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कृष्ण-गीता प्रतिकूल से प्रतिकूल विषयों की व्यथा जिसको नहीं ।
नीरस सरस कुछ भी रहे दुखकी कथा जिसको नहीं॥ ९॥ जो है मनोविजयी न जिसको मन नचा पाता कभी । दुर्वत्तियों को पीसता उनके न वश आता कभी ।। मनको बनाता देव-मन्दिर प्रेम--सिंहासन जहाँ । माता अहिंसा का तथा सत्येश का आसन जहाँ ॥ १० ॥
जिसका अहिंसा व्रत रहे ध्रुव मेरुमा निश्चल सदा । दुःस्वार्थ के कारण न जग पर डालता जो आपदा ।। हो पूर्ण करुणा-मूर्ति कायरता मगर आने न दे ।
जो न्याय को जलने न दे अन्याय को फलने न दे ॥११॥ जो वज्रसा भी हो कठिन पर फूलसा कोमल रहे । अन्यायियों पर हो अनल न्यायोजनों पर जल रहे || आपत्तियों की चोट सहने का हृदय में बल रहे । सत्प्रण किया तो कर लिया पालन करे निश्चल रहे ॥ १२ ॥
जिसकी तराज न्याय की कोई हिला सकता नहीं । अन्याय को अणुमात्र भी सुविधा दिला सकता नहीं ।। या लाँच रिश्वतकी कभी मदिरा पिला सकता नहीं ।
सम्बन्ध से पक्षान्धता का विप मिला सकता नहीं ॥१३॥ यदि एक पलड़े पर रखी संसार की सम्पत्ति हो । भय और विपदाएँ रहें सम्राट की भी शक्ति हो । पर दूसरे पर न्याय हो तो न्याय ही जय पायगा । गौरव मिलेगा न्याय को अन्याय लघु रह जायगा ॥१४॥