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कृष्ण-गीता
ग्यारहवाँ अध्याय
न....५१, .. अर्जुन
(ललितपद) माधव जो कर्तव्य--कसौटी तुमने मुझ बताई । साथ माथ सदसद्विवेक की महिमा तुमने गाई ॥ यह अमूल्य सन्देश तुम्हारा पंडित-जनको प्यारा । प्यासे को पीयूष पिलाया ज्यों मरु को जलधारा ॥१॥ भरता पेट नहीं भरता मन 'जितना पीता जाऊंउतना और मिले' मन कहता जीवनभर न अघाऊं ॥ तृष्णातुर बोलो तुम मुझको अथवा मूर्व वताओ। पर मेरी प्रार्थना यही है अमृत पिलात जाओ ॥२॥ कर्तव्याकर्तव्य-कसोटी कसकर मुझे बताई । मुख को ध्येय बताया तुमने सुख की महिमा गाई ।। पर बोलो मुख की परिभाषा कैसे उस को पाऊं । दुःख-कण्टकाकीर्ण जगत में कैसे मार्ग बनाऊं ॥३॥ सुख भीतर की वस्तु कहूँ या बाह्य जगत की माया ।। दोनों सुख के रूप कौन तब उपादेय बतलाया । क्या जीवन का अर्थ किसे पुरुषार्थ कहूं बतलाओ । क्या सुख ही पुरुपार्थ कहा है ठीक ठीक समझाओ ॥४॥