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नववाँ अध्याय
[६७ हो विभूति मय सदन तन, तनपर हो न-विभूति । मन पर चढ़ी विभूति हो तो है योग--प्रसूति ॥३७॥ राख रमाई क्या हुआ मनपर चढ़ी न राख । तन पर रहा न एक पर मनपर सौ सौ लाख ॥३८॥ देह दिगंबर हो गई मनपर मनभर सूत । बुनकर बन बैठा वहां मोह पाप का दूत ॥३९॥ माला लेकर हाथ में वन वन छानी धूल । पर मन भवनों में रहा माला के मणि भूल ॥४०॥ तनका तो आसन जमा मन के कटे न पाँख । बगुला तो ध्यानी बना पर मछली पर आँग्ख ॥४१॥ रहे परिग्रह या रहे चोरी या व्यभिचार । बाहर ही को देखकर मत निकाल कुछ सार ॥४२॥ घर छोड़ा वनवन फिरा कर घिनावनी देह । मृगनयनी मनमें मगर मन मनोज का गेह ॥४३॥ पलक मीच करने चला मूढ़ योग की पूर्ति । चपलामी चमकी मगर मृगनयनी की मूर्ति ॥४४॥ तम में भी छिपछिप दिखे मन-मोहिनी शरीर । मानों दमके दामिनी अन्धकार को चीर ॥४५॥ बहुत तपस्याएँ हुई कसकर बँधा लँगोट | सह न सका पर एक भी मकर-ध्वज की चोट ॥४६॥ जब तक मन वश में नहीं तबतक कैसा त्याग । भीतर ही भीतर जले विकट अबा की आग ॥४७॥