुपाय ॥६९॥ मव शास्त्रों को देख तू देशकाल मत भूल । सत्य, असत्य बने वहाँ जहां समय प्रतिकूल ॥७०॥ देशकाल के भेद से दिखता जहां विरोध । समभावी बन, कर वहाँ शुद्धबुद्धि से शोध ॥७॥ त. तो न्यायाधीश है हैं सब शास्त्र गवाह । शुद्ध बुद्धि से न्यायकर अगर सत्यकी चाह ॥७२॥ यदि विकार है शास्त्र में तोभी क्या पर्वाह । सब विकार धुल जाँयगे पाकर बुद्धि--प्रवाह ॥७३॥ शास्त्र-परीक्षण कर सदा करले निकप विवेक । सार सार सब खींचले सब अनेक हा एक ॥७४॥ विधि-दृष्टान्त स्वरूप दो धर्म शास्त्र के भेद । नियम और दृष्टान्त से भरे हुए सब वेद ॥७५॥ मनके तनके वचन के पापों पर परमास्त्र । अन्तर बाहर के नियम बतलाता विधि शास्त्र ॥७६॥ उन नियमों की सफलता या उनका व्यवहार । बतलाते दृष्टान्त हैं धर्मशास्त्र का सार ॥७७॥ नियम बदलते हैं सदा देशकाल-अनुसार । जिनसे जनकल्याण हो हो उनका व्यवहार ॥७८॥ किसी शास्त्र में हैं नियम देशकाल-प्रतिकूल । उन्हें बदल पर रख विनय अहंकार है भूल ॥७९॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कृष्ण गीता बनता काई शास्त्र जब देशकाल वह देख । शास्त्र नियम होते नही कभी वन की रेख ॥८०॥ मत्य अहिंसा हैं अटल सब धर्मोका सार । किन्तु विविधता से भरा है उनका व्यवहार ॥८॥ घबरा मत वैविध्य से देख जगत्कल्याण । टुकड़े टुकड़े जोड़कर पूर सभी में प्राण ॥८२॥ दृष्टान्तों का काम है खींचे जीवन चित्र । महाजनो को देख जन जीवन करें पवित्र ||८३|| ये कल्पित दृष्टान्त हों या कि अकल्पित-तथ्य । नथ्यातथ्य विचार मत हैं दोनों ही पथ्य ॥८४॥ नीति सिखावे जो कथा वह अतथ्य या तथ्य । दोनों में ही सत्य है है वह जगको पथ्य ॥८५॥ पर अतथ्य ऐसा न हो करे न जग विश्वास । अगर असम्मव जग कहे तो है व्यर्थ प्रयास ॥८६॥ मम्भव सी सब को लगे दे सत्पथ की दृष्टि । हुई कथा साहित्य में धर्म--शास्त्र की सृष्टि ॥८७॥ अगर न विश्वसनीय तो क्या उसका उपयोग । झूठी बातें समझकर नाक सिकोड़ें लोग ॥८८॥ बात भल कल्पित रहे पर यदि विश्वसनीय । असर करे तो हृदय पर लगे मत्य कमनीय ॥८९॥ पिघल पिघल कर दिल बहे धुल जायें सब पाप । स्वच्छ हृदय में धर्म हो बिम्बित अपने आप ॥९॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय कथारूप जो शास्त्र हैं उन्हें न कह इतिहास । यद्यपि हैं इतिहास से अधिक सत्यके पास ॥९१॥ जो कुछ होता जगत में उसे सत्य मत मान । जो कुछ होना चाहिये उसे सत्य पहिचान ॥ ९२ ॥ कथा-शास्त्र का है सदा तथ्य-मूल्य कुछ अल्प । सत्य- मूल्य पर है अधिक है कल्याण अनल्प ॥९३॥ देख कथा साहित्य में सच्चरित्र निर्माण । जितना हो निर्माण यह उतना जग- कल्याण ॥९४॥ शास्त्र - परीक्षण कर सदा रख पर ऐसी दृष्टि | मर्म देख जो कर सके सन् शिव सुन्दर सृष्टि ||९५|| गुरु शास्त्र परीक्षण की तरह गुरु की भी कर जाँच । गुरु-वेषी कोई कुगुरु दे न साँचको आँच ॥९६॥ जीवन भी देकर करे निज पर का उद्धार । आधार ॥९७॥ परकार्य । अनिवार्य ॥ ९८ ॥ I [ १२९ बही सुगुरु है जगत में धीरज का मूर्त्तिमंत जो साधुता साधे जो जीवन भर जिसके लिये देना है जितना ले उससे अधिक जगको करता दान । जिसका जीवन बन रहा मूर्तिमंत व्याख्यान ॥९९॥ करके दिखलाता सदा जो कुछ बोले बोल । वह मानव है, है नहीं कोरा बजता ढोल ॥१०-० ॥ वह चरित्र बल से बली वेष न जिसकी पूर्ति । वह मानव है, है नहीं-- जड़ पदार्थ की मूर्ति ॥ १०१ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता पाथों का काड़ा नहीं अनुभव उसका ज्ञान । वह मानव है, है नहीं रट्ट कीर समान ॥१०२॥ उसन पाया है प्रथम मानवता का मान । वह मानव है, है नहीं--पुच्छ--हीन हैवान ॥१०३॥ विनय विवेक सुबन्धुता कर्मठता का गेह । वह मानव है, है नहीं--नर की मुर्दा देह ॥१०४॥ ऐसा सद्गुरु ढूँढले गुणगण का भंडार । जो जहाज बनकर करे भवसागर के पार ॥१०॥ रखकर गुरु का वेष जो करते नाना पाप । उनका भंडाफोड़ कर मिटे जगत का ताप ॥१०६॥ पैर पुजाने के लिये लेते जो गुरुवेष । वे पृथ्वी के भार हैं कर उनको निःशेष ॥१०७|| ज्ञान नहीं संयम नहीं और न पर उपकार । वे कुसाधु गुरु-वेष में हैं पृथ्वी के भार ॥१०८॥ धृत लोग गुरु--वेष में बने रंक से राव । व ससार समुद्र में हैं पत्थर की नाव ॥१०९॥ मम्प्रदाय कोई रहे कोई भी हो वेष । वह गुरु जिसका हो गया अन्तर्मल निःशेष ॥११०॥ गृही रहे संन्यस्त या दोनों एक समान । वह गुरु जिसका है सदा जगके हितपर ध्यान ॥१११॥ कुगुरु-जाल से बच सदा पकड़ सुगुरु का हाथ । अंतिम तत्व न भल पर तू ही तेरा नाथ ॥११२॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय [ १३१ यदि विवेक तुझ में नहीं तो क्या गुरुकी छाप । यदि विवेक है तो बना तू अपना गुरु आप ॥११३।। तुझ में अगर न योग्यता व्यर्थ देव-गुरु-शास्त्र । कायर निर्बल के लिये व्यर्थ सकल दिव्यास्त्र ॥११४॥ हैं निमित्तभर देव गुरु उपादान तु आप । उपादान बेजान तो व्यर्थ निमित्त कलाप ॥११५॥ उपकारी हैं देवगुरु पूज्य इन्हें तू मान । पर पलभर भी भूल मत त अपनी भगवान ॥११६।। सबकी सुन पर सोच खुद देख सुदृष्टि पसार । है शास्त्रों का शास्त्र यह खुला हुआ संसार ।।११७॥ (गीत ३१) भाई पढ़ले यह संसार । ग्वला हुआ है महाशास्त्र यह जिस में बंद अपार । भाई पढ़ले यह मंसार ॥११८॥ अणु अणु में पत्तों पत्तों में लिखा हुआ है ज्ञान | पढ़ सकती अन्तर की आँखें, पढ़े वही विद्वान ॥ है सारा जग विद्यागार । भाई पढ़ले यह संसार ॥११९॥ अनुभव और तर्क दो आँखें अनन मारे बंद । देख सके सो देख भाई काला और सफ़ेद ॥ अद्भुत पुण्य पाप भंडार । भाई पढ़ले यह संसार ॥१२०॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण- गीता कौन पढ़ा सकता है तुझको तुझमें अगर न ज्ञान । सूर्य करे क्या जब हों अपनी आँखें घूक समान ॥ तब गुरु का प्रयत्न बेकार । भाई पढ़ले यह संसार ॥ १२१ ॥ १३२ ] सुन सब की कर अपने मनकी पर विवेक रख संग | अंग अंग में यौवन उछले उछले ज्ञान - तरंग ॥ निज पर सबका हो उद्धार । भाई पढ़ले यह संसार ॥ १२२ ॥ दोहा जो कहना था कह चुका अब तू स्वयं विचार । एक बात में भूल मत चारों ओर निहार ॥ १२३ ॥ क्या कहते सब धर्म हैं क्या कहते गुरु लोग | क्या कहता तेरा हृदय कर सब का संयोग ॥ १२४॥ देख सत्य भगवान का पूर्ण विराट स्वरूप । क्षीरोदधि को देखले छोड़ अन्धतम कूप ॥ १२५॥ उस विराट भगवान के अंग अंग प्रत्यंग | हैं विचित्र सबमें भरे दुनिया के सब रंग ॥ १२६॥ अंग अंग में रम रहे दिव्य दृष्टि से देखले जग कोटि कोटि ब्रह्मांड । के सारे कांड ॥ १२७॥ सर्व धर्म सब नीतियाँ सर्व योग पुरुषार्थ । देख नियम यम ज्ञान सब दिव्य दृष्टि से पार्थ ॥ १२८॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय (पीयूषवर्ष) सत्य शिव सुन्दर अहिंसा साथ है । अर्ध-नारीश्वर जगत का नाथ है । प्राप्त कर उसका सुदर्शन आज त । जानले कर्तव्य के सब साज तृ ॥१२९॥ कवि (हरिगीतिका) श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर पार्थ जब ध्यानी हुए। भगवान के दबीर का दर्शन हुआ ज्ञानी हुए । दग्वा विराट स्वरूप उनने अश्रु तब बहने लगे । रोमाञ्च-अञ्चित-अंग बन श्रीकृष्ण से कहने लगे ॥१३०॥ अर्जुन-- ललितपद पुरुषोत्तम हो रहा मुझे अब दर्शन सत्येश्वर का । करता हूं अपूर्व दर्शन मै नारी का या नर का ।। दक्षिणांग भगवान सत्य है चेतन जग निर्माता । वामांगी भगवती अहिंसा यम नियमो की माता ॥१३१॥ भिन्नाभिन्न अपूर्व ज्योति यह देंग्व रहा हूँ माधव । कोटि कोटि रवि शशि बनते हैं पा पाकर जिसका लव । नित्य दर्शनार्थी योगी जन जिसमें योग रमाने । जो उसका दर्शन पाते वे मुक्ति भुक्ति सब पाते ॥१३२॥ अंग अंग में योग भरे हैं अणु अणु सुखकी छाया । नख नख में पुरुषार्थ तेज है अन्त न जिसका आया ।। तीर्थंकर अवतार रोम-कूपों में भरे हुए है । धर्मबिन्दु से धर्म अनेकों जिनसे भरे हुए हैं ॥१३३।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] कृष्ण-गीता धर्म यहां है अर्थ यहां है काम यहां दिखलाता । भोग यहां है, विविध योग हैं जिनका अन्त न आता । भक्तियोग है सांख्ययोग है कर्मयोग पाता हूँ । सकल यमों के विविध रूप से चकित हुआ जाता हूँ ॥१३४।। प्रेम यहाँ है व्याप्त सकल रूपों में है उसकी जय । सब विरोध हैं शान्त यहाँ पर सब में हुआ समन्वय । संशय नष्ट हुए सब मेरे अब विराट-दर्शन मे । आज्ञा पालन में तत्पर हूं अब मैं तन से मन से ॥१३५।। इस विराट प्रभु के शुभ दर्शन तुमने मुझे कराये । भूला था कर्तव्य पंथ मैं तुम सत्पथ पर लाये ॥ कितना है उपकार तुम्हारा कह कर क्या बतलाऊँ । जीवन भर उपकार तुम्हारे गाऊँ पर न अघाऊँ ॥१३६॥ [हरीगीतिका] माधव सुनाया आज तुमने जो अमर सन्देश है । वह क्लेशहर है सत्यपथ है अब न संशय लेश है ॥ उस पर चलूंगा अब सदा पीछे न पाओगे मुझे । कर्तव्य सब अपने करूंगा जो बताओगे मुझे ॥१३७॥ कवि पद्मावती झुकगये पार्थ यों कहकर के मन में गीता का ध्यान किया । हँसते हँसते योगेश्वर ने अमरत्व दिया आशीष दिया । बनगये पार्थ यों अमरतुल्य था कर्मयोग पीयूष पिया । फिर निर्भय हो हुंकार किया अपने कर में गांडीव लिया ॥१३८॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय [135 सब गर्न उठे भीमादि वीर "आना हो जिनको आजायें / अब तो अत्याचारी अपने अत्याचारों का फल पायें // " जयघोष हुआ चहुँओर वहाँ आगे पीछे दाएँ वाएँ / झनझना उठे सब अस्त्र शस्त्र हुंकार उठीं सब सेनाएँ // 139 // है जहाँ कृष्ण से योगनाथ अर्जुन से हैं बलवीर जहाँ / या जहाँ धनुर्धर पार्थ वीर हैं कृष्ण सरीखे धीर जहाँ / है धर्म वहाँ सत्कर्म वहाँ सन्नीति वहाँ सत्पीति वहाँ / है न्याय वहाँ है विजय वहाँ योगी जीवन की रीति वहाँ // 14 // (958) समाप्त