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(.. श्रीकृष्ण-पनिहारी की तरह मनको विभक्त कर (गीत १३) स्थितिप्रज्ञ बन और कर्मकर। चौथा अध्याय -- (स्थिति-प्रज्ञ) पृ. २०
स्थितिप्रज्ञ का स्वरूप-सत्य अहिंसा पुत्र, धर्म-जातिवर्ण लिंग-कुल-समभावी, निःपक्ष, विचारक, इन्द्रियवशी, मनोजयी,
अहिंसक और न्यायरक्षक, शीलवान्, अपरिग्रही, मदहीन, नीतिमान्, निःकषाय, पुरुषार्थी, कलाप्रेमी, कर्मठ, निर्द्वन्द, या अयश का जयी, सेवाके पारितोषक से लापर्वाह, उत्साही सन्चा साधु जो हो वही स्थितिप्रज्ञ है ऐसा स्थितिप्रज्ञ बनकर कर्मकर । पाँचवाँ अध्याय--(सर्व-जाति-समभाव ) पृष्ठ २७
अर्जुन के द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति और शंका-जाति-समभाव क्यों ? क्या विषमता आवश्यक नहीं है । श्रीकृष्ण का उत्तरविषमता आवश्यक है पर समताहीन नहीं (गीत १४) मनुष्य जाति एक है उसमें जाति भेद न बना (गीत १५) जातियाँ कर्म-प्रधान हैं (गीत १६) जाति-भेद बाजार की चीज है, देशकाल देखकर सुविधानुसार रखना चाहिये, मद न करना चाहिये [गीत १७] । अर्जुन-जातिभेद प्राकृत न हो पर निःसार क्यों ? वह कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल क्यों ? श्रीकृष्ण---जातिभेद जब बेकारी दूर करता था और वैवाहिक आदि स्वतंत्रता में बाधक न था तब अच्छा था अब वह विकृत है। भेद रहे पर जाति-भेद बनकर नहीं, जाति-मोह की बुराइयाँ, तू जाति-कुल कुटुम्ब आदि का मोह छोड और कर्म कर।